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इस राजनीति से तय नहीं होंगे सामाजिक मुद्दे

Dr. Yogesh mishr
Published on: 9 Oct 1993 2:27 PM IST
06 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में प्रतीकात्मक कारसेवा की ध्वंसात्मक परिणति के  समय विवादित ढांचे के  साथ जो कुछ हुआ वह हमारे लिए राष्ट्रीय शर्म का विषय है या नहीं? इससे हमारा संविधान आहत हुआ या नहीं? हमारी लोकतांत्रिक मर्यादाएं टूटीं या नहीं? यह सब कुछ बुद्धिजीवियों की खेमेबाजी की नैतिकता के  कारण आज तक तय नहीं हो पाया ओर न ही हो पाएगा। लेकिन एक बात हुई कि इससे हमारा साम्प्रदायिक सौहार्द टूटा, जो कुछ जैसे भी हो रहा है उससे लोकतांत्रिक मर्यादाएं टूटी। संविधान आहत हुआ।
वैसे तो राजनीति में सभी कुछ जायज है जैसी अवधारणा को सच साबित करते हुए हमारे संसदीय पटल से जो कुछ भी हो रही है उससे तो तौबा।
एक ओर छह राज्यों के  विधानसभाओं के  चुनाव की घोषणा। दूसरी ओर सीबीआई द्वारा 6 दिसम्बर की घटना के  लिए 40 लोगों के  खिलाफ आरोप पत्र? के न्द्र सरकार ऐसे कुसमय ऐसा करके  और करवाकर किस राष्ट्रीय शर्म को तय करने पर तुली है?
13 दिसम्बर को सीबीआई को इस धतकर्म की जांच करने का कार्य सौंपा गया था। एक ऐसी स्थिति में जब ध्वंस के  षड्यंत्र या ध्वंस के  मामले को देशी और विदेशी मीडिया ने सीधा-साधा प्रसारित किया हो फिर किन और कैसे प्रमाणों की आवश्यकता थी जिनकी जांच-परख में 10 माह का समय लगा?
प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने दिल्ली की एक रैली में कहा था कि दोषियों के  विरूद्ध 10-20 दिन में सख्त कदम उठाया जाएगा। प्रधानमंत्री के  इस बयान के  बाद आरोप पत्र का दाखिला, वह भी एक ऐसे समय जब उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री कल एक विशाल रैली को सम्बोधित करने वाले हों, तो क्या यह सब मुस्लिम तुष्टिकरण का आभास नहीं दिलाता है? इसे क्या सीबीआई का राजनीतिकरण नहीं स्वीकारेंगे? अगर जांच एजेंसी का उपयोग राजनीति के  लिए करने जैसी शर्मनाक गतिविधयां जारी रहती हैं तो मंदिर और मण्डल जैसे मुद्दों को राजनीति के  इतर चश्मे से कैसे देखा जा सकता है? कांग्रेस की लखनऊ की रैली से सपा व बसपा रैली की कड़ी लखनऊ की रैलियों का इस सत्र का अंतिम पड़ाव है। जिसे पूरा करने के  लिए सम्भावित मुख्यमंत्री का सपना संजोए कल्पनाथ राय भीड़ जुटाने की मुहिम में लगे हैं। इस रैली में भीड़ और आकर्षण पैदा करने वाले गन्ना मूल्य बढ़ाने की घोषणा करने की बात की गयी, परन्तु शेषन ने ऐसी किसी घोषण को उचित नहीं ठहराया। तब रैली से पूर्व ही गन्ने का मूल्य साढ़े सात रूपया प्रति क्विंटल विभाग द्वारा बढ़वाया गया फिर रैली से पहले आरोप पत्र दाखिल करवाकर किसान व अलपसंख्यक तुष्टिकरण की जो सामूहिक नीति अपनायी गयी वह सुखद और दूरगामी परिणाम देने वाली नहीं है। गन्ना मूल्य से किसानों के  वोट बैंक बढ़ाने और मुस्लिम तुष्टिकरण से अयोध्या काण्ड के  बाद से मुसलमान जो कांग्रेस से कटा है उसे वापस लाने का षड्यंत्र जारी है। कांग्रेस यह दो गलतियां करके  एक सही करने में तो नहीं जुटी है? उसे जानना चाहिए कि दो गलतियां मिलकर एक सही नहीं हो सकती।
एक ओर मुख्य चुनाव आयुक्त शेषन पर चारों ओर से बढ़ता दबाव फिर रैली से पूर्व अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के  लिए आरोप पत्र। किसान हित के  छलावा के  लिए गन्ना मूल्य में बढ़ोत्तरी। ये सभी निर्णय कांग्रेस की उन हरकतों की ओर इशारा करते हैं जिससे के न्द्र सरकार हमारे लोकतंत्र को क्रीतदास बनाकर एन-के न-प्रकारेण विजय चाहती है या किसी भी तरह पूर्व में भाजपा शासित चार राज्यों को लोकतंत्र बहाली की प्रक्रिया से वंचित करना चाह रही है।
कुछ लोग इसे कांग्रेस का अन्तरविरोध भी मान और स्वीकार कर सकते हैं परन्तु यह कांग्रेस का अन्तरविरोध नहीं हो सकता क्योंकि जब हम लोगों को अयोध्या मुद्दे पर सरकार और प्रशासन में अन्तरविरोध का आभास हो रहा था तब भी सोची-समझी चालें चली जा रही थीं। यथा एक दिन स्वविवेक या किसी के  निर्देश से फैजाबाद प्रशासन ने विवादित स्थल पर श्रद्धालुओं को दर्शन करने की अनुमति प्रदान की और दूसरे दिन ही यह सुविधा समाप्त हो गयी है। इतना ही नहीं इसी से जुड़ी दो और घटनाएं इसी के  साथ हुई हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ दर्शनों से सम्बन्धित याचिकाओं पर अपना निर्णय सुरक्षित कर लेती है तथा गृहमंत्री शंकरराव चह्वाण गड़बड़ी न होने देने की शर्त पर ध्वस्त स्थल पर नमाज की इजाजत देने का संके त प्रदान करते हैं? इन तीनों घटनाओं को एक सम्मिलित सोच की कड़ी माना जाना चाहिए। फिर कांग्रेस के  अन्तरविरोध का कोई प्रश्न शेष नहीं रह जाता। कांग्रेस हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को किसी भी कीमत पर बंधुवा बनाये रखना चाहती है।
18 माह की भाजपा सरकार को संवैधानिक दायित्व पूरा न करने के  आरोप में बर्खास्त किया गया था परन्तु यह तो सोचना ही होगा कि के न्द्र सरकार क्या उल-जुलूल बयान और मुस्लिम तुष्टिकरण के  इन हरकतों से संवैधानिक दायित्वों को पूरा कर रही? क्या के न्द्र सरकार ने संविधान के  धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को कायम रखने में ठोस प्रयास किये? यदि नहीं तो उसे किन संवैधानिक रक्षा के  हितार्थ सत्ता में बने रहने का अधिकार दिया गया है? व राजनीति को अलग करने का एक संविधान संशोधन चाहती हो वह चुनाव से पहले ऐसे अवसर सुलभ कराये जिससे किसी राजनीतिक पार्टी को धर्म आधारित चुनाव लड़ने का अवसर मिले, कहां तक उचित है? इस आरोप पत्र से भाजपा को एक बड़ा अवसर मिला जिससे वह मंदिर/राम के  लिए अपनी शहादत का प्रतिदान जनता से चाह सकती है। इन नेताओं की अगर गिरफ्तारियां होती हैं तो भी भाजपा और मजबूत होगी।
यानि धर्म आधारित राजनीति फलेगी-फूलेगी। यह भी जरूरी है कि धर्म आधारित राजनीति बंद होनी ही चाहिए। क्योंकि स्वतंत्रता के  बाद धर्म आधारित राजनीति ने भारत की धर्मनिरपेक्ष ताकत को संत्रास की स्थिति में पहुंचा दिया था। चिसकी चरम परिणति गत 6 दिसम्बर को दिखी। विभाजन के  बाद दंगों का ऐसा हृदय विदारक दृश्य पहली बार दिखा लेकिन अल्पसंख्यक तुष्टिकरण क्या है? इमाम बुखारी का फतवा क्या है? क्या इसे चलते रहने का अवसर मिलना चाहिए। क्या यह धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं है? क्या इसके  विरूद्ध किसी अभियोग पत्र की आवश्यकता है? यदि है तो वह कितने वर्षों बाद लाया जाएगा?
ऐसा सम्भव नहीं है इसीलिए धर्म आधारित राजनीति बंद करने की जगह राजनीति से धर्म को अलग करने का षड्यंत्र किया गया। भारतीय संदर्भ में वैदिक व सनातन धर्म या दर्शन के  अनुसार राजनीति को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता है और न ही इस्लाम के  अनुसार। स्वयं धर्म शब्द का अर्थ उस जीवन पद्धति से है जो पूरे समाज को ऊंचा उठाती है तभी तो धर्म के  बारे में कहा गया है-‘धारयते इति धर्मः’। इस्लाम और कुरान शरीफ के  मूल सिद्धांतों में विश्वास रखने वाले, उन लोगों सहित जो राजतंत्र का संचालन करते हैं-‘तोहिद नुबूबियत और अकीरत’ यानी एक ईश्वर है उसके  दूतों के  रूप में पैगम्बर और मानव के  मूल सिद्धांतों में भरोसा रखना पड़ता है। इसलिए इस्लाम पर भरोसा रखने वाले लोगों ने भी धर्म निरपेक्षता की गैर मजहबी अवधारणा को कभी भी स्वीकार नहीं किया।
धर्म विहीन राजनीति वाला संविधान संशोधन क्यों? कानून एवं संविधान की बात करना तथा उसके  क्रियान्वयन के  लिए न्यूनतम उत्साह दिखाना हमारी राजनीति का असली अन्तरविरोध है जिसके  कारण हमारे राजनीतिज्ञ की नैतिक वैधता हमेशा संदिग्ध होती रही है।
इसी अन्तरविरोध के  शिकार हैं प्रधानमंत्री नरसिंह राव व उनकी सरकार। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो सुप्त मंदिर मुद्दे को जागृत करने, विहिप का निर्माण करने, मंदिर का शिलान्यास करने वाली पार्टी के  मुखिया को ही मुस्लिम तुष्टिकरण के  लिए इस कुसमय में आरोप पत्र की हद तक नहीं जाना पड़ता और दूसरी ओर भाजपा जो इस ध्वंसात्मक परिणति के  लिए कभी श्रेय लेने, कभी माफी मांगने और कभी खुश होने जैसा अभिनय नहीं करती। उसे ऐसा नहीं करना पड़ता। अगर उसका मानना है कि विवादित ढांचा का गिरना उसका एक लोकबोधी कर्तव्य था जिसे उसने अपने चुनाव घोषणा पत्र में स्वीकार किया था तो नरसिंह राव के  इस अन्तरविरोध के  सामने उनके  कानून राज की स्थापना का पर्दाफाश करते हुए स्वयं को नरसिंह राव के  कानून के  सामने समर्पित कर देना चाहिए क्योंकि राव से बड़ी जनता अदालत है जो इस लोकतंत्र में सब तय कर देने में सक्षम है।
इस अहम सामाजिक मुद्दे को राजनीतिक हथियार के  रूप में प्रयोग करने की जो साजिशें हैं उससे बड़ा राष्ट्रीय शर्म का विषय हो ही क्या सकता है? यह सिलसिला कब तक चलता है यही देखना है और जब यह सिलसिला टूटेगा तो क्या और कितना शेष रहेगा यह एक अहम प्रश्न है। इस शेष से कोई नया निर्माण सम्भव है और या फिर किसी विध्वंस के  लिए हमें तैयार हो जाना चाहिए।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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