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क्या औचित्य है यात्रा का ?
भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी मुद्दों भ्रष्टाचार और आर्थिक नीतियों को जिस तरह अगले चुनाव में हथियार बनाने की घोषणा की थी और इस ओर भाजपा नेतृत्व जिस मजबूती से जुटा था, उससे यह लगने लगा था कि देश के लिए आवश्यक सोच राजनीतिक पार्टियों मंे जागृत होने जा रही है। परंतु संविधान के 80वें संशोधन के माध्यम से धर्म विधेयकों के संसद में स्थगन के बाद भी धर्म विधेयकों के खिलाफ जनादेश यात्रा निकालने का भाजपाई निर्णय निश्चित तौर से चैंकाने वाला है। एक ऐसा विधेयक जिसे कांग्रेस को संसद में स्थगित करना पड़ा। उसके खिलाफ यात्रा का औचित्य क्या है? आगामी 11 से 25 सितम्बर के बीच भाजपा धर्म विधेयकों के खिलाफ जनादेश यात्रा निकालेगी। यह यात्रा 14 राज्यों व दो के न्द्र शासित प्रदेशों से गुजरते हुए पंद्रह हजार किलोमीटर दूरी तय करेगी, जिसका उद्देश्य लोकतंत्र रक्षणाय, धर्म चक्र परिवर्तनाय है। यह कुछ उसी तर्ज पर लगता है जैसे कि उत्तर प्रदेश में एक विशेष व्यक्ति के पुलिस महानिदेशक होने पर पुलिस विभाग में स्लोगन लोगो के रूप में स्वीकार किया परित्राणाय साधुनाम, विनाशाय च दुष्कृताम। इसमें यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि साधुनाम और दुष्कृताम कौन, क्यों, कैसे हैं? और धीरे-धीरे यह स्लोगन स्वतः डार्विन और लैमार्क के सिद्धांत के तहत समाप्त हो गया।
इसी तरह इस यात्रा में लोकतंत्र क्या है और धर्म क्या है जैसी विषयवस्तु भी अपरिभाषित रह गयी है। रह जाएगी। धर्म क्या है? यह दृष्टिबोध है। आत्म स्वीकृति है। धर्म व्यक्ति सापेक्ष और स्थिति सापेक्ष है। फिर राजनीति से धर्म को अलग करने की साजिश क्यों? क्योंकि धर्म की कुछ स्वनिर्धारित परिभाषा से एक दल विशेष को राजनीतिक लाभ होने जा रहा है। जबकि अरूण गोविल को रामायण का राम होने के कारण इलाहाबाद चुनाव मंे बहुगुणा के खिलाफ उतारा जाता है। तब धर्म का दुरूपयोग नहीं है। जब राजीव गांधी मंदिर का शिलान्यास करते हैं तो वह ऐतिहासिकता की पुनरावृत्ति का प्रयास है। परंतु जब भाजपाई राम मंदिर निर्माण के लिए आह्वान कर सरकार बना लेते हैं। फिर सरकार बनाने की हैसियत में दिखते हैं तो धर्म विधेयक राजनीति से धर्म को अलग करने की बात क्यों? जीवन का एक लक्ष्य है-सत्य और आदमी जीवन में निरंतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर जाना चाहता है। यही आदमी के विकास का इतिहास भी है। परन्तु यदि आपको धर्म जैसा उच्चतम सत्य को इंकार करेंगे तो इस इतिहास क्रम के विरोध में आप खडे़ हैं। ऐसा स्पष्ट हो जाएगा और यह स्पष्ट होना इस बात का द्योतक है कि उच्चतम सत्य से निम्नतम सत्य की ओर आ रहे हैं। आखिर क्यों? इन्हीं परिस्थितियों में राजनीति में धर्म की जगह अधर्म प्रभावी होगा। क्योंकि स्थितियां या तो धर्म के होने की हैं या धर्म के न होने की। होना न होना यही तो है। इसी कारण विशिष्टता द्वैत, अद्वैत जैसे दार्शनिक, धार्मिक व व्यावहारिक सत्य की स्थापनाएं हुईं।
सामान्य मनोविज्ञान यह बताता है कि किसी भी भावना या विचार को भड़काने का सबसे अच्छा विचार है, उसे दबाना। एक सीमा के बाद हर दमित इच्छा भावना और वर्ग विस्फोट करते हैं। परंतु लोकतंत्र का आदर्श यही है कि वह हर तरह की भावना को निकलने का अवसर देता है। कितनी भी नकारात्मक या घातक विचारधारा क्यों न हो। उसे अगर खुली निर्बाध अभिव्यक्ति मिलती है तो उसका काफी हद तक रेचन हो जाता है। परंतु हमारे लोकतंत्र में इस रेचन पर रोक लगाने की कोशिश जारी है।
इसी का परिणाम है कि इस 80वें विधेयक के खिलाफ संसद की खासी प्रतिक्रिया होने के बाद भी, कांग्रेस की संसदीय बोर्ड की बैठक में यह बात दुहराई गयी कि कांग्रेस इस विधेयक को पास करवाने के लिए संसद का विशेष अधिवेशन बुला सकती है। इतना ही नहीं, जन प्रतिनिधि कानून में संशोधन करके भी कांग्रेस अपनी मंशा सिद्ध करने पर आमदा है।
इस विधेयक का तात्कालिक परिणाम उद्देश्य यह है कि अयोध्या की घटनाओं के कारण कट्टर मुस्लिमवाद के समानान्तर कट्टर हिन्दू पंथ का जो आविर्भाव हुआ है, उससे भाजपा को मिलने वाले लाभ पर अंकुश लगाया जा सके ।
दूसरी ओर मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने और बनाए रखने की कोशिश जो कांग्रेस की ओर से हो रही है तथा गत 15 अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री का शर्मनाक उद्घोष दूरदर्शन में दूध का दूध पानी का पानी अलग करने की स्वार्थी मंशा का मजबूती से प्रकटीकरण। तभी तो संसद की संयुक्त प्रवर समिति ने इस प्रयास और इन विधेयकों को राजनीतिक दृष्टि से विकृत संवैधानिक दृष्टि से संदिग्ध और सांस्कृतिक दृष्टि से राष्ट्रीय मूल्यों का हनन करने वाला बताया है।
साम्प्रदायिक उन्माद से लड़ने के लिए सरकार के पास पहले से ही कई कानून हैं। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा-29(क), 123 व 125 के तहत निर्वाचनों के दौरान धर्म के हस्तक्षेप को रोकने के कड़े उपाय की पर्याप्त शक्ति है। भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 153 (ए) धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों की शत्रुता बढ़ाने, ऐसा कोई कार्य जो विभिन्न धार्मिक ग्रुपों के बीच सौहार्द को तोड़ता है। व्यायाम, संचालन, ड्रिल आदि का आयोजन यह जानते हुए भी कि ऐसी गतिविधियों में भाग का प्रशिक्षण लेने वाले किसी धार्मिक ग्रुप के विरूद्ध प्रयोग करंेगे। या ऐसे धार्मिक समुदाय के सदस्य में भय, चिंता अथवा असुरक्षा की भावना फैलायेंगे। धारा 505 की उपधारा-2, उपधारा-3 धर्म के आधार पर शत्रुता, नफरत और दुर्भावना उत्पन्न करने या बढ़ावा देने वाले वक्तव्य देने या किसी धर्म स्थल पर या कोई सभा जो धार्मिक पूजा या धार्मिक समारोह करने में लगी हो, मे अपराध करना लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा-8 के साथ पठित पूजास्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1991 की धारा-6 (किसी पूजा स्थल मंे परिवर्तन करने का अपराध)। ऐसे अपराधों के लिए सजा पाये व्यक्तियों को संसद तथा राज्य विधान मण्डलों की सदस्यता के लिए छह वर्ष तक की अवधि के लिए अयोग्य ठहराती है। इसके अतिरिक्त धार्मिक संस्था (दुरूपयोग निवारण) अधिनियम, 1988 है, जो राजनैतिक क्रियाकलापों में धार्मिक संस्थाओं द्वारा किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप पर रोक लगाता है।
इसके बाद भी नरसिंह राव भी धर्म विधेयक को प्रस्तुत करना चाहती है। उपलब्ध व प्रस्तावित उपबंधों, धाराओं का प्रयोग सार्थक व आवश्यक हद तक क्यों नहीं कर रही है।
सरकार 80वें संविधान संशोधन द्वारा यह प्रावधान करना चाह रही है कि उम्मीदवारों की उम्मीदवारी वह अयोग्य घोषित कर सके । यथा एक अनुच्छेद 28-ए, जिसमें सरकार को यह अधिकार दिया गया कि वह किसी भी संगठन को गैर कानूनी करार दे। (जिसमें राजनैतिक दल और ट्रेड यूनियन को भी नहीं छोड़ा गया है) और दूसरे अनुच्छेद-102ए और अनुच्छेद 191-ए, जिसमें यह व्यवस्था दी गयी है कि यदि अधिकृत अधिकारी (जिसके बारे में यह स्पष्ट उल्लेख बाद में किसी उप व्यवस्था द्वारा किया जाएगा)। यह अनुभव करे कि संसद या विधान सभा के किसी प्रत्याशी ने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए धर्म या धार्मिक प्रतीकों का आश्रय लिया है, तो संसद या विधानसभा की उम्मीदवारी के अयोग्य करार दिया जा सकता है। विधेयक से लोकतंत्र की रेचन क्षमता पर प्रभाव डाला जा रहा है। इससे हमारा सार्थक व श्रेष्ठ लोकतंत्र प्रभावी हो रहा है। एक ऐसे समय जब राजनीति से अपराध, अपराधी और साम्प्रदायिक ताकतों को राजनीति से अलग करके स्वस्थ समाज निर्माण की दशा में ठोस पहल की जरूरत है। तब भाजपा अपनी ताकतों का प्रयोग जनादेश यात्रा निकालने में लगा रही है। जिससे समाज टूटेगा क्योंकि कट्टर मुस्लिम पंथ का जवाब कट्टर हिंदू पंथ नहीं हो सकता। भारत के राजनीतिक परिदृश्य की विवशता की उपलब्धि रही है आमजन की समस्याओं व मौलिक समस्याओं से काटने की। तभी तो समानता लाओ की जगह गरीबी हटाओ जैसा नारा दिया गया है।
यहां लोकतंत्र में प्रत्याशी को संसद में प्रवेश का जनादेश मिलता है। सांसद, विधायक बनकर भ्रष्टाचार करने, दल बदल लेने। संसद व देश की मर्यादा को भंग करने का जनादेश किसी को नहीं मिलता परंतु हमारा राजनीतिज्ञ करता वही है, जो जनादेश के विपरीत होता है। जनादेशों की अवमानना राजनीति का मूल्य है। क्योंकि जनादेश कठिन होते हैं। अगर कुछ लोग मिल बांटकर किसी देश, समाज और संस्कृति की सम्पन्न धरोहरों के खिलाफ किसी तरह मतदान कर दें तो क्या उसे जनादेश माना जाएगा। अब जनादेश के लिए ऐतिहासिक, सांस्कृतिक परम्परा से कटकर देखना व सोचना संभव नहीं है न ही होना चाहिए।
इसी तरह इस यात्रा में लोकतंत्र क्या है और धर्म क्या है जैसी विषयवस्तु भी अपरिभाषित रह गयी है। रह जाएगी। धर्म क्या है? यह दृष्टिबोध है। आत्म स्वीकृति है। धर्म व्यक्ति सापेक्ष और स्थिति सापेक्ष है। फिर राजनीति से धर्म को अलग करने की साजिश क्यों? क्योंकि धर्म की कुछ स्वनिर्धारित परिभाषा से एक दल विशेष को राजनीतिक लाभ होने जा रहा है। जबकि अरूण गोविल को रामायण का राम होने के कारण इलाहाबाद चुनाव मंे बहुगुणा के खिलाफ उतारा जाता है। तब धर्म का दुरूपयोग नहीं है। जब राजीव गांधी मंदिर का शिलान्यास करते हैं तो वह ऐतिहासिकता की पुनरावृत्ति का प्रयास है। परंतु जब भाजपाई राम मंदिर निर्माण के लिए आह्वान कर सरकार बना लेते हैं। फिर सरकार बनाने की हैसियत में दिखते हैं तो धर्म विधेयक राजनीति से धर्म को अलग करने की बात क्यों? जीवन का एक लक्ष्य है-सत्य और आदमी जीवन में निरंतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर जाना चाहता है। यही आदमी के विकास का इतिहास भी है। परन्तु यदि आपको धर्म जैसा उच्चतम सत्य को इंकार करेंगे तो इस इतिहास क्रम के विरोध में आप खडे़ हैं। ऐसा स्पष्ट हो जाएगा और यह स्पष्ट होना इस बात का द्योतक है कि उच्चतम सत्य से निम्नतम सत्य की ओर आ रहे हैं। आखिर क्यों? इन्हीं परिस्थितियों में राजनीति में धर्म की जगह अधर्म प्रभावी होगा। क्योंकि स्थितियां या तो धर्म के होने की हैं या धर्म के न होने की। होना न होना यही तो है। इसी कारण विशिष्टता द्वैत, अद्वैत जैसे दार्शनिक, धार्मिक व व्यावहारिक सत्य की स्थापनाएं हुईं।
सामान्य मनोविज्ञान यह बताता है कि किसी भी भावना या विचार को भड़काने का सबसे अच्छा विचार है, उसे दबाना। एक सीमा के बाद हर दमित इच्छा भावना और वर्ग विस्फोट करते हैं। परंतु लोकतंत्र का आदर्श यही है कि वह हर तरह की भावना को निकलने का अवसर देता है। कितनी भी नकारात्मक या घातक विचारधारा क्यों न हो। उसे अगर खुली निर्बाध अभिव्यक्ति मिलती है तो उसका काफी हद तक रेचन हो जाता है। परंतु हमारे लोकतंत्र में इस रेचन पर रोक लगाने की कोशिश जारी है।
इसी का परिणाम है कि इस 80वें विधेयक के खिलाफ संसद की खासी प्रतिक्रिया होने के बाद भी, कांग्रेस की संसदीय बोर्ड की बैठक में यह बात दुहराई गयी कि कांग्रेस इस विधेयक को पास करवाने के लिए संसद का विशेष अधिवेशन बुला सकती है। इतना ही नहीं, जन प्रतिनिधि कानून में संशोधन करके भी कांग्रेस अपनी मंशा सिद्ध करने पर आमदा है।
इस विधेयक का तात्कालिक परिणाम उद्देश्य यह है कि अयोध्या की घटनाओं के कारण कट्टर मुस्लिमवाद के समानान्तर कट्टर हिन्दू पंथ का जो आविर्भाव हुआ है, उससे भाजपा को मिलने वाले लाभ पर अंकुश लगाया जा सके ।
दूसरी ओर मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने और बनाए रखने की कोशिश जो कांग्रेस की ओर से हो रही है तथा गत 15 अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री का शर्मनाक उद्घोष दूरदर्शन में दूध का दूध पानी का पानी अलग करने की स्वार्थी मंशा का मजबूती से प्रकटीकरण। तभी तो संसद की संयुक्त प्रवर समिति ने इस प्रयास और इन विधेयकों को राजनीतिक दृष्टि से विकृत संवैधानिक दृष्टि से संदिग्ध और सांस्कृतिक दृष्टि से राष्ट्रीय मूल्यों का हनन करने वाला बताया है।
साम्प्रदायिक उन्माद से लड़ने के लिए सरकार के पास पहले से ही कई कानून हैं। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा-29(क), 123 व 125 के तहत निर्वाचनों के दौरान धर्म के हस्तक्षेप को रोकने के कड़े उपाय की पर्याप्त शक्ति है। भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 153 (ए) धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों की शत्रुता बढ़ाने, ऐसा कोई कार्य जो विभिन्न धार्मिक ग्रुपों के बीच सौहार्द को तोड़ता है। व्यायाम, संचालन, ड्रिल आदि का आयोजन यह जानते हुए भी कि ऐसी गतिविधियों में भाग का प्रशिक्षण लेने वाले किसी धार्मिक ग्रुप के विरूद्ध प्रयोग करंेगे। या ऐसे धार्मिक समुदाय के सदस्य में भय, चिंता अथवा असुरक्षा की भावना फैलायेंगे। धारा 505 की उपधारा-2, उपधारा-3 धर्म के आधार पर शत्रुता, नफरत और दुर्भावना उत्पन्न करने या बढ़ावा देने वाले वक्तव्य देने या किसी धर्म स्थल पर या कोई सभा जो धार्मिक पूजा या धार्मिक समारोह करने में लगी हो, मे अपराध करना लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा-8 के साथ पठित पूजास्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1991 की धारा-6 (किसी पूजा स्थल मंे परिवर्तन करने का अपराध)। ऐसे अपराधों के लिए सजा पाये व्यक्तियों को संसद तथा राज्य विधान मण्डलों की सदस्यता के लिए छह वर्ष तक की अवधि के लिए अयोग्य ठहराती है। इसके अतिरिक्त धार्मिक संस्था (दुरूपयोग निवारण) अधिनियम, 1988 है, जो राजनैतिक क्रियाकलापों में धार्मिक संस्थाओं द्वारा किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप पर रोक लगाता है।
इसके बाद भी नरसिंह राव भी धर्म विधेयक को प्रस्तुत करना चाहती है। उपलब्ध व प्रस्तावित उपबंधों, धाराओं का प्रयोग सार्थक व आवश्यक हद तक क्यों नहीं कर रही है।
सरकार 80वें संविधान संशोधन द्वारा यह प्रावधान करना चाह रही है कि उम्मीदवारों की उम्मीदवारी वह अयोग्य घोषित कर सके । यथा एक अनुच्छेद 28-ए, जिसमें सरकार को यह अधिकार दिया गया कि वह किसी भी संगठन को गैर कानूनी करार दे। (जिसमें राजनैतिक दल और ट्रेड यूनियन को भी नहीं छोड़ा गया है) और दूसरे अनुच्छेद-102ए और अनुच्छेद 191-ए, जिसमें यह व्यवस्था दी गयी है कि यदि अधिकृत अधिकारी (जिसके बारे में यह स्पष्ट उल्लेख बाद में किसी उप व्यवस्था द्वारा किया जाएगा)। यह अनुभव करे कि संसद या विधान सभा के किसी प्रत्याशी ने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए धर्म या धार्मिक प्रतीकों का आश्रय लिया है, तो संसद या विधानसभा की उम्मीदवारी के अयोग्य करार दिया जा सकता है। विधेयक से लोकतंत्र की रेचन क्षमता पर प्रभाव डाला जा रहा है। इससे हमारा सार्थक व श्रेष्ठ लोकतंत्र प्रभावी हो रहा है। एक ऐसे समय जब राजनीति से अपराध, अपराधी और साम्प्रदायिक ताकतों को राजनीति से अलग करके स्वस्थ समाज निर्माण की दशा में ठोस पहल की जरूरत है। तब भाजपा अपनी ताकतों का प्रयोग जनादेश यात्रा निकालने में लगा रही है। जिससे समाज टूटेगा क्योंकि कट्टर मुस्लिम पंथ का जवाब कट्टर हिंदू पंथ नहीं हो सकता। भारत के राजनीतिक परिदृश्य की विवशता की उपलब्धि रही है आमजन की समस्याओं व मौलिक समस्याओं से काटने की। तभी तो समानता लाओ की जगह गरीबी हटाओ जैसा नारा दिया गया है।
यहां लोकतंत्र में प्रत्याशी को संसद में प्रवेश का जनादेश मिलता है। सांसद, विधायक बनकर भ्रष्टाचार करने, दल बदल लेने। संसद व देश की मर्यादा को भंग करने का जनादेश किसी को नहीं मिलता परंतु हमारा राजनीतिज्ञ करता वही है, जो जनादेश के विपरीत होता है। जनादेशों की अवमानना राजनीति का मूल्य है। क्योंकि जनादेश कठिन होते हैं। अगर कुछ लोग मिल बांटकर किसी देश, समाज और संस्कृति की सम्पन्न धरोहरों के खिलाफ किसी तरह मतदान कर दें तो क्या उसे जनादेश माना जाएगा। अब जनादेश के लिए ऐतिहासिक, सांस्कृतिक परम्परा से कटकर देखना व सोचना संभव नहीं है न ही होना चाहिए।
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