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विघटनकारी होते हैं जातीय चेतना के राजनीतिक समीकरण
भारत में ऐसे अनेक अवसर आये हैं जब सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ है परन्तु ये क्रांतियां किसी निश्चित बिन्दु से आगे नहीं जा पायी हैं। इसका मुख्य कारण रहा है कि सत्ता एवं कुर्सी के लिए राजनीति के न ही प्रतिमान बदले, न ही शासन व प्रशासन का चरित्र। शोषित व शोषण करने वाली जमात के बीच रिश्ते भी वैसे ही रहे हैं। इन रिश्तों में सुधार की बात तो होती रही है परन्तु परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में वही सब पलता-पनपता रहा। अंग्रेजों ने धर्म के नाम पर विभाजन की रेखाएं खींचकर अपनी सत्ता की जड़ें जमायीं। हमारा राजनीतिज्ञ भी तुष्टीकरण एवं ‘जातिवादी वोट बैंक’ के तर्ज पर हमारे विभाजन में जुटा है। गत दिनों सम्पन्न हुए पांच राज्यों के चुनावों से यह बात उभरी कि जनता ‘सत्तारूढ़ दल जनभावनाओं के अनुरूप कार्य करने में अदक्ष रहे लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों से उभरा दलित-पिछड़ा गठबन्धन का सवाल हमारे बुद्धिजीवियों के लिए चिन्ता का विषय बन गया है। आखिर बुद्धिजीवियों के सामने सहसा यह सवाल क्यों उठा? क्यों उन्हें कांग्रेस की तुष्टीकरण एवं वोट बैंक की चली आ रही चालें समझ में नहीं आयीं ?
यह सत्य है कि जातीय चेतना हमारे लिए, हमारे भविष्य के लिए एक घातक कदम है कि हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का जन्म जाति आधारित बुराई, सदियों से देश की राजनीतिक दासता के कारण हुआ है। इसी के कारण हमारे समाज में विभाजन की रेखाएं खिंच गयीं। परिस्थितियों का दुर्भाग्य है कि जिनके हाथ में सत्ता आयी या है, जो जातीय व्यवस्था की समाप्ति के लिए ठोस कदम उठा सकते हैं, वे लोग एक उंगली भी इस व्यवस्था की समाप्ति और बुराई पर नहीं उठाते हैं। कारण स्पष्ट है कि यह लोग ही इस असंगति को, इस सड़ी-गली व्यवस्था को, इसके अप्राकृतिक रूप में जीवित रखना चाहते हैं।
डाॅ .राम मनोहर लोहिया के अनुसार हिन्दुस्तानी जीवन में ‘जाति’ सबसे ज्यादा ‘ले डूबू’ उपादान है। परिवर्तन के विरुद्ध और जता के लिए जाति प्रथा एक अभिशाप है, ऐसा अभिशाप जो मौजूदा टुच्चेपन, कलंक और झूठ को स्थिर करती है। चरण सिंह ने कहा था कि जन्म पर आधारित जाति चल रही है, भूतकाल में इसकी क्या उपलब्धियां थीं, क्या नहीं थीं ? निश्चय ही एक संकुचित विचार है, लोकतंत्र में इसका कोई स्थान नहीं होना चाहिए। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। सदियों से हमारी गिरावट और राजनैतिक दासता का प्रमुख कारण जातिगत संकीर्णता रहा है। जातीय संकीर्णता से लाभ किसी को नहीं होने वाला है।
चरण सिंह ने 6 अक्टूबर 1958 को पं. जवाहर लाल नेहरू को लिखे अपने पत्र में लिखा था कि ‘आपने कहा था कि मेरठ जिले के कांग्रेस संगठनात्मक मामलों में मेरे द्वारा प्रदर्शित ‘जाटपन’ को आप पसंद नहीं करते। परंतु मेरे सार्वजनिक जीवन में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं है जिससे मेरे पर जाटवाद का आरोप प्रमाणित हो। इस बेमतलब प्रचार से जाटों का नाम बदनाम हुआ है। उदाहरणार्थ - सन् 1954-55 में जब राज्यों के पुनर्गठन की बात चल रही थी, उस समय भी ऐसा ही अनर्गल प्रचार एक विशिष्ट वर्ग द्वारा चलाया गया कि प्रस्तावित दिल्ली राज्य और कुछ नहीं ‘जाटिस्तान’ होगा।
इस पत्र का उत्तर अक्टूबर 1958 में चरण सिंह को देते हुए पं.जवाहर लाल नेहरू ने लिखा कि - ‘मैंने आपसे वार्ता के बीच जब ‘जाटपन’ शब्द का प्रयोग किया था तब मैं ‘जाति’ या उस प्रकार के किसी और संदर्भ के बाबत नहीं सोच रहा था। मेरे दिमाग में गुट हेतु कुछ कड़वेपन के बाबत ही बात थी। गुट में जरूरी नहीं है जाट या कोई भी जातीय ग्रुप हो।
16 फरवरी, 1951 को भी चरण सिंह ने प्रदेश कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी की बैठक में एक प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस का कोई भी सक्रिय सदस्य किसी भी जातीय आधार पर बनी संस्थाओं या संगठनों से अपने को सम्बद्ध न करे। तीन महत्वपूर्ण कांग्रेस जनों द्वारा इसका का विरोध हुआ। प्रस्ताव जो पर्याप्त बहुमत से पारित हुआ निम्न प्रकार से है।
उत्तर प्रदेश राज्य कांग्रेस कमेटी, लखनऊ
दिनांक: 28.2.1951
उत्तर प्रदेश राज्य कांग्रेस समिति की बैठक 16 फरवरी, 1951 को आचार्य जुगल किशोर की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। जाति संगठनों के सम्बन्ध में चै. चरण सिंह ने राज्य समिति के सामने निम्न प्रस्ताव रखा। दिनांक 13/14 नवम्बर को निर्णयानुसार इसका मसौदा तैयार किया गया। समिति ने सदस्यों के बीच बहस के बाद इस प्रस्ताव को पारित किया।
उत्तर प्रदेश राज्य कांग्रेस समिति (पी.सी.सी.) के मतानुसार कोई भी कांग्रेसी व्यक्ति न तो किसी ऐसी संस्था का सदस्य होगा और न ही ऐसी किसी संस्था की कार्यवाही में भाग लेगा जो किसी जाति या जातियों पर ही के न्द्रित हो और न ही अन्य जातियों के बीच वैमनस्य फैलाने में भागीदार होगा। अगर वह किसी कारण से ऐसा करता है तो उसका यह कदम राष्ट्रीय मूल्यों के विरुद्ध माना जाएगा। इससे कांगे्रसी व्यक्तियों की निष्ठा एवं सहानुभूति निश्चय ही अन्य जाति के लोगों की दृष्टि में गिरती है अगर वे इस प्रकार की संस्थाओं के सदस्य बनते हैं।
काफी बड़ी संख्या में शैक्षणिक संस्थाएं हैं जिसके सदस्य इनको चला रहे हैं। उन्होंने इन संस्थाओं के नाम जातीय आधार पर रखे हैं। इन्हें राज्य से मान्यता और आर्थिक सहायता भी मिल रही है। ये नाम हमारे भविष्य के राष्ट्रदीपों के मन मस्तिष्क को संकुचित बनाते हैं। नये विद्यार्थियों को बलात् प्रतिदिन इस बात की याद दिलायी जाती है कि यह जाति विशेष से सम्बन्धित है। एक जाति दूसरी जाति से इन गुणों में अच्छी है और यहीं से उनकी दृष्टि पर सारे जीवन भर के लिए पर्दा पड़ जाता है। अगर हमारी राजनीतिक दासता के किसी एक कारण को छूं कर उसे आरोपित किया जाय तो मैं समझता हूँ इसके पीछे कठोर एवं गहराई तक छुपी जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था ही होगी।
चरण सिंह ने कहा कि प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती करते समय प्रत्याशी के मानसिक स्तर एवं शारीरिक क्षमता की परीक्षा ली जाती है। उसकी इस सम्बन्ध में भी परीक्षा ली जानी चाहिए कि जाति अथवा समुदाय के विषय में उसके क्या विचार हैं। अपनी जाति के बाहर विवाह सम्बन्ध स्थापित करने को तैयार होना ही उनके विचारों का स्वस्थ परीक्षण है।
हिन्दुओं में 13 भाषाएं और 3400 जातियां और बिरादरी हैं जो एकता और राष्ट्रीयता की भावना में बाधक रही हंै। इसी कारण हिन्दू समाज में लचीलेपन का अभाव एवं संकीर्णता व्याप्त रही है। यद्यपि हिन्दू धर्म के समान सहिष्णुता एवं लचीलापन अन्य किसी धर्म में नहीं है। जातिवाद का अभिशाप जो कि किसी देश की गुलामी और विभाजन का एकमात्र कारण था, दुर्भाग्य से दोबारा सिर उठा रहा है। इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए। देश कभी शक्तिशाली नहीं हो सकता अगर जाति-बिरादरियां इसी तरह अपनी जड़ें जमाये रहें। यह मसला उस समय तक हल नहीं हो सकता जब तक सरकार इसमें हस्तक्षेप न करे और हस्तक्षेप करके इसकी जड़ें न काट दे। नहीं तो एक न एक दिन आपसी संदेह और घृणा की ये आग जो जातियों और बिरादरियों के निजामों ने सदियों से जला रखी हैं, इस मुल्क को जला कर राख कर देगी।
अगर संविधान में इस तरह का संशोधन कर दिया जाये जिससे जातीय भावना पर नियंत्रण पाया जा सके तो यह इस देश की एक ऐसे स्तर की सेवा होगी जैसा कि स्वराज्य हासिल करना था। तभी वास्तविक रूप से हमारे देश में स्थायित्व की बुनियाद पड़ सकती है, इससे पहले नहीं। इन सबके बाद भी मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू की गयीं और उन्हीं दलों द्वारा जिनके आदर्श चरण सिंह हैं। उन्हें यह सोचना चाहिए कि मण्डल समस्या का समाधान क्या है? लोगों को लगता है कि मण्लीकरण प्रक्रिया के तहत बराबरी का संदेश दिया गया है। यह ‘योग्यतम ही जीवित रह सकता है’ और ‘मेरिटोक्रसी’ के सिद्धान्त के विरुद्ध है जिसे ‘संरक्षणात्मक विभेदीकरण आरक्षण’ कहते हैं।
आरक्षण की बात करने वाले यह तर्क सही देते हैं कि जाति अपनी सापेक्ष स्वायत्तता बनाये रखती है और गरीबी जैसा वास्तविक ठोस अनुभव भी गरीब ब्राम्हण को गरीब हरिजन के निकट नहीं ला पाता है। यही कारण है कि ‘आरक्षण’ जाति व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का स्वर बनकर नहीं उभर पाया। बस एक याचना के रूप में इसे स्वीकृति मिली। आरक्षण उन दलित एवं पिछड़ों को जमीन नहीं देता, स्कूल, किताबें और सुविधाएं नहीं देता जिससे वो बराबरी के वातावरण में जी सकें वरन् उन्हें वह कद प्रदान करता है जिससे वह एक क्लर्क या अधिकारी का कद पा जाता है। इसे पाकर जातिवादी व्यवस्था से निजात पा जाना सम्भव नहीं है। इसके लिए एक वैकल्पिक शक्ति संवाद स्थापित करने, प्यार करने, साझा करने की शक्ति तैयार करने की जरूरत है। यह काम सचमुच मुश्किल है परन्तु इसे करना अनिवार्य है। इसके लिए हमें ही शुरुआत करनी होगी। राजनीति इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाएगी क्योंकि हमारे यहां सामाजिक क्रांतियों को आगे तक नहीं जाने दिया गया है। सत्ता एवं कुर्सी के लिए राजनीति के न ही प्रतिमान बदले और न ही शासन एवं प्रशासन का चरित्र। (चरण सिंह एवं पं.जवाहर लाल नेहरू पत्राचार पर आधारित)
यह सत्य है कि जातीय चेतना हमारे लिए, हमारे भविष्य के लिए एक घातक कदम है कि हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का जन्म जाति आधारित बुराई, सदियों से देश की राजनीतिक दासता के कारण हुआ है। इसी के कारण हमारे समाज में विभाजन की रेखाएं खिंच गयीं। परिस्थितियों का दुर्भाग्य है कि जिनके हाथ में सत्ता आयी या है, जो जातीय व्यवस्था की समाप्ति के लिए ठोस कदम उठा सकते हैं, वे लोग एक उंगली भी इस व्यवस्था की समाप्ति और बुराई पर नहीं उठाते हैं। कारण स्पष्ट है कि यह लोग ही इस असंगति को, इस सड़ी-गली व्यवस्था को, इसके अप्राकृतिक रूप में जीवित रखना चाहते हैं।
डाॅ .राम मनोहर लोहिया के अनुसार हिन्दुस्तानी जीवन में ‘जाति’ सबसे ज्यादा ‘ले डूबू’ उपादान है। परिवर्तन के विरुद्ध और जता के लिए जाति प्रथा एक अभिशाप है, ऐसा अभिशाप जो मौजूदा टुच्चेपन, कलंक और झूठ को स्थिर करती है। चरण सिंह ने कहा था कि जन्म पर आधारित जाति चल रही है, भूतकाल में इसकी क्या उपलब्धियां थीं, क्या नहीं थीं ? निश्चय ही एक संकुचित विचार है, लोकतंत्र में इसका कोई स्थान नहीं होना चाहिए। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। सदियों से हमारी गिरावट और राजनैतिक दासता का प्रमुख कारण जातिगत संकीर्णता रहा है। जातीय संकीर्णता से लाभ किसी को नहीं होने वाला है।
चरण सिंह ने 6 अक्टूबर 1958 को पं. जवाहर लाल नेहरू को लिखे अपने पत्र में लिखा था कि ‘आपने कहा था कि मेरठ जिले के कांग्रेस संगठनात्मक मामलों में मेरे द्वारा प्रदर्शित ‘जाटपन’ को आप पसंद नहीं करते। परंतु मेरे सार्वजनिक जीवन में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं है जिससे मेरे पर जाटवाद का आरोप प्रमाणित हो। इस बेमतलब प्रचार से जाटों का नाम बदनाम हुआ है। उदाहरणार्थ - सन् 1954-55 में जब राज्यों के पुनर्गठन की बात चल रही थी, उस समय भी ऐसा ही अनर्गल प्रचार एक विशिष्ट वर्ग द्वारा चलाया गया कि प्रस्तावित दिल्ली राज्य और कुछ नहीं ‘जाटिस्तान’ होगा।
इस पत्र का उत्तर अक्टूबर 1958 में चरण सिंह को देते हुए पं.जवाहर लाल नेहरू ने लिखा कि - ‘मैंने आपसे वार्ता के बीच जब ‘जाटपन’ शब्द का प्रयोग किया था तब मैं ‘जाति’ या उस प्रकार के किसी और संदर्भ के बाबत नहीं सोच रहा था। मेरे दिमाग में गुट हेतु कुछ कड़वेपन के बाबत ही बात थी। गुट में जरूरी नहीं है जाट या कोई भी जातीय ग्रुप हो।
16 फरवरी, 1951 को भी चरण सिंह ने प्रदेश कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी की बैठक में एक प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस का कोई भी सक्रिय सदस्य किसी भी जातीय आधार पर बनी संस्थाओं या संगठनों से अपने को सम्बद्ध न करे। तीन महत्वपूर्ण कांग्रेस जनों द्वारा इसका का विरोध हुआ। प्रस्ताव जो पर्याप्त बहुमत से पारित हुआ निम्न प्रकार से है।
उत्तर प्रदेश राज्य कांग्रेस कमेटी, लखनऊ
दिनांक: 28.2.1951
उत्तर प्रदेश राज्य कांग्रेस समिति की बैठक 16 फरवरी, 1951 को आचार्य जुगल किशोर की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। जाति संगठनों के सम्बन्ध में चै. चरण सिंह ने राज्य समिति के सामने निम्न प्रस्ताव रखा। दिनांक 13/14 नवम्बर को निर्णयानुसार इसका मसौदा तैयार किया गया। समिति ने सदस्यों के बीच बहस के बाद इस प्रस्ताव को पारित किया।
उत्तर प्रदेश राज्य कांग्रेस समिति (पी.सी.सी.) के मतानुसार कोई भी कांग्रेसी व्यक्ति न तो किसी ऐसी संस्था का सदस्य होगा और न ही ऐसी किसी संस्था की कार्यवाही में भाग लेगा जो किसी जाति या जातियों पर ही के न्द्रित हो और न ही अन्य जातियों के बीच वैमनस्य फैलाने में भागीदार होगा। अगर वह किसी कारण से ऐसा करता है तो उसका यह कदम राष्ट्रीय मूल्यों के विरुद्ध माना जाएगा। इससे कांगे्रसी व्यक्तियों की निष्ठा एवं सहानुभूति निश्चय ही अन्य जाति के लोगों की दृष्टि में गिरती है अगर वे इस प्रकार की संस्थाओं के सदस्य बनते हैं।
काफी बड़ी संख्या में शैक्षणिक संस्थाएं हैं जिसके सदस्य इनको चला रहे हैं। उन्होंने इन संस्थाओं के नाम जातीय आधार पर रखे हैं। इन्हें राज्य से मान्यता और आर्थिक सहायता भी मिल रही है। ये नाम हमारे भविष्य के राष्ट्रदीपों के मन मस्तिष्क को संकुचित बनाते हैं। नये विद्यार्थियों को बलात् प्रतिदिन इस बात की याद दिलायी जाती है कि यह जाति विशेष से सम्बन्धित है। एक जाति दूसरी जाति से इन गुणों में अच्छी है और यहीं से उनकी दृष्टि पर सारे जीवन भर के लिए पर्दा पड़ जाता है। अगर हमारी राजनीतिक दासता के किसी एक कारण को छूं कर उसे आरोपित किया जाय तो मैं समझता हूँ इसके पीछे कठोर एवं गहराई तक छुपी जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था ही होगी।
चरण सिंह ने कहा कि प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती करते समय प्रत्याशी के मानसिक स्तर एवं शारीरिक क्षमता की परीक्षा ली जाती है। उसकी इस सम्बन्ध में भी परीक्षा ली जानी चाहिए कि जाति अथवा समुदाय के विषय में उसके क्या विचार हैं। अपनी जाति के बाहर विवाह सम्बन्ध स्थापित करने को तैयार होना ही उनके विचारों का स्वस्थ परीक्षण है।
हिन्दुओं में 13 भाषाएं और 3400 जातियां और बिरादरी हैं जो एकता और राष्ट्रीयता की भावना में बाधक रही हंै। इसी कारण हिन्दू समाज में लचीलेपन का अभाव एवं संकीर्णता व्याप्त रही है। यद्यपि हिन्दू धर्म के समान सहिष्णुता एवं लचीलापन अन्य किसी धर्म में नहीं है। जातिवाद का अभिशाप जो कि किसी देश की गुलामी और विभाजन का एकमात्र कारण था, दुर्भाग्य से दोबारा सिर उठा रहा है। इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए। देश कभी शक्तिशाली नहीं हो सकता अगर जाति-बिरादरियां इसी तरह अपनी जड़ें जमाये रहें। यह मसला उस समय तक हल नहीं हो सकता जब तक सरकार इसमें हस्तक्षेप न करे और हस्तक्षेप करके इसकी जड़ें न काट दे। नहीं तो एक न एक दिन आपसी संदेह और घृणा की ये आग जो जातियों और बिरादरियों के निजामों ने सदियों से जला रखी हैं, इस मुल्क को जला कर राख कर देगी।
अगर संविधान में इस तरह का संशोधन कर दिया जाये जिससे जातीय भावना पर नियंत्रण पाया जा सके तो यह इस देश की एक ऐसे स्तर की सेवा होगी जैसा कि स्वराज्य हासिल करना था। तभी वास्तविक रूप से हमारे देश में स्थायित्व की बुनियाद पड़ सकती है, इससे पहले नहीं। इन सबके बाद भी मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू की गयीं और उन्हीं दलों द्वारा जिनके आदर्श चरण सिंह हैं। उन्हें यह सोचना चाहिए कि मण्डल समस्या का समाधान क्या है? लोगों को लगता है कि मण्लीकरण प्रक्रिया के तहत बराबरी का संदेश दिया गया है। यह ‘योग्यतम ही जीवित रह सकता है’ और ‘मेरिटोक्रसी’ के सिद्धान्त के विरुद्ध है जिसे ‘संरक्षणात्मक विभेदीकरण आरक्षण’ कहते हैं।
आरक्षण की बात करने वाले यह तर्क सही देते हैं कि जाति अपनी सापेक्ष स्वायत्तता बनाये रखती है और गरीबी जैसा वास्तविक ठोस अनुभव भी गरीब ब्राम्हण को गरीब हरिजन के निकट नहीं ला पाता है। यही कारण है कि ‘आरक्षण’ जाति व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का स्वर बनकर नहीं उभर पाया। बस एक याचना के रूप में इसे स्वीकृति मिली। आरक्षण उन दलित एवं पिछड़ों को जमीन नहीं देता, स्कूल, किताबें और सुविधाएं नहीं देता जिससे वो बराबरी के वातावरण में जी सकें वरन् उन्हें वह कद प्रदान करता है जिससे वह एक क्लर्क या अधिकारी का कद पा जाता है। इसे पाकर जातिवादी व्यवस्था से निजात पा जाना सम्भव नहीं है। इसके लिए एक वैकल्पिक शक्ति संवाद स्थापित करने, प्यार करने, साझा करने की शक्ति तैयार करने की जरूरत है। यह काम सचमुच मुश्किल है परन्तु इसे करना अनिवार्य है। इसके लिए हमें ही शुरुआत करनी होगी। राजनीति इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाएगी क्योंकि हमारे यहां सामाजिक क्रांतियों को आगे तक नहीं जाने दिया गया है। सत्ता एवं कुर्सी के लिए राजनीति के न ही प्रतिमान बदले और न ही शासन एवं प्रशासन का चरित्र। (चरण सिंह एवं पं.जवाहर लाल नेहरू पत्राचार पर आधारित)
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