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उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव...मुद्दे हारे
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के परिणामों ने इस बात की ओर साफ इशरा कर दिया है कि जनता ने इस बार चुनाव में मुद्दों को पराजय दी है। इस बात जातिगत आधार पर वोट पड़े। जातिगत ववोटों का ही परिणाम था कि बसपा जो पिछली बार विधानसभा में 12 सीटों पर विजयी हुई थी, उसने 66 सीटों पर विजय हासिल की है। बसपा नेता कांशीराम ने कहा कि वो सामाजिक संरचना को उध्र्वाधर के स्थान पर क्षैतिज करना चाहते हैं और ब्राम्हणवादी सामाजिक व्यवस्था की समाप्ति जरूरी है। इससे यह स्पष्ट हुआ कि बसपा वर्तमान सामाजिक संरचना के खिलाफ प्रतिक्रियावादी ताकत के रूप में स्थापित एक राजनीतिक दल है। वैसे भी बसपा ने अपनी स्थापना से लेकर आज अच्छी राजनीतिक स्थिति हासिल करने की अपनी पूरी यात्रा में प्रतिक्रियात्मक क्रियाविधि को बहुत तरजीह दी है। वह चाहे बयान रहे हों या/रैलियों सभाओं में भाषण। बसपा के इस संगठनात्मक स्वरूप से सामाजिक स्थिति में एक लाभ जरूर हुआ कि हरिजनों में एक जुझारू संघर्ष उपजा। यह संघर्ष जमी-जमायी परम्पराओं के खिलाफ एक विद्रोह के रूप में भले ही माना और कहा जाए, परन्तु मनुवादी सामाजिक व्यवस्था ने इसके लिए आवश्यक स्थान रिक्त जरूर छोड़ा था लेकिन पिछले 50 वर्षों के सामाजिक संरचना में हुए परिवर्तन पर गौर करें तो मुनवादी सामाजिक संरचना के तार-तार स्वतः विच्छिन्न हो गये। इसलिए इस तरह के प्रतिक्रियात्मक विरोध के लिए कोई आवश्यकता शेष नहीं रह गयी है।
इस बार कांग्रेस के स्थायी सरकार के मुद्दे को जैसी पराजय मिली उससे यह स्पष्ट हुआ कि जनता के लिए कांग्रेस में कोई आकर्षण शेष नहीं रह गया है। एक मात्र राष्ट्रीय पार्टी के रूप में सर्वाधिक लम्बा राजनीतिक जीवन जीने वाली पार्टी को इस बार मात्र 26 सीटें मिल पायीं, जबकि पिछली सरकार में इसे 46 सीटें मिली थीं। कांग्रेस की स्थायित्व व स्थिति सरकार जैसी बात जनता में कोई आकर्षण नहीं पैदा कर पायी, क्योंकि कांग्रेस ने सीटें ही नहीं खोयी हैं, वरन उसे प्राप्त मतों के प्रतिशत में भी काफी Ðास हुआ है। हासिये की ओर जा रही कांग्रेस ने के न्द्र में समर्थन देकर जिस तरह चन्द्रशेखर को प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनाया था और फिर समर्थन वापस लेकर इन दोनों जगहों पर मध्यावधि चुनाव के लिए पृष्ठभूमि तैयार की और 6 दिसम्बर की घटना के लिए चार राज्य सरकारों को बर्खास्त किया, उससे कांग्रेस के इन नीतियों के प्रति जनता ने नकारात्मक परिणाम देकर कांग्रेस को उसके निर्णयों व संगठनात्मक स्वरूप पर सोचने का अवसर दिया है। हिमाचल में कांग्रेस की वापसी भी कोई सकारात्मक वोटों का परिणाम नहीं कही जाएगी, वरन यह शान्ता कुमार सरकार से नाराज ‘सेब लाबी’ तथा प्रदेश कर्मचारी संघ के प्रतिशोधात्मक मतदान का परिणाम है। कांग्रेस इस चुनाव में जिस स्थिति में पहुंची है, उससे उसके सामने अपनी स्थिति बरकरार रखने के लिए किसी पार्टी को समर्थन देने के सिवाय कोई चारा शेष नहीं रह जाता है। कांग्रेस प्रशासनिक स्तर पर अपनी पकड़ और मजबूती बनाये रखना चाहेगी और वह यह भी चाहेगी कि के न्द्र की उसकी सरकार बनी रहे। इसके लिए उसके सामने मुलायम सिंह यादव के सपा-बसपा गठबंधन को समर्थन देने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि सपा-बसपा गठबन्धन की राष्ट्रीय स्थिति कोई नहीं बनती है और इस गठबंधन की सरकार बनाये रखकर कांग्रेस प्रदेश प्रशासन में अपनी पकड़ भी बरकरार रख सके गी। जो थोड़े बहुत परिवर्तन होंगे वह भी बसपा के दबाव के कारण। कांग्रेस मुलायम को समर्थन देकर धर्मनिरपेक्षता को समर्थन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखा सकती है तथा वह मुलायम के उस एहसान का बदला भी चुका सकती है, जिसके अन्तर्गत मुलायम सिंह यादव के सपा सांसदों ने के न्द्र में नरसिंह राव सरकार के खिलाफ आये अविश्वास प्रस्ताव पर कांग्रेस सरकार बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उसी समय यह सिद्ध हो गया था कि मुलायम और कांग्रेस में कोई आन्तरिक समझौती की स्थिति बनी है।
मुलायम सिंह यादव की सपा को इस बार 106 सीटें मिली, जबकि उसके 91 में मात्र 23 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। सपा को मिली सीटों से यह तो हुआ कि राज्यपाल को मुलायम सिंह को सरकार बनाने के लिए आमंत्रण देने में द्वितीय वरीयता देनी होगी। वैसे राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा को आमंत्रण भले दें, लेकिन भाजपा के खिलाफ जिस तरह सारी पार्टियां मोर्चा खोेलकर चुनाव लड़ रही थीं, उससे भाजपा को किसी से भी समर्थन की आशा नहीं करनी चाहिए।
मुलायम सिंह यादव को कांग्रेस का समर्थन लिने की तो साफ स्थिति दिख ही रही है। साथ ही साथ बसपा की 66 सीटें भी मुलायम की ही हैं। जनता दल के नेता अगर सामाजिक नयाय के अपने मुद्दे को जीवित रखना चाहते हैं और चाहते हैं कि मण्डल आयोग की उनकी उपलब्धि उनके ही खाते में बनी ही रहे तब तो उन्हें मुलायम सिंह यादव को समर्थन देना ही पड़ेगा, वैसे भी जद नेता बार-बार मुलायम की जीत को अपने मुद्दे की जीत कह रहे हैं। उन्होंने यहां तक कहना शुरू कर दिया है कि वह सामाजिक न्याय की जीत है वह चाहे मुलायम सिंह के माध्यम से। अगर जनता दल अपनी इस स्थापना को जीवित रखना चाहती है तो मुलायम को समर्थन उसकी एक अनिवार्य शर्त होगी। इस तरह स्पष्ट बहुमत के लिए अगर राज्यपाल परेड भी कराना चाहें तो मुलायम सिंह यादव को छोड़कर कोई भी नेता इसे पूरा नहीं कर सकता है।
इस तरह पूरे चुनाव परिणाम व जोड़-जुगत यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त प्रमाण व आधार देते हैं कि मुलायम सिंह की पार्टी को सरकार बनाने का अवसर मिलेगा।
मुलायम सिंह यादव ने जब सपा बनायी थी, उस समय जद को यह जरूर लगा था कि मुलायम अपनी ताकत को काफी ज्यादे समझ रहे हें। कई बार जद की ओर से मुलायम सिंह को एकता के आधार पर पुनः चुनाव लड़ने के लिए प्रस्ताव भी मिले, परन्तु मुलायम सिंह ने सभी प्रस्तावों को इस तरह ठुकराया जिससे उन्हें दंभी और बड़बोला माना जाने लगा, लेकिन इस बार 106 सीटें जीतकर मुलायम सिंह ने प्रदेश में अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया है कि जनता दल अपने सामाजिक न्याय के मुद्दे को जीवित रखने के लिए मुलायम के साथ चस्पा होने को तैयार है। मुलायम सिंह जिद्दी और प्रतिबद्ध राजनीतिज्ञ के रूप में भले ही जाने जाएं, परन्तु जातिगत आधार पर चले आ रहे मतदाताओं में सेंध लगाने का काम जिस चतुराई से उन्होंने किया है उससे प्रशंसनीय हो उठे हैं। क्योंकि पहले कांग्रेस भी अपने ‘वोट बैंक’ मुसलमान, हरिजन और अन्य जातियों के आधार पर बनाकर तुष्टिकरण के माध्यम से सरकार चला रही थीं, लेकिन मुलायम सिंह ने मुसलमान, हरिजन और पिछड़ों के वोटों को हथियाकर कांग्रेसी चालों को ही धता नहीं बताया, वरन् भाजपा को भी यह बताया कि धर्म से ज्यादे मजबूत होती हैं जातीय श्रेणियां। इस चुनाव में अल्पसंख्यक मतदाताओं ने बुखारी के किसी फरमान पर ध्यान नहीं दिया, यह सपा के लिए मजबूती का कारण बना। मुस्लिम मतदाता पूरी तरह खामोश था, परन्तु भाजपा को हराने के लिए मौन मुहिम जारी थी। तभी तो बुखारी मुलायम को बार-बार औकात बनाने की धमकी देते रहे। जद के लिए मतदान की अपील करते रहे, लेकिन उनकी इन फरियादों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे यह भी निष्कर्ष नहीं जुटाया जा सकता कि इस चुनाव में धार्मिक मुद्दे नकार दिये गये और कठमुल्लाओं की नहीं चली। हां, उनकी प्रभावहीनता जातिगत श्रेणियों ने काफी कम की। इस बार प्रदेश में भारी मतदान से एक बात तो लगती ही थी कि भाजपा के लिए कुछ ठोस परिणाम नहीं आयेंगे। भारी मतदान से अल्पसंख्यक व पिछड़ों तथा हरिजन मतदाताओं के मतों का प्रतिशत बढ़ा। उन्होंने शेषन के सुरक्षात्मक उपायों का लाभ उठाया और निर्भीक होकर मतदान किया। पहले इनकी जगह बूथों पर सवर्ण इनके मतों का प्रतिनिधित्व कर दिया करते थे, परन्तु इस बार यह ट्रेंड आमतौर पर देखने को नहीं मिला। हां, सपा के कुछ बाहुबली प्रत्याशियों ने इसे आधार बनाकर कई सीटों में इजाफा जरूर किया है।
भारतीय जनता पार्टी ने यद्यपि कि सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अपनी हैसियत 161 सीटें जीतकर बरकरार रखी है, (जबकि कुछ जगहों पर अभी परिणाम आने शेष हैं लेकिन इन परिणामों से चुनाव की दिशा में कोई परिवर्तन होने की संभावना नहीं है। हां, आंकड़े बदल सकते हैं) परन्तु उसने सरकार खोया है। कुछ सीटें उसके हाथ से गयीं जबकि उसके वोटों के प्रतिशत में कुछ बढ़ोत्तरी जरूर हुई है जबकि लोकतंत्र में वोटों का प्रतिशत नहीं सीटों की संख्या का मतलब होता है क्योंकि लोकतंत्र आंकड़ों का खेल है। इस तरह भाजपा ने जहां मंदिर मुद्दे के लिए इस चुनाव के परिणाम को जनादेश माना था। वहां भाजपा को अब जनादेश की स्थिति के बारे में विचार करना चाहिए। भाजपा को इसे जनादेश की जगह अपनी शहादत का प्रतिदान मांगना कुछ ज्यादे ही लाभकारी हो सकता था, परन्तु ऐसा न करने के पीछे भाजपा की जो भी मंशा रही हो, उसे शुभ नहीं कहा जा सकता। भाजपा के लिए शिवसेना का कई जगहों पर
पर चुनाव लड़ना भी घातक रहा। शिवसेना ने इस बार लगभग 200 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करके प्रदेश में जड़ें जमाने की कोशिश कीं। अगर ऐसा नहीं होता तो भाजपा की सीटों में कई सीटों का इजाफा हो सकता था। क्योंकि इससे अधिक कई सीटों पर भाजपा जितने मतों से पराजित हुई है, उससे अधिक मत शिवसेना के प्रत्याशी ने हासिल किया है। शिवसेना प्रत्याशी को जो भी मत मिले, वह कट्टर हिन्दुत्ववाद के मत थे। ये मत भाजपा के सिवाय किसी और पार्टी को नहीं मिल सकते थे।
भाजपा की स्थिति में हुए ह्ास ने स्पष्ट तौर पर यह बताया दिया कि भाजपा सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में कोई भी ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं की थी जो उसे बैसाखी के रूप में काम आती। एक 6 दिसंबर का मंदिर मुद्दा छोड़कर यह घटना भी भाजपा की उपलब्धि नहीं कही जा सकती क्योंकि इसके लिए उसने कोई ठोस व सार्थक प्रयास किसी दिशा में नहीं किया था वरन् यह घटना वहां एकत्रित जन समुदाय की आराध्य के उपहास की प्रतिक्रिया में स्वतः स्फूर्त घटना के रूप से घटित थी। भाजपा ने तो यहां लोगों को प्रतीकात्मक कारसेवा करने के लिए इकट्ठा किया था लेकिन प्रतीकात्मक कारसेवा की बात पर लोग मान नहीं पाये और इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठा करके उसे संयम में रख पाने के अदक्ष नेतृत्व के अभाव में यह सब हुआ।
वैसे परिणामों के आधार पर सपा-बसपा गठबंधन का सरकार बनाना लगभग निश्चित कहा जा सकता है परंतु मुलायम सिंह को अपने कार्यशैली में काफी तब्दीलियां करनी पड़ेंगी। तभी वो लंबे समय तक स्वयं को सत्तापरक राजनीति करने वाले राजनेता के रूप में स्थापित रख पायेंगे। इस चुनाव में कांग्रेस का स्थायी सरकार का मुद्दा जद का सामाजिक न्याय का मुद्दा और भाजपा का मंदिर या जो कहा सो किया सभी मुद्दों की पराजय हुई। चुनाव मंे मुद्दे हारे, वैसे जद नेता इसे सामाजिक न्याय वाले मुद्दे की जीत भले ही मानें, परन्तु उनकी बात को थोड़ी देर के लिए स्वीकार भी कर लिया जाय, तो उसे समर्थन देने के लिए जद को मिली 30 से कम सीटें कोई मजबूत एवं ठोस आधार प्रदान नहीं करती हैं और जद को मिली सीटों के आधार पर सामाजिक न्याय के मुद्दे की जीत को मानना बेमानी होगा।
पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि मैं जातिवादी राजनीति में विश्वास करता हूं। उनकी यह बात उस समय लोगों में हल्के ढंग से भले ही ली हो परंतु आज उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम इस बात की ही पुष्टि कर रहे हैं। अब देखना है कि इन परिणामों से बनने वाली सरकार और उसका मुखिया जातिगत व वर्गगत विभाजन पर कितना नियंत्रण रखता है और या उसे बढ़ाने के लिए कितनी उर्वर जमीन या अवसर उपलब्ध कराता है। यही अगले सरकार की उपलब्धि व स्थिरता के लिए अंतिम मानदंड होगा।
इस बार कांग्रेस के स्थायी सरकार के मुद्दे को जैसी पराजय मिली उससे यह स्पष्ट हुआ कि जनता के लिए कांग्रेस में कोई आकर्षण शेष नहीं रह गया है। एक मात्र राष्ट्रीय पार्टी के रूप में सर्वाधिक लम्बा राजनीतिक जीवन जीने वाली पार्टी को इस बार मात्र 26 सीटें मिल पायीं, जबकि पिछली सरकार में इसे 46 सीटें मिली थीं। कांग्रेस की स्थायित्व व स्थिति सरकार जैसी बात जनता में कोई आकर्षण नहीं पैदा कर पायी, क्योंकि कांग्रेस ने सीटें ही नहीं खोयी हैं, वरन उसे प्राप्त मतों के प्रतिशत में भी काफी Ðास हुआ है। हासिये की ओर जा रही कांग्रेस ने के न्द्र में समर्थन देकर जिस तरह चन्द्रशेखर को प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनाया था और फिर समर्थन वापस लेकर इन दोनों जगहों पर मध्यावधि चुनाव के लिए पृष्ठभूमि तैयार की और 6 दिसम्बर की घटना के लिए चार राज्य सरकारों को बर्खास्त किया, उससे कांग्रेस के इन नीतियों के प्रति जनता ने नकारात्मक परिणाम देकर कांग्रेस को उसके निर्णयों व संगठनात्मक स्वरूप पर सोचने का अवसर दिया है। हिमाचल में कांग्रेस की वापसी भी कोई सकारात्मक वोटों का परिणाम नहीं कही जाएगी, वरन यह शान्ता कुमार सरकार से नाराज ‘सेब लाबी’ तथा प्रदेश कर्मचारी संघ के प्रतिशोधात्मक मतदान का परिणाम है। कांग्रेस इस चुनाव में जिस स्थिति में पहुंची है, उससे उसके सामने अपनी स्थिति बरकरार रखने के लिए किसी पार्टी को समर्थन देने के सिवाय कोई चारा शेष नहीं रह जाता है। कांग्रेस प्रशासनिक स्तर पर अपनी पकड़ और मजबूती बनाये रखना चाहेगी और वह यह भी चाहेगी कि के न्द्र की उसकी सरकार बनी रहे। इसके लिए उसके सामने मुलायम सिंह यादव के सपा-बसपा गठबंधन को समर्थन देने के सिवाय कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि सपा-बसपा गठबन्धन की राष्ट्रीय स्थिति कोई नहीं बनती है और इस गठबंधन की सरकार बनाये रखकर कांग्रेस प्रदेश प्रशासन में अपनी पकड़ भी बरकरार रख सके गी। जो थोड़े बहुत परिवर्तन होंगे वह भी बसपा के दबाव के कारण। कांग्रेस मुलायम को समर्थन देकर धर्मनिरपेक्षता को समर्थन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखा सकती है तथा वह मुलायम के उस एहसान का बदला भी चुका सकती है, जिसके अन्तर्गत मुलायम सिंह यादव के सपा सांसदों ने के न्द्र में नरसिंह राव सरकार के खिलाफ आये अविश्वास प्रस्ताव पर कांग्रेस सरकार बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उसी समय यह सिद्ध हो गया था कि मुलायम और कांग्रेस में कोई आन्तरिक समझौती की स्थिति बनी है।
मुलायम सिंह यादव की सपा को इस बार 106 सीटें मिली, जबकि उसके 91 में मात्र 23 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। सपा को मिली सीटों से यह तो हुआ कि राज्यपाल को मुलायम सिंह को सरकार बनाने के लिए आमंत्रण देने में द्वितीय वरीयता देनी होगी। वैसे राज्यपाल सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा को आमंत्रण भले दें, लेकिन भाजपा के खिलाफ जिस तरह सारी पार्टियां मोर्चा खोेलकर चुनाव लड़ रही थीं, उससे भाजपा को किसी से भी समर्थन की आशा नहीं करनी चाहिए।
मुलायम सिंह यादव को कांग्रेस का समर्थन लिने की तो साफ स्थिति दिख ही रही है। साथ ही साथ बसपा की 66 सीटें भी मुलायम की ही हैं। जनता दल के नेता अगर सामाजिक नयाय के अपने मुद्दे को जीवित रखना चाहते हैं और चाहते हैं कि मण्डल आयोग की उनकी उपलब्धि उनके ही खाते में बनी ही रहे तब तो उन्हें मुलायम सिंह यादव को समर्थन देना ही पड़ेगा, वैसे भी जद नेता बार-बार मुलायम की जीत को अपने मुद्दे की जीत कह रहे हैं। उन्होंने यहां तक कहना शुरू कर दिया है कि वह सामाजिक न्याय की जीत है वह चाहे मुलायम सिंह के माध्यम से। अगर जनता दल अपनी इस स्थापना को जीवित रखना चाहती है तो मुलायम को समर्थन उसकी एक अनिवार्य शर्त होगी। इस तरह स्पष्ट बहुमत के लिए अगर राज्यपाल परेड भी कराना चाहें तो मुलायम सिंह यादव को छोड़कर कोई भी नेता इसे पूरा नहीं कर सकता है।
इस तरह पूरे चुनाव परिणाम व जोड़-जुगत यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त प्रमाण व आधार देते हैं कि मुलायम सिंह की पार्टी को सरकार बनाने का अवसर मिलेगा।
मुलायम सिंह यादव ने जब सपा बनायी थी, उस समय जद को यह जरूर लगा था कि मुलायम अपनी ताकत को काफी ज्यादे समझ रहे हें। कई बार जद की ओर से मुलायम सिंह को एकता के आधार पर पुनः चुनाव लड़ने के लिए प्रस्ताव भी मिले, परन्तु मुलायम सिंह ने सभी प्रस्तावों को इस तरह ठुकराया जिससे उन्हें दंभी और बड़बोला माना जाने लगा, लेकिन इस बार 106 सीटें जीतकर मुलायम सिंह ने प्रदेश में अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया है कि जनता दल अपने सामाजिक न्याय के मुद्दे को जीवित रखने के लिए मुलायम के साथ चस्पा होने को तैयार है। मुलायम सिंह जिद्दी और प्रतिबद्ध राजनीतिज्ञ के रूप में भले ही जाने जाएं, परन्तु जातिगत आधार पर चले आ रहे मतदाताओं में सेंध लगाने का काम जिस चतुराई से उन्होंने किया है उससे प्रशंसनीय हो उठे हैं। क्योंकि पहले कांग्रेस भी अपने ‘वोट बैंक’ मुसलमान, हरिजन और अन्य जातियों के आधार पर बनाकर तुष्टिकरण के माध्यम से सरकार चला रही थीं, लेकिन मुलायम सिंह ने मुसलमान, हरिजन और पिछड़ों के वोटों को हथियाकर कांग्रेसी चालों को ही धता नहीं बताया, वरन् भाजपा को भी यह बताया कि धर्म से ज्यादे मजबूत होती हैं जातीय श्रेणियां। इस चुनाव में अल्पसंख्यक मतदाताओं ने बुखारी के किसी फरमान पर ध्यान नहीं दिया, यह सपा के लिए मजबूती का कारण बना। मुस्लिम मतदाता पूरी तरह खामोश था, परन्तु भाजपा को हराने के लिए मौन मुहिम जारी थी। तभी तो बुखारी मुलायम को बार-बार औकात बनाने की धमकी देते रहे। जद के लिए मतदान की अपील करते रहे, लेकिन उनकी इन फरियादों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे यह भी निष्कर्ष नहीं जुटाया जा सकता कि इस चुनाव में धार्मिक मुद्दे नकार दिये गये और कठमुल्लाओं की नहीं चली। हां, उनकी प्रभावहीनता जातिगत श्रेणियों ने काफी कम की। इस बार प्रदेश में भारी मतदान से एक बात तो लगती ही थी कि भाजपा के लिए कुछ ठोस परिणाम नहीं आयेंगे। भारी मतदान से अल्पसंख्यक व पिछड़ों तथा हरिजन मतदाताओं के मतों का प्रतिशत बढ़ा। उन्होंने शेषन के सुरक्षात्मक उपायों का लाभ उठाया और निर्भीक होकर मतदान किया। पहले इनकी जगह बूथों पर सवर्ण इनके मतों का प्रतिनिधित्व कर दिया करते थे, परन्तु इस बार यह ट्रेंड आमतौर पर देखने को नहीं मिला। हां, सपा के कुछ बाहुबली प्रत्याशियों ने इसे आधार बनाकर कई सीटों में इजाफा जरूर किया है।
भारतीय जनता पार्टी ने यद्यपि कि सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अपनी हैसियत 161 सीटें जीतकर बरकरार रखी है, (जबकि कुछ जगहों पर अभी परिणाम आने शेष हैं लेकिन इन परिणामों से चुनाव की दिशा में कोई परिवर्तन होने की संभावना नहीं है। हां, आंकड़े बदल सकते हैं) परन्तु उसने सरकार खोया है। कुछ सीटें उसके हाथ से गयीं जबकि उसके वोटों के प्रतिशत में कुछ बढ़ोत्तरी जरूर हुई है जबकि लोकतंत्र में वोटों का प्रतिशत नहीं सीटों की संख्या का मतलब होता है क्योंकि लोकतंत्र आंकड़ों का खेल है। इस तरह भाजपा ने जहां मंदिर मुद्दे के लिए इस चुनाव के परिणाम को जनादेश माना था। वहां भाजपा को अब जनादेश की स्थिति के बारे में विचार करना चाहिए। भाजपा को इसे जनादेश की जगह अपनी शहादत का प्रतिदान मांगना कुछ ज्यादे ही लाभकारी हो सकता था, परन्तु ऐसा न करने के पीछे भाजपा की जो भी मंशा रही हो, उसे शुभ नहीं कहा जा सकता। भाजपा के लिए शिवसेना का कई जगहों पर
पर चुनाव लड़ना भी घातक रहा। शिवसेना ने इस बार लगभग 200 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करके प्रदेश में जड़ें जमाने की कोशिश कीं। अगर ऐसा नहीं होता तो भाजपा की सीटों में कई सीटों का इजाफा हो सकता था। क्योंकि इससे अधिक कई सीटों पर भाजपा जितने मतों से पराजित हुई है, उससे अधिक मत शिवसेना के प्रत्याशी ने हासिल किया है। शिवसेना प्रत्याशी को जो भी मत मिले, वह कट्टर हिन्दुत्ववाद के मत थे। ये मत भाजपा के सिवाय किसी और पार्टी को नहीं मिल सकते थे।
भाजपा की स्थिति में हुए ह्ास ने स्पष्ट तौर पर यह बताया दिया कि भाजपा सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में कोई भी ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं की थी जो उसे बैसाखी के रूप में काम आती। एक 6 दिसंबर का मंदिर मुद्दा छोड़कर यह घटना भी भाजपा की उपलब्धि नहीं कही जा सकती क्योंकि इसके लिए उसने कोई ठोस व सार्थक प्रयास किसी दिशा में नहीं किया था वरन् यह घटना वहां एकत्रित जन समुदाय की आराध्य के उपहास की प्रतिक्रिया में स्वतः स्फूर्त घटना के रूप से घटित थी। भाजपा ने तो यहां लोगों को प्रतीकात्मक कारसेवा करने के लिए इकट्ठा किया था लेकिन प्रतीकात्मक कारसेवा की बात पर लोग मान नहीं पाये और इतनी बड़ी भीड़ इकट्ठा करके उसे संयम में रख पाने के अदक्ष नेतृत्व के अभाव में यह सब हुआ।
वैसे परिणामों के आधार पर सपा-बसपा गठबंधन का सरकार बनाना लगभग निश्चित कहा जा सकता है परंतु मुलायम सिंह को अपने कार्यशैली में काफी तब्दीलियां करनी पड़ेंगी। तभी वो लंबे समय तक स्वयं को सत्तापरक राजनीति करने वाले राजनेता के रूप में स्थापित रख पायेंगे। इस चुनाव में कांग्रेस का स्थायी सरकार का मुद्दा जद का सामाजिक न्याय का मुद्दा और भाजपा का मंदिर या जो कहा सो किया सभी मुद्दों की पराजय हुई। चुनाव मंे मुद्दे हारे, वैसे जद नेता इसे सामाजिक न्याय वाले मुद्दे की जीत भले ही मानें, परन्तु उनकी बात को थोड़ी देर के लिए स्वीकार भी कर लिया जाय, तो उसे समर्थन देने के लिए जद को मिली 30 से कम सीटें कोई मजबूत एवं ठोस आधार प्रदान नहीं करती हैं और जद को मिली सीटों के आधार पर सामाजिक न्याय के मुद्दे की जीत को मानना बेमानी होगा।
पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि मैं जातिवादी राजनीति में विश्वास करता हूं। उनकी यह बात उस समय लोगों में हल्के ढंग से भले ही ली हो परंतु आज उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम इस बात की ही पुष्टि कर रहे हैं। अब देखना है कि इन परिणामों से बनने वाली सरकार और उसका मुखिया जातिगत व वर्गगत विभाजन पर कितना नियंत्रण रखता है और या उसे बढ़ाने के लिए कितनी उर्वर जमीन या अवसर उपलब्ध कराता है। यही अगले सरकार की उपलब्धि व स्थिरता के लिए अंतिम मानदंड होगा।
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