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राष्ट्रीय सम्प्रभुता पर डंके ल की ललकार

Dr. Yogesh mishr
Published on: 16 Dec 1993 12:51 PM IST
जिनेवा में अब तक सर्वाधिक विवादित व महत्वाकांक्षी विश्व व्यापार समझौते पर भारत सहित 117 देशों ने अपनी स्वीकृति दे दी। विवादित डंके ल प्रस्तावों को गैट के  सदस्य देशों के  बीच चर्चा के  लिए दो वर्ष पूर्व रखा गया था, तबसे हमारे संसद के  कई सत्र सम्पन्न हुए परन्तु सभी सत्रों में डके ल जैसा विवादित प्रस्ताव अछूता ही रहा। डंके ल प्रस्तावों को रखने के  बाद से ही विश्व बैंक तथा अन्य अमरीका परस्त एजेन्सियों ने तमाम अध्ययनों के  माध्यम से लगातार यह साबित करने का प्रयास किया कि यदि यह महत्वाकांक्षी विश्व व्यापार समझौता लागू हो जाता है तो विकासशील देशों विशेषकर भारत को सर्वाधिक लाभ होगा। विश्व बैंक आर्थिक सहयोग तथा विकास के  संगठनों ने पिछले वर्ष एक संयुक्त अध्ययन रिपोर्ट प्रकाशित करके  यह कहा कि इस नयी व्यापार व्यवस्था को लागू होने के  बाद विश्व व्यापार में 213 अरब डालर प्रतिवर्ष का इजाफा होगा। जिसमें भारत को 4.6 अरब डालर का लाभ होगा। इस संदर्भ में यह हमें नहीं बताया गया कि भारत की विश्व व्यापार में हिस्सेदारी मात्र 0.5 प्रतिशत ही है। दूसरी तरफ इन प्रस्तावों के  लागू होने के  बाद विश्व व्यापार में इजाफे का सबसे ज्यादा हिस्सेदारी विकसित देशों की होगी। विश्व बैंक के  आंकड़ों के  अनुसार 213 अरब डालर के  इस इजाफ में से 60 प्रतिशत से ज्यादा इन्हीं देशों की झोली में जाएगा। चीन को इससे 37 अरब डालर का फायदा होने वाला है। सबसे खराब हालत अफ्रीकी देशों की है, जो इस नयी विश्व व्यापार व्यवस्था की सबसे बड़ी कीमत चुकाएंगे। अफ्रीकी देशों की विश्व व्यापार में हिस्सेदारी बढ़ने की बजाय घटेगी। पूर्व सोवियत गणराज्यों को भी इस व्यवस्था से कोई खास फायदा नहीं होने वाला। सभी गणराज्यों को कुल मिलाकर 80 करोड़ऋ डालर प्रतिवर्ष का ही फायदा होने की उम्मीद है। इस व्यापार समझौते से उत्पादन का अंतरराष्ट्रीयकरण होगा, जिससे उत्पादन प्रक्रिया बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के  नियंत्रण में चली जाएगी। इन कम्पनियों के  हित सदैव सम्बन्धित देशों के  अनुरूप नहीं होते। औद्योगिक पूंजी की तुलना में वित्तीय पूंजी का महत्व बढ़ेगा। वित्तीय पूंजी में निर्बल मुद्रा नीति के  कारण भारत सर्वदा घाटे में रहेगा। उपभोक्तावाद प्रभावी होगा। आधुनिक संचार मीडिया से उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिलेगा। उपभोक्तावाद में विकसित देश पहले से ही अग्रणी हैं और वे अब इसका और अधिक लाभ उठाएंगे। गैट के  अंतर्गत व्यापार से सम्बन्धित बौद्धिक सम्पदा अधिकार के  अंतर्गत अमरीकी पेटेंट कानूनों को स्वीकार करने की मांग पूरी हो गयी। विदेशी व स्वदेशी पूंजी में समानता की बात, विदेशी पूंजी के  प्रति अनुकूल व्यवहार जैसे महत्वपूर्ण बातों में विकसित देशों को इस व्यापार समझौते से काफी लाभ हुआ। सेवाओं के  व्यवसायीकरण तथा विकसित देशों द्वारा क्रास रिटेलियेशन की जो व्यवस्था इन प्रस्तावों में है, उससे विकसित देशों को यह अधिकार मिल जाएंगे, जो अभी तक सुपर-301 के  तहत मात्र अमरीका को प्राप्त थे। इस समझौते से विकसित देश विकासशील देशों के  बाजार में पैठ की सुविधा पा जाएंगे। इससे घरेलू उद्योगों को काफी नुकसान पहुंचेगा।
डंके ल प्रस्तावों के  प्रावधानों को लागू किये जाने को लेकर भारत या विकासशील देशों के  ओर से कोई अवरोध नहीं खड़ा हुआ। जो अवरोध आए अमरीका, फ्रांस, जापान तथा अन्य अमीर देशों के  हितों को लेकर थे, क्योंकि जापान अपना चावल बाजार नहीं खोलना चाहता था, फ्रांस अपने किसानों को दी जा रही सब्सिडी नहीं समाप्त करना चाहता था, अमरीका ने टेक्सटाइल के  मुद्दे पर अड़ियल रुख अपना रखा था।
इन विवादित डंके ल प्रस्तावों को स्वीकार करने से भारत ही नहीं, किसी भी देश की सम्प्रभुता पर विदेशी उपभोक्तावाद की तलवार लटकती रहेगी और विकासशील देशों का व्यापार संतुलन तथा भुगतान संतुलना हमेशा प्रतिकूल बना रहेगा।
यद्यपि अब बहुत देर हो चुकी है, लेकिन फिर भी भारत की स्थिति कुछ सुधर सकती है, यदि सरकार देश के  दूरगामी हितों तथा जरूरतों पर अपना दिमाग साफ कर ले।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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