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विधिक तरलता अनुपात से हल नहीं होंगी आर्थिक समस्याएं

Dr. Yogesh mishr
Published on: 27 Oct 1993 2:37 PM IST
गत 11 अक्टूबर को भारतीय रिजर्व बैंक के  गवर्नर सी. रंगराजन ने वैधानिक तरलता अनुपात में कमी करके  विधिक तरलता अनुपात को 16 अक्टूबर से 37.25 की जगह 34.75 प्रतिशत कर दिया है। यह घटी दर विगत 17 सितम्बर तक की देनदारियों के  स्तर पर लागू होगी। उनका कहना है कि 17 सितम्बर के  स्तर के  बाद देनदारियों में वृद्धि होती है तो वृद्धिगत विशेष तरलता अनुपात को 30 प्रतिशत से 25 प्रतिशत कर दिया जाएगा। रिजर्व बैंक आॅफ इण्डिया अधिनियम की धारा 42 (1) के  अनुसार सभी अनुसूचित बैंकों को अपनी मांग जमा का पांच प्रतिशत एवं सावधि जमाओं का दो प्रतिशत रिजर्व बैंक में जमा करना आवश्यक था। रिजर्व बैंक इसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता था। लेकिन 1956 में रिजर्व बैंक अधिनियम में संशोधन करके  निश्चित कोष प्रणाली के  स्थान पर परिवर्तनीय न्यूनतम वैधानिक कोषानुपात प्रणाली लागू की गयी। परंतु रिजर्व बैंक संशोधन अधिनियम, 1962 में जो 15 सितम्बर, 1962 से लागू किया गया। मांग तथा सावधि जमाओं का भेद समाप्त करके  वैधानिक अनुपात को सभी प्रकार की जमाओं पर तीन प्रतिशत कर दिया गया। रिजर्व बैंक को यह अधिकार भी दिया गया कि वह आवश्यकतानुसार उसे बढ़ा भी सकता था। रिजर्व बैंक ने परिवर्तनीय वैधानिक कोषानुपात के  अस्त्र का सर्वप्रथम प्रयोग मार्च, 1960 में किया था, जिसके  तहत अनुसूचित बैंकों को यह निर्देश दिया कि वे 11 मार्च, 1960 के  बाद प्राप्त हुई मांग एवं सावधि जमाओं का न्यूनतम वैधानिक कोषानुपात के  अलावा 25 प्रतिशत भाग रिजर्व बैंक में जमा कराएं। साख प्रसार में अपेक्षित कमी न होने से इस सीमा को 25 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया, जिसका परिणाम हुआ कि बैंकों की साख निर्माण क्षमता घटी। यह नकदी कोष में कमी आने के  कारण हुआ। इस तरह वैधानिक कोषानुपात में इससे पहले 1973 व 1974 में भी कई परिवर्तन होचुके  हैं।
वैधानिक तरलता अनुपात का सीधा सम्बन्ध साख से है। शुद्ध तरलता अनुपात में वृद्धि का उद्देश्य बैंकों के  ऋण लेने की क्षमता को सीमित करना होता है। और कमी करके  सरकार लोगों को ऋण लेने की क्षमता व साख सृजन में वृद्धि करना चाहती है।
आधुनिक अर्थव्यवस्था संचालन में साख मुद्रा की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। साख मुद्रा की कुल मात्रा एवं अर्थव्यवस्था के  विभिन्न क्षेत्रों में उसका वितरण, आय उत्पादन, रोजगार तथा कीमत स्तर को प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि देश के  मुद्रा एवं साख ढांचे का समुचित नियमन एवं नियंत्रण के न्द्रीय बैंकों के  महत्वपूर्ण कार्यों में है। इसके  लिए के न्द्रीय बैंक मौद्रिक नीति का प्रयोग करता है। मौद्रिक नीति से अभिप्राय रिजर्व बैंक की उस नीति से है, जिसके  द्वारा वह किसी निश्चित आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अर्थव्यवस्था में मुद्रा एवं साख की मात्रा नियंत्रित करता है। साख की मात्रा से मुद्रा का प्रसार सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है।
मुद्रा का चलन, वेग, मुद्रा के  परिणाम में वृद्धि करता है (मुद्रा परिणाम) के  फिशर के  सिद्धांतों के  अनुसार अर्ध विकसित देशों में मौद्रिक नीति को नियंत्रित विस्तार की नीति के  रूप में अपनाया जाना चाहिए, जिसमें सस्ती ब्याज दर पर मुद्रा एवं साख विस्तार करके  निवेश को प्रोत्साहित किया जाता है। जिससे पूंजी निर्माण की दर में वृद्धि होती है। निवेश को प्रोत्साहित करने के  लिए सस्ती मुद्रा नीति अपनायी जाती है। सस्ती मुद्रा नीति में मुद्रा की मात्रा बढ़ाकर ब्याज दरों को यथा संभव कम किया जाता है। विगत माह में ब्याज दरों में एक से डेढ़ प्रतिशत की कटौती की घोषणा वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने की थी। ब्याज दरों में कटौती या नीची ब्याज दर नीति, निवेश मात्रा में वृद्धि करके  (अर्थात् प्रभावपूर्ण मांग को बढ़ाकर) रोजगार में वृद्धि उत्पन्न करेगी। ब्याज दर कम होने से पूंजी बाजार एवं निवेश पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। क्योंकि मंदी की स्थिति में पूंजी की सीमांत क्षमता अत्यधिक गिर जाती है।
सस्ती मुद्रा नीति से उपभोग व्यय प्रोत्साहित होता है। उपभोग बढ़ने से प्रभाव पूर्ण मांग बढ़ती है। यह स्पष्ट तौर से स्वीकार किया गया है कि ब्याज दरों में कटौती मंदी से निपटने का अमोघ अस्त्र है।
यदि हम मनमोहन सिंह के  आर्थिक संवृद्धि के  सोपानों व कार्यक्रमों पर दृष्टि डालंे तो उन्होंने मुद्रा का अवमूल्यन भी वर्ष 1991 में पहली जुलाई को 11.6 प्रतिशत एवं तीन जुलाई को आठ प्रतिशत अवमूल्यन किया गया। इससे निर्यात में वृद्धि को जो आंकड़ा दिखा गया वह आंकड़ा कुल मुद्रा अवमूल्यन के  27 प्रतिशत से कम ही रही। मुद्रा अवमूल्यन वह प्रक्रिया है, जिसके  अंतर्गत सरकार द्वारा अधिकृत रूप से अपनी मुद्रा का मूल्य अन्य देशांे की मुद्राओं की तुलना में कम कर दिया है। इससे अवमूल्यन करने वाले देश की मुद्रा का विदेशी मुद्रा के  रूप में मूल्य या क्रय शक्ति घट जाती है। हमारे यहां रूपये का अवमूल्यन सर्वप्रथम सितम्बर, 1949 में हुआ। दूसरी बार अवमूल्यन 06 जून, 1966 को हुआ। फिर तीसरी बार मनमोहन सिंह ने 1991 में दो बार मुद्रा का अवमूल्यन किया। 1966 में विश्व बैंक के  बेलमिशन ने अपनी रिपोर्ट में रूपए का अवमूल्यन प्रस्तावित किया था। सरकार अवमूल्यन के  पक्ष में नहीं थी और अंत तक सरकारी प्रवक्ता अवमूल्यन की संभावनाओं को नकारते रहे। लेकिन दबाव के  तहत 36.5 प्रतिशत रूपए का अवमूल्यन करना पड़ा।
इस बार भी 1993 में रूपये के  अवमूल्यन की कोई चर्चा नहीं थी। इसकी संभावना पर सरकारी प्रवक्ता की ओर से कोई प्रकाश नहीं डाला गया था। परंतु विश्वकोष व अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के  दबाव के  तहत वित्त मंत्री ने मुद्रा अवमूल्यन की घोषणा कर ही दी। अवमूल्यन हुए लगभग दो वर्ष गुजर गए। परंतु निर्यात व्यापार में वृद्धि आयात प्रतिस्थापना, विदेशी आयात के  अलाभ कर होने की कोई स्वर्णिम सम्भावनाएं नहीं दिख रही हैं। इस दिशा में अभी तक कोई उल्लेखनीय प्रगति दर्ज नहीं हो पायी है।
स्पष्ट है कि बैंक दरों में कटौती वैधानिक तरलता अनुपात में कमी के  माध्यम से अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने का ही प्रयास है परन्तु हमारी सरकार यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि हमारा अर्थतंत्र मंदी का शिकार हो गया है। मंदी की इन स्थितियों में भी विदेशी संस्थाओं के  इशारे पर मुद्रा का अवमूल्यन, अवमूल्यन से हमारे यहां मूल्यों में वृद्धि हो गयी। क्योंकि उत्पादन लागत प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बढ़ी है। अवमूल्यन के  बाद से हम अपने निर्यात में वृद्धि की दर को अवमूल्यन की दर से सम्बद्ध न करके  गौरवान्वित भले ही हों, परंतु हमारे ऊपर ऋण की जो राशि अवमूल्यन के  कारण बढ़ गयी, उससे चिंतित होना जरूरी है। उसी तरह बैंकों के  वैधानिक तरलता अनुपात में कमी करके  ऋण के  लिए चलन में 4150 करोड़ रूपए की वृद्धि हमारे लिए गौरव करने योग्य बात नहीं है। क्योंकि ऋण लेने की हम अपने यहां की प्रवृत्ति का अवलोकन करें तो हमारे यहां ऋण का बहुत छोटा भाग ही निवेश हो पाता है। दूसरे जब अर्थव्यवस्था में लोगों के  हाथों में क्रय शक्ति नहीं होगा तो निवेश भी वह सार्थक परिणाम नहीं देगे। ऋण के  लिए उपलब्ध मुद्रा के  चलन में आ जाने से मुद्रा की आंतरिक क्रय शक्ति घटेगी। अवमूल्यन करके  वाह्य क्रय शक्ति पहले ही घटायी जा चुकी है। यह जो 4150 करोड़ रूपए हमारे पास ऋण के  लिए उपलब्ध होगा, इससे मुद्रा का चलन वेग बढ़ जाएगा। चलन वेग का मुद्रा के  मूल्य व वस्तु के  मूल्य से सीधा संबंध है और मुद्रा के  मूल्य व वस्तु के  मूल्य में विपरीत संबंध है।
इस वैधानिक तरलता कम करने और उदार ऋण नीति से भी अर्थव्यवस्था में किसी तरह के  सुधार की संभावनाएं नहीं हैं। क्योंकि ऋण नीति या मौद्रिक नीति हमारी राजकोषीय नीति के  सामंजस्य के  बिना अपेक्षित सुधार नहीं कर सकती हैं। इससे मूल्यों में बढ़ोत्तरी होगी। अनुत्पादक निवेश बढ़ेंगे और स्फीतिजन्य स्थितियां प्रभावित होंगी। अर्थतंत्र में कृत्रिम अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण ढीला पड़ेगा, निवेश, उपभोग, उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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