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क्यों नहीं बन पाता है भ्रष्टाचार मुद्दा
हमारे राजनीतिज्ञ बहुत चालाक हैं। उनके पास हर बार जनता को लुभाने के लिए नये-नये हथियार, स्लोगन एवं मुद्दे होते हंै। हमारी राजनीति चुनावों में बेहद साफ होने की कोशिश करती है। चुनाव के दौरान राजनेता अहिंसा में गांधी एवं सत्य में युधिष्ठिर का प्रतिरूप बनते देखेे जा सकते है। इन्हीं दिनांे उनमें विश्व बंधुत्व उफान मारता रहता है। राजनीतिज्ञ जानता है कि भारतीय लोकतंत्र में जनता की स्मृति बहुत अच्छी नहीं होती। इस लिए हर बार वही नेता नये बैनर, नये स्लोगन एवं नये गठजोड़ के साथ फिर सामने आ जाता है। जैसे नयी बोतल में पुरानी शराब।
हमारा मतदाता अपने वोट अधिकार से अनभिज्ञ सा खड़ा बार-बार राजनीति में बदलती लहरों का मूक साक्षी बनकर ठहरा रहता है। वह कभी सवाल नहीं पूछता। कभी नहीं जानना चाहता अपने जनप्रतिनिधि से - मतदानोपरान्त उसकी दिक्कतों के समाधान और भौतिकवादी सफलताओं के आधार स्तम्भ क्या हैै? यही कारण है कि कभी चुनाव मंदिर/मस्जिद के नाम पर ले जाते हैं, तो कभी आरक्षण के नाम पर। कभी कश्मीर बचाओं, मंदिर बनाओं का जज्बा पैदा किया जाता है। तो कभी गरीबी हटाओं जैसे नारों पर सत्ता हासिल हो जाती है। वहीं नेता एक बार गरीबी हटाओं का परचम फहराता है फिर सत्ता में आकर गरीब हटाओं अभियान का तोष जीने लगता है।
हमारे देश में पिछले जितने भी आम या मध्यावधि चुनाव हुए उनमें कभी भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं बनाया गया। जो हमारे सांस्कृतिक, चारित्रक एवं नैतिक हास का सबसे अहम मुद्दा है। आजादी के बाद से हमारे सांस्कृतिक जीवन में भ्रष्टाचार की घुसपैठ जिस गति से बढ़ रही है उसके आधार पर हमारे सामाजिक जीवन को खोखलाकर देने वाली जो घटनाएं घटीं हैं। वे बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है। फिर भी हमारी राजनीति, हमारा राजनीतिज्ञ इस अहम समस्या से निजात दिलाना तो दूर उसकी खास चर्चा से भी कतराता रहता है। सामाजिक पराभव तथा भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति के प्रति आग्रह की जो लक्षणिकता आज दिखायी पती है उसके भीतर शायद सबसे अहम बात यह है कि भारत में सम्पत्ति, सत्ता और शक्ति के सम्मिलित गर्वीले स्वर आज जितने प्रभावी हैं उतने पहले कभी नहीं रहे।
जब भी कोई समाज संकट के दौर या संक्रमण की स्थिति से गुजरता है तो आत्म निरीक्षण की कोशिश उस समाज की जीवनी शक्ति होती है तथा शक्ति संचय के उद्बोधन विम्बों के सम्मिलित आवेग अक्सर मुखर एवं प्रभावी होते रहते हैं, परन्तु हम आत्म निरीक्षण से पलायन कर रहे हैं। क्योंकि सत्य से, आत्म से साक्षात्कार करने का साहस हमसे जाता रहा है। इसका एक प्रमुख कारण है हम अपने अतीत से कटते जाते हैं और जब अतीत से जुड़ने का अवसर आता भी है। तब हम वर्तमान से कटकर उसे देखते हैं। वर्तमान व अतीत की परस्पर सम्बद्धता न हो इसलिए, हर चुनाव में मुद्दे बदले गये। पिछले चुनावों के मुद्दों को अगले चुनावों मेें निर्थकता व अप्रासंगिता की श्रेणी में खड़ा कर दिया गया।
एक बार पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने बोफोर्स जैसे मुद्दे पर चुनाव लड़ा इसमें राजीव गांधी जैसे प्रधानमंत्री के खिलाफ पहली बार खुलेआम भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। मतदान के परिणाम ने आरोप लगाने वालों को सत्ता देकर यह अवसर दिया कि वह सिद्ध करें, आरोप के लिए प्रमाण जुटानें जिससे खुलेआम लगे आरोप की पुष्टि की जा सके । वी.पी. ंिसह की सरकार लगभग दो वर्ष तक सत्ता में रहनें के बाद भी राजीव गांधी पर आरोप साबित नहीं कर पायी।
आरोप साबित न होने की स्थिति में कांग्रेस को चाहिए था कि वह राजीव गांधी पर लगे झूठे आरोपों को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ती। मतदातओं के सामने जाती। जद को लांछित करती, पर कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया, क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्र्रेस स्वयं भी बोफोर्स प्रकरण को स्मृति लोप के लिए छोड़ देना चाहती थी। या वह भ्रष्टाचार के मुद्दे को इतना गम्भीर नहीं मानती थी। यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से यह चिन्ता की बात है देश के लिए, समाज के लिए। भ्रष्टाचार की समस्या से निजात पाने के लिए एक बार इंदिरा गांधी ने इसे एक ‘विश्व व्यापी समस्या’ कहकर टाल दिया था। उन्होनें इस समस्या को विश्व से जोड़कर यह कहने का साहस किया था कि उनकी सरकार पर जो भी आरोप भ्रष्टाचार के लगे हैं वे चिन्ता के विषय नहीं है।
अमरीकी अखबार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ को दिये गये एक साक्षात्कार में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘थोे से पैसों का भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार नहीं होता, हर समय भ्रष्टाचार पर बात करते से महत्वपूर्व मसलों पर बात करने के लिए समय नहीं बचता। मान लो कोई आदमी यहां-वहां कुछ पैसे लेता भी है, तो उससे देश का भविष्य नहीं बदलेगा। गरीबी, कुपोषण और नागरिकों का स्वास्थ्य बड़े मसले है।’
हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरसिंह राव दुनिया के सबसे बड़े घोटाले के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं मानते हैं और वित्तमंत्री के थोथी नैतिकता में दिये गये त्याग पत्र को अस्वीकार कर इन घोटालों के लिए हर्षद मेहता पर दोष मढ़ने की साजिश में लिप्त हैं। इससे दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता कि ‘अंधेर नगरी चैपट राजा’ की तर्ज पर दुनिया के सबसे बड़े घोटाले के लिए किसी एक आदमी को जिम्मेदार ठहरा कर निजात पा लिया जाये। यह भी सोचने का विषय है कि आखिर हर्षद मेहता में इतनी शक्ति आयी कहां से? उसने नियमों के उल्लंघन का खेल खेलना जब शुरू किया तब उसे रोका क्यों नहीं गया?
हमारे बौद्धिक वित्तमंत्री यह क्यों नहीं तय कर पाये कि जिन फैक्टियों में एक-एक साल से तालाबंदी है उनके शेयरों के मूल्यों में 40 से 60 गुना की वृद्धि किस आधार पर थी। इस सबकी जिम्मेदारी हर्षद मेहता पर थोप कर निजात पाया गया? इतना ही नहीं, नरसिंह राव ने दक्षिण के मोह में फंसकर भ्रष्टाचार के सिद्ध आरोप वाले न्यायाधीश रामास्वामी को हटाने तक की औपचारिकता निर्वाह नहीं होने दी तो वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के त्यागपत्र को स्वीकारने की बात सोचना स्वयं को धोखा देना था। इतने भ्रष्ट प्रधानमंत्री के कार्यकाल मंे ही अभी हाल में छह राज्य सरकारों के चुनाव हुए, लेकिन किसी भी पार्टी ने इन चुनावों में नरसिंह राव सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं बनाया और पूरी चुनाव प्रचार की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार लगभग अछूता रह गया। क्यों? यह हमारे आपके लिए चिन्ता का विषय का विषय हो सकता है परन्तु हमारी राजनीतिक पार्टियों के लिए नहीं ?
ऐसा करके ये राजनीतिक पार्टियां समाज मेें व्याप्त उस यथार्थ को स्वीकृति दे रहीं हैं, जिसमें भ्रष्टाचार हमारी दैनिकी का अंग बनकर स्वीकृत हो चुका है। हमारी सरकार अपने कर्मियों को इतनी पगार नहीं देती जितने में उसके समिति परिवार की संकल्पना, कल्यान व संतोष से जी सकें। पगार में ही हमारें यहां समानान्तर धनोपार्जन समाहित हैं। यही कारण है कि स्थानान्तरण कुटीर उद्योग के रूप में पनप एवं पसर रहा है। सरकारी कर्मचारी के पूरे कार्यकाल का तीस प्रतिशत हिस्सा व ऊर्जा ट्रांसफार, पोस्टिंग में व्यय हो जाती है। सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण के वल सत्ता वे पैसे को लेकर हैै। उधार ली गयी पंूजी, दलाली तथा दरम्यानी पेशे में सत्ता के अधिकार से भ्रष्ट रास्तांे द्वारा अचानक कमाया गया काला धन जब पर से नीचे की ओर कई हाथों से होता हुआ मिलता है तो इसका वारिस समाज मेधाहीन, आराम-तलब तो होता ही है। ऐसा समाज में उच्श्रंृखलता बती है। झूठ पर आधारित आत्मवंचना प्रिय लगती है। दुर्भाग्य से भारत की सामाजिक प्रगति का ढांचा इसी पर आधारित है, जिसकी निष्पत्तियां अराजकता और अनर्गत हिंसा लूट-पाट के रूप में रोज दिखायी पड़ती हैं।
इसलिए भ्रष्टाचार को किसी भी स्तर पर स्वीकृति देना गलत है। यह गलती इंदिरा गांधी, राजीव, वी.पी. सिंह, चन्द्रशेखर सभी के शासनकाल में निर्बाध जारी रही। नरसिंह राव के शासनकाल में इसका वीभत्स रूप सामने आया। इससे ही समझ लेना चाहिए कि अपने समाजबोध व सामाजिक दायित्व के प्रति ये लोग कितने सचेत रहे हैं। इन्हीं के कारण कालाधन एवं समानान्तर अर्थव्यवस्था की अनिवार्यता जीने के लिए हम विवश हैं। यह हम इसी से समझ सकते हैं कि भ्रष्टाचार की प्रतीक बोफोर्स को चन्द्रशेखर जैसा नेता ‘सिपाही स्तर पर सुलाने वाला मुद्दा मानता हो’। इतना ही नहीं, नरसिंह राव की जैसे-तैसे बनी सरकार ने बार-बार खरीद-फरोख्त करके सांसदों की संख्या का खेल-खेलकर अपने को संसद में बचाने की उपलब्धि हासिल की हो, उसी सरकार में चरण सिंह के वारिस अजित सिंह स्वयं आत्मसमर्पण करके चरण सिंह को श्रद्धांजलि देने का गौरव पाने के लायक भी स्वयं को समझते हैं।
इससे यह तो हो गया कि राजनीति के स्तर पर भ्राचार कभी मुद्दा नहीं हो सकता। राजनीति यह तय नहीं करेगी। कि ईमानदारी जीवन मूल्य है कि नहीं ? वस्तुतः भ्रष्टाचार से लना जीवन मूल्यों का प्रश्न है। अंधेरा एक हकीकत है, जीवन की सच्चाई है। पर दीपक जलाकर अंधेरे को दूर करने की कोशिश भी एक सच्चाई है, तभी तो लिखा गया है कि - ‘जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये।’ इसे स्वीकार कर हमें अंधेरें के समक्ष पराजित होने की नियति की विवशता में पलना-बढ़ना नहीं है। इसके खिलाफ जद्दोजहद जारी रखना है। क्योंकि देश समाज की यह जरूरत है। यहीं कोशिश आज की विकृत राजनीति से कोई सवाल पूछने के लायक हमें बनाये रख सके गी।
हमारा मतदाता अपने वोट अधिकार से अनभिज्ञ सा खड़ा बार-बार राजनीति में बदलती लहरों का मूक साक्षी बनकर ठहरा रहता है। वह कभी सवाल नहीं पूछता। कभी नहीं जानना चाहता अपने जनप्रतिनिधि से - मतदानोपरान्त उसकी दिक्कतों के समाधान और भौतिकवादी सफलताओं के आधार स्तम्भ क्या हैै? यही कारण है कि कभी चुनाव मंदिर/मस्जिद के नाम पर ले जाते हैं, तो कभी आरक्षण के नाम पर। कभी कश्मीर बचाओं, मंदिर बनाओं का जज्बा पैदा किया जाता है। तो कभी गरीबी हटाओं जैसे नारों पर सत्ता हासिल हो जाती है। वहीं नेता एक बार गरीबी हटाओं का परचम फहराता है फिर सत्ता में आकर गरीब हटाओं अभियान का तोष जीने लगता है।
हमारे देश में पिछले जितने भी आम या मध्यावधि चुनाव हुए उनमें कभी भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं बनाया गया। जो हमारे सांस्कृतिक, चारित्रक एवं नैतिक हास का सबसे अहम मुद्दा है। आजादी के बाद से हमारे सांस्कृतिक जीवन में भ्रष्टाचार की घुसपैठ जिस गति से बढ़ रही है उसके आधार पर हमारे सामाजिक जीवन को खोखलाकर देने वाली जो घटनाएं घटीं हैं। वे बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है। फिर भी हमारी राजनीति, हमारा राजनीतिज्ञ इस अहम समस्या से निजात दिलाना तो दूर उसकी खास चर्चा से भी कतराता रहता है। सामाजिक पराभव तथा भ्रष्टाचारी प्रवृत्ति के प्रति आग्रह की जो लक्षणिकता आज दिखायी पती है उसके भीतर शायद सबसे अहम बात यह है कि भारत में सम्पत्ति, सत्ता और शक्ति के सम्मिलित गर्वीले स्वर आज जितने प्रभावी हैं उतने पहले कभी नहीं रहे।
जब भी कोई समाज संकट के दौर या संक्रमण की स्थिति से गुजरता है तो आत्म निरीक्षण की कोशिश उस समाज की जीवनी शक्ति होती है तथा शक्ति संचय के उद्बोधन विम्बों के सम्मिलित आवेग अक्सर मुखर एवं प्रभावी होते रहते हैं, परन्तु हम आत्म निरीक्षण से पलायन कर रहे हैं। क्योंकि सत्य से, आत्म से साक्षात्कार करने का साहस हमसे जाता रहा है। इसका एक प्रमुख कारण है हम अपने अतीत से कटते जाते हैं और जब अतीत से जुड़ने का अवसर आता भी है। तब हम वर्तमान से कटकर उसे देखते हैं। वर्तमान व अतीत की परस्पर सम्बद्धता न हो इसलिए, हर चुनाव में मुद्दे बदले गये। पिछले चुनावों के मुद्दों को अगले चुनावों मेें निर्थकता व अप्रासंगिता की श्रेणी में खड़ा कर दिया गया।
एक बार पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने बोफोर्स जैसे मुद्दे पर चुनाव लड़ा इसमें राजीव गांधी जैसे प्रधानमंत्री के खिलाफ पहली बार खुलेआम भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। मतदान के परिणाम ने आरोप लगाने वालों को सत्ता देकर यह अवसर दिया कि वह सिद्ध करें, आरोप के लिए प्रमाण जुटानें जिससे खुलेआम लगे आरोप की पुष्टि की जा सके । वी.पी. ंिसह की सरकार लगभग दो वर्ष तक सत्ता में रहनें के बाद भी राजीव गांधी पर आरोप साबित नहीं कर पायी।
आरोप साबित न होने की स्थिति में कांग्रेस को चाहिए था कि वह राजीव गांधी पर लगे झूठे आरोपों को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ती। मतदातओं के सामने जाती। जद को लांछित करती, पर कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया, क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्र्रेस स्वयं भी बोफोर्स प्रकरण को स्मृति लोप के लिए छोड़ देना चाहती थी। या वह भ्रष्टाचार के मुद्दे को इतना गम्भीर नहीं मानती थी। यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से यह चिन्ता की बात है देश के लिए, समाज के लिए। भ्रष्टाचार की समस्या से निजात पाने के लिए एक बार इंदिरा गांधी ने इसे एक ‘विश्व व्यापी समस्या’ कहकर टाल दिया था। उन्होनें इस समस्या को विश्व से जोड़कर यह कहने का साहस किया था कि उनकी सरकार पर जो भी आरोप भ्रष्टाचार के लगे हैं वे चिन्ता के विषय नहीं है।
अमरीकी अखबार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ को दिये गये एक साक्षात्कार में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘थोे से पैसों का भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार नहीं होता, हर समय भ्रष्टाचार पर बात करते से महत्वपूर्व मसलों पर बात करने के लिए समय नहीं बचता। मान लो कोई आदमी यहां-वहां कुछ पैसे लेता भी है, तो उससे देश का भविष्य नहीं बदलेगा। गरीबी, कुपोषण और नागरिकों का स्वास्थ्य बड़े मसले है।’
हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरसिंह राव दुनिया के सबसे बड़े घोटाले के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं मानते हैं और वित्तमंत्री के थोथी नैतिकता में दिये गये त्याग पत्र को अस्वीकार कर इन घोटालों के लिए हर्षद मेहता पर दोष मढ़ने की साजिश में लिप्त हैं। इससे दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता कि ‘अंधेर नगरी चैपट राजा’ की तर्ज पर दुनिया के सबसे बड़े घोटाले के लिए किसी एक आदमी को जिम्मेदार ठहरा कर निजात पा लिया जाये। यह भी सोचने का विषय है कि आखिर हर्षद मेहता में इतनी शक्ति आयी कहां से? उसने नियमों के उल्लंघन का खेल खेलना जब शुरू किया तब उसे रोका क्यों नहीं गया?
हमारे बौद्धिक वित्तमंत्री यह क्यों नहीं तय कर पाये कि जिन फैक्टियों में एक-एक साल से तालाबंदी है उनके शेयरों के मूल्यों में 40 से 60 गुना की वृद्धि किस आधार पर थी। इस सबकी जिम्मेदारी हर्षद मेहता पर थोप कर निजात पाया गया? इतना ही नहीं, नरसिंह राव ने दक्षिण के मोह में फंसकर भ्रष्टाचार के सिद्ध आरोप वाले न्यायाधीश रामास्वामी को हटाने तक की औपचारिकता निर्वाह नहीं होने दी तो वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के त्यागपत्र को स्वीकारने की बात सोचना स्वयं को धोखा देना था। इतने भ्रष्ट प्रधानमंत्री के कार्यकाल मंे ही अभी हाल में छह राज्य सरकारों के चुनाव हुए, लेकिन किसी भी पार्टी ने इन चुनावों में नरसिंह राव सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं बनाया और पूरी चुनाव प्रचार की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार लगभग अछूता रह गया। क्यों? यह हमारे आपके लिए चिन्ता का विषय का विषय हो सकता है परन्तु हमारी राजनीतिक पार्टियों के लिए नहीं ?
ऐसा करके ये राजनीतिक पार्टियां समाज मेें व्याप्त उस यथार्थ को स्वीकृति दे रहीं हैं, जिसमें भ्रष्टाचार हमारी दैनिकी का अंग बनकर स्वीकृत हो चुका है। हमारी सरकार अपने कर्मियों को इतनी पगार नहीं देती जितने में उसके समिति परिवार की संकल्पना, कल्यान व संतोष से जी सकें। पगार में ही हमारें यहां समानान्तर धनोपार्जन समाहित हैं। यही कारण है कि स्थानान्तरण कुटीर उद्योग के रूप में पनप एवं पसर रहा है। सरकारी कर्मचारी के पूरे कार्यकाल का तीस प्रतिशत हिस्सा व ऊर्जा ट्रांसफार, पोस्टिंग में व्यय हो जाती है। सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण के वल सत्ता वे पैसे को लेकर हैै। उधार ली गयी पंूजी, दलाली तथा दरम्यानी पेशे में सत्ता के अधिकार से भ्रष्ट रास्तांे द्वारा अचानक कमाया गया काला धन जब पर से नीचे की ओर कई हाथों से होता हुआ मिलता है तो इसका वारिस समाज मेधाहीन, आराम-तलब तो होता ही है। ऐसा समाज में उच्श्रंृखलता बती है। झूठ पर आधारित आत्मवंचना प्रिय लगती है। दुर्भाग्य से भारत की सामाजिक प्रगति का ढांचा इसी पर आधारित है, जिसकी निष्पत्तियां अराजकता और अनर्गत हिंसा लूट-पाट के रूप में रोज दिखायी पड़ती हैं।
इसलिए भ्रष्टाचार को किसी भी स्तर पर स्वीकृति देना गलत है। यह गलती इंदिरा गांधी, राजीव, वी.पी. सिंह, चन्द्रशेखर सभी के शासनकाल में निर्बाध जारी रही। नरसिंह राव के शासनकाल में इसका वीभत्स रूप सामने आया। इससे ही समझ लेना चाहिए कि अपने समाजबोध व सामाजिक दायित्व के प्रति ये लोग कितने सचेत रहे हैं। इन्हीं के कारण कालाधन एवं समानान्तर अर्थव्यवस्था की अनिवार्यता जीने के लिए हम विवश हैं। यह हम इसी से समझ सकते हैं कि भ्रष्टाचार की प्रतीक बोफोर्स को चन्द्रशेखर जैसा नेता ‘सिपाही स्तर पर सुलाने वाला मुद्दा मानता हो’। इतना ही नहीं, नरसिंह राव की जैसे-तैसे बनी सरकार ने बार-बार खरीद-फरोख्त करके सांसदों की संख्या का खेल-खेलकर अपने को संसद में बचाने की उपलब्धि हासिल की हो, उसी सरकार में चरण सिंह के वारिस अजित सिंह स्वयं आत्मसमर्पण करके चरण सिंह को श्रद्धांजलि देने का गौरव पाने के लायक भी स्वयं को समझते हैं।
इससे यह तो हो गया कि राजनीति के स्तर पर भ्राचार कभी मुद्दा नहीं हो सकता। राजनीति यह तय नहीं करेगी। कि ईमानदारी जीवन मूल्य है कि नहीं ? वस्तुतः भ्रष्टाचार से लना जीवन मूल्यों का प्रश्न है। अंधेरा एक हकीकत है, जीवन की सच्चाई है। पर दीपक जलाकर अंधेरे को दूर करने की कोशिश भी एक सच्चाई है, तभी तो लिखा गया है कि - ‘जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये।’ इसे स्वीकार कर हमें अंधेरें के समक्ष पराजित होने की नियति की विवशता में पलना-बढ़ना नहीं है। इसके खिलाफ जद्दोजहद जारी रखना है। क्योंकि देश समाज की यह जरूरत है। यहीं कोशिश आज की विकृत राजनीति से कोई सवाल पूछने के लायक हमें बनाये रख सके गी।
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