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नकल: प्रशासनिक स्तर से निजात संभव नहीं

Dr. Yogesh mishr
Published on: 20 Feb 1994 1:18 PM IST
मुलायम सिंह ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में जो वायदे किये थे उसमें नकल अध्यादेश की समाप्ति एक महत्वपूर्ण घोषणा थी। उन्होंने शपथ ग्रहण करने के  एक घण्टे के  अन्दर ही नकल अध्यादेश समाप्त करने का अपना वायदा जिस तेजी से पूरा कर दिखाया उससे नकल अध्यादेश एवं नकल के  प्रति उनका दृष्टिकोण उभरा वह छात्रों के  वर्तमान के  लिए भले ही प्रशंसनीय हो, स्वीकृत हों परन्तु छात्रों के  भविष्य एवं अभिभावकों के  लिए यह एक दुःखद बात है।
भाजपा सरकार ने 1992 में एक अध्यादेश जारी करके  पूरे राज्य में नकल पर प्रतिबंध लगाया। इस अध्यादेश के  तहत नकलची छात्रों को अपराधी मानकर जेल भेज दिया गया। जेल में ये आम कैदियों के  साथ रहे। इससे अभिभावकों के  मन में नकल के  प्रति दुराग्रह बढ़ने की जगह छात्रों के  साथ कैदियों सरीखा व्यवहार होने के  कारण भाजपा के  प्रति आक्रोश उपजा। इसी आक्रोश का लाभ उठाते हुए सपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में नकल अध्यादेश समाप्त करने की बात कही। वैसे तो सपा-बसपा गठबंधन के  सत्ता में आने के  पीछे कारण मात्र जातियों का ठीक से धु्रवीकरण ही है परन्तु पूर्व भाजपा सरकार ने मुलायम सिंह यादव की ताजपोशी में नकल अध्यादेश को भी एक महत्वपूर्ण कारण स्वीकार किया है।
मुलायम सिंह ने नकल अध्यादेश की समाप्ति का जब उद्घोष किया तो छात्रों को लगा कि उन्हें परीक्षा में नकल करने की जैसे छूट मिल गयी है।
छात्रों को इस सोच के  आधार पर अभिभावकों में एक आम प्रतिक्रिया हुई। अभिभावक नकल को रोकने के  पक्ष में तो थे परन्तु वे छात्रों के  साथ अपराधियों जैसे व्यवहार को स्वीकृति देने के  पक्ष में नहीं थे।
सपा सरकार ने नकल पर नियंत्रण के  लिए लखनऊ विश्वविद्यालय के  पूर्व कुलपति डा0 हरिकृष्ण अवस्थी के  नेतृत्व में एक कमेटी गठित की जिससे नकल पर नियंत्रण करने के  सद्भावपूर्ण, सर्वमान्य तरीके  पता चल सकें। इस समिति ने माध्यमिक शिक्षा परिषद की परीक्षाओं को ध्यान में रखते हुए अपनी पहली अंतरिम रिपोर्ट दी है। आठ पृष्ठीय इस रिपोर्ट में 20 सूत्रीय फार्मूला पेश किया गया है।
इस समिति ने नकल के  लिए के न्द्र व्यवस्थापक व कक्ष निरीक्षक को दोषी ठहराया है। परीक्षा के न्द्रों पर वाह्य व्यक्तियों का प्रवेश रोकने, परीक्षार्थियों की तलाशी लेने, 50 प्रतिशत कक्ष निरीक्षक बाहर रखने तथा सामूहिक नकल की सूचना मिलने पर प्रश्न पत्र बदल दिये जाने की सिफारिश की है। समिति ने परीक्षा के न्द्रों को सेक्टर में बांटकर सेक्टर मजिस्ट्रेट नियुक्त करने, जिलाधिकारी की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा संवेदनशील परीक्षा के न्द्रों की पहचान करने तथा नकल के  लिए बदनाम परीक्षा के न्द्रों पर प्रधानाचार्य की जगह वाह्य के न्द्र व्यवस्थापक नियुक्त करने की सिफारिश की है। समिति ने शिक्षकों में अस्मिता एवं कर्तव्यबोध जागृत करने का सुझाव दिया है। इस पूरी रिपोर्ट में कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया गया है कि नकल करते छात्रों के  साथ क्या व्यवहार किया जाएगा? शिक्षकों की सुरक्षा व्यवस्था की क्या व्यवस्था होगी?
अवस्थी समिति ने नकल रोकने के  लिए जो भी सुझाव दिये हें उसमें ठोस धरातल पर कोई कार्य सम्पन्न हुआ नहीं दिखेगा। वैसे इस समिति ने परीक्षा के न्द्रों को सेक्टरों में बांटने की जो व्यवस्था की है उससे परीक्षा का पूरा का पूरा दृश्य एकदम दंगे जैसा हो जाएगा। डा0 अवस्थी जिस विश्वविद्यालय के  कुलपति रहे हैं उसमें 1975 से लगातार पी.ए.सी. की उपस्थिति बनी है और इसी के  तहत विश्वविद्यालय को शांतिपूर्ण ढंग से चला लेने का दावा सभी कुलपतियों का पूरा खोखला साबित हुआ है।
अवस्थी समिति ने शिक्षकों में जिस कर्तव्यबोध के  जागृत होने की बात कही है वह एक ऐसी आदर्श स्थिति है जिसके  बाद नकल ही नहीं समाज की सभी बुराइयों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। कर्तव्यबोध की प्रेरणा देने वाले समिति के  अध्यक्ष स्वयं भी एक श्रेष्ठ कुलपति, लब्ध प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञ एवं सफल अध्यापक होने के  दंभ में जीने को विवश हैं। वैसे जब कर्तव्यबोध की बात उठती है तो एक बात बिल्कुल साफ होनी चाहिए कि कोई भी अध्यापक अगर राजनीतिक कर्मक्षेत्र में उतरता है तो निश्चित ही वह अपने अध्यापक के  कर्तव्यबोध से विमुख हो रहा है परन्तु हमारी शिक्षा व्यवस्था में ऐसे कर्तव्यच्युत लोगों ने कभी भी अपनी कर्तव्यहीनता के  बोध को स्वीकार नहीं किया है।
अवस्थी कमेटी की पहली आंतरिक रिपोर्ट नकल रोकने के  लिए भय के  वातावरण एवं बल प्रयोग की मानसिकता से ऊपर नहीं उठ पायी है। परीक्षा के न्द्रों को सेक्टरों में बांटना, संवेदनशील परीक्षा के न्द्र ऐसी ही मानसिकता के  उदाहरण हैं।
सामूहिक नकल रोकने के  नाम पर जो मानदण्ड बनाये गये हैं उससे समूह के  पुराने बोध के  सारे प्रतिमान तोड़ने पड़ेंगे। किसी कमरे में पांच नकल करते छात्र या 10 पर्चियां मिलने पर उसे सामूहिक नकल मानने की बात रिपोर्ट में है जबकि कक्ष के  आकार, प्रकार एवं उपस्थित छात्रों की संख्या की ओर कोई संके त नहीं किया गया है।
अवस्थी समिति ने यों तो यह कहकर कि ‘अभी यह पहली रिपोर्ट है। दूसरी और तीसरी रिपोर्ट भी आयेगी, जिसमें 31 जुलाई को अन्तिम रिपोर्ट आयेगी।’ अपने लिए बचाव पक्ष भले ही तैयार कर लिया है परन्तु इससे यह कमेटी नकल रोकने के  लिए किसी सार्थक, शैक्षणिक व बौद्धिक सुझाव देने की असफलता से बच नहीं सकती है।
एक ओर देश का प्रधानमंत्री सार्थक शिक्षा के  नाम पर सदी के  अंत में ‘सभी के  लिए शिक्षा’ जैसे विषय पर मुख्यमंत्रियों से आम सहमति लेता है और यह घोषित करके  कि नवीं योजना में सफल राष्ट्रीय उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा पर व्यय होगा, कहकर अपनी उपलब्धि पर इतराता है, परन्तु वह यह भूल जाता है कि 1968, 1986, 1992 की नीतियों में भी शिक्षा पर छह प्रतिशत वार्षिक खर्च का प्रावधान मात्र 3.7 प्रतिशत ही हो पाया है।
वैसे भी शिक्षा पर बजट बढ़ाने की प्रधानमंत्री की बात उनके  किसी देश हित की सोच का परिणाम नहीं है वरन् अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष एवं विश्वबैंक की उस नीति की परिणति है जिसके  तहत इन अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे मदों पर खर्च की सीमा बढ़ाने का निर्देश सभी देशों को दिया है। जिस देश का प्रधानमंत्री पुरानी घोषणाओं को पूरा न कर पाने के  अपराधबोध से ग्रसित होने की जगह छह प्रतिशत वार्षिक व्यय करने के  अहंबोध से इतरा रहा हो, उस देश में शिक्षा के  प्रति लोगों का कितना रूझान है यह साफ होता जा रहा है।
भाजपा सरकार ने जहां विद्यार्थियों को नकल का दोषी एकमात्र कारण दोषी था वहीं अवस्थी समिति ने नकल के  लिए के न्द्र व्यवस्थापक व कक्ष निरीक्षक पर दोष मढ़कर उसी मानसिकता की पुनरावृत्ति की है। मुलायम सिंह के  सत्ता में आते ही उनके  एक कबीना मंत्री ने कहा था कि अब नकल के  लिए अध्यापकों को जेल जाना पड़ेगा। पूरी की पूरी अवस्थी समिति की रिपोर्ट इस मानसिकता से प्रभावित है, क्योंकि अध्यापकों को ही कर्तव्यबोध, अस्मिता की बार-बार याद दिलायी गयी है। अभिभावकों एवं छात्रों को इस नैतिकबोध के लिए कुछ नहीं कहा गया है। एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था में जहां लगातार प्रयोग के  लिए सारी जिम्मेदारियां उन्हें दे दी गयी हैं जो वायु शीत तापित कमरों में बैठकर गांव के  किसान और उनके  बच्चों के  लिए नीति निर्माता हैं, जो संस्कृति के  बिस्तर पर बेड टी की आशा में पड़े रहते हैं। भोर का पहाड़ा पढ़ाने की जिम्मेदारी भी उन्हीं के  पास है। सपुस्तकीय परीक्षा को ‘आइडिया फ्लोर’ कहते हैं। पूरे वर्ष भर की पढ़ाई के  मूल्यांकन के  लिए महज तीन घण्टे चाहिए ऐसा मानने वाले लोगों से शिक्षा में सुधार या नकल अध्यादेश की समाप्ति के  लिए कुछ सार्थक करने की आशा नहीं करनी चाहिए। शिक्षक संगठनों को सर्वप्रथम स्वयं के  लिए आचार संहिता बनानी चाहिए, जिसका पालन करना प्रत्येक शिक्षक आवश्यक हो, इसे तोड़ने वाला दण्डनीय हो। छात्रों को परीक्षा में इतना समय न दिया जाये कि उन्हें इधर-उधर ध्यान देने का समय मिले। छात्रों की प्रतिभा, दक्षता एवं कार्य का मूल्यांकन छोटे-छोटे अंतरालों पर हो। एक वर्ष में 10 सवाल वाली परीक्षा प्रणाली अस्वीकृत की जाये क्योंकि इसमें स्वयं ही नकल के  बहुआयामी अवसर सुलभ हैं। अवस्थी कमेटी जिस नकल की बात करती है वह नकल मात्र परीक्षा के न्द्रों तक ही सीमित है जबकि नकल में परीक्षा के  प्रश्न मालूम करने, कापी पता लगाने, नम्बर बढ़ाने सहित तमाम दोष शामिल हैं। इसे रोकने के  लिए निश्चित तौर पर शिक्षा, परीक्षा दोनों में आमूल-चूल परिवर्तन करने की संस्तुति जरूरी है क्योंकि इसके  बिना नकल समाप्ति के  लिए कोई कारगर उपाय ढूंढ पाना सम्भव नहीं होगा। दूसरे अगर किसी तरह नियंत्रण हो भी गया तो वह अस्थायी होगा और ऐसे नियंत्रण में पूरी की पूरी स्थिति ‘अंधेर नगरी चैपट राजा’ जैसी होगी जिसमें कल्लू बनिया की दीवार गिरने से जो बकरी मर गयी थी उसमें राजा दीवार को पकड़वाने का आदेश देता रहेगा। उस दीवार का निर्माता चैपट राजा को कभी अध्यापक और कभी छात्र नजर आएगा।


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Dr. Yogesh mishr

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