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राजनीति का अर्थ, अर्थ की राजनीति
राजनीति के अर्थ को अगर अनिवार्य प्रश्न के रूप में पूछा जाए तो उत्तर आएगा - ‘सत्ता प्राप्ति’। सत्ता से धन ऐश्वर्य प्राप्ति। सत्ता का चरित्र भ्रष्ट हो गया है यह आम स्वीकारोक्ति है। यहां भ्रष्ट शब्द किसी खास अर्थ में नहीं है। राजनीति में यह भ्रष्टाचार खासा चिन्ता का विषय है। खासतौर पर बौद्धिक वर्ग में। बौद्धिक वर्ग जिसमें समाज, देश को चलाने का मुगालता कूट-कूट कर भरा है। यह वही वर्ग है जो लाइन में लगकर वोट देने में अपनी तौहीन समता है। सरकार बन जाने पर इंगलिशिया तर्ज पर सरकार की हर नीतियों की आलोचना करता है। हरदम आलोचना करता हो ऐसा जरूरी नहीं परन्तु जब उसे मंत्री से, सरकार से अपनी लिए किसी पद, अपने बेटे के लिए नौकरी की जरूरत आन पड़ती है तो प्रशस्ति भी गाता है।
इन खास पहचानों के तहत जीने वाला यह वर्ग विशेषाधिकार प्राप्त है। कल्याणकारी राज्य की संकल्पना इसी के लिए है। इसी वर्ग पर देश के बजट का 65 प्रतिशत हिस्सा व्यय होता है। यही वर्ग सभी परम्पराएं चलाता है जिससे अर्थ, अनर्थ की व्याप्ति होती है।
राजनीति का साफ सा अर्थ हो उठा है - भ्रष्टाचार की व्याप्ति। भ्रष्टाचार में समाप्ति। कौटिल्य के युग से राजनीति की अलग धारणा रही चली आ रही है। अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने जिस राजनीति की बात उठायी है वह भी अर्थ प्रधान रही है। परन्तु उसमें अर्थ को अधिकार और कर्तव्यबोध में ऐसा बांधा गया है कि अर्थ की राजनीति नहीं हो पायी है। वर्तमान राजनीति में इसका अभाव है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद से पहले चुनाव को छोड़कर सभी चुनाव अर्थ प्रधान रहे। यह प्रधानता हमारे बजट और पंचवर्षीय योजनाओं में भी देखी जा सकती है। क्षेत्रवार और प्रदेशवार विकास के लक्ष्योें में भी राजनीति प्रभावी रही है।
जैसे-जैसे अर्थ राजनीति में प्रभावी होता गया वैसे-वैसे राजनीति में चरित्र का संकट बता गया। अर्थ के प्रभावोत्पादकता ने अपरिपक्व लोकतंत्र और भारत की गरीबी का बेहद माखौल उड़ाया। संसद, सत्ता सभी के मूल्यों में गिरावट आयी अर्थ जगत और एम स्मिथ के ‘आर्थिक मानव’ की संकल्पना साकार हो उठी।
इधर पिछले कई दशकों से राजनीति में जो लोग भी आये वे इत्तफाकन ही आए हुए हैं। यह इत्तफाक ऐसे रहा कि वो जीवन के कई क्षेत्रों में सफलता और जीविका की आजमाइश कर चुके थे। असफलता के बाद उन्होंने गांधी के इस रास्ते को चुना। यह दुर्भाग्य है कि देश के नियामक और निर्णायक वर्ग मंे आना इत्तफाकन हो। देश का सबसे घटिया ‘स्टफ’ आये। इसी ‘स्टफ’ के नाते राजनीति के अर्थ बदले और मूल्यों में गिरावट आयी।
मतदाताओं के पास भी वोट के लिए जो निर्णायक मानदण्ड हैं या बने वे हैं - गाड़ियां, बैनर, धोतियां, कम्बल, पैसे-पाउच। इसके बाद कुछ था जो थोड़ा रिफाइन्ड था तो वह था कोरा आश्वासन। कोरी घोषणाएं। रंगीन सपने। यह राजनीति का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दूसरी संसद से अभी तक के सभी चुनावों में किसी भी पार्टी के घोषणा पत्र मंे किये गये वायदे पूरे नहीं हुए। इतना ही नहीं, सभी पाटियों ने जो घोषणाएं कीं उनके पूरे होने की बात तभी उठती थी जब सत्ता उनकी न हो। जिसकी सत्ता थी उसके लिए घोषणा पत्र कागजी पुलिंदा था। महज औपचारिकता था। उनका तर्क सत्ता बनने के बाद यह था कि जिस देश में आधी से ज्यादे आबादी निरक्षर हो उसमें घोषणा पत्र के मायने क्या होता है।
राजनीति को निकट से देखें तो यह पाया जा सकता है कि किसी भी मंत्री के निजी विकास एवं संवृद्धि की वार्षिक दर उसके विभाग के पांच वर्ष के सकल संवृद्धि से ज्यादा होती है। भौतिक वाद में हम पाश्चात्य जगत के अंधानुगामी हैं। पर पाश्चात्य देशों में कोई आदर्श हैं हम स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। हममें भारत के ऐतिहासिक आदर्शबोध की सम्पन्नता का गुमान है। हम भारत के हैं, राजनीति में हैं। लगातार जीतते हैं। सत्ता में हैं। मंत्री हैं। यही हमारे अग्रणी और श्रेष्ठ होने के लिए पर्याप्त है। हमारे राजनेताओं पर चाहे जितने भी आरोप लगें पर उन्हें कुर्सी की नैतिकता का ज्यादा ही तकाजा पता है। उन्हें कुर्सी का ‘डेकोरम’ पता है। वो जानते हैं राजनीति का अर्थ क्या है ? हमारी राजनीति देश प्रेम की सबसे बड़ी ढिंकोरची है परन्तु यह उल्लेखनीय है कि देशद्रोह की सारी की सारी घटनाएं राजनीति से या राजनैतिक संरक्षण से ही हुई है।
अमरीका में क्ंिलटन प्रशासन ने एक महिला का नाम ‘सालिसिटर जनरल’ के लिए कांग्रेस में रखा। उस महिला ने यह कहा कि मैं एक विदेशी व्यक्ति से प्रेम करती।, अतः मैं अपना नाम वापस लेती।। यहां उस महिला का प्रेम देश से ऊंचा भी हो गया और उसने कांग्रेस की पवित्रता भी बरकरार रखी। जापान में कई प्रधानमंत्री लगातार प्रेम और व्यक्तिगत जीवन पर लगे आरोपों के घेरे में आकर इस्तीफा दे चुके हैं परन्तु हमारे यहां सम्भव नहीं है। क्योंकि हमारे यहां राजनीति का अर्थ पता है लोगों को। यहां आरोप लगाने और सत्ता गलती से भी छोड़ देने में राजनीति नजर आने लगती है। यहां राजनीति भी बहुअर्थी है। फिर राजनीति का चरित्र क्यों हो ? अर्थ को बहुअर्थी से निष्पन्न मानने वाले लोग अर्थ की राजनीति से अलग स्वयं को कैसे रख सकते हैं।
जब-जब अर्थ प्रभावी होता है तब-तब नैतिकता भी प्रभावित होती है। अर्थ और नैतिकता का विपरीत रिश्ता है। अतः अर्थ के बढ़ते प्रभाव पर चिंता जताएं या नैतिकता के गिरते स्तर पर। हमारे यहां अर्थ और भौतिकता को ‘वीर भोग्या वसंुधरा’ से जोड़ा जाता है परन्तु नैतिकता के ह्रास पर गहरी चिन्ता है ? यह विरोधाभास राजनीति के अर्थ को न तो तय होने दे रहा है और ना ही अर्थ की राजनीति को रोकने के लिए हमें सक्रिय कर रहा है।
हमने परम्पराओं से कुछ भी सीखना बन्द कर दिया है परम्पराओं पर गर्वोक्ति हमारा जन्म सिद्ध अधिकार हो उठा है। हम भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू और लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नन्दा पर द्रवित जरूर हो उठते हैं उनसे सहानुभूति जरूर है पर हमारे आदर्श हैं हर्षद मेहता और रातों रात ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला कोई भी व्यक्ति, समुदाय।
इंदिरा गांधी का तेल सौदा, राजीव का बोफोर्स और नरसिंह राव का शेयर घोटाला यह सब एक संस्कृति का खुलासा है। यह संस्कृति हमारे आस-पास जड़ें जमा चुकी है। हम इसके आदी हो गये हैं। अभ्यस्त हैं। इसलिए इसके खिलाफ हममें प्रतिक्रिया नहीं होती है। हमारा प्रतिक्रियात्मक स्वरूप शून्य हो गया है।
शेयर घोटालों को ही लें तो महानगरों में रहने वाले आम लोगों में बते शेयर मूल्यों के प्रति एक खास लालच, एक ललक रही। परन्तु आज महानगरों के ही सर्वेक्षण को सरकार बचाने और उसमें कील ठोंकने के हथियार के रूप में अख्तियार किया जा रहा है। किसी भी व्यक्ति में ऐसी नैतिकता शेष नहीं है कि वह यह स्वीकार कर ले कि शेयर के बढ़ते मूल्यों में उसने भी शेयर की खरीद फरोख्त की थी इसलिए वह भी दोषी है।
रेल गाड़ी में यात्रा करते समय टीटीई को अधिक से अधिक रुपये देकर आरक्षण चाहने वाले लोगों की लम्बी कतार होती है। अपनी सीमाओं के कारण टीटीई कुछ ही लोगों को सुविधा शुल्क लेकर शैय्या मुहैय्या करवा पाता है परन्तु सभी लोग टीटीई से ही ईमानदार रहने की आशा करते हैं। जबकि उसके पास बेइमान होने के कई अवसर उपलब्ध हैं। फिर ईमानदारी की आशा ? हमें तो अपना रुपया देना है।
अगर विराम लगाने की प्रक्रिया में हम आहत होने या आहुति देने की अगुवाई नहीं करते तो हमें कार्ल माक्र्स की संस्कृति के उस परिभाषा को स्वीकारना होगा जिसमें निहित है - ‘सभी सामाजिक सम्बन्ध आर्थिक चरों पर निर्भर करते हैं।’ संस्कृति की यह परिभाषा भारत, भारतीयता और हमारे सम्पन्न ऐतिहासिक, दार्शनिक बोध के सामने यक्ष प्रश्न बन कर लटकी रहेगी और भावी पीढ़ियां हमारे इस सांस्कृतिक हस्तानान्तरण के सामने बार-बार सवाल उठाती रहेंगी।
इन खास पहचानों के तहत जीने वाला यह वर्ग विशेषाधिकार प्राप्त है। कल्याणकारी राज्य की संकल्पना इसी के लिए है। इसी वर्ग पर देश के बजट का 65 प्रतिशत हिस्सा व्यय होता है। यही वर्ग सभी परम्पराएं चलाता है जिससे अर्थ, अनर्थ की व्याप्ति होती है।
राजनीति का साफ सा अर्थ हो उठा है - भ्रष्टाचार की व्याप्ति। भ्रष्टाचार में समाप्ति। कौटिल्य के युग से राजनीति की अलग धारणा रही चली आ रही है। अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने जिस राजनीति की बात उठायी है वह भी अर्थ प्रधान रही है। परन्तु उसमें अर्थ को अधिकार और कर्तव्यबोध में ऐसा बांधा गया है कि अर्थ की राजनीति नहीं हो पायी है। वर्तमान राजनीति में इसका अभाव है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद से पहले चुनाव को छोड़कर सभी चुनाव अर्थ प्रधान रहे। यह प्रधानता हमारे बजट और पंचवर्षीय योजनाओं में भी देखी जा सकती है। क्षेत्रवार और प्रदेशवार विकास के लक्ष्योें में भी राजनीति प्रभावी रही है।
जैसे-जैसे अर्थ राजनीति में प्रभावी होता गया वैसे-वैसे राजनीति में चरित्र का संकट बता गया। अर्थ के प्रभावोत्पादकता ने अपरिपक्व लोकतंत्र और भारत की गरीबी का बेहद माखौल उड़ाया। संसद, सत्ता सभी के मूल्यों में गिरावट आयी अर्थ जगत और एम स्मिथ के ‘आर्थिक मानव’ की संकल्पना साकार हो उठी।
इधर पिछले कई दशकों से राजनीति में जो लोग भी आये वे इत्तफाकन ही आए हुए हैं। यह इत्तफाक ऐसे रहा कि वो जीवन के कई क्षेत्रों में सफलता और जीविका की आजमाइश कर चुके थे। असफलता के बाद उन्होंने गांधी के इस रास्ते को चुना। यह दुर्भाग्य है कि देश के नियामक और निर्णायक वर्ग मंे आना इत्तफाकन हो। देश का सबसे घटिया ‘स्टफ’ आये। इसी ‘स्टफ’ के नाते राजनीति के अर्थ बदले और मूल्यों में गिरावट आयी।
मतदाताओं के पास भी वोट के लिए जो निर्णायक मानदण्ड हैं या बने वे हैं - गाड़ियां, बैनर, धोतियां, कम्बल, पैसे-पाउच। इसके बाद कुछ था जो थोड़ा रिफाइन्ड था तो वह था कोरा आश्वासन। कोरी घोषणाएं। रंगीन सपने। यह राजनीति का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दूसरी संसद से अभी तक के सभी चुनावों में किसी भी पार्टी के घोषणा पत्र मंे किये गये वायदे पूरे नहीं हुए। इतना ही नहीं, सभी पाटियों ने जो घोषणाएं कीं उनके पूरे होने की बात तभी उठती थी जब सत्ता उनकी न हो। जिसकी सत्ता थी उसके लिए घोषणा पत्र कागजी पुलिंदा था। महज औपचारिकता था। उनका तर्क सत्ता बनने के बाद यह था कि जिस देश में आधी से ज्यादे आबादी निरक्षर हो उसमें घोषणा पत्र के मायने क्या होता है।
राजनीति को निकट से देखें तो यह पाया जा सकता है कि किसी भी मंत्री के निजी विकास एवं संवृद्धि की वार्षिक दर उसके विभाग के पांच वर्ष के सकल संवृद्धि से ज्यादा होती है। भौतिक वाद में हम पाश्चात्य जगत के अंधानुगामी हैं। पर पाश्चात्य देशों में कोई आदर्श हैं हम स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। हममें भारत के ऐतिहासिक आदर्शबोध की सम्पन्नता का गुमान है। हम भारत के हैं, राजनीति में हैं। लगातार जीतते हैं। सत्ता में हैं। मंत्री हैं। यही हमारे अग्रणी और श्रेष्ठ होने के लिए पर्याप्त है। हमारे राजनेताओं पर चाहे जितने भी आरोप लगें पर उन्हें कुर्सी की नैतिकता का ज्यादा ही तकाजा पता है। उन्हें कुर्सी का ‘डेकोरम’ पता है। वो जानते हैं राजनीति का अर्थ क्या है ? हमारी राजनीति देश प्रेम की सबसे बड़ी ढिंकोरची है परन्तु यह उल्लेखनीय है कि देशद्रोह की सारी की सारी घटनाएं राजनीति से या राजनैतिक संरक्षण से ही हुई है।
अमरीका में क्ंिलटन प्रशासन ने एक महिला का नाम ‘सालिसिटर जनरल’ के लिए कांग्रेस में रखा। उस महिला ने यह कहा कि मैं एक विदेशी व्यक्ति से प्रेम करती।, अतः मैं अपना नाम वापस लेती।। यहां उस महिला का प्रेम देश से ऊंचा भी हो गया और उसने कांग्रेस की पवित्रता भी बरकरार रखी। जापान में कई प्रधानमंत्री लगातार प्रेम और व्यक्तिगत जीवन पर लगे आरोपों के घेरे में आकर इस्तीफा दे चुके हैं परन्तु हमारे यहां सम्भव नहीं है। क्योंकि हमारे यहां राजनीति का अर्थ पता है लोगों को। यहां आरोप लगाने और सत्ता गलती से भी छोड़ देने में राजनीति नजर आने लगती है। यहां राजनीति भी बहुअर्थी है। फिर राजनीति का चरित्र क्यों हो ? अर्थ को बहुअर्थी से निष्पन्न मानने वाले लोग अर्थ की राजनीति से अलग स्वयं को कैसे रख सकते हैं।
जब-जब अर्थ प्रभावी होता है तब-तब नैतिकता भी प्रभावित होती है। अर्थ और नैतिकता का विपरीत रिश्ता है। अतः अर्थ के बढ़ते प्रभाव पर चिंता जताएं या नैतिकता के गिरते स्तर पर। हमारे यहां अर्थ और भौतिकता को ‘वीर भोग्या वसंुधरा’ से जोड़ा जाता है परन्तु नैतिकता के ह्रास पर गहरी चिन्ता है ? यह विरोधाभास राजनीति के अर्थ को न तो तय होने दे रहा है और ना ही अर्थ की राजनीति को रोकने के लिए हमें सक्रिय कर रहा है।
हमने परम्पराओं से कुछ भी सीखना बन्द कर दिया है परम्पराओं पर गर्वोक्ति हमारा जन्म सिद्ध अधिकार हो उठा है। हम भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू और लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नन्दा पर द्रवित जरूर हो उठते हैं उनसे सहानुभूति जरूर है पर हमारे आदर्श हैं हर्षद मेहता और रातों रात ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला कोई भी व्यक्ति, समुदाय।
इंदिरा गांधी का तेल सौदा, राजीव का बोफोर्स और नरसिंह राव का शेयर घोटाला यह सब एक संस्कृति का खुलासा है। यह संस्कृति हमारे आस-पास जड़ें जमा चुकी है। हम इसके आदी हो गये हैं। अभ्यस्त हैं। इसलिए इसके खिलाफ हममें प्रतिक्रिया नहीं होती है। हमारा प्रतिक्रियात्मक स्वरूप शून्य हो गया है।
शेयर घोटालों को ही लें तो महानगरों में रहने वाले आम लोगों में बते शेयर मूल्यों के प्रति एक खास लालच, एक ललक रही। परन्तु आज महानगरों के ही सर्वेक्षण को सरकार बचाने और उसमें कील ठोंकने के हथियार के रूप में अख्तियार किया जा रहा है। किसी भी व्यक्ति में ऐसी नैतिकता शेष नहीं है कि वह यह स्वीकार कर ले कि शेयर के बढ़ते मूल्यों में उसने भी शेयर की खरीद फरोख्त की थी इसलिए वह भी दोषी है।
रेल गाड़ी में यात्रा करते समय टीटीई को अधिक से अधिक रुपये देकर आरक्षण चाहने वाले लोगों की लम्बी कतार होती है। अपनी सीमाओं के कारण टीटीई कुछ ही लोगों को सुविधा शुल्क लेकर शैय्या मुहैय्या करवा पाता है परन्तु सभी लोग टीटीई से ही ईमानदार रहने की आशा करते हैं। जबकि उसके पास बेइमान होने के कई अवसर उपलब्ध हैं। फिर ईमानदारी की आशा ? हमें तो अपना रुपया देना है।
अगर विराम लगाने की प्रक्रिया में हम आहत होने या आहुति देने की अगुवाई नहीं करते तो हमें कार्ल माक्र्स की संस्कृति के उस परिभाषा को स्वीकारना होगा जिसमें निहित है - ‘सभी सामाजिक सम्बन्ध आर्थिक चरों पर निर्भर करते हैं।’ संस्कृति की यह परिभाषा भारत, भारतीयता और हमारे सम्पन्न ऐतिहासिक, दार्शनिक बोध के सामने यक्ष प्रश्न बन कर लटकी रहेगी और भावी पीढ़ियां हमारे इस सांस्कृतिक हस्तानान्तरण के सामने बार-बार सवाल उठाती रहेंगी।
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