TRENDING TAGS :
संसदीय मर्यादाएं-हाशिए की ओर
राजनीति में आया राम गया राम का जुमला थम जाए, संसद। सदन तक पहुंचकर नेता का चेहरा बदल न जाए इसे रोकने के लिए संसद में दल-बदल विधेयक लाया गया। क्योंकि इससे पहले हरियाणा में भजन लाल, देवी लाल और वंषीलाल ने सत्ता में बने रहने के लिए जिस नैतिकता का खेल खेला उससे राजनीति में बिकने-बिकाने वाली दलाली संस्कृति का प्रार्दुभाव हुआ। इन घटनाओं पर खासी प्रतिक्रिया हुई। 1984 में राजीव गांधी को अप्रत्याषित रूप से संसद में सीटें प्राप्त हुईं इससे कांग्रेस नेतृत्व और पार्टी के सम्मुख यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि कहीं राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते राजीव गांधी के राजनीतिक अपरिपक्वता के सम्मुख कुछ लोग चुनौती न बन जाएं इसलिए 1985 में दल-बदल विधेयक संसद से पारित कराया गया। इस विधेयक का अभी हाल में नरसिंह राव सरकार को बचाने के लिए तीसरी बार दुरुपयोग किया गया जिसकी कुछ बानगी राव सरकार पर कई सवाल खड़ी करती है।
षिक्षा माफिया रामलखन सिंह यादव कांग्रेसी थे। इस बार कांगे्रस की हवा खराब देख कर जद के टिकट से आराम से संासद हो गए। इनके कांग्रेस में चले जाने की संभावना हमारे एक सहकर्मी ने पहले ही व्यक्त की थी परंतु संभावना के लिए कोई ठोस व पुष्ट प्रमाण नहीं थे। राम लखन सिंह का मानना है कि जद में हुई उपेक्षा के कारण कांग्रेस में वापस आए। इन्होंने ही छह अगस्त और सांसदों को अपने घर वापसी के लिए राजी किया। धुर कांग्रेसी यादव के लिए राजी किया। धुर कांग्रेसी यादव के लिए राव सहानुभूति के पात्र हैं। यह यथार्थ बोध यादव का कौषल है। यानि कांग्रेस ने सरकार चलाने के लिए, सरकार बचाने के लिए धन व्यय किया। खरीद-फरोख्त बढ़ाया-चलाया। सत्ता को व्यवसाय बनाया जिसमें निवेष कर लाभ कमाने की व्यवस्था दी। सांप्रदायिक ताकतों से देष को बचाने के लिए अगर यादव कांग्रेस में गए तो उन्होंने सरासर गलती की क्योंकि इसके लिए लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस से बड़ा काम किया है। उन्हीं के कारण बिहार में भाजपा की रामलहर ठंडी पड़ गयी। यह बात दूसरी है कि वहां संप्रदायवाद का स्थान जातिवाद ने लिया है। परंतु यादव षायद यह भूल गए कि कांग्रेस ही वह पार्टी हे जिसने अपने हितों के लिए मंदिर का ताला खुलवाया, षिलान्यास कराया और विहिप जैसी संस्था को मान्यता प्रदान करके उसकी रथ परिक्रमा आरंभ करवाई।
इतना ही नहीं कांग्रेस के नेता राजीव गांधी का पत्र आरएसएस के मुख्यालय में आयोजित एक मीटिंग में पढ़ा गया। 1984 के चुनावों में आरएसएस के लोगों ने कांग्रेस का ही चुनाव प्रचार किया था फिर किस संाप्रदायिकता से बचाना चाहते हंै देष को ? सोना, कोयला, लाटरी माफिया न होकर षिक्षा माफिया होने का फख्र जीने का बोध और अहं उनमें कूट-कूटकर भरा है। उन्हें नहीं पता साधन षुचिता के प्रबल ऐतिहासिक प्रतिबद्धता के हम पक्षधर रहे है। माफिया, माफिया है चाहे वह किसी का भी हो।
यादव षिक्षा के प्रसार के प्रति प्रतिबद्ध है। आखिर किस षिक्षा के जिसमें वो जी रहे हैं या जिससे वो जी रहे हैं। ऐसी दोषपूर्ण षिक्षा को षिक्षा मानने वाले लोग देष के नेतृत्व में षरीक है इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ?
विपक्षी दल षासन नहीं चला सकते। इसलिए यदि चरण दास कांग्रेस में आए उन्हें विपक्ष, षासन, सत्ता की परिभाषाएं नहीं पता हैं। राजनीतिक स्थिरता का भारी बोझ उनके कंधों पर है परंतु उन्हें नहंी पता कि इससे भी बड़ी चीज है स्वस्थ, स्वच्छ राजनीतिक व संसदीय मर्यादांए। अनादि दास 90 करोड़ रुपए व आदिवासी कल्याण आयोग की अध्यक्षता में स्थिरता का कोई रिष्ता अपनी समझ में भले रखते हों परंतु हमें नहीं समझ में आता है। बहुभाषा भाषी होने के कारण इन्हें कांग्रेस में लौयना आसान हो गया। यानि प्रधानमंत्री अमिधा, लक्षणा, व्यंजन की भाषाएं मौन की स्वीकृति जो भी करते हंै। उन सभी के पूरक स्वयं को मानते हैं। अनादि चरण दास।
राम सरन यादव ने साफ-साफ स्वीकार किया कि वे सत्ता में भागीदारी चाहते हंै। यह कांग्रेस में ही संभव है। प्रधानमंत्री पर लगे एक करोड़ रुपए के आरोप पर प्रधानमंत्री का पक्ष लेते हुए इन्होंने जो बचकाना तर्क दिया है। उससे यह साफ हो जाना चाहिए कि राजनीति में उनकी अषिक्षा देष को कितना बेड़ा गर्क कर रही है। क्योंकि अगर प्रधानमंत्री 40 लाख रुपए मुंडा के नाम पर स्वामी को दे सकते हैं। तो उन्हें एक करोड़ रुपए लेने में कोई आपत्ति क्यों होना चाहिए। प्रधानमंत्री ने रामस्वामी के स में संसद की मर्यादा का जिस तरह उल्लंघन किया उससे कम षर्मनाक बात है एक करोड़ रुपए लेना। ईमानदार प्रतिनिधि होने के यही दृष्टांत पर्याप्त है कि चार बार दल बदल कर चुके हैं दास और इस बार भी दल-बदल में क्षेत्र के विकास के लिए किसी योजना, परियोजना को मंजूरी की जगह नाजुक मौके पर कांग्रेस बचाने के लिए अपने भावनाओं की कद्र प्रधानमंत्री से कहना चाह रहे है। इन्होंने यह खुलासा किया कि अजित सिंह कांग्रेस मंे नेतृत्व परिवर्तन चाह रहे थे और अगर प्रधानमंत्री नरसिंह राव के काले कारनामे एवं इनके कार्यकाल का सिंहावलोकन करें तो अजित सिंह की यह अभिलाषा लोकतंत्र के लिए षुभ थी। इतना आरोपी, इतना विवादास्पद, अनिर्णायक प्रधानमंत्री या नेतृत्व न रहे तो ठीक ही होगा देष के लिए, समाज के लिए। यादव कांग्रेस मंे आने से राजनीति में ठहराव का बोध एक तरफ महसूस करते हैं तो दूसरी तरफ सत्तापक्ष में आने से अख्तियार बढ़ने अहं भी उनमें समाया है। यह विरोधाभास उन्हें कम तक चलने देगा। क्योंकि संके त साफ है कि कांग्रेस सत्ता के साथ रह नहीं पाएगी। खास तौर पर इस नेतृत्व में तो नहीं एकदम नहीं।
अभय प्रताप सिंह, जिन्हें प्रतापगढ़ में क्षत्रित राजनीति का प्रतीक माना जाता है। उन्होंने दल-बदल करते समय वीपी सिंह और अजित सिंह को संकीर्ण मानसिकता का नेता कहा। जद से चुनाव जीतकर जद में गए फिर आज अजित सिंह पर आरोप लगा रहे हंै क्योंकि उन्हें 35 करोड़ रुपए का हिसाब चाहिए। जब वे पार्टी सदस्य थे तब उन्होंने हिसाब क्यों नहीं मांगा। यद्यपि यह भी सही है कि अजित ंिसह का दूसरी बार अविष्वास प्रस्ताव पर जद से टूटने के लिए कांग्रेस से प्रलोभन मिला था। अजित सिंह चार मत्रियों के लिए कैबिनेट दर्जा चाहते थे। कांग्रेस सिर्फ अजित सिंह को देने को तैयार थे उस समय अभय प्रताप सिंह को अजित का साथ छोड़ना चाहिए था। अभय प्रताप सिंह पुष्तैनी कांग्रेसी हैं। इनके पिता बड़े राजा के नाम से ख्यात अजित प्रताप सिंह कांगे्रस मंत्रिमंडल में मंत्री भी रह चुके हैं। अर्जुन सिंह का प्रतापगढ़ कार्यक्रम सफल करवाने में इनका भी हाथ था। इन सातो सांसदों को मध्यावधि चुनाव में आम आदमी पर पड़ने वाले बोझ का ख्याल आया।
यह तो सुखद परंतु इस ख्याल के पीछे उनका स्थायित्व और सत्य कितना है यह तो समय बताएगा। अभय प्रताप सिंह उन लोगों में हैं। जिन्होंने 1989 में वीपी सिंह के लिए प्रधानमंत्री पद प्रषस्त करने के लिए यहां तक नारा दिया कि दिल्ली की गद्दी पर पृथ्वीराज चैहान के बाद दूसरी बार। कांग्रेस में आना दे, समाज या राजनीति के लिए नहीं दादा भाई दिनेष सिंह से अच्छे संबंधों के लिए आवष्यक मानते हैं और यही इनकी प्रसन्नता है। गोंविंद चंद्र मुंडा ने दल-बदल कने की पूरी कलई खोली। छह बार दल-बदल करने के बाद ताउम्र कांग्रेस में रहने की प्रतिबद्धता हंडिया और व्हिसकी स्काच पीने वाले अभ्यस्त व्यक्ति षराब बंदी चलाएगा। सचमुच यह कांग्रेस से गांधी जी का रहकर ही संभव है क्योंकि कांग्रेस से गांधी जी का गहरा रिष्ता था और गांधी जी का षराब बंदी से। मुंडा पर षराब पीकर संसद में आने का आरोप है। जिसे मुंडा स्वीकारते हैं। क्योंकि वे आस्तिक हैं। भगवान से संसद की तुलना करते हैं। हंडिया और बिहार की व्हिस्की पीने की बात तो स्वीकारते हैं। सुब्रमण्यम स्वामी की मुहिम का खुलासा भी मंुडा ने खूब किया और कहा मेरे नाम पर स्वामी ने 40 लाख रुपए कांग्रेस से लिए। इससे साफ जाहिर होता है कि स्वामी कांग्रेस की ओर से दल-बदल मुहिम में षामिल थे।
मुंडा पांच वर्षों तक राव को प्रधानमंत्री बनाए रखने के लिए इंका में आए हैं। राव पर तमाम आरोप हैं। राव सत्ता में है। सामथ्र्यवान है-समरथ को नहीं दोष गोसाई। जैसी कहावत का पूरा-पूरा लाभ उठा रहे हैं। इन्हें सत्यमेव जयते जानने वाले मुंडा स्थित रखेंगे पांच साल, क्योंकि राव के पुत्र राजेष्वर राव ने इनके सचिव आर.के .जैन को लालच दिया। लालच क्रम आदमी की मनोवृत्ति व मनोविकार का अंग है। फिर लालच सत्य है तो सत्यमेव जयते होना ही चाहिए। मंुडा की साफगोई काबिले तारीफ है। उन्होंने स्वीकार किया खनन विभाग मांगा है उन्होंने उपमंत्री पद सहित मुंडा ने स्वीकार किया कि उन्हें सिंगाडा भेजा गया जहां विद्याचरण षुक्ल का दामाद राजदूत है। उन्हें कांग्रेस में लाने के लिए कांग्रेस ने भजन लाल का उपयोग किया। मंुडा को सूरजकुंड भेजा गया। वहां उनके पास ब्यूटीलुक वूमन (सुंदर औरतें) उनके लिए प्रस्तुत की गयी। वहां मस्ती किया मुंडा ने। आखिर यह कांग्रेस सत्ता बचाने के लिए इस तरह के हथियार अख्तियार करने पर क्यों तुली हुई है। उसने यह सब करके जिस अनैतिकता, अमर्यादा का परिचय दिया। उससे यदि कांग्रेस के किसी भी सांसद में नैतिकता षेष होती तो कांग्रेसी राजनीति से संन्यास ले लेता लेकिन ऐसा नहीं हुआ इससे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कांग्रेस अपने हित तृष्टि के लिए देष, सम्मान, समाज और इसके प्रति किसी भी दायित्व में कतराने के साथ-साथ किसी भी हद तक गिर जाने को तैयार खड़ी हैै।
यह दल-बदल कांग्रेस की लाचार नरसिंह सरकार बचाने का तीसरा, प्रयास है। परंतु इस बार जो कुछ भी हुआ उससे संसदीय इतिहास का काला अध्याय लिखने के लिए षर्म से परे कांग्रेसी माफ नहीं किए जाएंगे। वैसे कांग्रेस खासतौर से नरसिंह राव का नैतिकता, दायित्वबोध से कोई रिष्ता नहीं है और ऐसे कंधों पर देष का वर्तमान और भविष्य टिका हैै फिर हमें हताष होकर बैठना पड़ेगा या पांच वर्षों तक सरकार बनाने की संवैधानिक वेदना का बोध जीना पड़ेगा।
षिक्षा माफिया रामलखन सिंह यादव कांग्रेसी थे। इस बार कांगे्रस की हवा खराब देख कर जद के टिकट से आराम से संासद हो गए। इनके कांग्रेस में चले जाने की संभावना हमारे एक सहकर्मी ने पहले ही व्यक्त की थी परंतु संभावना के लिए कोई ठोस व पुष्ट प्रमाण नहीं थे। राम लखन सिंह का मानना है कि जद में हुई उपेक्षा के कारण कांग्रेस में वापस आए। इन्होंने ही छह अगस्त और सांसदों को अपने घर वापसी के लिए राजी किया। धुर कांग्रेसी यादव के लिए राजी किया। धुर कांग्रेसी यादव के लिए राव सहानुभूति के पात्र हैं। यह यथार्थ बोध यादव का कौषल है। यानि कांग्रेस ने सरकार चलाने के लिए, सरकार बचाने के लिए धन व्यय किया। खरीद-फरोख्त बढ़ाया-चलाया। सत्ता को व्यवसाय बनाया जिसमें निवेष कर लाभ कमाने की व्यवस्था दी। सांप्रदायिक ताकतों से देष को बचाने के लिए अगर यादव कांग्रेस में गए तो उन्होंने सरासर गलती की क्योंकि इसके लिए लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस से बड़ा काम किया है। उन्हीं के कारण बिहार में भाजपा की रामलहर ठंडी पड़ गयी। यह बात दूसरी है कि वहां संप्रदायवाद का स्थान जातिवाद ने लिया है। परंतु यादव षायद यह भूल गए कि कांग्रेस ही वह पार्टी हे जिसने अपने हितों के लिए मंदिर का ताला खुलवाया, षिलान्यास कराया और विहिप जैसी संस्था को मान्यता प्रदान करके उसकी रथ परिक्रमा आरंभ करवाई।
इतना ही नहीं कांग्रेस के नेता राजीव गांधी का पत्र आरएसएस के मुख्यालय में आयोजित एक मीटिंग में पढ़ा गया। 1984 के चुनावों में आरएसएस के लोगों ने कांग्रेस का ही चुनाव प्रचार किया था फिर किस संाप्रदायिकता से बचाना चाहते हंै देष को ? सोना, कोयला, लाटरी माफिया न होकर षिक्षा माफिया होने का फख्र जीने का बोध और अहं उनमें कूट-कूटकर भरा है। उन्हें नहीं पता साधन षुचिता के प्रबल ऐतिहासिक प्रतिबद्धता के हम पक्षधर रहे है। माफिया, माफिया है चाहे वह किसी का भी हो।
यादव षिक्षा के प्रसार के प्रति प्रतिबद्ध है। आखिर किस षिक्षा के जिसमें वो जी रहे हैं या जिससे वो जी रहे हैं। ऐसी दोषपूर्ण षिक्षा को षिक्षा मानने वाले लोग देष के नेतृत्व में षरीक है इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ?
विपक्षी दल षासन नहीं चला सकते। इसलिए यदि चरण दास कांग्रेस में आए उन्हें विपक्ष, षासन, सत्ता की परिभाषाएं नहीं पता हैं। राजनीतिक स्थिरता का भारी बोझ उनके कंधों पर है परंतु उन्हें नहंी पता कि इससे भी बड़ी चीज है स्वस्थ, स्वच्छ राजनीतिक व संसदीय मर्यादांए। अनादि दास 90 करोड़ रुपए व आदिवासी कल्याण आयोग की अध्यक्षता में स्थिरता का कोई रिष्ता अपनी समझ में भले रखते हों परंतु हमें नहीं समझ में आता है। बहुभाषा भाषी होने के कारण इन्हें कांग्रेस में लौयना आसान हो गया। यानि प्रधानमंत्री अमिधा, लक्षणा, व्यंजन की भाषाएं मौन की स्वीकृति जो भी करते हंै। उन सभी के पूरक स्वयं को मानते हैं। अनादि चरण दास।
राम सरन यादव ने साफ-साफ स्वीकार किया कि वे सत्ता में भागीदारी चाहते हंै। यह कांग्रेस में ही संभव है। प्रधानमंत्री पर लगे एक करोड़ रुपए के आरोप पर प्रधानमंत्री का पक्ष लेते हुए इन्होंने जो बचकाना तर्क दिया है। उससे यह साफ हो जाना चाहिए कि राजनीति में उनकी अषिक्षा देष को कितना बेड़ा गर्क कर रही है। क्योंकि अगर प्रधानमंत्री 40 लाख रुपए मुंडा के नाम पर स्वामी को दे सकते हैं। तो उन्हें एक करोड़ रुपए लेने में कोई आपत्ति क्यों होना चाहिए। प्रधानमंत्री ने रामस्वामी के स में संसद की मर्यादा का जिस तरह उल्लंघन किया उससे कम षर्मनाक बात है एक करोड़ रुपए लेना। ईमानदार प्रतिनिधि होने के यही दृष्टांत पर्याप्त है कि चार बार दल बदल कर चुके हैं दास और इस बार भी दल-बदल में क्षेत्र के विकास के लिए किसी योजना, परियोजना को मंजूरी की जगह नाजुक मौके पर कांग्रेस बचाने के लिए अपने भावनाओं की कद्र प्रधानमंत्री से कहना चाह रहे है। इन्होंने यह खुलासा किया कि अजित सिंह कांग्रेस मंे नेतृत्व परिवर्तन चाह रहे थे और अगर प्रधानमंत्री नरसिंह राव के काले कारनामे एवं इनके कार्यकाल का सिंहावलोकन करें तो अजित सिंह की यह अभिलाषा लोकतंत्र के लिए षुभ थी। इतना आरोपी, इतना विवादास्पद, अनिर्णायक प्रधानमंत्री या नेतृत्व न रहे तो ठीक ही होगा देष के लिए, समाज के लिए। यादव कांग्रेस मंे आने से राजनीति में ठहराव का बोध एक तरफ महसूस करते हैं तो दूसरी तरफ सत्तापक्ष में आने से अख्तियार बढ़ने अहं भी उनमें समाया है। यह विरोधाभास उन्हें कम तक चलने देगा। क्योंकि संके त साफ है कि कांग्रेस सत्ता के साथ रह नहीं पाएगी। खास तौर पर इस नेतृत्व में तो नहीं एकदम नहीं।
अभय प्रताप सिंह, जिन्हें प्रतापगढ़ में क्षत्रित राजनीति का प्रतीक माना जाता है। उन्होंने दल-बदल करते समय वीपी सिंह और अजित सिंह को संकीर्ण मानसिकता का नेता कहा। जद से चुनाव जीतकर जद में गए फिर आज अजित सिंह पर आरोप लगा रहे हंै क्योंकि उन्हें 35 करोड़ रुपए का हिसाब चाहिए। जब वे पार्टी सदस्य थे तब उन्होंने हिसाब क्यों नहीं मांगा। यद्यपि यह भी सही है कि अजित ंिसह का दूसरी बार अविष्वास प्रस्ताव पर जद से टूटने के लिए कांग्रेस से प्रलोभन मिला था। अजित सिंह चार मत्रियों के लिए कैबिनेट दर्जा चाहते थे। कांग्रेस सिर्फ अजित सिंह को देने को तैयार थे उस समय अभय प्रताप सिंह को अजित का साथ छोड़ना चाहिए था। अभय प्रताप सिंह पुष्तैनी कांग्रेसी हैं। इनके पिता बड़े राजा के नाम से ख्यात अजित प्रताप सिंह कांगे्रस मंत्रिमंडल में मंत्री भी रह चुके हैं। अर्जुन सिंह का प्रतापगढ़ कार्यक्रम सफल करवाने में इनका भी हाथ था। इन सातो सांसदों को मध्यावधि चुनाव में आम आदमी पर पड़ने वाले बोझ का ख्याल आया।
यह तो सुखद परंतु इस ख्याल के पीछे उनका स्थायित्व और सत्य कितना है यह तो समय बताएगा। अभय प्रताप सिंह उन लोगों में हैं। जिन्होंने 1989 में वीपी सिंह के लिए प्रधानमंत्री पद प्रषस्त करने के लिए यहां तक नारा दिया कि दिल्ली की गद्दी पर पृथ्वीराज चैहान के बाद दूसरी बार। कांग्रेस में आना दे, समाज या राजनीति के लिए नहीं दादा भाई दिनेष सिंह से अच्छे संबंधों के लिए आवष्यक मानते हैं और यही इनकी प्रसन्नता है। गोंविंद चंद्र मुंडा ने दल-बदल कने की पूरी कलई खोली। छह बार दल-बदल करने के बाद ताउम्र कांग्रेस में रहने की प्रतिबद्धता हंडिया और व्हिसकी स्काच पीने वाले अभ्यस्त व्यक्ति षराब बंदी चलाएगा। सचमुच यह कांग्रेस से गांधी जी का रहकर ही संभव है क्योंकि कांग्रेस से गांधी जी का गहरा रिष्ता था और गांधी जी का षराब बंदी से। मुंडा पर षराब पीकर संसद में आने का आरोप है। जिसे मुंडा स्वीकारते हैं। क्योंकि वे आस्तिक हैं। भगवान से संसद की तुलना करते हैं। हंडिया और बिहार की व्हिस्की पीने की बात तो स्वीकारते हैं। सुब्रमण्यम स्वामी की मुहिम का खुलासा भी मंुडा ने खूब किया और कहा मेरे नाम पर स्वामी ने 40 लाख रुपए कांग्रेस से लिए। इससे साफ जाहिर होता है कि स्वामी कांग्रेस की ओर से दल-बदल मुहिम में षामिल थे।
मुंडा पांच वर्षों तक राव को प्रधानमंत्री बनाए रखने के लिए इंका में आए हैं। राव पर तमाम आरोप हैं। राव सत्ता में है। सामथ्र्यवान है-समरथ को नहीं दोष गोसाई। जैसी कहावत का पूरा-पूरा लाभ उठा रहे हैं। इन्हें सत्यमेव जयते जानने वाले मुंडा स्थित रखेंगे पांच साल, क्योंकि राव के पुत्र राजेष्वर राव ने इनके सचिव आर.के .जैन को लालच दिया। लालच क्रम आदमी की मनोवृत्ति व मनोविकार का अंग है। फिर लालच सत्य है तो सत्यमेव जयते होना ही चाहिए। मंुडा की साफगोई काबिले तारीफ है। उन्होंने स्वीकार किया खनन विभाग मांगा है उन्होंने उपमंत्री पद सहित मुंडा ने स्वीकार किया कि उन्हें सिंगाडा भेजा गया जहां विद्याचरण षुक्ल का दामाद राजदूत है। उन्हें कांग्रेस में लाने के लिए कांग्रेस ने भजन लाल का उपयोग किया। मंुडा को सूरजकुंड भेजा गया। वहां उनके पास ब्यूटीलुक वूमन (सुंदर औरतें) उनके लिए प्रस्तुत की गयी। वहां मस्ती किया मुंडा ने। आखिर यह कांग्रेस सत्ता बचाने के लिए इस तरह के हथियार अख्तियार करने पर क्यों तुली हुई है। उसने यह सब करके जिस अनैतिकता, अमर्यादा का परिचय दिया। उससे यदि कांग्रेस के किसी भी सांसद में नैतिकता षेष होती तो कांग्रेसी राजनीति से संन्यास ले लेता लेकिन ऐसा नहीं हुआ इससे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कांग्रेस अपने हित तृष्टि के लिए देष, सम्मान, समाज और इसके प्रति किसी भी दायित्व में कतराने के साथ-साथ किसी भी हद तक गिर जाने को तैयार खड़ी हैै।
यह दल-बदल कांग्रेस की लाचार नरसिंह सरकार बचाने का तीसरा, प्रयास है। परंतु इस बार जो कुछ भी हुआ उससे संसदीय इतिहास का काला अध्याय लिखने के लिए षर्म से परे कांग्रेसी माफ नहीं किए जाएंगे। वैसे कांग्रेस खासतौर से नरसिंह राव का नैतिकता, दायित्वबोध से कोई रिष्ता नहीं है और ऐसे कंधों पर देष का वर्तमान और भविष्य टिका हैै फिर हमें हताष होकर बैठना पड़ेगा या पांच वर्षों तक सरकार बनाने की संवैधानिक वेदना का बोध जीना पड़ेगा।
Next Story