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जाति तोड़ो, समाज जोड़ो

Dr. Yogesh mishr
Published on: 10 Feb 1994 1:11 PM IST
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने ‘जाति तोड़ो समाज जोड़ो’ अभियान की शुरूआत की है। इसके  लिए बसपा के  कार्यकर्ताओं ने प्रदेश के  परिवहन मंत्री आर.के . चैधरी के  नेतृत्व में साइकिल जलूस निकाला। बाद में जलूस को सम्बोधित करते हुए परिवहन मंत्री ने कहा कि ‘बाबा साहब के  निर्वाण दिवस पर बसपा के  राष्ट्रीय अध्यख कांशीराम ने दिल्ली से ‘जाति तोड़ो, समाज जोड़ो’ का नारा देकर पूरे भारत में इस आंदोलन की शुरूआत की है।’
वैसे तो बसपा की ओर से आरम्भ हुए इस आयोजन की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि सरकार में सपा के  साथ शिरकत करते ही बसपा में इस तरह के  सामाजिक बोध का जागृत हो जाना हमारे समाज के  लिए शुभ संके त है। बसपा का गठन 14 अप्रैल, 1984 को हुआ था इसके  आरम्भिक दिनों में बसपाई नेता/कार्यकर्ता जहां भी इकट्ठे होते थे वहां ब्राम्हणवादी व्यवस्था के  विरोध में स्वर गूंजते थे। बसपा के  कार्यकर्ताओं को नेताओं द्वारा यह समझाया जाता था कि तुम्हारे दलित होने के  पीछे अगर कोई एक मात्र कारण है तो वो हैं-अगड़ी जातियां। अगड़ी जातियांे के  कारण तुम्हारी वर्तमान स्थिति है। बसपा कार्यकर्ताओं को उनका नेतृत्व यह बताने की कोशिश नहीं करता था कि भारत में समाज विभाजन के  आरम्भिक समय में जन्मना की जगह कर्मणां जातियां निर्धारित की गयीं थी। बसपा के  आरम्भिक सम्मेलन में दलित एवं हरिजनों को एक मंच पर लाने के  लिए यहां तक नारे लगते थे ‘ब्राम्हण, ठाकुर, बनिया छोड़ बाकी सब है डी.एस.-4’। डी.एस.-4 दलित, शोषित, समाज संघर्ष समिति नामक एक संगठन है।
बसपा को राजनीतिक रूप में पहली सफलता 1987 में बिजनौर संसदीय क्षेत्र से मायावती को लोकसभा में भेजकर प्राप्त हुई। फिर 1989 में आजमगढ़ से बसपा ने लोकसभा की दूसरी सीट अर्जित की। कांशीराम जी पहली बार इलाहाबाद मध्यावधि चुनाव में बसपा प्रत्याशी के  रूप में चुनाव लड़े दूसरी बार पूर्वी दिल्ली से चुनाव लड़ने के  बाद भी उन्हें कोई राजनीतिक सफलता हासिल नहीं हुई, फिर इटावा से मुलायम सिंह यादव की मदद से लोकसभा में जाने का अवसर बसपा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष कांशीराम को मिला। बसपा के  राजनीतिक परिणति के  बाद भी मनु को ब्राम्हण मान कर उन्हें गाली देने के  बोध से बसपाई कभी मुक्त नहीं हो पाये। उन्हें नहीं पता कि मनु ब्राम्हण की जगह विश्वकर्मा भी हो सकते थे।
अगड़ों के  खिलाफ प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति ने हरिजनों को एक मंच पर खड़ा कर बसपा को राजनीतिक शक्ल दी। बसपा ने इनके  वोट बैंक को तितर-बितर होने से रोका और अपने राजनीतिक हितों के  लिए इनका प्रयोग किया।
एक ऐसे समय में जब सामाजिक संरचना आर्थिक रूप से पूरी तरह विभाजित हो गयी हो उस समय भी बसपाईयों का सामाजिक संरचना को मनुवादी स्वीकार करना न्याय संगत तो नहीं लगता है, परन्तु अपनी इसी दृष्टि बोध के  नाते बामसेफ ने दलित चेतना के  नाम पर अधिकारियों से चंदा लेने सहित इनके  मतों का स्वहितार्थ प्रयोग सम्भव हो सका। यह बात दूसरी है कि जो दलित अधिकारी चंदा देकर बामसेफ मजबूत बनाने में मदद करते हैं उनके  घर में दलित संकल्पना के  कोई चिन्ह नहीं मिलते। इतना ही नहीं देश की सुरक्षित सीटों से जीतकर लोकसभा/विधान सभा में पहुंचने वाले राजनीतिक दलों के  प्रत्याशी मूलतः दलितों के  प्रतिनिधि नहीं होते। आरक्षण की बैसाखाी पर चढ़कर सरकारी नौकरियों में प्रवेश पा लेने वाले अधिकारियों में भी दलित प्रतिनिधि बहुधा नहीं होते। इनमें सामाजिक सम्पन्नता जितनी होती है उसके  कई गुना विपरीत सामाजिक विपन्नता के  शिकार हमारे दलित प्रायः होते हैं।
महाराष्ट्र की सुरक्षित सीट से बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर जब अपना चुनाव हार गये तो उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को एक पत्र लिखा था, जिसमें लिखा था- ‘अपनी पराजय से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंच गया हूं कि देश का आम हरिजन अब अपने बारे में पूरी तरह से सोचने और समझने लगा है।’ आज उन्हीं बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर पर बसपा के  लोग उसी तरह अधिकार जताने की चेष्टा में संलग्न हैं जैसे अमरीका के  बीजों और औषधियों पर पेटेंट के  माध्यम से अपना ‘कापीराइट’ सिद्ध करने में जुटा है।
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर को अपनी निजी वस्तु बनाने में जुटे बसपाइयों ने ही महात्मा गांधी की समाधि पर तोड़-फोड़ और जूतमपैजार का खेल ख्ेाला था।
कांशीराम अपने बयानों में मूलतः प्रतिक्रियात्मक राजनीतिक के  जनक दिखते हैं परिणामतः बसपा एक राजनीतिक पार्टी कम अगड़ों के  खिलाफ प्रतिक्रियात्मक मंच के  रूप में ज्यादा प्रस्तुत हुई है। कांशीराम में प्रतिक्रिया इस कदर भरी है कि वो अपने साक्षात्कार में हमेशा एक पेन दिखाते हुए सामाजिक संरचना को उध्र्वाधर की जगह क्षैतिज बनाने की बात करते हैं। लगता है उन्हें पता नहीं है कि सामाजिक संरचना किन्हीं भी स्थितियों में क्षैतिज नहीं हो सकती है। ऐसा होना असम्भव है। हां, उध्र्वाधर सामाजिक संरचना के  शीर्ष पर योग्यता होगी या जातियां इसे वो या उन सरीखा किसी और जाति के  जातियता बोध से ग्रस्त राजनेता जरूर तय कर सकता है। सपा-बसपा के  सरकार में आने के  बाद से पूरे प्रदेश में अब दलित महिलाओं एवं लोगों का उत्पीड़न तेजी से बढ़ा है। 13 दिसम्बर को बाराबंकी के  बिल्लौली गांव में, 23 दिसम्बर को कजरनखेड़ा में, 2 जनवरी को हमीरपुर के  अस्तौना गांव में, 26 जनवरी जनवरी को बस्ती नगर थाना अन्तर्गत सराय गांव में हरिजन महिलाओं के  उत्पीड़न की घटनाएं हुईं। अस्तौना गांव की मानवती के  साथ बसपा विधायक के  घर में जो कुछ हुआ, इस पूरे प्रकरण को भाजपा के  पूर्व विधायक बनाम बसपा विधायक के  बीच शत्रुता का ममला बनाकर पेश किया जाने लगा है। इस प्रसंग में प्रदेश सरकार के  एक महत्वपूर्ण अधिकारी की तरफ से यह बयान भी आया कि मानवतीे के  साथ कोई दुष्कर्म नहीं हुआ है। भाजपाई मानवती प्रसंग को अपना हथियार बना रहे हैं, ऐसा बसपा नेताओं का मानना है।
वाराणसी में प्रदेश के  स्वास्थ्य राज्यमंत्री दीनानाथ भाष्कर के  सहयोगी राम अवतार पासवान की हत्या के  बाद स्वास्थ्य मंत्री की ओर से दिये गये बयान के  परिणामस्वरूप तीन लोगों की नृशंस हत्या हुई तथा पूरे जिले में व्यापक हिंसा, तोड़-फोड़ और छात्र आन्दोलन भड़क उठा। वैसे मुलायम सिंह ने इस घटना के  न्यायिक जांच के  आदेश दे दिये हैं, लेकिन अन्य राजनीतिक दलों का मानना है कि प्रदेश सरकार दबाव के  कारण निष्पक्षता नहीं बरत पा रही है।
इन घटनाओं को देखा जाय तो स्पष्ट होता है कि उत्तर प्रदेश में हरिजनों के  आक्रमण में नयी तेजी आयी है और ये आक्रमण दलितों और पिछड़ी जातियों के  मध्य बढ़ रहा है। इन घटनाओं से एक बात तो साफ होती है कि दलित उत्पीड़न किसी जाति विशेष के  खाते में नहीं लिखा जाना चाहिए, वरन् उत्पीड़न सबल और निर्बल के  मध्य हमेशा हुआ है लेकिन इसके  लिए सवर्ण अधिकारी की जगह हरिजन अधिकारी बैठा दिये जाने से समस्या का निदान नहीं हो जाता है, क्योंकि दौना काण्ड के  समय इलाहाबाद अंचल के  तीन मुख्य अधिकारी हरिजन ही थे।
उत्तर प्रदेश में बसपा-सपा सरकार के  गठित होने के  बाद 11 दिसम्बर को दिल्ली में प्रेस क्लब आॅफ इंडिया के  तत्वावधान में पत्रकार वार्ता में कांशीराम ने कहा था कि ‘वे दलितों पर अन्याय के  पक्षधर हैं।’ इस बयान का अर्थ जुटाया जाए तो यही अर्थ हाथ लगता है कि कांशीराम बसपा के  बने रहने व बढ़ने के  लिए दलितों पर अनयाय को आवश्यक मानते हैं, जिससे उन्हें राजनीतिक लाभ प्राप्त होता रहे। क्या यही बसपा का सामाजिक दर्शन है?
एक ऐसी मानसिकता राजनीति जो एक और अगड़ों का विरोध करे, लोगों को इकट्ठा करे, फिर एकत्रित लोगों पर अनयाय की अपेक्षा करके  उन्हें शरणागत बनाये रखना चाहती हो, उससे ‘जाति तोड़ो समाज जोड़ो’ का नारा एकदम बेमानी और किसी कूटनीतिक चाल की शुरूआत लगता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में इस अभियान की बागडोर प्रदेश के  परिवहन मंत्री आरके  चैधरी के  हाथों में होने से यह संशय कुछ गहराता हुआ नहीं दिखता है, क्योंकि परिवहन मंत्री ने पिछले दिनों अपने कार्यकाल में जन सामान्य के  लिए तमाम कार्य करके  जनता की सहानुभूति जुटायी है।
अंग्रेजों ने राज करने के  लिए एक फार्मूला बनाया था-‘बांटो और राज करो।’ लगता है उसी तर्ज पर हमारी राजनीति में एक नया राजनीतिक सूत्र तैयार किया गया है- ‘जुटाओ, डराओ फिर शरणागत करके  वोट बंैक बनाओ।’
वैसे जो भी हो जब तक कांशीराम अपनी प्रतिक्रियात्मक बयान वाली छवि धुलने में पूरी तरह कामयाब नहीं हो जाते तब तक वो चाहे जो भी करें उसे बसपाई मतदाताओं को छोड़कर कोई भी नहीं स्वीकारेगा, नहीं मानेगा। भले ही ‘जाति तोड़ो समाज जोड़ो’ के  सौ दिवसीय आंदोलन के  तहत कारगिल (लद्दाख) से कन्याकुमारी तक, पोरबंदर (गुजरात) से कोहिमा (नागालैंड) तक चाहें कितनी भी जनसभाएं कर ली जाएं या रैलियां निकाल ली जाएं।


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Dr. Yogesh mishr

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