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धर्म की राजनीति, राजनीति का धर्म
आज कल राजनीति से धर्म, धर्म से राजनीति को अलग करना खासा विषय है। एक ऐसे समय जब धर्म ने किसी खास संगठन की राजनीति को हानि पहुंचाया हो और या किसी दल विशेष ने धर्म से लाभ उठा लिया हो, इस विषय का महत्व आम नहीं रह जाता है। राजनीति से धर्म अलग। धर्म एक आस्था का विषय है। आस्था, परिवेश, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए वह जुड़ाव है। जिससे व्यक्ति में इनके प्रति कोई बोध पैदा होता है। राजनीति और धर्म को अलग करने से यह बोध मर जाएगा। व्यक्ति प्रकृति और व्यक्ति के एक-दूसरे के दायित्व से मुक्त हो जाएगा। मनुष्य को एक बेहतर शरीर चाहिए। स्वस्थतर कृतित्व चाहिए। अधिक सजग, सचेत आत्मा चाहिए और वे सभी सुविधाएं और विलासिताएं चाहिए जिन्हें प्रदान और प्राप्त करने के लिए अस्तित्व तैयार है। यह सब राजनीति में धर्म और धर्म में राजनीति का परिणाम है।
किसी खास समय में किसी विशेष देवता के श्रद्धालुओं का बना। विशेष दिन चुनिंदा मंदिरों पर जमावा। शंकराचार्य, पीठाचार्य, दंाधिकारी सभी के लिए जोड़-तोड़ या तोड़-जोड़, राजनीति है। राजनीति स्थापना का पर्याय थी परंतु अब राजनीति स्थानापन्नता का पर्याय है। इसके लिए दोष है सत्ता का। सत्ता के समीप और अवैध गैर राजनीतिक जमावे का।
राजनीति का भी अपना धर्म होता है। प्रजा धर्म। इस प्रजाधर्म मंे शासक और राजनीति की भूमिका पर लिखते समय कौटिल्य ने इन्हें अलगाने की नियत पर संदेह का दवाल उठाया है। बुुद्ध ने धर्म को परिभाषित करते समय कहा ‘अपासीनव बहुकथाने, दयादाने, शचे शोचए।’ बुद्ध का धर्म स्वीकारा जाए या जैन का किसी में राजनीति को धर्म से इतर करना संभव नहीं है। पर हमारे यहां बवेला मचा है क्योंकि राजनीति और धर्म से ध्ूाप-छांव, कुत्ता-बिल्ली का खेल खेला जा रहा है। ऐसे में छांव और बिल्ली जिसके पास होंगे उन्हें शिखंड़ी खोजना या बनाना होगा। यही शिखंडी खोजने या बनाने की प्रक्रिया,धर्म, राजनीति में व्यवधान है। इसे दूर करने की कोशिश नहीं हो रही है। ऐसे ही जैसे किसी व्यक्ति से बहुत ज्यादा ऋण ले लिया जाए तो ऋण चुकता करने की जगह उसे समाप्त करने के प्रयास आरंभ कर दिए जाएं। राजनीति से धर्म को इतर करने के लिए जो सिद्धांत अपनाया जा रहा है। उमें अतर्निहित है -‘कड़वा-कड़वा थू, मीठा-मीठा गप। ’ आखिर किस राजनीति से किस धर्म को अलग करेंगे। यह तय करना जरूरी है। दुनिया में कहीं भी राजनीति धर्म से अलग नहीं है। अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में पोप की भूमिका को ही लें। बहुत महत्वपूर्ण होती है। मुस्लिम देशों में तो खुमैनी जैसे उदाहरण विस्मृत नहंी हुए हैं।
राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में अनेकता में एकता जैसे वेद वाक्य को जीवंत रखने में जो काम आता है। वह धर्म ही है। यानि राष्ट के बाद किसी भी परिवेश के लिए दूसरी बड़ी जरूरत धर्म है। ईसाइयत पहला धर्म था जिसमें युद्ध धार्मिक हो सकता है, जैसा ख्याल लोगों के मन में पैदा किया गया। इस्लाम और अन्य धर्मों ने इसी का अनुसरण किया।
जबकि युद्ध अधार्मिक होते हैं। धर्मयुद्ध, जिहाद, पवित्र युद्ध, कोसली संकल्पनाएं हैं। धर्म को पुरोहितों ने धंधा बनाया। हर व्यक्ति चाहता है उसका धंधा जोरों पर चले। राजनीतिज्ञों ने भी राजनीति को धंधा स्वीकारा। फिर...। इसी प्रवृत्ति ने मनुष्य की अखंता को नष्ट किया। तोड़ा। न क¢वल खंों मंे बल्कि विपरीत खंडों में। मानवता को खंडित किया। स्रिजोफ¢निक कर दिया। इससे व्यक्ति खंडित व्यक्तित्व का मालिक बन उठा।
ख्ंाडित व्यक्तित्व से अखंड देश ? राजनीति के इसी स्वरूप को रोकना है। इसी का विरोध जरूरी है परंतु यह नहीं हो रहा है क्योंकि आत्मात से राजनीतिज्ञों को ऊर्जा मिलने लगी है। कोई भी धर्म सरल, स्वाभाविक तथ्यगत हकीकत को स्वीकार करता है। जिसमें मनुष्य एक इकाई है-शरीर और चेतना के साथ। यह जगत मनुष्य से भिन्न नहीं है। सत्य संगठित होता है राजनीतिज्ञ इसी संगठित सत्य को बांटते हैं। यही बांटना और बंट जाना उनके हित में है। राजनीतिज्ञ इसे छोड़ने को तैयार क्यों नहीं है ?
धर्मों के पैगंबर ने आदमी के स्वभाव का लाभ उठाया है। आदमी को स्वभावतः भी आरामदेह लगती है। 60 करो कैथोलिक हैं। 60 करोड़ हिंदू हैं। 20 करोड़ मुसलमान हैं। इतने लोग एक साथ जो सोचते हैं - वह गलत हो सकता है ? यही एक साथ सोचने का मुद्दा तलाशते और उठाते हैं राजनीतिज्ञ। हमें इसे बदलना होगा कि 60 करोड़ हिंदू, 20 करोड़ मुसलमान। आदि जो भी सोचते हैं। वह गलत नहीं होगा। गलत-सही, सत्य-असत्य के ये मानदं स्वीकार्य और संभव नहीं है। इसके लिए गुणवत्ता होनी चाहिए। राजनीति आंकड़ों का खेल है। देश में कितने किस जाति के हैं। यही आंकड़ा और टंगाना है।
राजनीतिक और पैगंबर भी सदैव इस बात का प्रयास करेंगे कि कहीं वे खो न जाएं। इसलिए इन दोनों ने विध्वंस का हिस्सा बनने का काम किया है। इनके पास ताकत क्या है। जो भी ताकत है वह हमारी दी हुई है। हमें इसे वापस लेने का उपाय खोजना चाहिए। क्योंकि देना सहज है। लेना कठिन। जबकि इससे ताकत छीनी जाएगी तो वे इतने सरल और निश्चल नहीं रहेंगे जितने मांगते समय थे। पुजारियों, राजनीतिज्ञों के हाथों पकर जनता स्वयं के खिलाफ हो उठी है।
जनता की इसी खिलाफत ने, एकता के दंभ ने, जातीय चेतना की मृगतृष्णा ने राजनीतिक दल गे। बनवाए। राजनीति ने सत्ता को अपना लक्ष्य माना। पुजारी, मठाधीश और राजनीतिज्ञों ने अपना पेशा पोषित किया। यह व्यवसायीकरण, यह धंधा प्रवृत्ति दोनों की है। दोनों कुर्सी-कुर्सी खेल रहे हैं। अभी तक तो दोनों दूर-दूर से खेलते थे परंतु भाजपा ने गेए वस्त्र को संसद की राह दिखाई। गांधी खादी से मठों की। मठ से राजनीति निकलने लगी। संसद से धर्म। धर्म ने संसद पर प्रभुत्व जमाया और अब संसद मठों पर प्रभुत्व जमाने में विफल हो रही है। यही विफलता कारण और परिणाम है धर्म और राजनीति को अलग करने की मानसिकता का। अभी तक कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी थी जिसमें सत्ता झेलने या कुर्सी के आसपास बने रहने का माद्दा था। एकमात्र होने के कारण उसे स्वयं से कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती थी। राजनीति में स्वबोध, अपराधबोध नहीं होता है क्योंकि अपराध प्रभावी हो उठे हैं। अब भाजपा इस प्रतियोगिता में शरीक है। संसद में सेंध लग रहा है। फिर प्रतिशोध, प्रतिक्रिया होगी ही। यही है विरोध का कारण। इस कारण पर विरोध होना चाहिए। संसद, राष्ट्र धर्म, और इसके स्वअर्थी प्रयोग पर एकाधिकार नहीं हो सकता। राजनीति को धर्म से, धर्म को राजनीति से अलग करने की मुहिम को बंद करना चाहिए क्यांेकि अध्यात्म, आराधना से इतर भी है। कार्य ही पूजा है, को भी धर्म माना जाता है। प्रेम धर्म है। राष्ट्र पे्रम धर्म है। आपाद धर्म है। समाज, देश कल्याण धर्म है। गीता धर्म है। ‘शपथ’ का सीधा रिश्ता धर्म से है और राजनीति, वैधानिक, राजनीति मान्यता प्राप्त राजनीति की शुरुआत ही इसी से होती है। फिर राजनीति, धर्म इतर ? जरूरत है इसके स्वअर्थी प्रयोग पर प्रतिबंध की। राजनीतिज्ञों और धार्मिकों के गठबंधन को तोड़ने की और यह राजनीति से संभव नहीं है। राजनीतिज्ञ की दृष्टि ‘हितबोधी’ होती है और इस गठबंधन को तोड़ने के लिए, समाप्त करने के लिए यह दृष्टि सर्वथा अनुपयोगी है। निरर्थक है। राजनीति में धर्म, धर्म के सही स्वरूप पर आधारित राजनीति होने लगे तो भी इस समस्या से निजात पाया जा सकता है। प्रतिबंध, संसद, कानून, इसे और उकसाएंगे। ये पहल, ये तरीके फिर हितार्थी हो जाएंगे। इनसे कटने की जरूरत है।
किसी खास समय में किसी विशेष देवता के श्रद्धालुओं का बना। विशेष दिन चुनिंदा मंदिरों पर जमावा। शंकराचार्य, पीठाचार्य, दंाधिकारी सभी के लिए जोड़-तोड़ या तोड़-जोड़, राजनीति है। राजनीति स्थापना का पर्याय थी परंतु अब राजनीति स्थानापन्नता का पर्याय है। इसके लिए दोष है सत्ता का। सत्ता के समीप और अवैध गैर राजनीतिक जमावे का।
राजनीति का भी अपना धर्म होता है। प्रजा धर्म। इस प्रजाधर्म मंे शासक और राजनीति की भूमिका पर लिखते समय कौटिल्य ने इन्हें अलगाने की नियत पर संदेह का दवाल उठाया है। बुुद्ध ने धर्म को परिभाषित करते समय कहा ‘अपासीनव बहुकथाने, दयादाने, शचे शोचए।’ बुद्ध का धर्म स्वीकारा जाए या जैन का किसी में राजनीति को धर्म से इतर करना संभव नहीं है। पर हमारे यहां बवेला मचा है क्योंकि राजनीति और धर्म से ध्ूाप-छांव, कुत्ता-बिल्ली का खेल खेला जा रहा है। ऐसे में छांव और बिल्ली जिसके पास होंगे उन्हें शिखंड़ी खोजना या बनाना होगा। यही शिखंडी खोजने या बनाने की प्रक्रिया,धर्म, राजनीति में व्यवधान है। इसे दूर करने की कोशिश नहीं हो रही है। ऐसे ही जैसे किसी व्यक्ति से बहुत ज्यादा ऋण ले लिया जाए तो ऋण चुकता करने की जगह उसे समाप्त करने के प्रयास आरंभ कर दिए जाएं। राजनीति से धर्म को इतर करने के लिए जो सिद्धांत अपनाया जा रहा है। उमें अतर्निहित है -‘कड़वा-कड़वा थू, मीठा-मीठा गप। ’ आखिर किस राजनीति से किस धर्म को अलग करेंगे। यह तय करना जरूरी है। दुनिया में कहीं भी राजनीति धर्म से अलग नहीं है। अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में पोप की भूमिका को ही लें। बहुत महत्वपूर्ण होती है। मुस्लिम देशों में तो खुमैनी जैसे उदाहरण विस्मृत नहंी हुए हैं।
राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में अनेकता में एकता जैसे वेद वाक्य को जीवंत रखने में जो काम आता है। वह धर्म ही है। यानि राष्ट के बाद किसी भी परिवेश के लिए दूसरी बड़ी जरूरत धर्म है। ईसाइयत पहला धर्म था जिसमें युद्ध धार्मिक हो सकता है, जैसा ख्याल लोगों के मन में पैदा किया गया। इस्लाम और अन्य धर्मों ने इसी का अनुसरण किया।
जबकि युद्ध अधार्मिक होते हैं। धर्मयुद्ध, जिहाद, पवित्र युद्ध, कोसली संकल्पनाएं हैं। धर्म को पुरोहितों ने धंधा बनाया। हर व्यक्ति चाहता है उसका धंधा जोरों पर चले। राजनीतिज्ञों ने भी राजनीति को धंधा स्वीकारा। फिर...। इसी प्रवृत्ति ने मनुष्य की अखंता को नष्ट किया। तोड़ा। न क¢वल खंों मंे बल्कि विपरीत खंडों में। मानवता को खंडित किया। स्रिजोफ¢निक कर दिया। इससे व्यक्ति खंडित व्यक्तित्व का मालिक बन उठा।
ख्ंाडित व्यक्तित्व से अखंड देश ? राजनीति के इसी स्वरूप को रोकना है। इसी का विरोध जरूरी है परंतु यह नहीं हो रहा है क्योंकि आत्मात से राजनीतिज्ञों को ऊर्जा मिलने लगी है। कोई भी धर्म सरल, स्वाभाविक तथ्यगत हकीकत को स्वीकार करता है। जिसमें मनुष्य एक इकाई है-शरीर और चेतना के साथ। यह जगत मनुष्य से भिन्न नहीं है। सत्य संगठित होता है राजनीतिज्ञ इसी संगठित सत्य को बांटते हैं। यही बांटना और बंट जाना उनके हित में है। राजनीतिज्ञ इसे छोड़ने को तैयार क्यों नहीं है ?
धर्मों के पैगंबर ने आदमी के स्वभाव का लाभ उठाया है। आदमी को स्वभावतः भी आरामदेह लगती है। 60 करो कैथोलिक हैं। 60 करोड़ हिंदू हैं। 20 करोड़ मुसलमान हैं। इतने लोग एक साथ जो सोचते हैं - वह गलत हो सकता है ? यही एक साथ सोचने का मुद्दा तलाशते और उठाते हैं राजनीतिज्ञ। हमें इसे बदलना होगा कि 60 करोड़ हिंदू, 20 करोड़ मुसलमान। आदि जो भी सोचते हैं। वह गलत नहीं होगा। गलत-सही, सत्य-असत्य के ये मानदं स्वीकार्य और संभव नहीं है। इसके लिए गुणवत्ता होनी चाहिए। राजनीति आंकड़ों का खेल है। देश में कितने किस जाति के हैं। यही आंकड़ा और टंगाना है।
राजनीतिक और पैगंबर भी सदैव इस बात का प्रयास करेंगे कि कहीं वे खो न जाएं। इसलिए इन दोनों ने विध्वंस का हिस्सा बनने का काम किया है। इनके पास ताकत क्या है। जो भी ताकत है वह हमारी दी हुई है। हमें इसे वापस लेने का उपाय खोजना चाहिए। क्योंकि देना सहज है। लेना कठिन। जबकि इससे ताकत छीनी जाएगी तो वे इतने सरल और निश्चल नहीं रहेंगे जितने मांगते समय थे। पुजारियों, राजनीतिज्ञों के हाथों पकर जनता स्वयं के खिलाफ हो उठी है।
जनता की इसी खिलाफत ने, एकता के दंभ ने, जातीय चेतना की मृगतृष्णा ने राजनीतिक दल गे। बनवाए। राजनीति ने सत्ता को अपना लक्ष्य माना। पुजारी, मठाधीश और राजनीतिज्ञों ने अपना पेशा पोषित किया। यह व्यवसायीकरण, यह धंधा प्रवृत्ति दोनों की है। दोनों कुर्सी-कुर्सी खेल रहे हैं। अभी तक तो दोनों दूर-दूर से खेलते थे परंतु भाजपा ने गेए वस्त्र को संसद की राह दिखाई। गांधी खादी से मठों की। मठ से राजनीति निकलने लगी। संसद से धर्म। धर्म ने संसद पर प्रभुत्व जमाया और अब संसद मठों पर प्रभुत्व जमाने में विफल हो रही है। यही विफलता कारण और परिणाम है धर्म और राजनीति को अलग करने की मानसिकता का। अभी तक कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी थी जिसमें सत्ता झेलने या कुर्सी के आसपास बने रहने का माद्दा था। एकमात्र होने के कारण उसे स्वयं से कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती थी। राजनीति में स्वबोध, अपराधबोध नहीं होता है क्योंकि अपराध प्रभावी हो उठे हैं। अब भाजपा इस प्रतियोगिता में शरीक है। संसद में सेंध लग रहा है। फिर प्रतिशोध, प्रतिक्रिया होगी ही। यही है विरोध का कारण। इस कारण पर विरोध होना चाहिए। संसद, राष्ट्र धर्म, और इसके स्वअर्थी प्रयोग पर एकाधिकार नहीं हो सकता। राजनीति को धर्म से, धर्म को राजनीति से अलग करने की मुहिम को बंद करना चाहिए क्यांेकि अध्यात्म, आराधना से इतर भी है। कार्य ही पूजा है, को भी धर्म माना जाता है। प्रेम धर्म है। राष्ट्र पे्रम धर्म है। आपाद धर्म है। समाज, देश कल्याण धर्म है। गीता धर्म है। ‘शपथ’ का सीधा रिश्ता धर्म से है और राजनीति, वैधानिक, राजनीति मान्यता प्राप्त राजनीति की शुरुआत ही इसी से होती है। फिर राजनीति, धर्म इतर ? जरूरत है इसके स्वअर्थी प्रयोग पर प्रतिबंध की। राजनीतिज्ञों और धार्मिकों के गठबंधन को तोड़ने की और यह राजनीति से संभव नहीं है। राजनीतिज्ञ की दृष्टि ‘हितबोधी’ होती है और इस गठबंधन को तोड़ने के लिए, समाप्त करने के लिए यह दृष्टि सर्वथा अनुपयोगी है। निरर्थक है। राजनीति में धर्म, धर्म के सही स्वरूप पर आधारित राजनीति होने लगे तो भी इस समस्या से निजात पाया जा सकता है। प्रतिबंध, संसद, कानून, इसे और उकसाएंगे। ये पहल, ये तरीके फिर हितार्थी हो जाएंगे। इनसे कटने की जरूरत है।
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