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राजनीति का खेल, खेल की राजनीति
राजनीति व्यवसाय है - नहीं। राजनीति मिशन है- नहीं। फिर राजनीति है क्या - एक खेल। एक ऐसा खेल जिसे विजय के लिए खेलने की परम्परा चल पड़ी है। विजय से प्रसन्नता का सीधा रिश्ता है। प्रसन्नता के लिए कुछ भी करने की मर्यादा है इस खेल में। जैसे ऊंट का खेल। भेड़ लाने का खेल। तीतर बाजी का खेल। एोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि नेता बनने के लिए, राजनीति के खेल के लिए खतरा पैदा करना जरूरी है। हिन्दुस्तान में राजनीति करना है तो चीन के खतरे की खबर पैदा करानी पेगी। बुखारी को नेता बनाना है तो - खबर पैदा करो इस्लाम खतरे में है। हिन्दुओं को इकट्ठा करना है तो हिन्दू धर्म न होने का खतरा दिखाओ। हिन्दुस्तान का नेता पाकिस्तान से डर बताता है। पाकिस्तानी नेता हिन्दुस्तान से खतरा बताता है। गद्दियां सभी की सुरक्षित हैं। क्योंकि डर और खतरा लगाकर बांट दिया गया है हमें। अगर भय खत्म हो जाए तो राजनीतिज्ञ मर जाएगा। राजनीतिज्ञ मरना नहीं चाहता। इसलिए उसने राजनीति को - कम्युनिज्म, कैपिटलिज्म, सोशलिज्म और डेमोक्रेसी में बांट कर रखा है। इनका डर पैदा कर रखा है।
यह अन्तर्कलह क्यों है ? क्यों यह अन्र्तद्वन्द पैदा हुआ है ? राजनीति ही वह कारण है कि जिससे हम अपने भीतर विभाजित हो रहे हैं। जिससे खंडित हो रहे हैं - अपने से ही लड़ रहे हैं। जैसे हम अपने ही दोनों हाथ लाएं। कौन जीतेगा ? कोई नहीं। हमारी ही शक्ति क्षीण होगी। दो विरोधी दिशाओं में एक साथ जीना पड़ता है। हम एक ‘कांफ्लिक्ट’ में पड़ जाते हैं। हममें परिवर्तन होने लगता है। जीवन में जो परिवर्तन होते हैं वो अन्तस से शुरू होते हैं। इस तरह की कार्य सम्पादित कर रही हैं - हमारी राजनीति। हमारे राजनीतिज्ञ।
एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ ने वातावरण और विकास पर विश्व आयोग की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की- ‘हमारा सामूहिक भविष्य।’ इस रिपोर्ट में अपील है कि पृथ्वी को बचाने के लिए एक अविच्छिन विकास की जरूरत है। इसकी व्याख्या करते हुये लिखा गया है - भविष्य के साधनों को न किये बगैर वर्तमान की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना। लेकिन इस रिपोर्ट में भी राजनीति का एक खेल खेला गया। यह नहीं बताया गया कि वर्ममान की समस्याएं किसने पैदा की हैं ?
इन्हीं समस्याओं को पैदा करने वालों का नाम बचाना है राजनीति में। ये नाम खुल गये तो फिर श्वेत वस्त्र का श्वेतवसनापराध खुल जाएगा। अलग-अलग चिन्हों को लेकर चलने वाली दुकानदारी, हिस्सेदारी बंट जाएगी। समाप्त हो जायेगी। राजनीति का काम है समस्याओं के मूल से हमें काटना। आपस में बांटना। राजनीति के खेल का फार्मूला है - ‘बांटो और राज्य करो।’ ये बंटवारा मण्डल के नाम पर। मन्दिर के नाम पर। अगड़े-पिछड़ों के नाम पर। राष्ट्रीय एकता व अखण्डता के नाम का परिणाम है। यही खेल है। इसी खेल का परिणाम है कि वी.पी. सिंह अगडे़- पिछड़े की राजनीति कर रहे हैं। चन्द्रशेखर माफियाओं की। नरसिंह राव भ्रष्ट राजनीति का खेल-खेल रहे हैं।
इस खेल में उनकी मंशा है कि वो अविजित रहें। अद्वितीय रहें। जिसके लिए उन्होंने कांग्रेस के अंतिम प्रधानमंत्री होने की मुहिम चला रखी है। इसी मुहिम में नरसिंह राव सरकार ने तीसरी बार अपनी सरकार बचाई। इस बार 14 सांसद काम आये। 14 के अन्तर से सरकार बची। इससे पहले 17 दिसम्बर, 92 को भाजपा की ओर से अटल बिहारी बाजपेयी ने अविश्वास प्रस्ताव रखा था। चार दिन बहस चली। प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 106 मत पड़े। वामपंथी दल, तेलगुदेशम (राजू गुट) और कांग्रेस (एस) ने प्रस्ताव के खिलाफ मत दिया। 47 का आंका काम आया। 47 सदस्य अनुपस्थित रहे।
इससे भी पहले 15 जुलाई, 92 को भी भाजपा के अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार ने 52 का खेल खेला। सरकार बच गयी। यानि स्पष्ट है कि राजनीति आंकड़ों का खेल है। इस खेल में आंकड़े चाहे जहां से जैसे भी इकट्ठा किये जाएंगें। पोलिंग बूथ पर आंकडों का यह खेल ‘वोट हड़पने’ से खेला जाता है। संसद में यही खेल बिकवाली लिवाली पर निर्भर करता है। यह जारी रहे इसलिए चुनाव करने की योग्यता में महज उम्र को वरीयता दी गयी है। उम्र मात्र 18 वर्ष। यानि उम्र ही भाग्य नियंता बनने के लिए निर्णायक है। हमें इस निर्णायक तत्व को बदलना होगा यानि बुनियाद में बदलाव। राजनीति का जो खेल है वह निर्भर करता है ‘खेलब न खेले देब खेलवे बिगाड़ब’। इसी का परिणाम है कि ‘मानवता’ हमसे दूर हुई। इमसे दूर की गयी। उदाहरणार्थ यूथोपिया में प्रतिदिन हजारों लोग भूख से मर रहे हैं। यूरोप में करोड़ों डालर की कीमत का अन्न सागर में डुबाया जा रहा है ताकि अर्थव्यवस्था तथा पूर्वस्थिति में बनी रहे।
राजनीति ने जिम्मेदारी निभायी - महज कुर्सी के लिए। वोट के लिए आश्वासन बांटे। रंगीन सपने बेच। इन्हीं सपनों की खरीदारी हो सके इसके लिए उम्र को निर्णायकत्व दिया। ‘रामो-वामो’ का खेल सरकार में जाना। भाजपा का खेल मंदिर और 307 के बहाने सरकार बनाना। कांग्रेस का अपनी पुश्तैनी जमाना, जमाये रखना। फिर ‘एक अनार सौ बीमार।’ तभी तो जुमला चलाया गया - ‘राजनीति’ और ‘प्रेम’ में सब कुछ जायज है। यहाँ नाजायज कुछ नहीं है। राजनीति के इस खेल में दर्शक होने की विवशता जीना ही पड़ेगा परन्तु खेलने के लिए किसी तरह की वांछित या अनिवार्य योग्यता नहीं चाहिए। बदस्तूर जारी है खेल। जारी रहेगा।
सभी खेल के लिए अचार संहिता है। राजनीति के लिए कुर्सी और उस पर दीर्घकालिक प्रवास आचार संहिता है। यहां लक्ष्य चाहिए। ध्येय चाहे जैसे भी हों। जो भी हों। हमारे पूरे जीवन में, जीवन के विविध पहलुओं में, राजनीति प्रभावी है। राजनीति कुटीर और कुटिल उद्योग हो गया है। इसमें विजय के लिए ‘काकटेल’, ‘शार्टकट’, ‘बाहुबल’ जैसी मान्यताएं स्वीकार कर ली गयी हैं। देश के किसी भी क्षेत्र में किसी भी तरह के ध्वंस के लिए कहीं न कहीं से कोई राजनीति या राजनीतिक प्राणाी दोषी है।
पुरावलम्बन व स्वालम्बन में फंसाया जाता है हमें। परस्पर निर्भरता से काटा गया है जबकि राजनीति ने सभी क्षेत्र में पारस्परिक सम्बन्ध कायम किये हैं। सभी क्षेत्र को बराबर से न किया है। खेल में राजनीति डाला है। खिलाड़ी के चुनाव में राजनीति। राजनीति का ही परिणाम है - एथलेटिक एसोसियेशन आदि। राजनीति ने खेल से कुछ सीखा फिर राजनीति खेलने लगी खेल। हिंसा का खेल। सफलता का खेल। जोड़-तोड़, तोड़-जोड़ का खेल। इस खेल में कौमे बूढ़ी हो रही हैं। बूढ़ी कौमें पीछे लौट कर देखती हैं, जो खतरनाक हैं। बूढ़ी कौमे अतीत के सम्बन्ध में याद करती हैं। जवान कौमें हमेशा भविष्य के सम्बन्ध में विचार करती हैं। कौम का बूढ़ा होना बहुत खतरनाक है।
भारत का पतन हो रहा, आदमी रोज पतित हो रहा है। आदमी नीचे की ओर गिर रहा है। उसे उठाने की कोशिश अगर की गयी तो वह फिर गिरने लगता है। उसे पूरा गिरना है। वह आत्मघटित से सीखना चाहता है। आत्मानुभूति से नहीं। अब उसकी नाक जमीन छूने वाली है, शायद छू जाये तो वह खड़ा हो जाए। राजनीति के इस खतरनाक खेल के खिलाफ। तभी तो यह नहीं बताया जाता कि जो कुछ बिखर रहा है, जो पतन हुआ उसके लिए जिम्मेदार कौन है।
भगवान बुद्ध, महावीर, राम और क्राइस्ट ने लोगांे को समझाया। चोरी मत करो। झूठ मत बोलो। हिंसा मत करो। बेईमानी मत करो। संयम साधो। असंयम बुरी बात है आदि।। आदि। आखिर ये लोग किनको अच्छी बातें समाते थे अच्छे लोगों को। अच्छे लोग अच्छे लोगों को अच्छी बातें समझा रहे थे।
अब इस खेल की विडम्बना है कि घटिया लोग ये अच्छी बातें समा रहे हैं। कैसे विश्वास हो ? और बार-बार राजनीति के इस खेल में ‘विश्वास’ की बात ही आती है। वह विश्वास एक प्रतिशत भी हो तो भी काम चलता है क्योंकि एक ‘मत’ भी संसद और सदन तक पहुँचा सकता है। कई लाख में एक। यही वह राजनीतिक खेल है। इस खेल में ‘मत’ देने के बाद भी प्रत्याशी जीत सकता है। ऐसे ही भारत में लोकतंत्र आता है। यह खेल बदस्तूर जारी है। जारी रहेगा। क्योंकि ‘एरिना’ में आने की हमारी, हम सबकी दमित अभिलाषा हममें जी रही है।
यह अन्तर्कलह क्यों है ? क्यों यह अन्र्तद्वन्द पैदा हुआ है ? राजनीति ही वह कारण है कि जिससे हम अपने भीतर विभाजित हो रहे हैं। जिससे खंडित हो रहे हैं - अपने से ही लड़ रहे हैं। जैसे हम अपने ही दोनों हाथ लाएं। कौन जीतेगा ? कोई नहीं। हमारी ही शक्ति क्षीण होगी। दो विरोधी दिशाओं में एक साथ जीना पड़ता है। हम एक ‘कांफ्लिक्ट’ में पड़ जाते हैं। हममें परिवर्तन होने लगता है। जीवन में जो परिवर्तन होते हैं वो अन्तस से शुरू होते हैं। इस तरह की कार्य सम्पादित कर रही हैं - हमारी राजनीति। हमारे राजनीतिज्ञ।
एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ ने वातावरण और विकास पर विश्व आयोग की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की- ‘हमारा सामूहिक भविष्य।’ इस रिपोर्ट में अपील है कि पृथ्वी को बचाने के लिए एक अविच्छिन विकास की जरूरत है। इसकी व्याख्या करते हुये लिखा गया है - भविष्य के साधनों को न किये बगैर वर्तमान की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना। लेकिन इस रिपोर्ट में भी राजनीति का एक खेल खेला गया। यह नहीं बताया गया कि वर्ममान की समस्याएं किसने पैदा की हैं ?
इन्हीं समस्याओं को पैदा करने वालों का नाम बचाना है राजनीति में। ये नाम खुल गये तो फिर श्वेत वस्त्र का श्वेतवसनापराध खुल जाएगा। अलग-अलग चिन्हों को लेकर चलने वाली दुकानदारी, हिस्सेदारी बंट जाएगी। समाप्त हो जायेगी। राजनीति का काम है समस्याओं के मूल से हमें काटना। आपस में बांटना। राजनीति के खेल का फार्मूला है - ‘बांटो और राज्य करो।’ ये बंटवारा मण्डल के नाम पर। मन्दिर के नाम पर। अगड़े-पिछड़ों के नाम पर। राष्ट्रीय एकता व अखण्डता के नाम का परिणाम है। यही खेल है। इसी खेल का परिणाम है कि वी.पी. सिंह अगडे़- पिछड़े की राजनीति कर रहे हैं। चन्द्रशेखर माफियाओं की। नरसिंह राव भ्रष्ट राजनीति का खेल-खेल रहे हैं।
इस खेल में उनकी मंशा है कि वो अविजित रहें। अद्वितीय रहें। जिसके लिए उन्होंने कांग्रेस के अंतिम प्रधानमंत्री होने की मुहिम चला रखी है। इसी मुहिम में नरसिंह राव सरकार ने तीसरी बार अपनी सरकार बचाई। इस बार 14 सांसद काम आये। 14 के अन्तर से सरकार बची। इससे पहले 17 दिसम्बर, 92 को भाजपा की ओर से अटल बिहारी बाजपेयी ने अविश्वास प्रस्ताव रखा था। चार दिन बहस चली। प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 106 मत पड़े। वामपंथी दल, तेलगुदेशम (राजू गुट) और कांग्रेस (एस) ने प्रस्ताव के खिलाफ मत दिया। 47 का आंका काम आया। 47 सदस्य अनुपस्थित रहे।
इससे भी पहले 15 जुलाई, 92 को भी भाजपा के अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार ने 52 का खेल खेला। सरकार बच गयी। यानि स्पष्ट है कि राजनीति आंकड़ों का खेल है। इस खेल में आंकड़े चाहे जहां से जैसे भी इकट्ठा किये जाएंगें। पोलिंग बूथ पर आंकडों का यह खेल ‘वोट हड़पने’ से खेला जाता है। संसद में यही खेल बिकवाली लिवाली पर निर्भर करता है। यह जारी रहे इसलिए चुनाव करने की योग्यता में महज उम्र को वरीयता दी गयी है। उम्र मात्र 18 वर्ष। यानि उम्र ही भाग्य नियंता बनने के लिए निर्णायक है। हमें इस निर्णायक तत्व को बदलना होगा यानि बुनियाद में बदलाव। राजनीति का जो खेल है वह निर्भर करता है ‘खेलब न खेले देब खेलवे बिगाड़ब’। इसी का परिणाम है कि ‘मानवता’ हमसे दूर हुई। इमसे दूर की गयी। उदाहरणार्थ यूथोपिया में प्रतिदिन हजारों लोग भूख से मर रहे हैं। यूरोप में करोड़ों डालर की कीमत का अन्न सागर में डुबाया जा रहा है ताकि अर्थव्यवस्था तथा पूर्वस्थिति में बनी रहे।
राजनीति ने जिम्मेदारी निभायी - महज कुर्सी के लिए। वोट के लिए आश्वासन बांटे। रंगीन सपने बेच। इन्हीं सपनों की खरीदारी हो सके इसके लिए उम्र को निर्णायकत्व दिया। ‘रामो-वामो’ का खेल सरकार में जाना। भाजपा का खेल मंदिर और 307 के बहाने सरकार बनाना। कांग्रेस का अपनी पुश्तैनी जमाना, जमाये रखना। फिर ‘एक अनार सौ बीमार।’ तभी तो जुमला चलाया गया - ‘राजनीति’ और ‘प्रेम’ में सब कुछ जायज है। यहाँ नाजायज कुछ नहीं है। राजनीति के इस खेल में दर्शक होने की विवशता जीना ही पड़ेगा परन्तु खेलने के लिए किसी तरह की वांछित या अनिवार्य योग्यता नहीं चाहिए। बदस्तूर जारी है खेल। जारी रहेगा।
सभी खेल के लिए अचार संहिता है। राजनीति के लिए कुर्सी और उस पर दीर्घकालिक प्रवास आचार संहिता है। यहां लक्ष्य चाहिए। ध्येय चाहे जैसे भी हों। जो भी हों। हमारे पूरे जीवन में, जीवन के विविध पहलुओं में, राजनीति प्रभावी है। राजनीति कुटीर और कुटिल उद्योग हो गया है। इसमें विजय के लिए ‘काकटेल’, ‘शार्टकट’, ‘बाहुबल’ जैसी मान्यताएं स्वीकार कर ली गयी हैं। देश के किसी भी क्षेत्र में किसी भी तरह के ध्वंस के लिए कहीं न कहीं से कोई राजनीति या राजनीतिक प्राणाी दोषी है।
पुरावलम्बन व स्वालम्बन में फंसाया जाता है हमें। परस्पर निर्भरता से काटा गया है जबकि राजनीति ने सभी क्षेत्र में पारस्परिक सम्बन्ध कायम किये हैं। सभी क्षेत्र को बराबर से न किया है। खेल में राजनीति डाला है। खिलाड़ी के चुनाव में राजनीति। राजनीति का ही परिणाम है - एथलेटिक एसोसियेशन आदि। राजनीति ने खेल से कुछ सीखा फिर राजनीति खेलने लगी खेल। हिंसा का खेल। सफलता का खेल। जोड़-तोड़, तोड़-जोड़ का खेल। इस खेल में कौमे बूढ़ी हो रही हैं। बूढ़ी कौमें पीछे लौट कर देखती हैं, जो खतरनाक हैं। बूढ़ी कौमे अतीत के सम्बन्ध में याद करती हैं। जवान कौमें हमेशा भविष्य के सम्बन्ध में विचार करती हैं। कौम का बूढ़ा होना बहुत खतरनाक है।
भारत का पतन हो रहा, आदमी रोज पतित हो रहा है। आदमी नीचे की ओर गिर रहा है। उसे उठाने की कोशिश अगर की गयी तो वह फिर गिरने लगता है। उसे पूरा गिरना है। वह आत्मघटित से सीखना चाहता है। आत्मानुभूति से नहीं। अब उसकी नाक जमीन छूने वाली है, शायद छू जाये तो वह खड़ा हो जाए। राजनीति के इस खतरनाक खेल के खिलाफ। तभी तो यह नहीं बताया जाता कि जो कुछ बिखर रहा है, जो पतन हुआ उसके लिए जिम्मेदार कौन है।
भगवान बुद्ध, महावीर, राम और क्राइस्ट ने लोगांे को समझाया। चोरी मत करो। झूठ मत बोलो। हिंसा मत करो। बेईमानी मत करो। संयम साधो। असंयम बुरी बात है आदि।। आदि। आखिर ये लोग किनको अच्छी बातें समाते थे अच्छे लोगों को। अच्छे लोग अच्छे लोगों को अच्छी बातें समझा रहे थे।
अब इस खेल की विडम्बना है कि घटिया लोग ये अच्छी बातें समा रहे हैं। कैसे विश्वास हो ? और बार-बार राजनीति के इस खेल में ‘विश्वास’ की बात ही आती है। वह विश्वास एक प्रतिशत भी हो तो भी काम चलता है क्योंकि एक ‘मत’ भी संसद और सदन तक पहुँचा सकता है। कई लाख में एक। यही वह राजनीतिक खेल है। इस खेल में ‘मत’ देने के बाद भी प्रत्याशी जीत सकता है। ऐसे ही भारत में लोकतंत्र आता है। यह खेल बदस्तूर जारी है। जारी रहेगा। क्योंकि ‘एरिना’ में आने की हमारी, हम सबकी दमित अभिलाषा हममें जी रही है।
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