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‘कहानी’ का प्रकाशन: एक साहित्यिक परम्परा की शुरूआत
भारतीय कथा साहित्य की एक पत्रिका ‘कहानी’ जो आज से 57 वर्ष पूर्व धनपत राय यानी मुंशी प्रेमचंद के संपादन में निकलती थी। उसी पत्रिका का प्रकाशन उसके बंद होने के डेढ़ दशक बाद पुनः शुरू हो रहा है। कहानी का विमोचन छह मार्च को मानव संसाधन मंत्री करेंगे। कहानी पत्रिका ने हिंदी के तमाम कहानीकार यथा अमरकान्त विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, मार्कण्डेय शेखर जोशी, कमलेश्वर, सानी, ममता कालिया, शैलेश मटियानी, रमेन्द्र शाह, मृदुला गर्ग जैसे हस्ताक्षर दिये हैं। कहानी ने कई पीढ़ियों के कहानीकार तैयार किये हैं। इसकी शुरूआत 1937 में हुई थी। परंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1939 में कागज के अकाल के कारण यह पत्रिका बंद हो गयी। फिर एकाध वर्ष बंद रहने के बाद इसके प्रकाशन की व्यवस्था कर ली गयी। कहानी ने कहानी साहित्य में वही प्रतिष्ठा पायी थी, जो अज्ञेय के तार सप्तक को मिली थी। इसमें कहानी छप जाने पर लेखक रातों रात चर्चित हो जाता था।
कहानी का प्रकाशन शुरू होना हमारे यहां खबरों में कोई स्थान नहीं बना पाया। क्योंकि 16 फरवरी से बम्बई, नई दिल्ली और लंदन से एक साथ प्रकाशित होने वाला ‘द एशियन एज’ बाजार में आ गया है। कहानी ऐसे समय जब बाजार में आयी है, जब बाजार साहित्य की ‘हंस’ को छोड़कर कोई ऐसी पत्रिका नहीं है, जिससे साहित्य समाज का दर्पण होता है, सरीखा कोई अभिप्राय जुटाया जा सके । हंस ने भी अपने को बिकाऊ उत्पाद की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। हंस ने साहित्य के नाम पर जिस तरह की सामग्री परोसी है। उससे प्रेमचंद की परम्परा तो जरूरी टूटी। प्रेमचंद के मानस का हंस मोती चुगने से वंचित जरूर रह गया। फिर भी हंस के प्रकाशन को सुचारू रूप से जारी रखना एक उपलब्धि तो है ही।
किसी पत्रिका के शुरू होने और बंद होने को कैसे लिखा जाय, यह उससे जुड़े हुए लोगों के लिए अलग-अलग महत्व की बात है। परंतु समकालीन संदर्भों में जब विदेशी मीडिया का हम पर लगातार आक्रमणहो रहा है और पत्रकारिता में पूंजी की अंर्तसंबंध कायम होते जा रहा है तथा पत्रकारों साहित्यकारों के सामाजिक सरोकार भी प्रभावित होते जा रहे हैं।
भारत में पत्रकारिता जातिगत श्रेष्ठता के सामंती मूल्यों के निर्वाह से दूर रही है। अभी तक पत्रकारिता का राजनीतिकरण के कारण जो भी विरोध हुआ है, वह दिशाहीन विरोध ही कहा जाएगा। लेकिन पूंजी से पत्रकारिता के संबंधों में काफी तब्दीलियां की हैं। पत्रकारिता उस पूंजीवादी तंत्र की देन होती जा रही है, जिसमें मुनाफा कमाने के लिए सच्चाई की जगह स्वाद परोसा जा रहा है। चटखारेदार खबरें पत्रकारों की अभीष्ट होती जा रही हैं। सच अजीर्ण होता जा रहा है। हिंदी के स्वनामधन्य सम्पादकों में भी अंग्रेजी का बोध इतना गहराता जा रहा है कि वे अंग्रेजियत के लबादे से प्रभावित दिखने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। एक बार हिंदी अखबार के लिए पत्रकारों का साक्षात्कार चल रहा था। सम्पादक महोदय सभी प्रत्याशियांे से एक ही सवाल पूछ रहे थे। लेटेन्ट हीट किसे कहते हैं ? सम्पादक महोदय को यह तो मालूम ही रहा होगा कि लेटेन्ट हीट जैसे विषयों की निर्धारित एवं निश्चित परिभाषाएं इनसाइक्लोपीडिया में ही दी गयी रहती हैं। उन्हें अभ्यर्थियों से पूछना चाहिए था कि आपकी सामाजिक दृष्टि क्या है? सामाजिक बोध क्या है? यह चीजें किसी पत्रकार/लेखक से जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि साहित्य के लिए पत्रकारिता के लिए सामाजिक दृष्टि, सामाजिक बोध ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।
लेटेन्ट हीट पूछने वाली मंशा का ही परिणाम है कि कहानी का प्रकाशन कोई खास चर्चा का रूप धारण नहीं कर पाया और द एशियन एज पर लंबे-लंबे विवाद, गोष्ठियां व चर्चाएं हो रही हैं।
संचार माध्यम आज समाजार्थिक जीवन को प्रभावित करने वाली निर्णायक शक्ति के रूप में उभर रहा है। यूनेस्कों के पूर्व महासचिव अमादोऊ महतार एम.बोव ने कहा था कि सत्ता पर अक्सर उन्हीं का नियंत्रण होता है, जिसके हाथों में जनसंचार माध्यमों की कुंजी होती है। इस तरह अब संचार माध्यम लेखकीय सर्जना सामाजिक जिम्मेदारी की भावना, पत्रकारिता संबंधी नैतिकता, सृजनात्मक चिंता और विचार, संचार माध्यम कर्मियों, पत्रकारों के हाथों से निकलते जा रहे हैं। यही कारण है कि पहल सांचा कलम, वर्तमान साहित्य जैसी पत्रिकाएं प्रचार-प्रसार के लिहाज से तीसरे-चैथे दर्जे की पत्रिकाएं हो गयी हैं।
एक ऐसे समय में जब हमारे मीडिया पर सूचना साम्राज्यवादियों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है, तब हमें चिंता जाहिर करनी चाहिए कि आखिर इनसे हम कैसे निजात पा सकें। कैसे इनकी मानसिकता एवं इनके द्वारा हमारे देश में फैलायी जा रही अपसंस्कृति से मुकाबला किया जा सकता है। कैसे हमारी सत्ता पर काबिज होने के सूचना साम्राज्यवादियों के हौसले पस्त किये जा सकते हैं। वह भी ऐसे समय जब हमारे पास कोई प्रेमचंद नहीं है। पराणकार नहीं है। तिलक नहीं है।
हमारे यहां साहित्य को हमेशा समाज का दर्पण माना गया है। श्रेष्ठ साहित्य हमारे उस समाज का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें हम रहते हैं। हमारे इतिहास को स्वर्णयुग के नाम से जाना और लिखा गया। विदेशी मीडिया हमारे इसी इतिहास एवं समाज पर आघात करने के लिए हमारे यहां पदार्पण कर रहे हैं। उन्हें रोकना होगा। मीडिया साम्राज्य मर्डोक हमारे यहां कुछ दिनों पहले ही आए थे। उन्होंने अपने बयान में कहा था कि मैं अपने बच्चों को एमटीवी नहीं देखने देता। क्योंकि एमटीवी को वे अश्लीलता का माध्यम मानते हैं और यही मर्डोक भारत में पांच सौ रूपये में विष बेंचने की योजना फ्लोट करने वाले हैं, जिसे हमारे आपके घर का बच्चा अपनी पाॅकिट मनी से खरीदकर दुनिया के सारे दूरदर्शनांे के चैनल देख सके गा।
एक ओर जब हमारी पीढ़िया स्वीडी था एमटीवी देखती रहेगी तब मर्डोक सरीखे लोग अपनी पीढ़ियों, अपने देश और अपने समाज को इससे वंचित रखेंगे। इस दोहरी मानसिकता के सामने हमारी कहानी जैसी पत्रिका की शुरूआत साहित्य के लिए ही नहीं समाज के लिए भी एक शुभ संके त है। क्योंकि साहित्य का संवेदना से सीधा रिश्ता है और श्रेष्ठ संवेदनाएं ही अच्छा साहित्य और अच्छा साहित्य ही अच्छे समाज का निर्माण कर पाता है। भारतीय संस्कृति परम्पराओं से युक्त समाज के निर्माण के लिए कहानी पत्रिका साहित्य से समाज का अंर्तसंबंध कायम करते हुए सामाजिक व्यवस्था को सुपथगामी बनाएगी। जिससे लेखकों, पत्रकारों के सामाजिक दायित्व, मौजूदा भूमिका, सामाजिक हितों के संवर्धन के लिए होंगे। सामाजिक दायित्व एवं विश्वास की हत्या नहीं होगी। सामाजिक सरोकारों से मुंह मोड़कर यूटोपियन सिद्धांत के तहत हमारा लेखक प्रतिबद्ध नहीं होगा। क्योंकि उसे लेखकीय सम्मान की महत्ता का अनुमान है तथा वह भारत की सम्पन्न सांस्कृतिक परम्परा को स्वीकार कर उसके इतिहास से स्वयं को जोड़ने के लिए जी तोड़ कोशिश करता रहेगा।
अस्तु कहानी का प्रकाशन हमारे लिए, हमारे पाठकों के लिए और हमारे लेखकों के लिए एक गरिमा का विषय है।
कहानी का प्रकाशन शुरू होना हमारे यहां खबरों में कोई स्थान नहीं बना पाया। क्योंकि 16 फरवरी से बम्बई, नई दिल्ली और लंदन से एक साथ प्रकाशित होने वाला ‘द एशियन एज’ बाजार में आ गया है। कहानी ऐसे समय जब बाजार में आयी है, जब बाजार साहित्य की ‘हंस’ को छोड़कर कोई ऐसी पत्रिका नहीं है, जिससे साहित्य समाज का दर्पण होता है, सरीखा कोई अभिप्राय जुटाया जा सके । हंस ने भी अपने को बिकाऊ उत्पाद की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। हंस ने साहित्य के नाम पर जिस तरह की सामग्री परोसी है। उससे प्रेमचंद की परम्परा तो जरूरी टूटी। प्रेमचंद के मानस का हंस मोती चुगने से वंचित जरूर रह गया। फिर भी हंस के प्रकाशन को सुचारू रूप से जारी रखना एक उपलब्धि तो है ही।
किसी पत्रिका के शुरू होने और बंद होने को कैसे लिखा जाय, यह उससे जुड़े हुए लोगों के लिए अलग-अलग महत्व की बात है। परंतु समकालीन संदर्भों में जब विदेशी मीडिया का हम पर लगातार आक्रमणहो रहा है और पत्रकारिता में पूंजी की अंर्तसंबंध कायम होते जा रहा है तथा पत्रकारों साहित्यकारों के सामाजिक सरोकार भी प्रभावित होते जा रहे हैं।
भारत में पत्रकारिता जातिगत श्रेष्ठता के सामंती मूल्यों के निर्वाह से दूर रही है। अभी तक पत्रकारिता का राजनीतिकरण के कारण जो भी विरोध हुआ है, वह दिशाहीन विरोध ही कहा जाएगा। लेकिन पूंजी से पत्रकारिता के संबंधों में काफी तब्दीलियां की हैं। पत्रकारिता उस पूंजीवादी तंत्र की देन होती जा रही है, जिसमें मुनाफा कमाने के लिए सच्चाई की जगह स्वाद परोसा जा रहा है। चटखारेदार खबरें पत्रकारों की अभीष्ट होती जा रही हैं। सच अजीर्ण होता जा रहा है। हिंदी के स्वनामधन्य सम्पादकों में भी अंग्रेजी का बोध इतना गहराता जा रहा है कि वे अंग्रेजियत के लबादे से प्रभावित दिखने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। एक बार हिंदी अखबार के लिए पत्रकारों का साक्षात्कार चल रहा था। सम्पादक महोदय सभी प्रत्याशियांे से एक ही सवाल पूछ रहे थे। लेटेन्ट हीट किसे कहते हैं ? सम्पादक महोदय को यह तो मालूम ही रहा होगा कि लेटेन्ट हीट जैसे विषयों की निर्धारित एवं निश्चित परिभाषाएं इनसाइक्लोपीडिया में ही दी गयी रहती हैं। उन्हें अभ्यर्थियों से पूछना चाहिए था कि आपकी सामाजिक दृष्टि क्या है? सामाजिक बोध क्या है? यह चीजें किसी पत्रकार/लेखक से जानना इसलिए जरूरी है क्योंकि साहित्य के लिए पत्रकारिता के लिए सामाजिक दृष्टि, सामाजिक बोध ज्यादा महत्वपूर्ण होता है।
लेटेन्ट हीट पूछने वाली मंशा का ही परिणाम है कि कहानी का प्रकाशन कोई खास चर्चा का रूप धारण नहीं कर पाया और द एशियन एज पर लंबे-लंबे विवाद, गोष्ठियां व चर्चाएं हो रही हैं।
संचार माध्यम आज समाजार्थिक जीवन को प्रभावित करने वाली निर्णायक शक्ति के रूप में उभर रहा है। यूनेस्कों के पूर्व महासचिव अमादोऊ महतार एम.बोव ने कहा था कि सत्ता पर अक्सर उन्हीं का नियंत्रण होता है, जिसके हाथों में जनसंचार माध्यमों की कुंजी होती है। इस तरह अब संचार माध्यम लेखकीय सर्जना सामाजिक जिम्मेदारी की भावना, पत्रकारिता संबंधी नैतिकता, सृजनात्मक चिंता और विचार, संचार माध्यम कर्मियों, पत्रकारों के हाथों से निकलते जा रहे हैं। यही कारण है कि पहल सांचा कलम, वर्तमान साहित्य जैसी पत्रिकाएं प्रचार-प्रसार के लिहाज से तीसरे-चैथे दर्जे की पत्रिकाएं हो गयी हैं।
एक ऐसे समय में जब हमारे मीडिया पर सूचना साम्राज्यवादियों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है, तब हमें चिंता जाहिर करनी चाहिए कि आखिर इनसे हम कैसे निजात पा सकें। कैसे इनकी मानसिकता एवं इनके द्वारा हमारे देश में फैलायी जा रही अपसंस्कृति से मुकाबला किया जा सकता है। कैसे हमारी सत्ता पर काबिज होने के सूचना साम्राज्यवादियों के हौसले पस्त किये जा सकते हैं। वह भी ऐसे समय जब हमारे पास कोई प्रेमचंद नहीं है। पराणकार नहीं है। तिलक नहीं है।
हमारे यहां साहित्य को हमेशा समाज का दर्पण माना गया है। श्रेष्ठ साहित्य हमारे उस समाज का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें हम रहते हैं। हमारे इतिहास को स्वर्णयुग के नाम से जाना और लिखा गया। विदेशी मीडिया हमारे इसी इतिहास एवं समाज पर आघात करने के लिए हमारे यहां पदार्पण कर रहे हैं। उन्हें रोकना होगा। मीडिया साम्राज्य मर्डोक हमारे यहां कुछ दिनों पहले ही आए थे। उन्होंने अपने बयान में कहा था कि मैं अपने बच्चों को एमटीवी नहीं देखने देता। क्योंकि एमटीवी को वे अश्लीलता का माध्यम मानते हैं और यही मर्डोक भारत में पांच सौ रूपये में विष बेंचने की योजना फ्लोट करने वाले हैं, जिसे हमारे आपके घर का बच्चा अपनी पाॅकिट मनी से खरीदकर दुनिया के सारे दूरदर्शनांे के चैनल देख सके गा।
एक ओर जब हमारी पीढ़िया स्वीडी था एमटीवी देखती रहेगी तब मर्डोक सरीखे लोग अपनी पीढ़ियों, अपने देश और अपने समाज को इससे वंचित रखेंगे। इस दोहरी मानसिकता के सामने हमारी कहानी जैसी पत्रिका की शुरूआत साहित्य के लिए ही नहीं समाज के लिए भी एक शुभ संके त है। क्योंकि साहित्य का संवेदना से सीधा रिश्ता है और श्रेष्ठ संवेदनाएं ही अच्छा साहित्य और अच्छा साहित्य ही अच्छे समाज का निर्माण कर पाता है। भारतीय संस्कृति परम्पराओं से युक्त समाज के निर्माण के लिए कहानी पत्रिका साहित्य से समाज का अंर्तसंबंध कायम करते हुए सामाजिक व्यवस्था को सुपथगामी बनाएगी। जिससे लेखकों, पत्रकारों के सामाजिक दायित्व, मौजूदा भूमिका, सामाजिक हितों के संवर्धन के लिए होंगे। सामाजिक दायित्व एवं विश्वास की हत्या नहीं होगी। सामाजिक सरोकारों से मुंह मोड़कर यूटोपियन सिद्धांत के तहत हमारा लेखक प्रतिबद्ध नहीं होगा। क्योंकि उसे लेखकीय सम्मान की महत्ता का अनुमान है तथा वह भारत की सम्पन्न सांस्कृतिक परम्परा को स्वीकार कर उसके इतिहास से स्वयं को जोड़ने के लिए जी तोड़ कोशिश करता रहेगा।
अस्तु कहानी का प्रकाशन हमारे लिए, हमारे पाठकों के लिए और हमारे लेखकों के लिए एक गरिमा का विषय है।
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