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तालमेल की असफलता
जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं वैसे-वैसे वोटों के बंटवारे को रोकने के लिए पार्टियों में विलय व तालमेल की बातें बढ़ती जा रही हैं। बसपा-सपा गठबंधन जहां एक ओर 425 सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार है वहीं बसपा जो गत चुनाव में सौ से अधिक सीटों पर दूसरे स्थान पर थी उसे अपने खाते से जाने देना नहीं चाहती है। सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव की विवशता ही है कि वो बसपा के इस तर्क के आगे एकदम निरूत्तरित हो जाते हैं, क्योंकि बसपा को उसकी मुंहमांगी सीटें देने का मतलब है मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कमजोर पड़ जाएगी। इतना ही नहीं एकीकृत जद में भी अलग-अलग धड़ों को टिकटों की मंुहमांगी संख्या नहीं मिल पा रही है। इसलिए एकीकृत जद में भी निराशा के चिन्ह नजर आ रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी आगामी विधानसभा की 85 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़ा करने का निर्णय लिया है, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव एकजुट होकर लड़ने का भी मन बनाया है। कम्युनिस्ट पार्टियों के इस निर्णय से जनता दल और बसपा-सपा गठबंधन को धक्का भी पहुंचा है। जनता दल चार राज्यों में वामपंथी दलों से तालमेल करके चुनाव लड़ रहा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में उसे कम्युनिस्ट पार्टियों से किसी तालमेल की सम्भावना नजर नहीं आ रही है क्योंकि भाकपा और माकपा ने 85 सीटों पर चुनाव लड़ने का मन बनाया है और इतनी ही सीटें दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को देने की स्थिति एकीकृत जद में नहीं बन पा रही है। किसी विलय या तालमेल से कोई मतदाता अपने सुनहरे भविष्य की कल्पना कैसे कर सकता है जबकि विलय और तालमेल का इतिहास हमारे लोकतंत्र में बेहद दुःखद रहा है। 1977 व 1991 में क्रमशः जनता पार्टी और जनता दल के निर्माण व विघटन से हमारी लोकतांत्रिक आस्थाएं काफी आहत हुई हैं। जब जयप्रकाश नारायण जैसे व्यक्तित्व की छत्रछाया, निर्देशन व संरक्षण में जनता पार्टी बनी थी तब भी उसके घटक अपने-अपने निहित स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ पाए और अन्ततः विघटित हो गये। ऐसा ही हश्र वीपी सिंह के नेतृत्व में गठित जनता दल का भी हुआ। भाजपा जिसने जद को पहले अपना समर्थन दे रखा था, अयोध्या मसले पर पीछे हट गयी और वीपी सिंह की सरकार धराशायी हो गयी। फिर हमारे यहां मतदाता विलय एवं तालमेल के प्रति किसी तरह के सुनहरे भविष्य की कल्पना कैसे कर सकता है।
हमारे लोकतंत्र में पार्टियों का विलय या सीटों पर तालमेल हमेशा आसन्न चुनावों को देखते हुए, ही होता है ऐसी स्थिति में यह एकीकरण बिना किसी नैतिक मान्यताओं व वैचारिक एक्य के सम्पन्न होता है और एकता या तालमेल के मूल में टिकट व कुर्सी ही होते हैं। परिणामतः चुनाव पश्चात् ये पार्टियां व इनका नेतृत्व अपना अलग राजनीतिक अस्तित्व कायम कारने और जातीय राजनीति के माध्यम से प्रभावी भूमिका बरकरार रखने के लिए फिर से अलग हो जाते हैं।
ऐसी स्थिति में हमारा मतदाता वोटों के लिए किसी धु्रवीकरण को लोकतंत्र के लिए अब स्वीकारने में हिचकिचाता है। आवश्यकता है कैडर व मुद्दों के आधार पर राजनीति करने की जिससे तालमेल में इतनी अवसरवादिता नहीं रहेगी और मतदाता हर चुनाव में ठगा सा महसूस नहीं करेगा।
उत्तर प्रदेश में दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी आगामी विधानसभा की 85 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़ा करने का निर्णय लिया है, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव एकजुट होकर लड़ने का भी मन बनाया है। कम्युनिस्ट पार्टियों के इस निर्णय से जनता दल और बसपा-सपा गठबंधन को धक्का भी पहुंचा है। जनता दल चार राज्यों में वामपंथी दलों से तालमेल करके चुनाव लड़ रहा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में उसे कम्युनिस्ट पार्टियों से किसी तालमेल की सम्भावना नजर नहीं आ रही है क्योंकि भाकपा और माकपा ने 85 सीटों पर चुनाव लड़ने का मन बनाया है और इतनी ही सीटें दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को देने की स्थिति एकीकृत जद में नहीं बन पा रही है। किसी विलय या तालमेल से कोई मतदाता अपने सुनहरे भविष्य की कल्पना कैसे कर सकता है जबकि विलय और तालमेल का इतिहास हमारे लोकतंत्र में बेहद दुःखद रहा है। 1977 व 1991 में क्रमशः जनता पार्टी और जनता दल के निर्माण व विघटन से हमारी लोकतांत्रिक आस्थाएं काफी आहत हुई हैं। जब जयप्रकाश नारायण जैसे व्यक्तित्व की छत्रछाया, निर्देशन व संरक्षण में जनता पार्टी बनी थी तब भी उसके घटक अपने-अपने निहित स्वार्थों से ऊपर नहीं उठ पाए और अन्ततः विघटित हो गये। ऐसा ही हश्र वीपी सिंह के नेतृत्व में गठित जनता दल का भी हुआ। भाजपा जिसने जद को पहले अपना समर्थन दे रखा था, अयोध्या मसले पर पीछे हट गयी और वीपी सिंह की सरकार धराशायी हो गयी। फिर हमारे यहां मतदाता विलय एवं तालमेल के प्रति किसी तरह के सुनहरे भविष्य की कल्पना कैसे कर सकता है।
हमारे लोकतंत्र में पार्टियों का विलय या सीटों पर तालमेल हमेशा आसन्न चुनावों को देखते हुए, ही होता है ऐसी स्थिति में यह एकीकरण बिना किसी नैतिक मान्यताओं व वैचारिक एक्य के सम्पन्न होता है और एकता या तालमेल के मूल में टिकट व कुर्सी ही होते हैं। परिणामतः चुनाव पश्चात् ये पार्टियां व इनका नेतृत्व अपना अलग राजनीतिक अस्तित्व कायम कारने और जातीय राजनीति के माध्यम से प्रभावी भूमिका बरकरार रखने के लिए फिर से अलग हो जाते हैं।
ऐसी स्थिति में हमारा मतदाता वोटों के लिए किसी धु्रवीकरण को लोकतंत्र के लिए अब स्वीकारने में हिचकिचाता है। आवश्यकता है कैडर व मुद्दों के आधार पर राजनीति करने की जिससे तालमेल में इतनी अवसरवादिता नहीं रहेगी और मतदाता हर चुनाव में ठगा सा महसूस नहीं करेगा।
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