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नैतिकता का निर्वाह या महज नाटक
इस शताब्दी के सबसे बड़े घाटाले के लिए संसदीय जांच समिति ने वित्त मंत्रालय, पेट्रोलियम मंत्रालय एवं कुछ राजनीतिज्ञ विशेष के कार्यविधि पर गम्भीर टिप्पणी की है। वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने इस टिप्पणी से निराश होकर प्रधानमंत्री को अपना त्यागपत्र भेज दिया। संसदीय जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में टिपपणी करते हुए घोटाले का अनुमान लगाने और उसे रोकने में नाकामी के लिए तथा इस घोटाले में वित्तीय प्रणाली के कामकाज में बरती गयी लापरवाही के लिए लिखा है कि ‘दोषी व्यक्तियों को बिल्कुल नहीं छोड़ा जाना चाहिए।’ मनमोहन सिंह ने संसदीय जांच कमेटी की रिपोर्ट पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की वह उस प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमण्उल के मंत्री को शोभा नहीं देती जिस पर स्वयं ही एक करोड़ के रिश्वत का आरोप हो। इतना ही नहीं संसदीय जांच कमेटी ने प्रधानमंत्री के पुत्र प्रभाकर राव से ताल्लुक रखने वाली गोल्डस्टार कम्पनी के विरूद्ध जांच की भी सिफारिश की हो। नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने वाले वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने भी रामास्वामी प्रकरण में महाभियोग के विपक्ष में मतदान करने का गौरव जुटाया था। रामास्वामी, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध पाये गये थे। संसद को महज रामास्वामी को पद से हटाने की औपचारिकता का निर्वाह करना था। भ्रष्टाचारी को बचाने में लिप्त रही सरकार के नुमाइंदे से नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र की आशा?
कोई भी सरकार सामूहिक दायित्व बोध के तहत कार्य करती है। इस शताब्दी के सबसे बड़े घोटाले के लिए पूरी सरकार अगर जिम्मेदारी स्वीकार कर त्यागपत्र दे दे तो भी कम ही है। परन्तु ऐसा करने की जगह मनमोहन सिंह के 21 तारीख को दिये गये त्यागपत्र को 24 तक गोपनीय रखा गया?
मनमोहन सिंह जब वित्तमंत्री बने तब देश की आर्थिक स्थिति को ठीक करने के नाम पर नयी औद्योगिक नीति हेतु बाजार की अर्थव्यवसथा वाले नजरिये को ‘फ्लोट’ किया गया। पी. चिदंबरम ने आयात-निर्यात के लिए नयी व्यापार नीति की 13 सूत्रीय रूपरेखा प्रस्तुत की। 1990-91 का बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने देश के सामने विदेशी मुद्रा की समस्या को बहुत जटिलता के साथ पेश किया। उन्होंने कहा कि अभूतपूर्व विदेशी मुद्रा संकट दीर्घकालिक भुगतान सन्तुलन का ही परिणाम है। मनमोहन सिंह ने जब देश की जर्जर अर्थव्यवस्था का खाका रखा तो बहुत प्रशंसा हुई। वित्त मंत्री के रूप में उनके चयन का स्वागत भी हुआ।
प्रकारान्तर वित्त मंत्री ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए दो बार भातीय रूपये का 18 प्रतिशत अवमूल्यन किया और कहा कि इन कदमों से सरकार को विदेशी मुद्रा के संकट से उबरने में मदद मिलेगी, विदेशों में भारत की साख बढ़ेगी। 1966 में हुए मुद्रा अवमूल्यन के परिणामों से अनभिज्ञ बने रहकर मनमोहन सिंह जनता के सामने इसे बार-बार अवमूल्यन कहने से कतराते रहे।
आर्थिक संकट का हौवा खड़ा करके सरकार ने आर्थिक नीति को गले उतरवाना चाहा। उसने नहीं बताना चाहा कि वह संकट कितना गहरा है? इसकी प्रकृति, इसका आयाम क्या है? इसके लिए जिम्मेदार कौन हे? एक बार वित्तमंत्री ने यह माना था कि हमने जितना कमाया उससे ज्यादा खर्च किया। पर वे यह नहीं बता पाये कि ‘हमने/हम’ कौन हैं? काला हांडी ने भूखे नंगे या खेत मजदूर, बस्तर के आदिवासी, गांधी का हरिजन और/या सुविधा दर सुविधा भोगता/पाता हमारा जनप्रतिनिधि। सच तो यह है कि हमारा देश गम्भीर आर्थिकख् राजनीतिक संकट का शिकार है। राजनीति ने आर्थिक संकट को जन्म दिया है और आर्थिक संकट को और गहरा बनाया है।
मनमोहन सिंह जब वित्तमंत्री बने तब भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर उनके बौद्धिक एवं उपयोगी होने का खासा र्पीााव था। अपने इस छवि का उन्होंने काफी लाभ उठाया। यही कारण था कि उन्हें सरकार की आर्थिक नीतियों में खासे परिवर्तन की छूट मिल गयी। लोग यह भूल गये कि विकसित देशों वाले परिवेश के बौद्धिकपन से भारतीय अर्थतंत्र की टिपिकल समस्याओं का समाधान सम्भव नहीं है।
मनमोहन सिंह विकसित देशों के टूल्स का प्रयोग करके भारतीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की आशा पता नहीं क्यों और कैसे रखते थे जबकि उन्हें यह पता होना चाहिए था कि भारतीय अर्थतंत्र की कुछ विशिष्टताएं अलग हैं जो आम तौर पर विकासशील देशों की समस्याओं के रूप में सर्वथा विद्यमान रहती हैं।
अर्थव्यवस्था को पुनव्र्यवस्थित करने के नाम पर वित्तमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने जिन क्रांतिकारी नीतियों को लागू करने की घोषणा की। लगभग ऐसी नही नीतियां जनवरी, 1990 में सत्तारूढ़ हुईं पेरू की अल्वर्टो फ्यूजीमीरो की सरकार में लागू की गयी थी। पेरू के शासकों द्वारा अमरीका, जापान, आई.एम.एफ. और विश्वबैंक से अपमानजनक शर्तों पर ऋण लेकर भुगतान संतुलन की समस्या को दूर करने का प्रयास किया गया, उदारीकरण की नीति लागू की गयी, विदेशी थैलीशाहों के लिए देश में दरवाजे खोले गये, आयात को बेतहाशा बढ़ावा दिया गया, सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योगों को आदेश दिया गया कि वह चाहे जैसे हो मुनाफा कमाये (जैसे आदेश आज भारत में सार्वजनिक क्षेत्र को दिये जा रहे हैं) नियुक्तियों पर रोक लगायी गयी, कई मिलों को अनुपयोगी कहकर बन्द कर दिया गया, व्यापक छंटनी की गयी, विदेशी ऋण चुकाने की आड़ में वेतन भुगतान पर रोक लगायी गयी, कीमतों के नियंत्रण पर से रोक हटा दी गयी। सब्सिडी में भारती कमी की गयी (जैसे आज भारत में हर वस्तु पर दी जाने वाली सब्सिडी या तो खत्म की जा रही है या कम की जा रही है) और ऐसी ही अन्य नीतियां। इन नीतियों ने पेरू की जनता के लिए जिन भयानक मुसीबतों को जन्म दिया है वह आज एक जीती जागती सच्चाई है। साल भर बीतते ही इन नीतियों ने पेरू को बरबादी की जिस हालत में पहुंचा दिया उसमें देश आज से पहले कभी नहीं पहुंचा था। इस पूरी शताब्दी के दौरान कीमतें कभी भी इतनी खौफनाक ऊंचाई पर नहीं पहुंची थीं, जितने पर आज हैं। मुद्रास्फीति की दर बढ़कर 400 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। पेट्रोल के दाम में तीन हजार प्रतिशत की वृद्धि हुई है। खाद्य पदार्थों की कीमतों में 6 महीनों के अन्दर 300 से 400 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। बिजली की दरों में पांच गुना और पानी के दाम में आठ गुना वृद्धि हुई है। आज पेरू की 90 प्रतिशत काम करने वाली आबादी या तो पूर्णतः बेरोजगारी की मार सह रही है या आंशिक बेरोजगारी की मार सह रही है या आंशिक बेरोजगारी के धक्के झेल रही है। आज पेरू की उत्पादन क्षमता 25 वर्ष पूर्व की स्थिति में पहुंच चुकी है। आधी से अधिक आबादी कुपोषण का शिकार हो चुकी है। इन भयानक स्थितियों ने जनता को आन्दोलन/प्रतिरोध के लिए बाध्य किया है जिसका बर्बर दमन पेरू के शासक कर रहे हैं। यही है सुख-समृद्धि जो पेरू में उन नीतियों को लागू करने से आयी जिनसे मिलती-जुलती नीतियां आज हमारे वित्त मंत्री भारत के लिए बना चुके हैं और अपना रहे हैं। इन नीतियों का ही परिणाम था इस शताब्दी का सबसे बड़ा प्रतिभूति घोटाला...।
मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही बैंकों की कालमनी की दर में गिरावट आयी।
मनमोहन सिंह ने रूपये को आंशिक परिवर्तनशील बनाया एवं पूर्ण परिवर्तनीयता का जो संके त आगामी बजट में छिपा है उससे रूपया अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में टूटा है। रूपये की कीमत ध्वस्त हुई। रूपया न टूटे इसके लिए गारंटी देश का विदेशी मुद्रा भण्डार ही दे सकता है। फिलहाल देश के पास 82 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भण्डार है, जो देश की जरूरतों के मद्देनजर अपर्याप्त है।
मनमोहन सिंह ने जो अवमूल्यन किया वह 1966 की ही तरह विदेशी संस्थाओं के दबाव के तहत क्योंकि 1966 में जैसे विश्वबैंक से भारत को चैथी पंचवर्षीय योजना के लिए धन चाहिए था उसी तरह हमारी वर्तमान सरकार को मुद्राकोष से ऋण की जरूरत थी। 19 प्रतिशत के इस अवमूल्यन के बाद भी व्यापार शेष के घाटे में कमी नहीं आयी, ऋण दबाव बढ़ा, मूल्यों में वृद्धि हुई। मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र अवमूल्यन के बाद जिन स्थितियों का दावा करता था वो पूरी की पूरी पसर गयी। मनमोहन सिंह ने भी चन्द्रशेखर सरकार जैसे ही गुपचुप ढंग से 25 टन सोने को भारतीय रिजर्व बैंक से निकालकर बैंक आॅफ इंग्लैण्ड में जमा करवाया। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि सोना भेजे जाने की बात पूरी तौर पर गोपनीय रखी गयी तथा एक दैनिक अखबार में छपी खबर के बाद सरकार ने इसे स्वीकार किया जबकि वित्तमंत्री ने पद सम्भालते ही कहा था कि सरकार अपने कामकाज में खुलापन लायेगी। रिजर्व बैंक के आधिकारिक भण्डार से यह सोना रूपये के अवमूल्यन के बाद निकाला गया। आज हमारे सामने डंके ल प्रस्ताव स्वीकारने की विवशता भले ही आन खड़ी हो गयी है क्योंकि भारत ‘डंके ल प्रस्ताव/गैट कराकर’ स्वीकारने वाले 117 देशों में से एक था, परन्तु फिर भी हम इन प्रस्तावों के सामने मजबूती से खड़े तो हो ही सकते थे। हम अमरीका को यह तो बता ही सकते थे कि तुम्हारी स्वतंत्रता की जितनी शताब्दियां गुजरी हैं उससे कई शताब्दी पहले हमारे चरक ऋषि ने चरक संहिता में उस नीम के बारे में बताया था जिस पर आज तुम अपना अनाधिकार अधिकार जमाने की कोशिश में जुटे हो, लेकिन इस सरकार से यह सम्भव नहीं था।
1992 में जब शेयर सूचकांक 4500 अंकों को पार कर रहे थे तो मनमोहन सिंह ने नयी आर्थिक नीति को इसे उपलब्धि बताया था, परन्तु एकाएक जब ये सूचकांक धराशायी हो गये तभी वित्तमंत्री को इसके लिए जिम्मेदारी स्वीकारनी चाहिए थी। क्योंकि वित्तमंत्री जानते रहे होंगे कि अन्तर्राष्ट्रीयकरण के इस दौर में शेयर बाजार के सूचकांकों का बढ़ना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं, वरन बढ़े सूचकांकों की स्थिरता ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। वित्त मंत्री को जाना और समझना चाहिए था कि लगभग 4-6 माह से बंद पड़े उद्योगों के शेयरों के मूल्यों में 15 गुनी वृद्धि के पीछे तर्क या आधार क्या हो सकता है? उसी समय प्रबुद्ध एवं नयी आर्थिक नीति के पक्षधर वित्तमंत्री को सोचना और पड़ताल करना चाहिए था।
बहुत दिनों से विकसित देशों की मांग थी कि भारत के बाजार में उन्हें बेतहर दखल हासिल हो और पेटेंट्स कानूनों को और ज्यादा बढ़ाया जाये जो बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा बहुत पहले उत्पादनों में लगायी गयी नयी खोजों पर कृत्रिम इजारेदारी को अनावश्यक संरक्षण देते हैं। इस तरह की आक्रामकता की ताजातरीन मिशाल, तथाकथित व्यापार कानून सुपर-301 के दो प्रावधानों पर आधारिल हाल के अमरीकी हमले के रूप में सामने आयी है। यह कानून अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि को अमरीका के ऐसे ‘प्राथमिकता प्राप्त’ व्यापार सहयोगियों की निशानदेही का अधिकार देता है जो ऐसी नीति पर चल रहे हों, जिन्हें बदलने से अमरीका के निर्यातों में खासी बढ़ोत्तरी हो सकती है। इसके अलावा एक अन्य कानून ‘स्पेशल-301’ और है, जो अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि को ऐसे देशों की तथा उनकी ऐसी नीतियों की निशानदेही का अधिकार देता है, जो अमरीकी काॅपीराइटों, पेटेंटों तथा अन्य बौद्धिक संपदा को कारगर संरक्षण प्रदान न करती हो।
साम्राज्यवादी प्रवक्ता हेनरी किसींजर ने इन नीतियों के बारे में कहा है कि इलाज तो बीमारी से अधिक भयानक है। ढेर सारे दस्तावेजों के आधार पर साउथ कमीशन (वर्तमान वित्तमंत्री मनमोहन सिंह जिसके महासचिव थे) इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि जहां भी मुद्राकोष की नीतियां लागू हुई हैं, वहां प्रति व्यक्ति आमदनी कम हुई है। जीवन की गुणवत्ता सम्बन्धी सबसे महत्वपूर्ण बातें-जन्म के साथ जीवित रहने की सम्भावना, शिशु मृत्यु दर और स्कूली शिक्षा इत्यादि की स्थिति ज्यादा बदतर हुई है। सामाजिक तनाव बढ़ा है, शासन करने वाली संस्थाएं डगमगायी हैं। सरकारी और राजनीतिक व्यवस्था जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ रही हैं, जनता द्वारा ये संस्थाएं क्रमशः अस्वीकार कर दी गयी हैं और उनकी वैधानिकता को रद्द कर दिया गया है। इन सारी सामाजिक स्थितियों में सरकार के पास उत्पीड़न और सेना के बल पर सरकार कायम रखने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रहा है।
नोबेल पुरस्कार विजेता, अर्थशास्त्री टिनबर्जेन के मुताबिक सन् 1985 के बाद विकासशील देशों की तरफ कुल ले देकर संसाधनों का बहुत ही कम प्रवाह होता रहा है। एक समूह के रूप में इन देशों ने किसी खास समय में अपने ऊपर बकाया धन से कहीं ज्यादा लौटाया है, लेकिन इसके बावजूद उन पर उतना ही बकाया शेष रहता है। लगातार हो रहे अवमूल्यन और ब्याज दरों की प्रतिकूल गतियों ने विकासशील देशों को ऐसी स्थिति में डाल दिया है जहां विदेशी ऋण को एक निश्चित और नीयत स्थान पर बनाये रखने के लिए उन्हें क्रमशः तीव्र से तीव्रतर दौड़ना पड़ रहा है।
इस नयी आर्थिक नीति को प्रस्तावित और लागू करने में सरकार की नीयत साफ नहीं रही है, क्योंकि-
1-विदेशी मुद्रा संकट और वित्त घाटे की गम्भीरता छुपाने का प्रयास सरकार लगातार करती रही है।
2- विश्वबैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा लादी जा रही शर्तों पर पर्दा डाला गया, जबकि यह जगजाहिर हो चुका है।
3- सरकार कहती है कि 8 क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित रखे गये हैं जबकि सच्चाई यह है कि औद्योगिक नीति के परिशिष्ट में इन 8 क्षेत्रों को देशी-विदेशी निजी पूंजी के लिए खुला रखा गया है। ऐसे और भी कई तथ्य हैं।
4- ढेर सारी बातें सरकार ने औद्योगिक नीति में न रखकर बाद के लिए छुपा कर रख ली हैं, जिन्हें टुकड़े-टुकड़े में प्रशासनिक कदमों के माध्यम से लागू करेगी।
सवाल चाहे पेटेन्ट कानून पर दस्तखत करने का हो, सेवाओं के क्षेत्र को विदेशियों के लिए खुला रखने का हो, तेल निकालने लायक भारत की जमीन को 99 साल के लिए विदेशी कम्पनियों को लीज पर देने का हो, या कर्ज लेकर कर्ज चुकाने के चलते और ज्यादा कर्ज के जाल में फंसते जाने का सवाल हो, ऐसी ढेर सारी बाते हैं, जिन्हें सरकार जनता से छिपाना चाहती है।
सभी जानते हें कि हमारे देश में काले बाजार की समान्तर अर्थव्यवस्था मौजूद है। पूंजीपतियों, नौकरशाहों, राजनेताओं, तस्करों व इनके जैसे अन्य लोगों द्वारा विदेशी बेंकों में जमा राशि को छोड़ दिया जाय तो भी अनुमानतः 80,000 करोड़ रूपये से 1,00,000 करोड़ रूपये की कालाबाजार की अर्थव्यवस्था भ्रष्टाचार की कोख से पैदा होती है। उनके कुछ प्रमुख स्रोत हैं-पूंजीपतियों द्वारा बड़े पैमाने की कर चोरी, सिनेमा जगत, भवन निर्माण उद्योग व आयात-निर्यात में खाये गये कमीशन इत्यादि। जिनको इनसे लाभ पहुंचता है वे हैं पूंजीपति, राजनेता, नौकरशाह, तस्कर हवाले के धंधे में लोग इत्यादि। ये सभी लोग एक-दूसरे के सगे, चचेरे, ममेरे, फुफेरे और मौसेरे भाई हैं। सभी एक साथ बैठते हैं, साथ ही खाना खाते हैं और दिन रात जनता को लूटने और ठगने की तरकीबें सोचते हैं।
आप जानना चाहेंगे कि सरकार ने इस काले धन के बारे में क्या निर्णय लिया। सरकार ने यह ऐलान किया कि जो लोग अपना कालाधन 30 नवम्बर, 91 तक बैंकों में जमा कर देंगे, उनका कालाधन सफेद हो जाएगा। उन्हें 40 प्रतिशत सरकार को चैरिटी के तौर पर देना होगा। उनसे यह नहीं पूछा जाएगा कि यह धन उनको कहां से मिला। इसका अर्थ यह हुआ कि अब तक कमाये काले धन को कानूनी करार दे दिया गया है।
मनमोहन सिंह की इन नयी आर्थिक नीतियों के फलस्वरूप बेतहाशा मुद्रास्फीति हुई, उत्पादन में ठहराव और मंदी की स्थिति पैदा हुई, गरीबों की आमदनी छिनी, व्यापार असन्तुलन बढ़ा, भुगतान असन्तुलन में बेतहाशा वृद्धि हुई, विदेशी मुद्रा का संकट बढ़ा, विदेशी कर्ज में और वृद्धि हुई। साम्राज्यवादियों द्वारा और नयी-नयी शर्तें लादी गयीं। सब्सिडी छिन गयी जिससे गरीबों का जीना मुहाल हो गया, अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि हुई, क्षेत्रीय विषमता बढ़ी, कल्याणकारी मदों पर व्यय की कम से कम स्थिति बनी। जिनके पास पैसे होंगे उन्हें ही ये सुविधाएं मिलेंगी, पूरी अर्थव्यवस्था में एक हजार विकार पनपे।
इस तरह मनमोहन सिंह की नयी आर्थिक नीति में मनमोहन के लिए जिन भी तरीकों को अख्तियार किया गया, उनसे देश को कोई भी लाभ नहीं पहुंचा वह चाहे ब्याजदरों में कटौती या वृद्धि हो, वैधानिक तरलता अनुपात में कमी, अवमूल्यन, आयात-निर्यात नीति, नयी औद्योगिक नीति, व्यापार नीति या कोई भी बजट रहा हो। अपनी इन्हीं असफलताओं के आधार पर ही मनमोहनी बौद्धकता के सामने नैतिकता का सवाल खड़ा हो जाना चाहिए था परन्तु ऐसा न होकर जे.पी.सी. के आरोपों के बाद मनमोहन सिंह की जागृत नैतिकता को भी नरसिंह राव ने नयी आर्थिक नीति के माध्यम से और प्रयोगों का अवसर देने के लिए रोक लिया है। इसी राजनीतिक दृष्टिबोध का ही परिणाम है कि भारत ने अपनी स्वतंत्रता की अभी एक शताब्दी भी पूरी नहीं की कि वह ब्रिटेन की दासता के स्थान पर औपनिवेशिक शोषण से क्षत-विक्षत होने के लिए अमरीकी गैट/डंके ल करार की विवशता स्वीकार के खातिर 117 देशों के साथ खड़ा हो गया।
कोई भी सरकार सामूहिक दायित्व बोध के तहत कार्य करती है। इस शताब्दी के सबसे बड़े घोटाले के लिए पूरी सरकार अगर जिम्मेदारी स्वीकार कर त्यागपत्र दे दे तो भी कम ही है। परन्तु ऐसा करने की जगह मनमोहन सिंह के 21 तारीख को दिये गये त्यागपत्र को 24 तक गोपनीय रखा गया?
मनमोहन सिंह जब वित्तमंत्री बने तब देश की आर्थिक स्थिति को ठीक करने के नाम पर नयी औद्योगिक नीति हेतु बाजार की अर्थव्यवसथा वाले नजरिये को ‘फ्लोट’ किया गया। पी. चिदंबरम ने आयात-निर्यात के लिए नयी व्यापार नीति की 13 सूत्रीय रूपरेखा प्रस्तुत की। 1990-91 का बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने देश के सामने विदेशी मुद्रा की समस्या को बहुत जटिलता के साथ पेश किया। उन्होंने कहा कि अभूतपूर्व विदेशी मुद्रा संकट दीर्घकालिक भुगतान सन्तुलन का ही परिणाम है। मनमोहन सिंह ने जब देश की जर्जर अर्थव्यवस्था का खाका रखा तो बहुत प्रशंसा हुई। वित्त मंत्री के रूप में उनके चयन का स्वागत भी हुआ।
प्रकारान्तर वित्त मंत्री ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए दो बार भातीय रूपये का 18 प्रतिशत अवमूल्यन किया और कहा कि इन कदमों से सरकार को विदेशी मुद्रा के संकट से उबरने में मदद मिलेगी, विदेशों में भारत की साख बढ़ेगी। 1966 में हुए मुद्रा अवमूल्यन के परिणामों से अनभिज्ञ बने रहकर मनमोहन सिंह जनता के सामने इसे बार-बार अवमूल्यन कहने से कतराते रहे।
आर्थिक संकट का हौवा खड़ा करके सरकार ने आर्थिक नीति को गले उतरवाना चाहा। उसने नहीं बताना चाहा कि वह संकट कितना गहरा है? इसकी प्रकृति, इसका आयाम क्या है? इसके लिए जिम्मेदार कौन हे? एक बार वित्तमंत्री ने यह माना था कि हमने जितना कमाया उससे ज्यादा खर्च किया। पर वे यह नहीं बता पाये कि ‘हमने/हम’ कौन हैं? काला हांडी ने भूखे नंगे या खेत मजदूर, बस्तर के आदिवासी, गांधी का हरिजन और/या सुविधा दर सुविधा भोगता/पाता हमारा जनप्रतिनिधि। सच तो यह है कि हमारा देश गम्भीर आर्थिकख् राजनीतिक संकट का शिकार है। राजनीति ने आर्थिक संकट को जन्म दिया है और आर्थिक संकट को और गहरा बनाया है।
मनमोहन सिंह जब वित्तमंत्री बने तब भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर उनके बौद्धिक एवं उपयोगी होने का खासा र्पीााव था। अपने इस छवि का उन्होंने काफी लाभ उठाया। यही कारण था कि उन्हें सरकार की आर्थिक नीतियों में खासे परिवर्तन की छूट मिल गयी। लोग यह भूल गये कि विकसित देशों वाले परिवेश के बौद्धिकपन से भारतीय अर्थतंत्र की टिपिकल समस्याओं का समाधान सम्भव नहीं है।
मनमोहन सिंह विकसित देशों के टूल्स का प्रयोग करके भारतीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की आशा पता नहीं क्यों और कैसे रखते थे जबकि उन्हें यह पता होना चाहिए था कि भारतीय अर्थतंत्र की कुछ विशिष्टताएं अलग हैं जो आम तौर पर विकासशील देशों की समस्याओं के रूप में सर्वथा विद्यमान रहती हैं।
अर्थव्यवस्था को पुनव्र्यवस्थित करने के नाम पर वित्तमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने जिन क्रांतिकारी नीतियों को लागू करने की घोषणा की। लगभग ऐसी नही नीतियां जनवरी, 1990 में सत्तारूढ़ हुईं पेरू की अल्वर्टो फ्यूजीमीरो की सरकार में लागू की गयी थी। पेरू के शासकों द्वारा अमरीका, जापान, आई.एम.एफ. और विश्वबैंक से अपमानजनक शर्तों पर ऋण लेकर भुगतान संतुलन की समस्या को दूर करने का प्रयास किया गया, उदारीकरण की नीति लागू की गयी, विदेशी थैलीशाहों के लिए देश में दरवाजे खोले गये, आयात को बेतहाशा बढ़ावा दिया गया, सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योगों को आदेश दिया गया कि वह चाहे जैसे हो मुनाफा कमाये (जैसे आदेश आज भारत में सार्वजनिक क्षेत्र को दिये जा रहे हैं) नियुक्तियों पर रोक लगायी गयी, कई मिलों को अनुपयोगी कहकर बन्द कर दिया गया, व्यापक छंटनी की गयी, विदेशी ऋण चुकाने की आड़ में वेतन भुगतान पर रोक लगायी गयी, कीमतों के नियंत्रण पर से रोक हटा दी गयी। सब्सिडी में भारती कमी की गयी (जैसे आज भारत में हर वस्तु पर दी जाने वाली सब्सिडी या तो खत्म की जा रही है या कम की जा रही है) और ऐसी ही अन्य नीतियां। इन नीतियों ने पेरू की जनता के लिए जिन भयानक मुसीबतों को जन्म दिया है वह आज एक जीती जागती सच्चाई है। साल भर बीतते ही इन नीतियों ने पेरू को बरबादी की जिस हालत में पहुंचा दिया उसमें देश आज से पहले कभी नहीं पहुंचा था। इस पूरी शताब्दी के दौरान कीमतें कभी भी इतनी खौफनाक ऊंचाई पर नहीं पहुंची थीं, जितने पर आज हैं। मुद्रास्फीति की दर बढ़कर 400 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है। पेट्रोल के दाम में तीन हजार प्रतिशत की वृद्धि हुई है। खाद्य पदार्थों की कीमतों में 6 महीनों के अन्दर 300 से 400 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। बिजली की दरों में पांच गुना और पानी के दाम में आठ गुना वृद्धि हुई है। आज पेरू की 90 प्रतिशत काम करने वाली आबादी या तो पूर्णतः बेरोजगारी की मार सह रही है या आंशिक बेरोजगारी की मार सह रही है या आंशिक बेरोजगारी के धक्के झेल रही है। आज पेरू की उत्पादन क्षमता 25 वर्ष पूर्व की स्थिति में पहुंच चुकी है। आधी से अधिक आबादी कुपोषण का शिकार हो चुकी है। इन भयानक स्थितियों ने जनता को आन्दोलन/प्रतिरोध के लिए बाध्य किया है जिसका बर्बर दमन पेरू के शासक कर रहे हैं। यही है सुख-समृद्धि जो पेरू में उन नीतियों को लागू करने से आयी जिनसे मिलती-जुलती नीतियां आज हमारे वित्त मंत्री भारत के लिए बना चुके हैं और अपना रहे हैं। इन नीतियों का ही परिणाम था इस शताब्दी का सबसे बड़ा प्रतिभूति घोटाला...।
मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही बैंकों की कालमनी की दर में गिरावट आयी।
मनमोहन सिंह ने रूपये को आंशिक परिवर्तनशील बनाया एवं पूर्ण परिवर्तनीयता का जो संके त आगामी बजट में छिपा है उससे रूपया अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में टूटा है। रूपये की कीमत ध्वस्त हुई। रूपया न टूटे इसके लिए गारंटी देश का विदेशी मुद्रा भण्डार ही दे सकता है। फिलहाल देश के पास 82 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भण्डार है, जो देश की जरूरतों के मद्देनजर अपर्याप्त है।
मनमोहन सिंह ने जो अवमूल्यन किया वह 1966 की ही तरह विदेशी संस्थाओं के दबाव के तहत क्योंकि 1966 में जैसे विश्वबैंक से भारत को चैथी पंचवर्षीय योजना के लिए धन चाहिए था उसी तरह हमारी वर्तमान सरकार को मुद्राकोष से ऋण की जरूरत थी। 19 प्रतिशत के इस अवमूल्यन के बाद भी व्यापार शेष के घाटे में कमी नहीं आयी, ऋण दबाव बढ़ा, मूल्यों में वृद्धि हुई। मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र अवमूल्यन के बाद जिन स्थितियों का दावा करता था वो पूरी की पूरी पसर गयी। मनमोहन सिंह ने भी चन्द्रशेखर सरकार जैसे ही गुपचुप ढंग से 25 टन सोने को भारतीय रिजर्व बैंक से निकालकर बैंक आॅफ इंग्लैण्ड में जमा करवाया। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि सोना भेजे जाने की बात पूरी तौर पर गोपनीय रखी गयी तथा एक दैनिक अखबार में छपी खबर के बाद सरकार ने इसे स्वीकार किया जबकि वित्तमंत्री ने पद सम्भालते ही कहा था कि सरकार अपने कामकाज में खुलापन लायेगी। रिजर्व बैंक के आधिकारिक भण्डार से यह सोना रूपये के अवमूल्यन के बाद निकाला गया। आज हमारे सामने डंके ल प्रस्ताव स्वीकारने की विवशता भले ही आन खड़ी हो गयी है क्योंकि भारत ‘डंके ल प्रस्ताव/गैट कराकर’ स्वीकारने वाले 117 देशों में से एक था, परन्तु फिर भी हम इन प्रस्तावों के सामने मजबूती से खड़े तो हो ही सकते थे। हम अमरीका को यह तो बता ही सकते थे कि तुम्हारी स्वतंत्रता की जितनी शताब्दियां गुजरी हैं उससे कई शताब्दी पहले हमारे चरक ऋषि ने चरक संहिता में उस नीम के बारे में बताया था जिस पर आज तुम अपना अनाधिकार अधिकार जमाने की कोशिश में जुटे हो, लेकिन इस सरकार से यह सम्भव नहीं था।
1992 में जब शेयर सूचकांक 4500 अंकों को पार कर रहे थे तो मनमोहन सिंह ने नयी आर्थिक नीति को इसे उपलब्धि बताया था, परन्तु एकाएक जब ये सूचकांक धराशायी हो गये तभी वित्तमंत्री को इसके लिए जिम्मेदारी स्वीकारनी चाहिए थी। क्योंकि वित्तमंत्री जानते रहे होंगे कि अन्तर्राष्ट्रीयकरण के इस दौर में शेयर बाजार के सूचकांकों का बढ़ना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं, वरन बढ़े सूचकांकों की स्थिरता ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। वित्त मंत्री को जाना और समझना चाहिए था कि लगभग 4-6 माह से बंद पड़े उद्योगों के शेयरों के मूल्यों में 15 गुनी वृद्धि के पीछे तर्क या आधार क्या हो सकता है? उसी समय प्रबुद्ध एवं नयी आर्थिक नीति के पक्षधर वित्तमंत्री को सोचना और पड़ताल करना चाहिए था।
बहुत दिनों से विकसित देशों की मांग थी कि भारत के बाजार में उन्हें बेतहर दखल हासिल हो और पेटेंट्स कानूनों को और ज्यादा बढ़ाया जाये जो बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा बहुत पहले उत्पादनों में लगायी गयी नयी खोजों पर कृत्रिम इजारेदारी को अनावश्यक संरक्षण देते हैं। इस तरह की आक्रामकता की ताजातरीन मिशाल, तथाकथित व्यापार कानून सुपर-301 के दो प्रावधानों पर आधारिल हाल के अमरीकी हमले के रूप में सामने आयी है। यह कानून अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि को अमरीका के ऐसे ‘प्राथमिकता प्राप्त’ व्यापार सहयोगियों की निशानदेही का अधिकार देता है जो ऐसी नीति पर चल रहे हों, जिन्हें बदलने से अमरीका के निर्यातों में खासी बढ़ोत्तरी हो सकती है। इसके अलावा एक अन्य कानून ‘स्पेशल-301’ और है, जो अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि को ऐसे देशों की तथा उनकी ऐसी नीतियों की निशानदेही का अधिकार देता है, जो अमरीकी काॅपीराइटों, पेटेंटों तथा अन्य बौद्धिक संपदा को कारगर संरक्षण प्रदान न करती हो।
साम्राज्यवादी प्रवक्ता हेनरी किसींजर ने इन नीतियों के बारे में कहा है कि इलाज तो बीमारी से अधिक भयानक है। ढेर सारे दस्तावेजों के आधार पर साउथ कमीशन (वर्तमान वित्तमंत्री मनमोहन सिंह जिसके महासचिव थे) इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि जहां भी मुद्राकोष की नीतियां लागू हुई हैं, वहां प्रति व्यक्ति आमदनी कम हुई है। जीवन की गुणवत्ता सम्बन्धी सबसे महत्वपूर्ण बातें-जन्म के साथ जीवित रहने की सम्भावना, शिशु मृत्यु दर और स्कूली शिक्षा इत्यादि की स्थिति ज्यादा बदतर हुई है। सामाजिक तनाव बढ़ा है, शासन करने वाली संस्थाएं डगमगायी हैं। सरकारी और राजनीतिक व्यवस्था जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ रही हैं, जनता द्वारा ये संस्थाएं क्रमशः अस्वीकार कर दी गयी हैं और उनकी वैधानिकता को रद्द कर दिया गया है। इन सारी सामाजिक स्थितियों में सरकार के पास उत्पीड़न और सेना के बल पर सरकार कायम रखने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रहा है।
नोबेल पुरस्कार विजेता, अर्थशास्त्री टिनबर्जेन के मुताबिक सन् 1985 के बाद विकासशील देशों की तरफ कुल ले देकर संसाधनों का बहुत ही कम प्रवाह होता रहा है। एक समूह के रूप में इन देशों ने किसी खास समय में अपने ऊपर बकाया धन से कहीं ज्यादा लौटाया है, लेकिन इसके बावजूद उन पर उतना ही बकाया शेष रहता है। लगातार हो रहे अवमूल्यन और ब्याज दरों की प्रतिकूल गतियों ने विकासशील देशों को ऐसी स्थिति में डाल दिया है जहां विदेशी ऋण को एक निश्चित और नीयत स्थान पर बनाये रखने के लिए उन्हें क्रमशः तीव्र से तीव्रतर दौड़ना पड़ रहा है।
इस नयी आर्थिक नीति को प्रस्तावित और लागू करने में सरकार की नीयत साफ नहीं रही है, क्योंकि-
1-विदेशी मुद्रा संकट और वित्त घाटे की गम्भीरता छुपाने का प्रयास सरकार लगातार करती रही है।
2- विश्वबैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा लादी जा रही शर्तों पर पर्दा डाला गया, जबकि यह जगजाहिर हो चुका है।
3- सरकार कहती है कि 8 क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित रखे गये हैं जबकि सच्चाई यह है कि औद्योगिक नीति के परिशिष्ट में इन 8 क्षेत्रों को देशी-विदेशी निजी पूंजी के लिए खुला रखा गया है। ऐसे और भी कई तथ्य हैं।
4- ढेर सारी बातें सरकार ने औद्योगिक नीति में न रखकर बाद के लिए छुपा कर रख ली हैं, जिन्हें टुकड़े-टुकड़े में प्रशासनिक कदमों के माध्यम से लागू करेगी।
सवाल चाहे पेटेन्ट कानून पर दस्तखत करने का हो, सेवाओं के क्षेत्र को विदेशियों के लिए खुला रखने का हो, तेल निकालने लायक भारत की जमीन को 99 साल के लिए विदेशी कम्पनियों को लीज पर देने का हो, या कर्ज लेकर कर्ज चुकाने के चलते और ज्यादा कर्ज के जाल में फंसते जाने का सवाल हो, ऐसी ढेर सारी बाते हैं, जिन्हें सरकार जनता से छिपाना चाहती है।
सभी जानते हें कि हमारे देश में काले बाजार की समान्तर अर्थव्यवस्था मौजूद है। पूंजीपतियों, नौकरशाहों, राजनेताओं, तस्करों व इनके जैसे अन्य लोगों द्वारा विदेशी बेंकों में जमा राशि को छोड़ दिया जाय तो भी अनुमानतः 80,000 करोड़ रूपये से 1,00,000 करोड़ रूपये की कालाबाजार की अर्थव्यवस्था भ्रष्टाचार की कोख से पैदा होती है। उनके कुछ प्रमुख स्रोत हैं-पूंजीपतियों द्वारा बड़े पैमाने की कर चोरी, सिनेमा जगत, भवन निर्माण उद्योग व आयात-निर्यात में खाये गये कमीशन इत्यादि। जिनको इनसे लाभ पहुंचता है वे हैं पूंजीपति, राजनेता, नौकरशाह, तस्कर हवाले के धंधे में लोग इत्यादि। ये सभी लोग एक-दूसरे के सगे, चचेरे, ममेरे, फुफेरे और मौसेरे भाई हैं। सभी एक साथ बैठते हैं, साथ ही खाना खाते हैं और दिन रात जनता को लूटने और ठगने की तरकीबें सोचते हैं।
आप जानना चाहेंगे कि सरकार ने इस काले धन के बारे में क्या निर्णय लिया। सरकार ने यह ऐलान किया कि जो लोग अपना कालाधन 30 नवम्बर, 91 तक बैंकों में जमा कर देंगे, उनका कालाधन सफेद हो जाएगा। उन्हें 40 प्रतिशत सरकार को चैरिटी के तौर पर देना होगा। उनसे यह नहीं पूछा जाएगा कि यह धन उनको कहां से मिला। इसका अर्थ यह हुआ कि अब तक कमाये काले धन को कानूनी करार दे दिया गया है।
मनमोहन सिंह की इन नयी आर्थिक नीतियों के फलस्वरूप बेतहाशा मुद्रास्फीति हुई, उत्पादन में ठहराव और मंदी की स्थिति पैदा हुई, गरीबों की आमदनी छिनी, व्यापार असन्तुलन बढ़ा, भुगतान असन्तुलन में बेतहाशा वृद्धि हुई, विदेशी मुद्रा का संकट बढ़ा, विदेशी कर्ज में और वृद्धि हुई। साम्राज्यवादियों द्वारा और नयी-नयी शर्तें लादी गयीं। सब्सिडी छिन गयी जिससे गरीबों का जीना मुहाल हो गया, अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि हुई, क्षेत्रीय विषमता बढ़ी, कल्याणकारी मदों पर व्यय की कम से कम स्थिति बनी। जिनके पास पैसे होंगे उन्हें ही ये सुविधाएं मिलेंगी, पूरी अर्थव्यवस्था में एक हजार विकार पनपे।
इस तरह मनमोहन सिंह की नयी आर्थिक नीति में मनमोहन के लिए जिन भी तरीकों को अख्तियार किया गया, उनसे देश को कोई भी लाभ नहीं पहुंचा वह चाहे ब्याजदरों में कटौती या वृद्धि हो, वैधानिक तरलता अनुपात में कमी, अवमूल्यन, आयात-निर्यात नीति, नयी औद्योगिक नीति, व्यापार नीति या कोई भी बजट रहा हो। अपनी इन्हीं असफलताओं के आधार पर ही मनमोहनी बौद्धकता के सामने नैतिकता का सवाल खड़ा हो जाना चाहिए था परन्तु ऐसा न होकर जे.पी.सी. के आरोपों के बाद मनमोहन सिंह की जागृत नैतिकता को भी नरसिंह राव ने नयी आर्थिक नीति के माध्यम से और प्रयोगों का अवसर देने के लिए रोक लिया है। इसी राजनीतिक दृष्टिबोध का ही परिणाम है कि भारत ने अपनी स्वतंत्रता की अभी एक शताब्दी भी पूरी नहीं की कि वह ब्रिटेन की दासता के स्थान पर औपनिवेशिक शोषण से क्षत-विक्षत होने के लिए अमरीकी गैट/डंके ल करार की विवशता स्वीकार के खातिर 117 देशों के साथ खड़ा हो गया।
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