×

जरूरत है विकल्पहीनता के अंतकी

Dr. Yogesh mishr
Published on: 28 Nov 1993 12:19 PM IST
हमारी लोकतंात्रिक व्यवस्था में सरकारें जिस जोड़-तोड़ या जोड़-जुगत से बन रही है। उससे हमारे राजनीति की स्थिति उस पटाखे की हो गई है जो दीपावली बजने से पहले फिस्स हो जाते हैं। विश्व का सातवां सबसे बड़ा देश आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक सभी स्तरों पर ही बिखराव का शिकार है। अस्थिर सरकारें इसकी नियति बनकर उभरती जा रही हैं। अस्थिर या अल्पमत वाली सरकारें सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन के  कारण कोई ठोस प्रतिबद्धतापूर्ण पहल नहीं करती है। अल्पमत सरकारांे में वास्तविक बागडोर न ही किसी दल में होती है और न ही किसी व्यक्ति में। क्योंकि कोई दल या व्यक्ति नहंी चाहता कि सत्ता का केंद्रीयकरण हो। इन स्थितियांे में राजनीतिक दलांे व राजनीतिक व्यक्तियों के  बीच खींचतान चलती रहती है और असली समस्याएं गौंण होती जाती हैं।
हमारे सामने जो राजनीतिक विकल्प हैं वो भी एकदम सीमित है। क्योंकि आयाराम-गयाराम की संस्कृति के  कारण उन्हीं चेहरों को नयी बोतल में पुरानी शराब की तर्ज पर पेश कर दिया जाता है। कांग्रेस से टूटे, निकले, निकाले गए सोगों को जनता दल या अन्य किसी पार्टी के  बैनर तले चुनने की विवशता हमारे मतदाता के  लिए कितना बड़ा अभिशाप है। इस अभिशाप को जीने के  लिए विवश है हमारा मतदाता। मतदाता हमारा हिंदू मुसलमान है और उसी तरह जनतादली कांग्रेसी है। कम्युनिटी है। भाजपाई है। मतदाता इतने विकट संकट में खड़ा हो कि जरूरी नहीं कि वह बड़ी पार्टियों से संस्कारित हो। वरन जब मतदाता की पार्टी किसी गठबंधन कर लेती है। अथवा उसमें शामिल होती है तो वही मतदाता उस बड़ी पार्टी में संस्कारिक भाषा बोलने लगता है। मतदाता कहता कि यह भाषा बोलना उसकी आवश्यकता है। लेकिन वह गलत बोलता है। बड़ी पार्टी या किसी पार्टी की भाषा बोलना उसकी लिप्सा है। आवश्यकता निर्दोष होती है। सरल होती है। जटिल नहीं। आवश्यकता तो सबकी पूरी होती है। लिप्सा नहीं। यह लिप्सा ही है जो हमें हमारी ताकत का एहसास नहीं होने देती है। पार्टियों के  प्रति हमारी प्रतिबद्धता बनाए रखती है। जबकि पार्टियां समाप्त होनी चाहिए। क्योंकि पार्टियों के  लिए व्यक्ति की योग्यता कम उसके  वोट दिलाने की क्षमता अधिक महत्वपूर्ण होती है। पार्टियां बढ़ेगी तो मिली-जुली सरकारें बनेंगी। खींचतान जारी रहेगी। यह भारत के  लिए गैर व्यवहारिक है। क्यांेकि चुनाव लड़ते समय जिन लोगों की नीतियां अलग-अलग हो और चुनाव के  बाद साठगांठ कर लंे। सरकार बना लें तो वे स्थिरता की, विकास की बात कैसे सोचेंगे। सोचना भी नहीं चाहिए। इस साठगांठ वाली सरकार से तो अपने-अपने लिए वोट बैंक तैयार करने की पंरपरा चलेगी।
सरकार का अभिप्राय है कि वह सत्ता जिसके  पास समस्याओं के  निराकरण की पर्याप्त ताकत हो। तभी तो भारतीय संसदीय प्रक्रिया में उसी दल को सरकार बनाने का अवसर तय किया गया है। जिस दल के  पास सदन की संख्या का बहुमत हो। सरकार के  केंद्र बिंदु उस व्यक्ति को चुनने का सुझाव हमारे संविधान में दिया गया है। जिसका व्यक्तित्व पूरे दल को एक स्पष्ट परिभाषा देता हो और पूरे दल को इकट्ठा करने के  लिए नेतृत्व का आधार। लेकिन हमारी पार्टियों मंे इस तरह के  नेतृत्व का जहां अभाव है, वहीं हमारे सदन में इस तरह के  स्पष्ट बहुमत का। इसका कारण है कि हमारा मतदाता या तो मतदान का अर्थ नहीं समता और या वो मतदान करके  अपना असर जताना नहीं चाहता। बर्टेड रसेल ने लिखा है कि दि हार्म, दैट गुड मैन टू। नुकसान जो अच्छा आदमी पहुंचाता है। अच्छा आदमी सबसे बड़ा नुकसान यह करता है कि वह बुरे आदमी के  लिए जगह खाली कर देता है। अच्छा हटता है तो बुरा आदमी उसकी जगह घेर लेता है। क्योंकि जगहें खाली तो रहती नहीं है। यही स्थिति हमारी राजनीति में भी हुई। बुरे आदमी की तीव्र संलग्नता बढ़ी। बुरा वह है जिसमें हीनता का बोध है। उस बोध को वह उजागर नहीं करना चाहता है। उस बोध को वह उजागर नहीं करना चाहता है। इसलिए वह पद को पकड़ता है तो जोर से, किसी भी मूल्य पर, किसी भी साधन से और किसी को भी हटा देने के  लिए कोई भी साधन उसे सही मालुम पड़ेगा। हमारी राजनीति में इन्हीं लोगों का बाहुल्य है। इनके  मेल-मिलाप से हमारी ब्यूरोक्रेसी, अटोक्रेसी, पूरी तरह इनके  रंग में रंगी है। रंगने की इनकी इसी क्षमता के  कारण ही तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें शासन संटक कहा है। रंगत बदलने में ये गिरगिट से आगे हैं। ब्यूरोे्रेट जिसकी नौकरी की 58 वर्ष तक लगभग निश्चितता है। मरने पर उसके  परिवार के  किसी सदस्य को आश्रित कोटे में नौकरी पक्की। सारी सुविधाएं व अवसर वह एक बार परीक्षा पास करके  ही पूरे जीवनपर्यंत पा जाने का अधिकारी हो उठता है। उसमें बुरे आदमी के  सारे गुण हैं और बढ़ रहे हैं। फिर भी बुरे आदमियों से भरे राजनीतिज्ञों के  सामने एक तर्क है कि हमारे सामने अनिश्चितता है। हमारा चुनाव रोज-ब-रोज महंगा होता जा रहा है। चुनाव लड़ने के  लिए पैसा चाहिए। राजनीतिज्ञ इन प्रश्नों को ऐसे उठाता है जैसे उसे वोट देकर जिताने वाला मतदाता सीधे तौर पर जिम्मेदार है।
यह चुनाव तो जैसे-तैसे समाप्त हो गया। अटकलें लटक विधानसभा की जारी हैं। पर मतदाता भले ही सकों पर उतरा हो, क्योंकि राजनीति का जो अपराधीकरण हुआ है उससे मतदाता भयभीत था, परंतु मतदाताओं ने भारी मतदान किया। इससे जो परिणाम आएंगे उनसे लटक विधानसभा के  लिए कोई सूत्र हाथ नहीं लगते हैं। इस बार जो भी सरकार बने उसमें भी ओछे लोग हम पर शासन करेंगे। यह ओछे होना मानसिकता के  परिप्रेक्ष्य में है। इन लोगों को उतार फेंकना है। लेकिन इन ओेछे लोगों के  अलावा कोई व्यक्ति भिखमंगों की तरह वोट नहीं मांगेगा क्योंकि उस आदमी में आत्मा है। स्वाभिमान है। इसलिए वेाट देने योग्य व्यक्ति को आगे आना होगा। सुरक्षित रखने के  वादे करना होगा। उसे समझना-बूझना होगा कि तुम खड़े हो जाओ, तुम्हे वोट देना चाहते हैं, हम लोग। ऐसा होगा तभी भारत उस नए ढंग के  लोकतंत्र की स्थापना कर पाएगा। जिस तरह के  लोकतंत्र की उसे जरूरत है। जहां नेता भीख नहीं अधिकार मांगेगा। अहसान नहीं कर्तव्य मांगेगा।
हमारी बुद्धिजीविता हमारे लिए घातक है। बुद्धिजीवी आदमी, अपनी गलतियों के  लिए तर्क तलाशता है और यह तर्क तलाशने की बात का ही परिणाम है कि कम्युनिटी भी इन्हीं जों से बंधा है जिनसे हमारा कोई पोंगा पंथी। वह भी उतना ही विश्वासी है जितना काशी का पंति। विश्वास का आब्जेक्ट महज बदल गया है। काशी का पंति गीता और मानस मानता है। कम्युनिस्ट कैपिटल। फिर भी कम्युनिस्ट एक दशक से इसी जिद पर आ है कि वह आस्तिक नहीं है, पूजक नहीं है। जबकि उसकी आस्था है। माक्र्स में, कैपिटल में। आस्तिकता अ।ैर पूजक होने के  लिए धर्म के  प्रति प्रतिबद्धता जरूरी नहीं है। जरूरी है कि तो धर्म की संबंद्धता का जो कम्युनिस्टों में कैपिटल व माक्र्स के  प्रति पायी और देखी जा सकती है।
हमारा कम्युनिस्ट क्रांति की बातंे करता है। कांति के  लिए जल्दबाजी चाहता है जबकि अभी हमारे सामने हमारी समस्याएं पूरी तरह से साफ नहीं है। फिर क्रांति से किस समाधान की ओर आएंगे। रूस में क्रांति आयी भी तो समाज का ढांचा पहले से तैयार था। रूस की क्रांति का परिणाम पांच दशक तक स्थिर नहीं रह सका। फिर इससे हम शिक्षा लेने को तैयार क्यों नहीं है। हमारे पास समाधान नहीं है फिर भी समस्याओं से निजात पाना चाहते हंै। डाक्टर स्वस्थ्य होने की सलाह जो देता है परंतु स्वास्थ्य है क्या यह नहीं बता पाता। फिर स्वस्थ होने की सलाह का मतलब यही रह जाता है कि बीमार कह दें, स्वीकार कर लें कि वह स्वस्थ्य हैं।
यह स्वीकृति तो हमारे राजनीतिज्ञ, ब्यूरोक्रेट, आटोक्रेट सभी मिलकर समवेत स्वर में कर रहे हैं। फिर भी हमारा विश्वास नहीं होता। हमने इनकी छद्म संवेदना देखी है, भोगी है, परखी है, पायी है। इसी से निजात का संघर्ष हमारा सही संघर्ष है। इन लोगों ने मिलकर पावर, पालिटिक्स, सत्ता और शक्ति की अंधी दौड़ शुरू कर दी है। चोर-चोर मौसेरे-मौसेरे भाई के  रिश्ते के  कारण हमारी स्थिति यह हो गयी है कि जैसे किसी नाव के  सभी मल्लाह शराब पी लें और आपस में ही लड़ने लगें प्रधान होने के  लिए और नाव उपेक्षित हो जाए। डूब मरे, इससे कोई संबंध न रह जाए। वही स्थिति हमारे भारत की हो गई है। इससे ही बचना है। इससे बचने का तरीका है हम वर्तमान स्थितियों में पार्टी रहित लोकतंत्र की ओर बढ़ें। जिसमें पार्टियों का नहीं व्यक्तियों का चुनाव हो जिससे श्रेष्ठ लोग देश के  लिए उपलब्ध हो सकें। सांपनाथ और नागनाथ में से ही चुनने के  सीमित विकल्प का अंत हो सक¢। यही हमारी अस्थित सरकार और मूल समस्याओं के  निवारण का हेतु बन सकता है।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

Next Story