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पार्टी घोषणा पत्र और असलियत-भाजपा

Dr. Yogesh mishr
Published on: 2 Nov 1993 2:42 PM IST
अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने का आरोप और जिम्मेदारी स्वीकारने पर बर्खास्त की गयी तथा इस्तीफा देकर जनमत संग्रह के  लिए स्वयं को प्रस्तुत करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने राज्यों की विधानसभााओं के  लिए अपने 20 पृष्ठों वाले नीति सम्बन्धी वक्तव्य रामराज की ओर शीर्षक के  अन्तर्गत सांस्कृतिक एकता बनाम छद्म धर्मनिरपेक्षता का सवाल खड़ा किया है। अपने नीति वक्तव्य रामराज की ओर में भाजपा ने आदर्श राज्य की स्थापना का वचन दिया है और नीति वाक्य के  रूप में रामचरितमानस की इन लाइनों का उल्लेख किया है-
दैहिक, दैविक, भौतिक तापा,
रामराज नहिं काहू व्यापा।
अल्प मृत्यु नहिं कवनेउ पीरा,
सब सुन्दर, सब निरूज शरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुःखी न दीना,
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।
6 दिसम्बर की घटना के  बाद धर्म निरपेक्षता, साम्प्रदायिकता व साझा सांस्कृतिक विरासत जैसी संकल्पनाओं के  साथ वैसे भी खासा खेल हुआ है। भाजपा का सांस्कृतिक एकता बनाम छद्म धर्मनिरपेक्षता जैसे सवाल उठाना और उसे तय करने के  लिए लोकतंत्र के  सबसे सशक्त अवसर का उपयोग करना स्वागत योग्य है। बशर्ते सांस्कृतिक एकता की स्वहित बोधी परिभाषा न की गयी हो। भाजपा का यह स्वीकारना कि चुनाव की राजनीति में कोई सैद्धान्तिक आधार नहीं रह गया है। सचमुच एक ऐसा सवाल है जिसके  लिए आम मतदाता से बुद्धिजीवी तक परेशान है और राजनीति में सिद्धांत की तलाश में है। यह भी तय करना होगा कि वे सिद्धांत कौन से हैं? होने और होने चाहिए?
इसी तरह राष्ट्रहित सर्वोपरि होने की बात भी भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में कही है। यह सत्य है, होना भी चाहिए। समय व देश की आवश्यकता भी है। परंतु पहले यह तय कर लेना होगा कि कौन सा राष्ट्र हित, कैसा राष्ट्रहित, कितना राष्ट्र हित? डंके ल प्रस्ताव को स्वीकारने वाला राष्ट्रहित, सोना विदेशों में गिरवीं रखने वाला राष्ट्रहित, अल्पसंख्यक तुष्टिकरण वाला राष्ट्रहित, अवसरवादी घटक के  जोड़ जुगत से सत्ता पा लेने वाला राष्ट्रहित या कश्मीर के  लाल चैक पर झण्डा फहराने की प्रतिबद्धता के  बाद सेना के  सहयोग से झण्डा फहराकर नाम दर्ज करा लेने वाला राष्ट्रहित?
इसमें कोई शक नहीं है कि अगर राजनीति और राजनीतिज्ञ राष्ट्रहित को सर्वोपरि स्वीकार लें तो तमाम समस्याओं से निजात पाया जा सकता है। यह कहना कि मात्र भाजपा को ही राष्ट्रहित की चिंता है, सरासर गलत है। अगर भाजपा को राष्ट्रहित की चिंता रहती तो वह अपने पिछले चुनाव घोषणा पत्रांे में जिस विवादित ढांचे को अन्यत्र विस्थापित करने के  बाद राम मंदिर निर्माण की बात कर रही थी, वहां उसे 6 दिसंबर जैसी शर्मसार घटना करने पर उतारू नहीं होना पड़ता। इस घटना से निश्चित रूप से हमारी राष्ट्रीयता पर विभाजन के  खतरे प्रभावी हुए।
राजनीति की दशा बदलने की जो इच्छा जतायी है वह सचमुच एक प्रशंसनीय सादृढ़ इच्छा है क्योंकि पिछले दो दशक से राजनीति की दिशा दिशाहारा हो उठी है लेकिन भाजपा की टिकट वितरण की शैली, ने उसके  निर्णय ने एक सवालिया निशान लगाया है।
भाजपा के  घोषणा पत्र में कही गयी यह बात एकदम सच है कि देश के  वर्तमान स्थिति के  लिए केंद्र सरकार की अस्पष्ट नीति तथा अनिर्णय की स्थिति ही जिम्मेदार है, जिसका परिणाम है कि अंदरूनी हालात खस्ता हो गये हैं। आर्थिक क्षेत्र में हम पराजित हुए हैं। सांस्कृतिक खतरे हमारे ऊपर मंडरा रहे हैं। साथ ही साथ हमारे अंदरूनी मसलों में बाहरी देश भी हस्तक्षेप करने लगे हैं। यह देश की एकता व सम्प्रभुता के  लिए खासा खतरनाक हैं।
भाजपा का अपने नीति वक्तव्य में यह कहना कि उनकी पार्टी निर्वाचन आयोग के  सामने पहले ही भय प्रकट कर चुकी है कि कांग्रेस शक्ति का प्रयोग कर सकती है, काफी हद तक सही लगता है।
उत्तर प्रदेश को छोड़कर शेष तीन राज्यों में होने वाले चुनाव कांग्रेस की तुगलकी व निरंकुशता वाली नीति की ही परिणति है। भाजपा ने नीति विषयक वक्तव्य में 356 का दुरूपयोग रोकने के  लिए संशोधन की बात की है।
वस्तुतः उप्र को छोड़कर अन्य राज्यों में भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी बेमानी थी। फिर भी कांग्रेस केंद्र राज्य सम्बन्धों की दुहाई देने से नहीं चूकती है?
हिन्दू शब्द को साम्प्रदायिकता का पर्याय बनाने वाली ताकतों के  प्रति भाजपा का रोष वाजिब है। जिस हिन्दू एवं हिन्दुत्व की बात भाजपा करती है और स्वयं को उसका ठेके दार मानती है वह भी कम गलत नहीं है। अयोध्या का मसला राष्ट्रीय एकता, आर्थिक शक्ति और सामाजिक एकात्मकता का प्रतीक है। यह मानना सहज नहीं है। अयोध्या हमारे राम की जन्मस्थली जरूर है। इससे हमारी धार्मिक आस्था का सवाल जुड़ा हो सकता है पर धर्म से सामाजिक एकात्मकता, आर्थिक शक्ति तथा राष्ट्रीय एकता को जब-जब सम्बद्ध करके , जोड़ करके  देखा गया है, तब-तब राष्ट्रीय एकता आर्थिक शक्ति और सामाजिक एकात्मकता कमजोर पड़ी है। धर्म एक अलग स्वतंत्र एवं निरंतन संकल्पना है जिसमें हमारी नैतिकता, हमारी प्रेरणा और हमारा बल सम्बद्ध होता है। धार्मिक आस्थाएं हमें प्राणी मात्र के  प्रति प्रेम सिखाती हैं। लेकिन जब से धर्मों का राजनीतिक उपयोग होने लगा, तभी से उलेमा व पंडित राजनीति में दखलअंदाजी करने लगे। समाज व राजनीति में विकृतियां घुसीं।
अयोध्या आंदोलन को स्वतंत्रता के  बाद का सबसे बड़ा जनआंदोलन बताना कोई उपलब्धि नहीं वरन-‘का चुप साधि रहा बलवाना’ वाली तर्ज पर हमें हमारी उस ताकत का बोध कराना है जो किसी पार्टी विशेष के  हिन्दू अस्मिता के  लिए जूझ सके । भाजपा का यह कहना है कि उस दिन पूरे देश से कारसेवक राम मंदिर के  पुनर्निर्माण के  लिए एकत्र हुए थे। गलत है। कारसेवकों को तो सरयू तट से रेत और सरयू जल मंदिर के  लिए विनिर्मित चबूतरे तक लाने के  लिए अयोध्या बुलाया व लाया गया था। भले ही जाहिरा तौर पर उन्हें प्रतीकात्मक कारसेवा की बात समझायी गयी थी।
आतंकवाद के  खिलाफ कांग्रेस सरकार की असफलताओं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक से अंधाधुंध कर्ज लेने का आरोप कृषि प्रधान देश होने के  बाद भी किसानों के  हितों को कांग्रेस सरकार द्वारा नजरअंदाज कर देने की चर्चा भाजपा घोषणा पत्र में है।
अपने घोषणा पत्र में विदेशी घुसपैठियों के  नाम मतदाता सूची से निकालने सहित उन्हें देश से बाहर करने व संविधान की धारा 370 समाप्त करवाने के  लिए कोशिश करने का भी भाजपा ने वायदा किया है।
कांग्रेस पार्टी ने जहां एक ओर अपने घोषणा पत्र में भाजपा विरोध लोकतांत्रिक पद्धति के  उल्लंघन की हद तक किया है। वहीं भाजपा ने नरसिंह राव सरकार की सभी असफलताओं को पेश करते हुए कहा है कि नरसिंह सरकार द्वारा 02 वर्ष पूर्व 90 हजार करोड़ रूपये का जो विदेशी ऋण लिया गया था वह बढ़कर 02 लाख 60 हजार करोड़ रूपये हो गया है और जिससे हमारी सम्प्रभुता की जड़ें खोखली होती जा रही हैं।
अल्पसंख्यकों के  मुद्दे पर लगे आरोप भाजपा हिन्दू साम्प्रदायिकता का भय दिखाकर मुस्लिम समुदाय को डराने का कार्य करती है, का उत्तर देते हुए घोषणा पत्र में कहा गया है कि वह जनता को दो टुकड़ों में बंटे वोटबैंक के  रूप में नहीं देखती है। वह तुष्टिकरण नहीं बल्कि न्याय के  सिद्धांत पर विश्वास करती है। वक्तव्य में यह भी कहा गया है कि राम के  इस देश में गैर हिन्दुओं का कोई सरोकार नहीं है। यह कहना ठीक नहीं होगा। अल्पसंख्यकों के  बारे में भाजपा ने 89 व 91 के  घोषणा पत्र में यह भी कहा था कि वह अनु0-30 में संशोधन कर उन्हें न्याय दिलाने मानवाधिकार आयोग की स्थापना करके  विकास हेतु उन्हें पूरे अवसर देने के  लिए प्रतिबद्ध है। आर्थिक मामलों में अपनी नीति स्पष्ट करते हुए भाजपा ने कहा है कि वह अर्थव्यवस्था के  विके न्द्रीकरण और नियंत्रणों की मुक्ति के  पक्ष में है। लेकिन विदेशियों को भारत में आने और कारोबार की खुली छूट देने से पहले अपने उद्योगों को मजबूत करने और आंतरिक उदारीकरण की नीति मजबूत करनी चाहिए।
उत्तर प्रदेश के  घोषणा पत्र में श्री रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर के  निर्माण की अपनी प्रतिबद्धता को भाजपा ने दोहराया है। परन्तु वह भूल गई कि अपने पिछले घोषणा पत्र में उसने ससम्मान बाबरी ढांचे को हटाकर राम मंदिर निर्माण की बात कही थी।
बिक्रीकर प्रदेश की आय का एक मुख्य स्रोत है। इसे समाप्त करने की बात करके  व्यापारी मतों को आकर्षित भले ही कर लिया जाय परन्तु इससे प्रदेश सरकार के  सामने राजस्व का जो संकट आएगा, उसे प्रदेश के  उपभोक्ताओं को ही किसी और तरीके  से ही भुगतना पड़ेगा। इसलिए बिक्रीकर समाप्त करने की जगह बिक्रीकर सरलीकरण की बात होनी चाहिए। गन्ने का मूल्य 65 रूपये करना, कृषि मूल्य आयोग गठित करना, योजना की 60 प्रतिशत धनराशि कृषि एवं ग्राम्य विकास पर खर्च करना, चकबंदी अधिनियम में संशोधन, फसल एवं पशु बीमा योजना डंके ल प्रस्तावों को अस्वीकार करना, गोहत्या, बंदी, संगत मनोरंजन कर व भ्रष्टाचार विहीन एक नई कार्य संस्कृति का विकास करने का दावा आदि भाजपा की घोषणाएं निश्चित रूप से बेहद आकर्षक हैं। परंतु लगभग अपने 02 वर्ष के  शासनकाल में भाजपा ने इस दिशा में कोई ऐसा ठोस व सकारात्मक प्रयास नहीं किया जिससे उसके  इस नीति सम्बन्धी वक्तव्य पर विश्वास किया जा सके । हां शिक्षा के  क्षेत्र में प्रदेश भाजपा सरकार की उपलब्धियों को सराहा जाना चाहिए। भाजपा के  त्रिभाषा फार्मूले, माध्यमिक शिक्षा तक संस्कृत शिक्षा की अनिवार्यता निर्धन व प्रतिभाशाली छात्रों को उच्च शिक्षा निःशुल्क, सत्र नियमन व प्राथमिक स्तर पर हिन्दी को शिक्षा के  माध्यम के  रूप में स्वीकार करने की घोषणाओं पर विश्वास किया जा सकता है और किया जाना भी चाहिए।
उद्योगों के  मामले में भाजपा के  दावों पर इसलिए विश्वास नहीं होता है क्यांेकि उसने ही उद्यमिता विकास संस्थान को उद्योगांे के  निर्माण व विकास के  लिए एक ब्रोकर के  रूप में कार्य करने की संस्कृति में तब्दील किया है।
भाजपा के  1989 व 1991 के  घोषणा पत्रों पर एक दृष्टि डालें तो कांग्रेस व जद की ही तरह भाजपा ने भी अपने चुनावी घोषणा पत्रों में किये गये वायदों के  साथ कोई न्याय नहीं किया। इसने भी अपने मतदाता के  प्रति कोई जवाबदेही नहीं निभायी है। राम मंदिर निर्माण की बात भाजपा ने जरूर पूरी की। उसमें भी ससम्मान बाबरी ढांचे को हटाने की बात पर कोई ख्याल नहीं रखा गया।
लिंग निर्धारण परीक्षण पर रोक, सभी जातियों के  बच्चों को आवासीय विद्यालय की सुविधा, 16 से 14 वर्ष तक के  बच्चों को मुफ्त शिक्षा का व्यावसायीकरण प्रत्येक जिलों में कृषि उद्योग विद्यालय, विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता, अध्यापकों को उच्च वेतनमान सहित सकल राष्ट्रीय उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा के  मद पर व्यय करने सम्बन्धी सभी क्षेत्रों के  लिए भाजपा ने केंद्र सरकार पर न तो कोई दबाव डाला और न ही उसकी राज्य सरकारों ने स्वयं किया। इतना ही नहीं कृषकों को लाभप्रद मूल्य, बिजली, पानी की सुनिश्चित आपूर्ति कृषकों को भूमि लेखा-जोखा पत्र पूरे देश में कृषि उत्पादन पर लगे प्रतिबंधों को हटाना, श्रम कानूनों का सरलीकरण करना, श्रमिक संघों की मान्यता के  लिए गुप्त मतदान प्रबंध में श्रमिकों की भागीदारी, स्वास्थ्य सुविधा हेतु कानून आदि वायदे भाजपा के  1989 व 91 के  घोषणा पत्र में हैं जिस पर भाजपा की चार राज्यों की किसी सरकार ने अमली जामा पहनाने के  लिए कोई प्रयास नहीं किया है।
केंद्र-राज्य संबंध के  बारे में भाजपा ने 89 व 91 के  घोषणा पत्र में सम्बन्धों की पुर्नसंरचना, सरकारिया आयोग की रिपोर्ट लागू करने अनु. 356 का उपयोग कानून व्यवस्था बिगड़ने की स्थिति में ही करने की बात की थी। इस बार भी भाजपा ने अनु. 356 का दुरूपयेाग रोकने के  लिए संशोधन की बात की है।
अपने 89 और 91 के  घोषणा पत्रों की पुर्नसमीक्षा न करने के  बाद राष्ट्रहित, धर्म निरपेक्षता, रामराज्य की स्थापना की जिम्मेदारी भाजपा को कैसे सौंप दी जाय।
भाजपा को यह बताना होगा कि कौन सा रामराज्य? उसका रामराज्य या महात्मा गांधी का रामराज्य या मानस वाले मर्यादा पुरूषोत्तम का रामराज्य? भाजपा के  नीति सम्बन्धी वक्तव्य में अगर रामराज्य राष्ट्रहित धर्म निरपेक्षता की कोई स्वहित बोधी परिभाषा व मान्यता की स्थापना करना उद्देश्य नहीं है तो फिर हमारी संस्कृति व अपने गौरव की ओर लौटने की बात करना शुभ संके त ही कहा जाएगा। लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति वाले लोगों के  लिए यह पूरा करना और/या इस पर अमल करना सहज नहीं है। फिर भी चुनाव को शक्ति और लुभावने आश्वासन के  आधार पर न लड़कर वैचारिक क्रांति के  धरातल पर खड़ा करने की भाजपाई मुहिम की शुरूआत प्रशंसनीय ही कही जाएगी।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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