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राजनीति से उठते सवाल
स्वतंत्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन प्रणाली के बिना कोई जनतंत्र स्वस्थ एवं चिरजीवी नहीं हो सकता है। जनतंत्र हमारे राजनीतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति है। आज हमारी राजनीति में समाज भंजक घटकों ने जैसे-जैसे अपना स्थान बनाना शुरू किया है वैसे-वैसे हमारी नैतिकताएं, मान्यताएं सिमटती चली गयीं। भाववाद पर जीने वाला भारत भौतिकवाद की आपाधापी में जीने की आवश्यकता का स्वांग कर रहा है। हमारी समरसता टूटने लगी है। हम सत्ता तक अराजक तत्वों या अराजक शब्दों को पहंुचाने के निमित्त मात्र बनकर रह गये हैं। क्योंकि सत्ता में जाने के बाद किसी में भी उस अराजकता को स्वीकारने का साहस नहीं रह जाता है और न ही स्थितियां। यथा - राम मन्दिर बनाने का सवाल भारतीय जनता पार्टी का एक अहम सवाल था, जब वह सत्ता में नहीं थी। सत्ता में आने के बाद उसका सवाल हो गया मंदिर निर्माण में आने वाली बाधाएं दूर करना। 6 दिसम्बर, 92 की घटना को चाहे लोग भाजपा की सोची समझी राजनीति या उपलब्धि माने परन्तु इसे एक स्वतः स्फूर्ति घटना के सिवाय किसी भी रूप में देखना या स्वीकार करना इतिहास के लिए अन्याय होगा। क्योंकि अगर मन्दिर निर्माण का सवाल भाजपा के सरकार बन जाने के बाद भी जीवित था तो तत्कालीन प्रदेश सरकार विवादित ढांचे को सुरक्षित रखने का शपथ पत्र प्रस्तुत नहीं करती। क्योंकि भाजपा अपने स्वरूप के बारे में भिज्ञ होगी कि उसका ‘सरवाइवल’ कट्टर मुस्लिमवाद व तुकिरण की प्रतिक्रिया के कारण ही है।
इतना ही नहीं, प्रदेश की वर्तमान गठबन्धन सरकार में शिरकत कर रही बसपा का अभ्युदय ही मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ अराजक शब्दों के जयघोष के कारण हुआ। इसका मानना है कि दलित, उत्पीड़ित वर्ग को अपना अवसर मिलना चाहिए। तभी तो उसने ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा। नहीं चलेगा।।’ जैसा नारा दिया। इस नारे से यह स्प होता है कि इस दल का दर्शन यह मानता एवं स्वीकारता है कि हमारे मतों का हमारे हित में सार्थक व उपयोगी प्रयोग कभी नहीं हुआ है परन्तु उसी पार्टी को आज सपा के साथ सत्ता का स्वाद चखने पर विवश होना पड़ा। जबकि सपा किसी एक जाति आधारित स्पष्ट घोषित राजनीतिक बोध या दर्शन की पार्टी नहीं है। इससे यह साफ हो जाता है कि सत्ता में आने के बाद हमारे राजनीति के , हमारे राजनीतिक दलों के सवाल बदल जाते हैं। सत्ता के बाहर और अन्दर सवालों और बदलने का क्रम ही हमारे राजनीति का संक्रमण है। हमारी राजनीतिक विवशता एवं हमारी पंगु मानसिकता का कारण है।
हमारी राजनीति ‘वोट बोधी’ हो गयी है ? क्योंकि उससे भारतीयता रिस गयी है ? हमारा राजनीतिज्ञ भारत और सत्ता को दृष्टि अन्तर से देखता है ? हमारा जननेता युवाओं को मौलिक हथियार मानता है ? हमारी राजनीति में मौलिक समस्याओं के लिए घोषणा पत्रों को छोड़कर कोई स्थान नहीं है ? हमारी पार्टियों के पास देश की किसी समस्या या सवाल को दूर करने का कोई ‘ब्लू पिं्रट’ नहीं है। उनके सामने बेरोजगारी समस्या तो है पर बेरोजगारी दूर करने के लिए कोई ठोस सुाव नहीं ? भारतीय संस्कृति बचाने की जिम्मेदारी की स्वीकृति उसकी है पर कोई प्रयास नहीं ? भारत के भाववाद का दार्शनिक बोध तो उनके पास है परन्तु भौतिकवाद से कटने का साहस नहीं ? वह माक्र्स की उस व्याख्या को मानने को तैयार नहीं है जिसके अनुसार ‘सभी सामाजिक सम्बन्ध आर्थिक चरों पर निर्भर करते हैं।’ वह एम स्मिथ के ‘आर्थिक मानव’ को एक ‘यूटोपियन परिकल्पना’ मानता है परन्तु अपने चुनावों मंे धन बल को वरीयता देता है ? ये दोहरापन ही हमारे राजनीति के वो मौलिक सवाल हैं जिस पर हमारा जननायक, हमारी राजनीतिक पार्टियां सत्ता के बाहर और सत्ता अन्दर अलग-अलग स्थितियों में खड़ी पायी और देखी गयी है।
हमने अपने देश को महज भूखण्ड नहीं माना वरन एक संस्कृति भी स्वीकार किया है। जिसमें परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले दृकिोणों में समन्वय स्थापित करना इसकी विशेष प्रवृत्ति है। विविधता इसका सौन्दर्य है। विविधता में एकता इसका विशिष्ट दर्शन है। हमारी भाषाएं अनेक हैं पर भाव एक है। भारत की विविधता उसकी सांस्कृति एकतात्मकता का इन्द्र धनुष है। परन्तु हमारी राजनीति ने, हमारे जननायकों ने, हमारी राजनीतिक पार्टियों ने देश को मां के स्थान पर सम्पत्ति मानकर भोगना शुरू कर दिया। वीर भोग्या वसुंधरा का सिद्धान्त चल निकला। भारत की विविधता को अंग्रेजों ने बहुत चालाकी से विभेद में रूपान्तरित किया। भाषा, पंथ, सम्प्रदाय और जाति के आधार पर बहुरावाद की नींव रखी। भारत की साहित्यिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों को पश्चिम का उच्चिष्ट सिद्ध करने के प्रयत्न किये गये। भारतीय जीवन को आत्मगौरव शून्य एवं आत्म विस्मृत बनाने का षडयन्त्र रचा गया। इसके परिणामस्वरूप भाषावाद, क्षेत्रवाद, पंथवाद, सम्प्रदायवाद की शक्तियां राष्ट्र के सामने चुनौतियां बनकर उभरीं। अर्थ लोलुप ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने हमारे सामाजिक संस्थाओं को न किया, भ्रष्ट किया। देश का आर्थिक शोषण किया। बेरोजगारी और दरिद्रता जैसी समस्याएं बोयीं। राीय एकात्मकता को आर्थिक विषमता से आघात पहुंचाया।
आजादी मिली पर अंग्रेजी की मनोवृत्ति से हमारे समाज को निजात नहीं मिल पायी। अंगे्रजों ने हमारी राष्ट्रीय संकल्पना को तोड़ा। हमें राष्ट्र के सन्दर्भ में महज भूगोल से जोड़ा। आज हमें प्रखर राजनीतिज्ञों को देखने पर यह स्वीकारने से इनकार नहीं करना पड़ेगा कि सत्ता के साथ अंग्रेजों ने हमारे राजनीतिज्ञों को अपनी मानसिकता भी हस्तान्तरित की। तभी तो आज भी हम राष्ट्र के सम्मुख पंथवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद जैसी समस्याओं के साथ खड़े हैं। संघर्ष कर रहे हैं। इसी संघर्ष, इसी राजनीतिक क्षुद्रता का परिणाम है - राम मन्दिर विवाद, दिशाहारा युवक, मण्डल आयोग आदि- इत्यादि। अगड़े-पिछडों के बीच खाईं, मनमुटाव। हममें इतनी राजनीतिक क्षुद्रता भर गयी है कि राम, कृष्ण, रहीम, दीनदयाल, रविदास, अंबेडकर, कबीर को कुनबों में बांटकर जीने लगे हैं। स्वीकारने लगे हैं। अंबेडकर की महानता हरिजनों के लिए इतनी उपलब्धि हो गयी है कि अन्य लोग इस उपलब्धि को अपने विरुद्ध हथियार सम रहे हैं? अम्बेकर सरीखे हमारे पूर्वज किसी की कोई बपौती नहीं हैं। ये हमारे पथ प्रदर्शक हैं। इनसे, इनके दर्शन से, इनकी व्यावहारिकता से हमारी सामाजार्थिक समस्याओं के समाधान के सूत्र निकलते हैं। महात्मा गांधी, नेहरू, चरण सिंह, लोहिया को हमें कुनबों में बांटने का प्रयास नहीं करना चाहिए। ये ‘वोट बैंक’ जुटाने के लिए या फिर राजनीतिक समीकरण बनाने के लिए हथियार नहीं है। हमारी मौलिक समस्याएं उनके समाधान का ‘ब्लू पिं्रट’ है। यदि एक व्यक्ति, एक संस्था, एक जाति सत्ता हथियाने की चेष्टा करेगी तो देश में एकता का संकट पैदा होगा। सम्प्रदाय निरपेक्ष जनतंत्र में मजहबी आधार पर राजनीति नहीं चल सकती है। मजहबी अल्पसंख्यकों की समस्याएं ‘थियोक्रेसी’ में मान्य हो सकती हैं। जनतंत्र में यह सम्भव नहीं है क्योंकि भारत महज एक निर्जीव इकाई नहीं है। यह मानव की सांस्कृतिक यात्रा, उपलब्धि का एक संदेश है जिसमें ‘सत्यं शिवम् सन्दरम्’ का अनिवार्य तत्व है। नर को नारायण में विकसित करने का, शव को शिव में परिणत करने का भगीरथ प्रयत्न है। हमारी राजनीति हमारी इन पहचानों के सामने संकट खड़ी करने पर आमदा है। क्योंकि गोरों ने सत्ता हस्तांतरित करते समय सत्ता की मनोवृत्ति भी हस्तांतरित कर दी। अंग्रेज तो दूसरे महायुद्ध के बाद ही समझ गये थे कि वो यहां टिक नहीं पाएंगे। फिर उन्हें यहां उत्पन्न की गयी विषमताओं का समाधान नहीं तलाशना था। न ही इन समस्याओं के दीर्घकालीन प्रभाव से उनसे उन्हंे रूबरू होना था। हमें इसे समझना होगा। हमारे राजनीतिक दलों व नेताओं को यह स्वीकारना होगा कि भारत उनका है। उन्हें अन्तहीन समस्याएं पैदा करने से बचना है। क्योंकि ये अन्तहीन समस्याएं, राजनीति के अधूरे सवाल, जिनसे हमारी समरसता का ताना-बाना टूट रहा है उनकी पीढ़ियों की समस्याएं बन सकती हैं। जंगल का शेर यदि मानव भक्षी हो जाय उसे रोज एक मानव चाहिए हो तो एक रोज हमारा भी नंबर आ जाएगा। हमारी पीढ़ियों का भी नम्बर आ सकता है इस सत्य के साथ जीना होगा। वैसे यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे देश में सत्ता हस्तांतरित हुई परन्तु उसके तौर तरीके नहीं बदले। नियम कानून भारत के लिए अपने स्वजनों के लिए नहीं बने। नियमों में, कानूनों में, सत्ता के स्वभाव में, चरित्र में वही शोषित व शोषक के रिश्ते का दम्भ है। अंग्रेजों की इस चतुराई का सामना हम 46 साल से कर रहे हैं पर निजात नहीं पाए ? यही हमारे राजनीतिक दलों की असफलता है जिसे वो भाषावाद, पंथवाद, सम्प्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद के नाम पर अपने लिए ‘वोट बैंक’ मानकर गौरवान्वित होने में नहीं चूकते हैं।
हमारे राजनीति की यह विडम्बना रही है कि यहां का राजनेता भाषण की कलाबाजियों में सिद्धहस्त है, निपुण है, तत्पर है। परन्तु राजनीतिक चिन्तन, विचारधारा व सांस्कृतिक वैज्ञानिक धरातल पर शून्य या एकदम लचर है। हमारे राजनीतिज्ञ में सत्ता की तिलमिलाहट ‘वोट देहि’ का दर्शन प्रबल है और महज यही दर्शन भी है। परिणामतः भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर शून्य उभरे और या नकारात्मक बोध। इसका परिणाम इस बार राष्ट्रीय पार्टियों के विज्ञापनों में स्पष्टतः देखने को मिला कि अखबारों के प्रचार में विरोधी पार्टियों के आलोचनाओं की भरमार रही अपनी उपलब्धियां कम रहीं। इस कारण हमारे राजनीति से जो भी सवाल उठे उसने समाज पर या तो नकारात्मक छाप छोड़ा या शून्य। अब इन सवालों को हल करने के लिए इस चिरजीवी लोकतंत्र में नारों की र्होिंर्डंग पढ़ने, आश्वासनों के भाषण सुनने से कटना होगा। राष्ट्र के जीवात्मा ‘नागरिक’ को तटस्थ सोच से उबारना होगा। ‘कोउ नृप होय, हमें का हानी - चेरी छांड़िं हुई है ना रानी’ के भाव से अपने मकान, झुग्गी-झोपड़ियों से बाहर आकर अंग्रेजों की मानसिकता पर कर रहे, हो रहे राजनीति को पराजित करना होगा तभी राजनीति से उठते सवाल हल हो पायेंगे।
इतना ही नहीं, प्रदेश की वर्तमान गठबन्धन सरकार में शिरकत कर रही बसपा का अभ्युदय ही मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ अराजक शब्दों के जयघोष के कारण हुआ। इसका मानना है कि दलित, उत्पीड़ित वर्ग को अपना अवसर मिलना चाहिए। तभी तो उसने ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा। नहीं चलेगा।।’ जैसा नारा दिया। इस नारे से यह स्प होता है कि इस दल का दर्शन यह मानता एवं स्वीकारता है कि हमारे मतों का हमारे हित में सार्थक व उपयोगी प्रयोग कभी नहीं हुआ है परन्तु उसी पार्टी को आज सपा के साथ सत्ता का स्वाद चखने पर विवश होना पड़ा। जबकि सपा किसी एक जाति आधारित स्पष्ट घोषित राजनीतिक बोध या दर्शन की पार्टी नहीं है। इससे यह साफ हो जाता है कि सत्ता में आने के बाद हमारे राजनीति के , हमारे राजनीतिक दलों के सवाल बदल जाते हैं। सत्ता के बाहर और अन्दर सवालों और बदलने का क्रम ही हमारे राजनीति का संक्रमण है। हमारी राजनीतिक विवशता एवं हमारी पंगु मानसिकता का कारण है।
हमारी राजनीति ‘वोट बोधी’ हो गयी है ? क्योंकि उससे भारतीयता रिस गयी है ? हमारा राजनीतिज्ञ भारत और सत्ता को दृष्टि अन्तर से देखता है ? हमारा जननेता युवाओं को मौलिक हथियार मानता है ? हमारी राजनीति में मौलिक समस्याओं के लिए घोषणा पत्रों को छोड़कर कोई स्थान नहीं है ? हमारी पार्टियों के पास देश की किसी समस्या या सवाल को दूर करने का कोई ‘ब्लू पिं्रट’ नहीं है। उनके सामने बेरोजगारी समस्या तो है पर बेरोजगारी दूर करने के लिए कोई ठोस सुाव नहीं ? भारतीय संस्कृति बचाने की जिम्मेदारी की स्वीकृति उसकी है पर कोई प्रयास नहीं ? भारत के भाववाद का दार्शनिक बोध तो उनके पास है परन्तु भौतिकवाद से कटने का साहस नहीं ? वह माक्र्स की उस व्याख्या को मानने को तैयार नहीं है जिसके अनुसार ‘सभी सामाजिक सम्बन्ध आर्थिक चरों पर निर्भर करते हैं।’ वह एम स्मिथ के ‘आर्थिक मानव’ को एक ‘यूटोपियन परिकल्पना’ मानता है परन्तु अपने चुनावों मंे धन बल को वरीयता देता है ? ये दोहरापन ही हमारे राजनीति के वो मौलिक सवाल हैं जिस पर हमारा जननायक, हमारी राजनीतिक पार्टियां सत्ता के बाहर और सत्ता अन्दर अलग-अलग स्थितियों में खड़ी पायी और देखी गयी है।
हमने अपने देश को महज भूखण्ड नहीं माना वरन एक संस्कृति भी स्वीकार किया है। जिसमें परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले दृकिोणों में समन्वय स्थापित करना इसकी विशेष प्रवृत्ति है। विविधता इसका सौन्दर्य है। विविधता में एकता इसका विशिष्ट दर्शन है। हमारी भाषाएं अनेक हैं पर भाव एक है। भारत की विविधता उसकी सांस्कृति एकतात्मकता का इन्द्र धनुष है। परन्तु हमारी राजनीति ने, हमारे जननायकों ने, हमारी राजनीतिक पार्टियों ने देश को मां के स्थान पर सम्पत्ति मानकर भोगना शुरू कर दिया। वीर भोग्या वसुंधरा का सिद्धान्त चल निकला। भारत की विविधता को अंग्रेजों ने बहुत चालाकी से विभेद में रूपान्तरित किया। भाषा, पंथ, सम्प्रदाय और जाति के आधार पर बहुरावाद की नींव रखी। भारत की साहित्यिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों को पश्चिम का उच्चिष्ट सिद्ध करने के प्रयत्न किये गये। भारतीय जीवन को आत्मगौरव शून्य एवं आत्म विस्मृत बनाने का षडयन्त्र रचा गया। इसके परिणामस्वरूप भाषावाद, क्षेत्रवाद, पंथवाद, सम्प्रदायवाद की शक्तियां राष्ट्र के सामने चुनौतियां बनकर उभरीं। अर्थ लोलुप ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने हमारे सामाजिक संस्थाओं को न किया, भ्रष्ट किया। देश का आर्थिक शोषण किया। बेरोजगारी और दरिद्रता जैसी समस्याएं बोयीं। राीय एकात्मकता को आर्थिक विषमता से आघात पहुंचाया।
आजादी मिली पर अंग्रेजी की मनोवृत्ति से हमारे समाज को निजात नहीं मिल पायी। अंगे्रजों ने हमारी राष्ट्रीय संकल्पना को तोड़ा। हमें राष्ट्र के सन्दर्भ में महज भूगोल से जोड़ा। आज हमें प्रखर राजनीतिज्ञों को देखने पर यह स्वीकारने से इनकार नहीं करना पड़ेगा कि सत्ता के साथ अंग्रेजों ने हमारे राजनीतिज्ञों को अपनी मानसिकता भी हस्तान्तरित की। तभी तो आज भी हम राष्ट्र के सम्मुख पंथवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद जैसी समस्याओं के साथ खड़े हैं। संघर्ष कर रहे हैं। इसी संघर्ष, इसी राजनीतिक क्षुद्रता का परिणाम है - राम मन्दिर विवाद, दिशाहारा युवक, मण्डल आयोग आदि- इत्यादि। अगड़े-पिछडों के बीच खाईं, मनमुटाव। हममें इतनी राजनीतिक क्षुद्रता भर गयी है कि राम, कृष्ण, रहीम, दीनदयाल, रविदास, अंबेडकर, कबीर को कुनबों में बांटकर जीने लगे हैं। स्वीकारने लगे हैं। अंबेडकर की महानता हरिजनों के लिए इतनी उपलब्धि हो गयी है कि अन्य लोग इस उपलब्धि को अपने विरुद्ध हथियार सम रहे हैं? अम्बेकर सरीखे हमारे पूर्वज किसी की कोई बपौती नहीं हैं। ये हमारे पथ प्रदर्शक हैं। इनसे, इनके दर्शन से, इनकी व्यावहारिकता से हमारी सामाजार्थिक समस्याओं के समाधान के सूत्र निकलते हैं। महात्मा गांधी, नेहरू, चरण सिंह, लोहिया को हमें कुनबों में बांटने का प्रयास नहीं करना चाहिए। ये ‘वोट बैंक’ जुटाने के लिए या फिर राजनीतिक समीकरण बनाने के लिए हथियार नहीं है। हमारी मौलिक समस्याएं उनके समाधान का ‘ब्लू पिं्रट’ है। यदि एक व्यक्ति, एक संस्था, एक जाति सत्ता हथियाने की चेष्टा करेगी तो देश में एकता का संकट पैदा होगा। सम्प्रदाय निरपेक्ष जनतंत्र में मजहबी आधार पर राजनीति नहीं चल सकती है। मजहबी अल्पसंख्यकों की समस्याएं ‘थियोक्रेसी’ में मान्य हो सकती हैं। जनतंत्र में यह सम्भव नहीं है क्योंकि भारत महज एक निर्जीव इकाई नहीं है। यह मानव की सांस्कृतिक यात्रा, उपलब्धि का एक संदेश है जिसमें ‘सत्यं शिवम् सन्दरम्’ का अनिवार्य तत्व है। नर को नारायण में विकसित करने का, शव को शिव में परिणत करने का भगीरथ प्रयत्न है। हमारी राजनीति हमारी इन पहचानों के सामने संकट खड़ी करने पर आमदा है। क्योंकि गोरों ने सत्ता हस्तांतरित करते समय सत्ता की मनोवृत्ति भी हस्तांतरित कर दी। अंग्रेज तो दूसरे महायुद्ध के बाद ही समझ गये थे कि वो यहां टिक नहीं पाएंगे। फिर उन्हें यहां उत्पन्न की गयी विषमताओं का समाधान नहीं तलाशना था। न ही इन समस्याओं के दीर्घकालीन प्रभाव से उनसे उन्हंे रूबरू होना था। हमें इसे समझना होगा। हमारे राजनीतिक दलों व नेताओं को यह स्वीकारना होगा कि भारत उनका है। उन्हें अन्तहीन समस्याएं पैदा करने से बचना है। क्योंकि ये अन्तहीन समस्याएं, राजनीति के अधूरे सवाल, जिनसे हमारी समरसता का ताना-बाना टूट रहा है उनकी पीढ़ियों की समस्याएं बन सकती हैं। जंगल का शेर यदि मानव भक्षी हो जाय उसे रोज एक मानव चाहिए हो तो एक रोज हमारा भी नंबर आ जाएगा। हमारी पीढ़ियों का भी नम्बर आ सकता है इस सत्य के साथ जीना होगा। वैसे यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे देश में सत्ता हस्तांतरित हुई परन्तु उसके तौर तरीके नहीं बदले। नियम कानून भारत के लिए अपने स्वजनों के लिए नहीं बने। नियमों में, कानूनों में, सत्ता के स्वभाव में, चरित्र में वही शोषित व शोषक के रिश्ते का दम्भ है। अंग्रेजों की इस चतुराई का सामना हम 46 साल से कर रहे हैं पर निजात नहीं पाए ? यही हमारे राजनीतिक दलों की असफलता है जिसे वो भाषावाद, पंथवाद, सम्प्रदायवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद के नाम पर अपने लिए ‘वोट बैंक’ मानकर गौरवान्वित होने में नहीं चूकते हैं।
हमारे राजनीति की यह विडम्बना रही है कि यहां का राजनेता भाषण की कलाबाजियों में सिद्धहस्त है, निपुण है, तत्पर है। परन्तु राजनीतिक चिन्तन, विचारधारा व सांस्कृतिक वैज्ञानिक धरातल पर शून्य या एकदम लचर है। हमारे राजनीतिज्ञ में सत्ता की तिलमिलाहट ‘वोट देहि’ का दर्शन प्रबल है और महज यही दर्शन भी है। परिणामतः भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर शून्य उभरे और या नकारात्मक बोध। इसका परिणाम इस बार राष्ट्रीय पार्टियों के विज्ञापनों में स्पष्टतः देखने को मिला कि अखबारों के प्रचार में विरोधी पार्टियों के आलोचनाओं की भरमार रही अपनी उपलब्धियां कम रहीं। इस कारण हमारे राजनीति से जो भी सवाल उठे उसने समाज पर या तो नकारात्मक छाप छोड़ा या शून्य। अब इन सवालों को हल करने के लिए इस चिरजीवी लोकतंत्र में नारों की र्होिंर्डंग पढ़ने, आश्वासनों के भाषण सुनने से कटना होगा। राष्ट्र के जीवात्मा ‘नागरिक’ को तटस्थ सोच से उबारना होगा। ‘कोउ नृप होय, हमें का हानी - चेरी छांड़िं हुई है ना रानी’ के भाव से अपने मकान, झुग्गी-झोपड़ियों से बाहर आकर अंग्रेजों की मानसिकता पर कर रहे, हो रहे राजनीति को पराजित करना होगा तभी राजनीति से उठते सवाल हल हो पायेंगे।
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