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संविधान: खिरती प्रासंगिकता
छब्बीस जनवरी 1950 को भारत के संविधान सभा के सदस्य डा. भीमराव अम्बेकर ने संविधान का लोकार्पण करते हुए यह कहा था कि ‘भारत एक स्वतंत्र देश तो बन जाएगा। आगे क्या होगा इसकी आजादी का ? भारत अपनी आजादी कायम रख सके गा कि इसे फिर खो देगा ? यही पहली बात है जो मेरे दिमाग में आती है। यही सवाल है जो हमें भविष्य के लिए बेचैन करता है। 26 जनवरी 1950 से भारत इन अर्थों में एक लोकतांत्रिक देश हो जाएगा कि यहां जनता द्वारा, जनता की और जनता के लिए सरकार बन जाएगी। इसके बाद ? फिर वही विचार हमें परेशान करता है, हमारे लोकतांत्रिक संविधान का क्या होगा ? क्या हम इसे बनाये रख सकंेगे या कि इसे फिर खो देंगे ?
अम्बेडकर की चिन्ता लगातार हमारे सामने भी गहराती जा रही है। गणतंत्र के 41 वर्ष भी पूरे नहीं हुए कि हमारे संविधान में 72 संशोधन हो चुके हैं। लगातार संशोधन अपेक्षित भी होते जा रहे हैं। सभी महत्वपूर्ण धाराओं पर पैबन्द लग चुके हैं। अमरीका के संविधान में इतने वर्षो की स्वतंत्रता के बाद भी अभी तक गिने-चुने संविधान संशोधन हुए हैं। अमरीकी संविधान में संशोधन के लिए विहित प्रक्रिया कठोर है। हमें इससे सबक लेना चाहिए था लेकिन ऐसा करने की जगह हम, हमारी संसद लगातार हमारे संविधान से खेलती जा रही है। जान स्टुअर्ड मिल ने कहा था कि ‘हमें महान से महान आदमी के चरणों में भी अपनी स्वतंत्रता का अर्पण नहीं करना चाहिए या उसे ऐसी शक्ति नहीं देनी चाहिए, कि वह हमारी, संवैधानिक संस्थाओं को बर्बाद कर दें।’ इतना ही नहीं, आयरिश देशभक्त डेनियल ओप कोनेल ने कहा था कि ‘किसी भी आदमी, राष्ट्र को अपने आत्म सम्मान की कीमत पर किसी का ऋणी नहीं होना चाहिए।’
हमारा दुर्भाग्य ही है कि हमने अपने राजनीतिज्ञों के हाथ में इतनी ताकत दे दी कि वे हमारी संवैधानिक या लोकातंत्रिक संस्थाओं/ निष्ठाओं के साथ लगातार छे़डछाड़ ही नहीं कर रहे हैं वरन् हमारे सम्मान की कीमत पर भी सब कुछ करते जा रहे हैं। एक ऐसे संविधान में जो परस्पर विरोधी तत्वों/ विचारों से भरा हुआ है। हमारा संविधान समता की बात करेगा। समाज में असमानता की बेल पसरती जाएगी। राजनीति में हमारा संविधान एक वोट एक व्यक्ति के सिद्धान्त को मानेगा परन्तु यथार्थ में हम क्या ‘एक वोट, एक कीमत’ का सिद्धान्त स्वीकार कर लेंगे ? कई हजार जातियों में हम बंटे हैं फिर भी एक राष्ट्र, राभक्ति की बात हमें करनी है जबकि हमारे संविधान में जातियों के आधार पर सुविधाएं पाने एवं जीने के अवसर उपलब्ध हैं। दुनिया का इतिहास इसका प्रमाण है कि जातियां देशद्रोही होती हैं। फिर भी संविधान में जातियों की बात की गयी ? हमारे संविधान में धारा 370 का उपबन्ध देकर एक अलगाव की साजिश रची गयी है। हम अपने संविधान से हिन्दी को राभाषा का सम्मान नहीं दिलवा पाये ? हमारे संविधान में समानता एवं समता के मौलिक सिद्धान्तों के अनुपालन के लिए कोई आधारभूत नियम उपलब्ध नहीं हैं। संविधान जिसे राष्ट्रगान स्वीकारा गया वह जार्ज पंचम की प्रशस्ति है। जार्ज पंचम की प्रशस्ति को राष्ट्रगान जिस संविधान में स्वीकार कर लिया जाय उसके औचित्य पर सवाल उठना लाजिमी था/है। हमारे संविधान में ब्रिटिश सरकार द्वारा 1935 में बनाये गये गवर्नमेन्ट आफ इण्डिया एक्ट का समावेश किया गया है। संविधान में कहा गया है कि ‘इण्डिया यानी भारत राज्यों का संघ’ है। इसमें देश का मुख्य नाम इण्डिया, ब्रिटिश शासकों की देन है। भारत नाम इसका पर्याय है। संविधान में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है। यह परिभाषा अमरीकन संविधान की नकल है। संयुक्त राज्य अमरीका राज्यों का संघ है भारत नहीं क्योंकि 1774 में 13 स्वतंत्र राज्यों ने मिलकर एक संघ बनाने का फैसला किया था। उसके पहले अमरीका नाम का कोई राज्य नहीं था।
हमारे संविधान की धारा 44 यह भी कहती है कि सभी नागरिकों के लिए समान कानून होंगे, परन्तु इसी संविधान की कुछ धारायें मूलभूत अधिकारों की धज्जियां उड़ाती हैं। यथा-संविधान की धारा 30 में मजहबी अल्पसंख्यक की शिक्षा के सम्बन्ध में जो अधिकार दिये गये हैं, वह बहुसंख्यक हिन्दुओं को उपलब्ध नहीं हैं। संविधान निर्माताओं के पास न ही समय था और न ही उनमें ऐसी रुचि थी कि वो मौलिक रूप से भारत के भविष्य के लिए उपर्युक्त ढांचे के बारे में सोचते और ऐसी राजनीतिक संवैधानिक व्यवस्था का निर्माण करते, जो हमारे जन मानस की पृष्ठभूमि और चिन्ता के अनुकूल हैं। हमारी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा कर सकें और हमारी दुर्बलताओं को भी संभाल सकें। 1935 के भारत शासन अधिनियम के एक बड़े भाग को लगभग ज्यों का त्यों उठाकर संविधान में रख दिया गया। यह ध्यान नहीं रखा गया कि यह अधिनियम ब्रिटिश संसद ने भारत को एक राष्ट्र के सूत्र में पिरोने के लिए नहीं वरन् विखण्डित करने के लिए बनाया था।
आज भारत के संविधान का अध्ययन करने वाले को यदि नवम्बर, 1949 में प्रख्यापित संविधान का पाठ ही के वल उपलब्ध हो तो उसे तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। इन सारी स्थितियों को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारी लोकतांंित्रक संस्थाओं को चलाने के लिए जो तंत्र उनके हाथों में सौंपा था वह हमारी परिस्थितियों के अनुकूल नहीं था तभी तो लगभग सभी तरफ हम बुरी तरह से हारे हैं। नेतृत्व ने हमें धोखा दिया है, हमारे साथ विश्वासघात किया है। राजनीकि संवैधानिक व्यवस्था जर्जर हो गयी। संविधान का माखौल उड़ा। लोकतंत्र एवं जन-सांख्यिकी आवश्यकताओं में विरोधाभास उजागर हुआ। लोकतंत्र में सत्ता एवं शक्ति की प्राप्ति संख्याओं पर निर्भर है। अतः सभी समुदायों के नेता अपने-अपने समुदायों के नेता अपने-अपने समुदायों की संख्या वृद्धि के दर्शन पर कार्य करते हैं जबकि समस्याओं से निजात पाने का मूलमंत्र है - जन -सांख्यिकी पर नियंत्रण।
इन सारी समस्याओं को देखते हुए देश के बुद्धिजीवियों ने एक नया संविधान बना डाला जिसका लोकार्पण 23 जनवरी को जबलपुर में होगा। दुनियां में यह पहली घटना है जब किसी देश का जनसमूह देश का नया संविधान पवाकर उसे आम जनता के सामने रखेगा। ‘नव संविधान परिषद’ नामक संस्था ने इस संविधान का निर्माण किया है। यह एक अस्थायी मंच है। इस परिषद का उद्घाटन भारत के अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग के पूर्व आयुक्त डा. ब्रह्मदेव शर्मा ने 2 अक्टूबर 1992 को किया था। प्रस्तावित संविधान में त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था के अलावा, राष्ट्रपति, राज्यपालों और जिला परिषदों के पार्षदों के सीधे चुनाव की व्यवस्था है। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के पद समाप्त कर दिये गये हैं। प्रेस की स्वतंत्रता को विशिष्ट एवं मौलिक अधिकार बनाया गया है। रोजगार के अधिकार, घर के अधिकार शिक्षा, स्वास्थ्य समान नागरिक संहिता आदि के अधिकार भी मौलिक अधिकार में शामिल हैं। राजनीतिक दलों में प्रजातांत्रिक व्यवस्था लाने के लिए संसद, विधान सभा और जिला परिषद कौंसिल क्षेत्रों के लिए त्रिस्तरीय ‘निर्णायक मण्डलों’ की व्यवस्था की गयी है। जो दलीय उम्मीदवारों का गुप्त मतदान से चुनाव करेंगे। प्रस्तावित संविधान में कश्मीर सहित किसी राज्य को कोई विशेष दर्जा नहीं प्राप्त है। चण्डीगढ़, अण्डमान निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप समूह को ही के न्द्र शासित प्रदेश के क्षेत्र में रखा गया है। संसद और विधान सभाओं को सरकार बनाने के दायित्व से मुक्त कर दिया गया है।
इस संविधान का लेखन मध्य प्रदेश के उप महाधिवक्ता और संविधान वेत्ता आदर्श मुनि त्रिवेदी ने 53 दिनों में किया है। जिसमें 25 अध्याय एवं 400 अनुच्छेद हैं। इस संविधान का 40 प्रतिशत हिस्सा यथावत् पुराने संविधान का है। 40 प्रतिशत हिस्सा नया है और 20 प्रतिशत हिस्सा आंशिक संशोधित है। यह संविधान हमारी वर्तमान आवश्यकताओं/समस्याओं के लिए कितना उपयोगी होगा, यह तो संविधान देखने के बाद पता चलेगा परन्तु इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि हमारा संविधान अपनी उपादेयता, प्रासंगिकता खो रहा है। इस पर विचार करना अब जरूरी हो गया है। हमारी राजनीतिक संवैधानिक समस्याओं का समाधान इससे सम्भव नहीं है। अम्बेडकर की चिन्ता आम हो गयी है। हम अपने संविधान को तो बनाये नहीं रख पा रहे हैं, उसे खो रहे हैं। हमें चेतना चाहिए और चाहिए तैयार करना एक नया संवैधानिक-राजनीतिक तंत्र जिसमें किसी भी व्यक्ति को ऐसा अधिकार शक्ति न प्राप्त हो जो हमारी संवैधानिक संस्थाओं को बर्बाद कर सके और हमारे आत्मसम्मान की कीमत पर कुछ भी कर सके ।
अम्बेडकर की चिन्ता लगातार हमारे सामने भी गहराती जा रही है। गणतंत्र के 41 वर्ष भी पूरे नहीं हुए कि हमारे संविधान में 72 संशोधन हो चुके हैं। लगातार संशोधन अपेक्षित भी होते जा रहे हैं। सभी महत्वपूर्ण धाराओं पर पैबन्द लग चुके हैं। अमरीका के संविधान में इतने वर्षो की स्वतंत्रता के बाद भी अभी तक गिने-चुने संविधान संशोधन हुए हैं। अमरीकी संविधान में संशोधन के लिए विहित प्रक्रिया कठोर है। हमें इससे सबक लेना चाहिए था लेकिन ऐसा करने की जगह हम, हमारी संसद लगातार हमारे संविधान से खेलती जा रही है। जान स्टुअर्ड मिल ने कहा था कि ‘हमें महान से महान आदमी के चरणों में भी अपनी स्वतंत्रता का अर्पण नहीं करना चाहिए या उसे ऐसी शक्ति नहीं देनी चाहिए, कि वह हमारी, संवैधानिक संस्थाओं को बर्बाद कर दें।’ इतना ही नहीं, आयरिश देशभक्त डेनियल ओप कोनेल ने कहा था कि ‘किसी भी आदमी, राष्ट्र को अपने आत्म सम्मान की कीमत पर किसी का ऋणी नहीं होना चाहिए।’
हमारा दुर्भाग्य ही है कि हमने अपने राजनीतिज्ञों के हाथ में इतनी ताकत दे दी कि वे हमारी संवैधानिक या लोकातंत्रिक संस्थाओं/ निष्ठाओं के साथ लगातार छे़डछाड़ ही नहीं कर रहे हैं वरन् हमारे सम्मान की कीमत पर भी सब कुछ करते जा रहे हैं। एक ऐसे संविधान में जो परस्पर विरोधी तत्वों/ विचारों से भरा हुआ है। हमारा संविधान समता की बात करेगा। समाज में असमानता की बेल पसरती जाएगी। राजनीति में हमारा संविधान एक वोट एक व्यक्ति के सिद्धान्त को मानेगा परन्तु यथार्थ में हम क्या ‘एक वोट, एक कीमत’ का सिद्धान्त स्वीकार कर लेंगे ? कई हजार जातियों में हम बंटे हैं फिर भी एक राष्ट्र, राभक्ति की बात हमें करनी है जबकि हमारे संविधान में जातियों के आधार पर सुविधाएं पाने एवं जीने के अवसर उपलब्ध हैं। दुनिया का इतिहास इसका प्रमाण है कि जातियां देशद्रोही होती हैं। फिर भी संविधान में जातियों की बात की गयी ? हमारे संविधान में धारा 370 का उपबन्ध देकर एक अलगाव की साजिश रची गयी है। हम अपने संविधान से हिन्दी को राभाषा का सम्मान नहीं दिलवा पाये ? हमारे संविधान में समानता एवं समता के मौलिक सिद्धान्तों के अनुपालन के लिए कोई आधारभूत नियम उपलब्ध नहीं हैं। संविधान जिसे राष्ट्रगान स्वीकारा गया वह जार्ज पंचम की प्रशस्ति है। जार्ज पंचम की प्रशस्ति को राष्ट्रगान जिस संविधान में स्वीकार कर लिया जाय उसके औचित्य पर सवाल उठना लाजिमी था/है। हमारे संविधान में ब्रिटिश सरकार द्वारा 1935 में बनाये गये गवर्नमेन्ट आफ इण्डिया एक्ट का समावेश किया गया है। संविधान में कहा गया है कि ‘इण्डिया यानी भारत राज्यों का संघ’ है। इसमें देश का मुख्य नाम इण्डिया, ब्रिटिश शासकों की देन है। भारत नाम इसका पर्याय है। संविधान में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है। यह परिभाषा अमरीकन संविधान की नकल है। संयुक्त राज्य अमरीका राज्यों का संघ है भारत नहीं क्योंकि 1774 में 13 स्वतंत्र राज्यों ने मिलकर एक संघ बनाने का फैसला किया था। उसके पहले अमरीका नाम का कोई राज्य नहीं था।
हमारे संविधान की धारा 44 यह भी कहती है कि सभी नागरिकों के लिए समान कानून होंगे, परन्तु इसी संविधान की कुछ धारायें मूलभूत अधिकारों की धज्जियां उड़ाती हैं। यथा-संविधान की धारा 30 में मजहबी अल्पसंख्यक की शिक्षा के सम्बन्ध में जो अधिकार दिये गये हैं, वह बहुसंख्यक हिन्दुओं को उपलब्ध नहीं हैं। संविधान निर्माताओं के पास न ही समय था और न ही उनमें ऐसी रुचि थी कि वो मौलिक रूप से भारत के भविष्य के लिए उपर्युक्त ढांचे के बारे में सोचते और ऐसी राजनीतिक संवैधानिक व्यवस्था का निर्माण करते, जो हमारे जन मानस की पृष्ठभूमि और चिन्ता के अनुकूल हैं। हमारी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को पूरा कर सकें और हमारी दुर्बलताओं को भी संभाल सकें। 1935 के भारत शासन अधिनियम के एक बड़े भाग को लगभग ज्यों का त्यों उठाकर संविधान में रख दिया गया। यह ध्यान नहीं रखा गया कि यह अधिनियम ब्रिटिश संसद ने भारत को एक राष्ट्र के सूत्र में पिरोने के लिए नहीं वरन् विखण्डित करने के लिए बनाया था।
आज भारत के संविधान का अध्ययन करने वाले को यदि नवम्बर, 1949 में प्रख्यापित संविधान का पाठ ही के वल उपलब्ध हो तो उसे तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। इन सारी स्थितियों को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारी लोकतांंित्रक संस्थाओं को चलाने के लिए जो तंत्र उनके हाथों में सौंपा था वह हमारी परिस्थितियों के अनुकूल नहीं था तभी तो लगभग सभी तरफ हम बुरी तरह से हारे हैं। नेतृत्व ने हमें धोखा दिया है, हमारे साथ विश्वासघात किया है। राजनीकि संवैधानिक व्यवस्था जर्जर हो गयी। संविधान का माखौल उड़ा। लोकतंत्र एवं जन-सांख्यिकी आवश्यकताओं में विरोधाभास उजागर हुआ। लोकतंत्र में सत्ता एवं शक्ति की प्राप्ति संख्याओं पर निर्भर है। अतः सभी समुदायों के नेता अपने-अपने समुदायों के नेता अपने-अपने समुदायों की संख्या वृद्धि के दर्शन पर कार्य करते हैं जबकि समस्याओं से निजात पाने का मूलमंत्र है - जन -सांख्यिकी पर नियंत्रण।
इन सारी समस्याओं को देखते हुए देश के बुद्धिजीवियों ने एक नया संविधान बना डाला जिसका लोकार्पण 23 जनवरी को जबलपुर में होगा। दुनियां में यह पहली घटना है जब किसी देश का जनसमूह देश का नया संविधान पवाकर उसे आम जनता के सामने रखेगा। ‘नव संविधान परिषद’ नामक संस्था ने इस संविधान का निर्माण किया है। यह एक अस्थायी मंच है। इस परिषद का उद्घाटन भारत के अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग के पूर्व आयुक्त डा. ब्रह्मदेव शर्मा ने 2 अक्टूबर 1992 को किया था। प्रस्तावित संविधान में त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था के अलावा, राष्ट्रपति, राज्यपालों और जिला परिषदों के पार्षदों के सीधे चुनाव की व्यवस्था है। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के पद समाप्त कर दिये गये हैं। प्रेस की स्वतंत्रता को विशिष्ट एवं मौलिक अधिकार बनाया गया है। रोजगार के अधिकार, घर के अधिकार शिक्षा, स्वास्थ्य समान नागरिक संहिता आदि के अधिकार भी मौलिक अधिकार में शामिल हैं। राजनीतिक दलों में प्रजातांत्रिक व्यवस्था लाने के लिए संसद, विधान सभा और जिला परिषद कौंसिल क्षेत्रों के लिए त्रिस्तरीय ‘निर्णायक मण्डलों’ की व्यवस्था की गयी है। जो दलीय उम्मीदवारों का गुप्त मतदान से चुनाव करेंगे। प्रस्तावित संविधान में कश्मीर सहित किसी राज्य को कोई विशेष दर्जा नहीं प्राप्त है। चण्डीगढ़, अण्डमान निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप समूह को ही के न्द्र शासित प्रदेश के क्षेत्र में रखा गया है। संसद और विधान सभाओं को सरकार बनाने के दायित्व से मुक्त कर दिया गया है।
इस संविधान का लेखन मध्य प्रदेश के उप महाधिवक्ता और संविधान वेत्ता आदर्श मुनि त्रिवेदी ने 53 दिनों में किया है। जिसमें 25 अध्याय एवं 400 अनुच्छेद हैं। इस संविधान का 40 प्रतिशत हिस्सा यथावत् पुराने संविधान का है। 40 प्रतिशत हिस्सा नया है और 20 प्रतिशत हिस्सा आंशिक संशोधित है। यह संविधान हमारी वर्तमान आवश्यकताओं/समस्याओं के लिए कितना उपयोगी होगा, यह तो संविधान देखने के बाद पता चलेगा परन्तु इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि हमारा संविधान अपनी उपादेयता, प्रासंगिकता खो रहा है। इस पर विचार करना अब जरूरी हो गया है। हमारी राजनीतिक संवैधानिक समस्याओं का समाधान इससे सम्भव नहीं है। अम्बेडकर की चिन्ता आम हो गयी है। हम अपने संविधान को तो बनाये नहीं रख पा रहे हैं, उसे खो रहे हैं। हमें चेतना चाहिए और चाहिए तैयार करना एक नया संवैधानिक-राजनीतिक तंत्र जिसमें किसी भी व्यक्ति को ऐसा अधिकार शक्ति न प्राप्त हो जो हमारी संवैधानिक संस्थाओं को बर्बाद कर सके और हमारे आत्मसम्मान की कीमत पर कुछ भी कर सके ।
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