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साहित्य की राजनीति, राजनीति का साहित्य

Dr. Yogesh mishr
Published on: 3 July 1993 10:18 PM IST
साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह मुहावरा प्रायः सभी ने सुन रखा होगा। परन्तु यह अब अप्रासंगिक हो गया है। क्योंकि साहित्य का संवेदना से रिश्ता टूट गया है। ‘स्वान्तः सुखाय’ साहित्य लिखकर मानव को हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ साहित्य स्थापित कराने वाले गोस्वामी जी का ‘स्वान्तः सुखाय’ छिन्न-भिन्न हो गया है। समाज में स्वान्तः और सुख के  मानदण्ड पूरी तौर पर बदल गये। समाज की परिभाषा बदली। परिवार के न्द्रित हो गये। ‘न्यूक्लियर फैमिली’ की संकल्पना ने जड़े जमाई। फिर साहित्य समाज का दर्पण होता है की प्रासंगिता, औचत्य समाप्त हो गया।
आजादी के  बाद से साहित्य को बांटकर, तोड़कर देखने की परम्परा चल निकली। खेमे बने। खेमेबाजी की नैतिकता का निर्वाह हुआ। गुरु द्रोण और एकलव्य की परम्परा की पुनरावृत्ति जारी हुई। अंगे्रजी दां लेखकों ने हिन्दी में लिखना शुरू किया। परिणाम हुआ लैटिन व अंग्रेजी के  ‘वाद’ हिन्दी में कई दशकों बाद थोे बहुत परिवर्तन के  साथ आये। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अंग्रेजी जानने वाले 10 प्रतिशत लोग ही हिन्दी पढ़ना चाहते हैं और हिन्दी जानने वाले 10 प्रतिशत लोग ही अंग्रेजी पढ़ पाते हैं। पूरा का पूरा साहित्य खासतौर से हिन्दी साहित्य इसी 10 प्रतिशत का शिकार हो उठा।
साहित्य के  विकास के  नाम पर कई संस्थाएं खुलीं जिनका काम था/है - पुरस्कार बांटना। कभी कविता करके  तुलसी ही लसे। कभी कविता ही लसी था तुलसी की कला।
यही आधार था इन संस्थाओं का। ये संस्थाएं सरकार से सहायता प्राप्त करती हैं। फिर सरकारी हस्तक्षेप से दूर रहना सम्भव ? सरकार राजनीति का पर्याय है फिर साहित्य की इन संस्थाओं में घुसपैठ शुरू हुई। कभी किसी व्यक्ति की, कभी किसी दल की, कभी किसी राष्ट्र की, कभी वामपंथ की, कभी माक्र्सवाद की, कभी जनवाद की। ये सारे वर्गवाद साहित्य में राजनीति की परिणति ही है।
जब से साहित्य में राजनीति का सूत्रपात हुआ तब से ही साहित्य से संवेदना का रिश्ता टूटा। संवेदना विहीन साहित्य में ‘सर्वेः भवन्तु सुखिनः’ जैसा संदेश हो ही नहीं सकता है। जब संवेदना नहीं होगी तो आमजन के  साहित्य का सृजन नहीं होगा। परिवेश ऐसा बना कि साहित्य में जीने के  लिए पहचान के  संकट से उबरना आवश्यक हो गया। पहचान के  संकट से उबरने के  लिए पुरस्कार। पुरस्कार पाने और बांटने में जारी हुई राजनीतिक प्रक्रिया। इस प्रक्रिया में हमारे साहित्य को मारने का, तोने का, बांटने का काम किया पूर्व सोवियत संघ ने। पूर्व सोवियत संघ ने खेमेबाजी की नैतिकता का निर्वाह करने के  लिए भारत में कुछ मठ और गढ़ बनाये थे। ये मठ और गढ़ सोवियत समर्थक लोगों के  निर्माण के  कारखाने बने। इन्होंने जनवादी साहित्य, प्रगतिशील साहित्य के  नाम पर करीब तीन दशकों तक खूब मठाधीशी की। इन मठों में सजदा किये बिना कोई भी प्रगतिशील और जनवादी हो ही नहीं सकता था। इनमें अधिनायकवाद का सूत्र सर्वाधिक सशक्त रूप में था। जवाहर लाल नेहरू इस विश्वविद्यालय इस अधिनायकत्व का अड्डा था और संचालक थे एक प्रोफेसर और या इनके  द्वारा अधिकार प्रदत्त लोग।
इन लोगों ने पुरस्कार बांटने और पाने में जिस राजनीति का प्रयोग किया उससे साहित्य का घिनौना स्वरूप बना। उभरा। दिखा। यह बीमारी पुरस्कृत होने की अभिलाषा और पुरस्कार से साहित्य को मापने का जो चलन चल निकला वह जनवादी एवं प्रगतिशील खेमे से इतर के  साहित्यकारों में भी समाया। फिर सरकार, सरकारी संस्थाओं से मिलने वाले पुरस्कार के  लिए तिकड़म अपनाये जाने लगे। पार्टियों के  साहित्यकार हो उठे जैसे इंका के  श्रीकांत वर्मा, बाल कवि बैरागी। वामपंथ के  धूमिल, मुक्तिबोध। भाजपा  के  कंुवर चन्द्र प्रकाश सिंह। पार्टी के  ये साहित्यकार चारण युग की पुनरावृत्ति करने लगे। वैसे इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ को इन राजनीतिक दलों ने जबरन घसीट लिया।
आदमी विशेषकर कलाकार, साहित्यकार कभी भी पहचान का संकट नहीं जी सकता है। पाठ्यक्रम में आने और पहचान के  संकट से उबरने के  लिए जो उपाय अपनाये गये वे थे - तिकड़म। गोलबन्दी। गुटबाजी। जोड़-तोड़। आत्मश्लाघा। स्वान्तः सुखाय की जगह - ‘स्वान्तः स्थापनाय’ प्रयास। इसी का परिणाम हुआ कि नोबल पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, भारत भारती पुरस्कार और भारत भवन, हिन्दी अकादमी, हिन्दी साहित्य सम्मेलन सभी द्वारा प्रदत्त पुरस्कार एवं उनकी कार्यशैली पर अनेक सवाल खड़े हो चुके  हैं। कई पुरस्कार लौटाये गये या अस्वीकार किये गये। अस्वीकृति और लौटाने वाले लोगों को क्रमवार बड़े पुरस्कार मिले। महादेवी ने भारत भारती लेने से अस्वीकार किया, कारण यह था कि इंदिरा जी से वह यह पुरस्कार ग्रहण नहीं करना चाहती थीं।
इंदिरा गांधी ने आपालकाल जैसा घृणित कार्य किया था परन्तु महादेवी को फिर भी ज्ञानपीठ मिला। उन्होंने स्वीकार किया ? वह भी तो विरोध के  रूप में अस्वीकार किया जा सकता था परन्तु नहीं ? एकांकी के  बहुत बड़े साहित्यकार भारत भारती लेने के  लिए अपनी ही टाइप मशीन पर लाल रंग के  रिबन से उत्तर प्रदेश सरकार और हिन्दी संस्थान को कई सौ पत्र लिखे।
पुरस्कारों को घृणित स्थिति में पहंुचाने में हिन्दी साहित्य संस्थान उत्तर प्रदेश का स्थान सर्वोच्च है। इसके  द्वारा प्रदत्त पुरस्कारों में राजनीति की बू अक्सर आ ही जाती है। पुरस्कारों को उनके  साथ मिलने वाली धनराशि ने और भी घटिया बनाया है। उसका और राजनीतिकरण किया। इस तरह साहित्य की राजनीति और समीक्षा की खेमेबाजी ने साहित्यकारों की मौलिकता मारी। उन्हें उद्देश्य से भटकाया। साहित्य समाज का दर्पण होता है इसे समाप्त किया। साहित्य का रिश्ता मन से तोकर मस्तिष्क से जोड़ा। राजनीति का भी एक साहित्य होता है जो साहित्य के  राजनीति पर सीधा प्रभाव होता है। राजनीति का साहित्य है - बूथ कैपचरिंग, अराजक तत्वों को मान्यता। लक्ष्य प्राप्ति के  लिए किसी भी तरह के  साधनों का प्रयोग। सत्ता। सुख। स्थिरता। ये राजनीति के  साहित्य के  अंग हैं। जैसे साहित्य के  राजनीति का अंग है - पुरस्कार। तिकड़म। गुटबाजी।
कुछ साहित्यकार सीधे राजनीति में भी हैं मसलन बाल कवि वैरागी, वी.पी. सिंह, अटल बिहारी बाजपेयी। वैसे तो आजकल सभी साहित्यकार राजनीति में ही है। राजनीति से ही उन्हें दूरदर्शन में कार्यक्रम। रेडियो में प्रोग्राम। मंचों पर स्थान। आदि सभी मिलते हैं। राजनीति का साहित्य से परोक्ष नहीं प्रत्यक्ष रिश्ता हो गया है। राजनीति में जो साहित्यकार है, उनका बुद्धिवादी साहित्य से रिश्ता है। वीपी सिंह सत्ता विमुख होकर जब जनमोर्चा के  परचम तले देश में बोफोर्स विरोधी अलख जगा रहे थे तब यात्रा में कविताएं कर डालते थे। उनकी कुर्सी वाली संवेदना आहत हुई थी परन्तु जब मंडल के  नाम पर लड़के  आत्मदाह कर रहे थे तो इस कवि का मन संवेदनात्मक धरातल पर आहत नहीं हुआ। कोई कविता, नहीं बन पड़ी इनसे। जबकि वीपी सिंह को शायद यह पता हो कि आदि कवि बाल्मीकि ‘क्रोच वध’ की घटना से ही कवि धर्म में उतरे थे। इस तरह साहित्य से राजनीति करने और करवाने के  लिए राजनीति के  साहित्य की स्थापना के  लिए। ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है’ के  विनाश के  लिए। भौतिकवादी साहित्य का सृजन करके  साहित्य पर बुद्धिवाद को प्रभावी करने के  लिए और कई और साहित्यिक कदाचारों के  लिए दोषी लोगों को बकर आत्मस्वीकृति कर लेना चाहिए। नहीं तो इन सारी स्थितियों के  लिए अपराध बोध उन्हें सालेगा। पीढ़ियों को एक गलत परम्परा स्थानान्तरित करने के  लिए अभिशप्त जीना पड़ेगा।
Dr. Yogesh mishr

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