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आधुनिकता को विकृति का पर्याय न बनायें

Dr. Yogesh mishr
Published on: 30 Jan 1994 1:08 PM IST
आधुनिकता एक सापेक्ष स्थिति है, जो पूर्ण नहीं होती। स्थिर नहीं होती। स्थायित्व नहीं प्राप्त कर पाती है। इसके  मानक समसामयिकता और प्रयोगधर्मिता की कसौटी पर नियत किये जाते हैं। चंचलता आधुनिकता का चरित्र है। इसी चंचलता के  कारण हम ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ से ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ की ओर बढ़ रहे हैं। आधुनिक मानदणें में वीर वही है जो येन-के न-प्रकारेण ‘वसुंधरा’ का भोग कर सके । यहां साधन शुचिता की बात गौण हो गयी है। ‘शार्टकट’ एवं उपभोक्ता संस्कृति की यह आधुनिक उपलब्धि है।
नये वर्ष के  आरम्भ में ही स्त्रियों से सम्बन्धित दो ऐसे प्रकरण सामने आये जो स्त्रियों के  प्रति हमारी उपभोक्ता सोच एवं शारीरिक स्तर पर उनकी स्वीकृति के  पक्ष को उजागर करते हंै। पुरी के  शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में एक सार्वजनिक सभा में एक स्त्री को वेद पाठ करने से रोक दिया। वेदों के  पठन-पाठन से स्त्रियों और शूद्रों को वंचित करने के  पीछे एक श्रुतिवाक्य प्रयोग में लाया जाता है - ‘स्त्री शूद्रो नाधीयताम्’ जबकि यजुर्वेद के  26वें अध्याय के  दूसरे मंत्र पर गौर करने से यह बात गलत ठहरती है। क्योंकि इसमें उििखत है कि ‘यथेमा वाचं’ कल्याणी मावदानि जनेभ्यः, राजन्याभ्यां शूद्राय चर्चाय च स्वाय चारणाय।’ इसे ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में भी लिखा है कि ‘वेदों का पठन-पाठन चारों वर्णो के  पुरुष स्त्रियों के  लिए है।’
अथर्ववेद में भी इसका उदाहरण मिलता है - जैसे ब्रह्मचर्येणा कन्या युवानं विन्दते पतिम्।’ अर्थात्  कन्याओं के  लिए यह कहा गया है कि वे पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वैदिक वाडग्मय का अध्ययन कर पूर्ण युवा होने पर उपयुक्त पुरुष को प्राप्त होवें। यजुर्वेद में कहा गया है कि स्त्री वेदार्थ का उपदेश, उपदेशक बनकर करें। निरुक्त में भी स्त्रियों के  वैदिक विदुषी होने के  कई उदाहरण मिलते हैं। ग्वेद के  प्रथम मण्डल के  अनु. 23 सूक्त 179 की ऋषि लोपमुद्रा हैं। ऋग्वेद के  आठवें मंडल अनु. 9 सूक्त 91 की ऋषि अपाला है। ऋग्वेद के  6 अक आठ अध्याय 18 वर्ग मंत्र 1 से 14 तक की मंत्र दृष्टा समक्षीवान की कन्या घोषा हैं।
एक ओर हमारे वेदों में उपलब्ध कई प्रमाण हैं। दूसरी ओर हमारे शंकराचार्य किसी युवती को वेद पाठ से वंचित कर देते हैं? इसे शंकराचार्य का ओछा ज्ञान माना जाये या उनकी स्त्रियों के  प्रति कोई पूर्व की प्रतिबद्धता। इन दोनों ही स्थितियों में उन्हें शंकराचार्य बने रहने का अधिकार नहीं रह जाता है, परन्तु वे स्वयं को इस अधिकार के  अहं से वंचित रखने का साहस नहीं रखते हैं।
दूसरी घटना इलाहाबाद जिले के  घूरपुर थाना के  दोना गांव में घटी, जिसमें हरिजन महिला शिवपतिया के  चीरहरण का शर्मनाक कृत्य किया गया। शिवपतिया जमी-जमायी परम्परा एवं सामंतवादी मनोवृत्ति की शिकार हुई। जिसके  परिणामस्वरूप दोना गांव के  सामंती एवं बाहुबलियों ने इस हरिजन महिला को गांव में सरेआम निर्वस्त्र करके  घुमाया।
गत 22 जनवरी को यह घटना हुई परन्तु 24 जनवरी तक शहर एवं जिला प्रशासन बेखबर रहा। जिला प्रशासन ने शिवपतिया के  चीरहरण का मूल्य दस हजार रुपये देकर अपनी दक्षता का तो परिचय दिया ही साथ ही साथ कई साल पूर्व पट्टे पर दी गयी उसे पांच बीघा जमीन पर कब्जा दिलाने की शौर्य गाथा भी लिख ली। देश के  इस नपुंसक प्रशासन को यह सोचना और समना चाहिए कि दस हजार रुपये और दरोगा का निलम्बन शिवपतिया के  चीरहरण का मुआवजा नहीं हो सकता। हमारे संवेदनहीन प्रशासन के  लिए मौत एवं दुर्घटनाओं के  लिए कुछ रुपये मुआवजे में देने की जो फर्ज अदायगी वाली प्रक्रिया है, इससे ही क्या दायित्वों से निजात मिल जाता है ?
21वीं सदी में जाने वाले चन्द्रमा को विजित करके  विज्ञान के  माध्यम से प्रकृति को चुनौती देने वाले समाज के  किसी गांव में इतने नपंुसक और मादा लोग एक साथ जी रहे हों जो किसी निर्वस्त्र स्त्री को देखने के  बाद भी आंखों में दृष्टि का बोध करते हों, इससे घृणित और निन्दनीय कुछ भी नहीं हो सकता है। पुरुष प्रधान समाज में नारी अत्याचार की यह त्रासद पूर्ण घटना? इस तरह की घटनाओं में पुरुषत्व बोध कैसे होता है ? स्त्री हमेशा पुरुष प्रधान समाज का शिकार होती रही है। वर्ष 1991 में 1200 कुंवारी कन्याओं को देवदासी प्रथा का कानूनी प्रतिबन्ध के  बावजूद देवदासी बनाया गया। पहले सती के  गरिमा के  तहत अब दहेज के  प्रलोभन के  तहत मृत्यु के  वरण की विवशता में जीने को मजबूर किया गया।
आजादी के  बाद जवाहर लाल नेहरू ने महिला उत्थान के  लिए कारगर उपाय सुझाने के  लिए संस्थानम आयोग की नियुक्ति की। इसने यह सुझाया कि महिलाओं के  विकास के  लिए इन्हें अलग से एक कमजोर और पिछड़ा वर्ग मान लिया जाये तथा इन्हें आरक्षण की सुविधा प्रदान की जाये, लेकिन इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ, बल्कि जरूरत के  अनुसार स्त्री के  सन्दर्भ में हम कभी आधुनिकता बोधी हो जाते हैं और कभी पुरातनपंथी। स्त्री के  सम्बन्ध में हमारे मानदं सदैव दोहरे रहे हैं। दुश्मन के  चंगुल से लौटकर आने वाला गुलाम राज्याश्रयों में पुरस्कार का हकदार होता है परन्तु इस तरह लौटी स्त्री को अग्निपरीक्षा से गुजरना पता है। सारा समाज इसी सामंती अन्तर विरोध से भरा पड़ा है।
‘कंकाल’ उपन्यास में प्रसाद ने स्वीकार किया है कि ‘पुरुष-नारी को उतनी ही शिक्षा देता है, जितनी उसके  स्वार्थ में बाधक न हो।’ झगड़े की तीन जड़ के  रूप में जर, जमीन, जोरू को बताया गया है। इससे साफ होता है कि मूलतः ये तीनों ही सम्पत्ति हैं। स्त्री को सम्पत्ति के  रूप में स्वीकारने की मंशा के  पीछे महज पुरुष नहीं है इसके  पीछे हमारी आधुनिकता बोध सम्पन्न वे स्त्रियां भी हैं जो शरीर के  स्तर पर शरीर के  माध्यम से ऊंचा उठना चाहती हैं।
मेडोना को ही देखें इसकी एलबम ‘इरोटिका’ महज ‘पोनोग्राफी’ है। एमटीवी ने उसके  एलबम का प्रदर्शन रोक दिया। उसकी पुस्तक ‘सेक्स’ पाश्चात्य देशों में प्रतिबन्धित है। सामंथा फाक्स के  नग्न चित्र ‘पेज-थ्री’ सरीखी पत्रिकाओं के  प्रथम पृष्ट पर छपे। लोकप्रिय गायक पिं्रस के  गीतों में अश्लीलता की भरमार होती है। माइकल जैक्सन के  पाप गायन में स्त्रियोंचित हाव-भाव व उत्तेजनात्मक ‘सैक्स’ के  सिवाय क्या है ? बाबा सहगल, पूजा बेदी को ‘सेक्स विण्डो’ के  रूप में दर्शा रहा है। इतना ही नहीं, शेरेन प्रभाकर विचित्र तरह की खुली पोशाकों से लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाह रही है? ‘सैक्सी, सैक्सी’, व ‘चोली के  पीछे क्या है’ गाना गाने वाली महिलाओं को भी सोचना चाहिए। बेचकर या बिक कर नारी अस्मिता के  सामने वे जो आदर्श खड़ा करेंगी उससे उनका तो काम चल जाएगा क्योंकि उनमें रातो-रात किसी भी तरह लोकप्रिय हो जाने का जो भूत सवार है उसकी जरूरत हमारे यहां अभी आम महिला को नहीं है। यहां व्याकुल मानसिकता ने कभी भी इतिहास में नाम दर्ज नहीं कराया है।
पहले स्त्रियां समाज के  क्षेत्रों में पुरुषों के  बराबर नहीं रहीं। वे घर की चहारदीवारी में कैद रहती थीं इसलिए स्त्रियों के  बारे में कहने, सुनने, बाते करने, लिखने का अधिकार पुरुषों का ही था। तब पुरुषों पर स्त्रियों के  खिलाफ स्थापना में जुटे रहने का लगातार आरोप लगता था। अब जब स्त्रियों पर से लिखने, सुनने, बाते करने का पुरुषों का एकाधिकारिक वर्चस्व समाप्त हो गया है तब से यह बात सामने आने लगी निकल गयी कि स्त्री उपभोक्ता के  सिवाय कुछ नहीं रह गयी है। इधर फिल्मों में भी वे ही फिल्में बाक्स आफिस पर सफल हुई जिसमें किसी स्त्री ने लिबास विहीन होकर अपने खास अंगों का प्रदर्शन किया।
यानि आज भी निर्वस्त्र द्रोपदी पर ठहाके  लग रहे हैं। स्त्री को ‘आइडिया’ के  रूप में नहीं शरीर के  स्तर पर स्वीकारने एवं सम्पत्ति के  रूप में रखने सहित ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ के  तर्ज पर जीने का क्रम जारी है। यह हमारी संस्कृति के  हिसाब से अपराध है। वह चाहे सूजा जैसे कलाकार का किसी स्त्री के  सारे अंगों का चित्रण कला की आड़ में करना हो या शिवपतिया के  चिरहण की मंशा हो। पुरुष की इन सारी मानसिकता के  बाद भी हर पति को एक सावित्री की तलाश है। जो भूत पति को जिंदा करने के  लिए यमराज को विवश कर दे। इस तरह के  अन्तरविरोधों से भरे समाज ‘शार्टकट’/उपभोक्ता संस्कृति व सामन्ती मानसिकता को देखते हुए आधुनिकता के  बोध से मुक्त होना पड़ेगा क्योंकि आधुनिकता एक सापेक्ष स्थिति है। आज जो आधुनिक है वह कल पुरातन हो जाएगा। आधुनिकता में स्थिरता नहीं है। आधुनिकता में जो भी हम स्वीकार कर रहे हैं वह कहीं न कहीं अवश्य हमारे इतिहास में छवि दर्ज करता है। इसलिए हमें ऐसी संस्कृति स्वीकारने से बचना चाहिए जो समाज को विकृत करे।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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