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गांधीवाद की हत्या का षड्यंत्र

Dr. Yogesh mishr
Published on: 13 March 1994 1:22 PM IST
तीस जनवरी 1948-शहीद दिवस। नाथू राम गो्से ने गोली से महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी। सरहद से दूर और स्वतंत्रता के  लिए संघर्ष की सीमा से इतर मरने वाले शहीद बिरले ही हुए हैं, गांधी को यह सम्मान दिया गया। इससे वही स्थिति बनी जैसे ‘कविता ही लसी पा तुलसी की कला ’। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि महात्मा गांधी संज्ञा से इतर एक विशेषण हो उठे थे। गांधी का यह विशेषण होना सिर्फ 30 जनवरी 1948 की एक घटना की परिणति नहीं थी वरन उनके  पूरे जीवन के  प्रति, सत्य के  साथ प्रयोग के  प्रति ‘जो कहा सो किया, जो कहा सो जिया ’ जैसे आदर्श की व्यवहारिक परिणति के  प्रति सम्मान था। सम्मान कोई ऐसा यंत्र, ऐसी मंशा नहीं है जो रातों-रात जागृत हो ओर आप उसे किसी के  लिए अवसर-अनवसर प्रकट कर दें। वरन सम्मान किसी के  प्रभा मंडल में स्वयं से अधिक गुण और सत्य के  साथ प्रयोग पर आधारित उपलब्धि के  आधार पर ही संभव होता है, उत्पन्न होता है।
महात्मा गांधी को जो सम्मान मिला वह इसी प्रक्रिया के  लंबी जद्दोजहद का परिणाम है। इसी का प्रभाव था कि नाथूराम गोड्से, जिसने गांधी को संज्ञा शून्य किया, ने भी पहले उन्हें प्रणाम किया था। वह प्रणाम नहीं जो आजकल अपने हितों के  लिए गाहे-बगाहे किसी को कर लिया जाता है। वरन उसने प्रणाम करके  गांधी को वह सम्मान नुमाया कराया था जो महात्मा गांधी को उनके  ही वतन के  लोगों से नहीं वरन पूरी दुनिया से मिला था।
गांधी जी सत्य एवं अहिंसा पर बल देते थे। वे चाहते थे कि मनुष्य इसका परित्याग मत करे परंतु आज ये असत्य, हिंसा, राजनीति की बैसाखियां हैं जिसके  आधार पर सत्ता को चेरी बनाने का सपना पूरा किया जाता है। तो गांधी के  विचारों से ठीक विपरीत जीने वाले अगर गांधी को गालियां दे रहे हैं-शैतान की औलाद कह रहे हेंैं तो इस पर कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए।
बसपा की राष्ट्रीय महासचिव ने महात्मा गांधी द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘हरिजन’ पर आपत्ति उठाई है। वे उन्हें गालियां दे रही हैं। मायावती ने कहा है कि दलितो के  लिए ‘हरिजन’ शब्द प्रयोग करके  महात्मा गांधी ने दलितों का बड़ों का नुकसान किया है। मायावती ने हरिजन शब्द का जो अभिप्राय जुटाया है वह महात्मा गांधी की मंशा नहीं थी। उन्हें नहीं पता है कि शब्दों के  दो तरह के  मायने होते हैं -शब्दार्थ एवं भावार्थ।  शब्दार्थ के  अनुसार भी ‘हरिजन’ का अभिप्राय भगवान के  लोग होगा। भावार्थ जुटाने की अपेक्षा तो मायावती जैसी विवेक का इस्तेमाल कभी कभी करने वाली नेता से नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि भाव के  प्रति संवेदना उसी के  पास होगी जिसके  पास सत्य, अहिंसा जैसे महाव्रत होंगे। मायावती-‘गूंगे क¢री शर्करा’ एवं ‘ना कहकर तुम हंस देते हो कैसे मैं इनकार मान लूं।’ जैसे साधारण वाक्यों का सही अभिप्राय नहीं जुटा सकती तो ‘हरिजन’ का भावार्थ जुटा पाना उनकी सामथ्र्य से परे है।
वैसे भी शब्दों के  साथ-साथ उसके  प्रति आदमी की स्वीकृति एवं उसके  आंतरिक बोधों एवं मुखाकृतियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी होता है। गांधी जी ने जिन संदर्भों में ‘हरिजन’ शब्द का प्रयोग किया उसमें कभी भी किसी वर्ग के  प्रति कोई नकारवादी बोध नहीं लका। वैसे भी ऐसे बोधों, स्वीकृतियों के  प्रति गांधी जी के  व्यवहार में, दर्शन में कोई स्थान नहीं है और ‘हरिजन’ शब्द जिन संदर्भों मंे षुरू हुआ है उसमें भी नकारवादी बोध कहीं नहीं दृष्टिगत होता है। वरन जिस दलित शब्द का प्रयोग बसपा के  लोग कर रहे हैं। उसमें कुछ वर्ग विशेष के  लिए नकारात्मक एवं घृणास्पद बोध षुरू किया जा रहा है।
मायावती को यह पता होना चाहिए कि जिस बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को वो हथियार बनाकर महात्मा गांधी के  सामने खा कर रही हैं। वो महात्मा गांधी के  ‘हरिजन’ शब्द के  संस्कार की निर्मित्ति है। इतना ही नहीं, मायावती ने अगर ठीक से भीमराव अंबेडकर को पढ़ा होता तो भी गांधी जी को गालियां देने का अविवेक उनका मर गया होता। परंतु हमारे राजनीतिज्ञों को पढ़ने से क्या मतलब ? उन्हें अंबेडकर वाद नहीं चलाना है। अंबेडकर को हथियार बनाना है कभी सवर्णों के  खिलाफ, कभी किसी राजनीतिक दल के  खिलाफ और अब गांधी के  खिलाफ।
गांधी ने हमें सिखाया सादगी का सौंदर्य शास्त्र। अपरिग्रह का आनंद। विद्यार्थी जीवन से ही हरिपुरा कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस के  साथ हुई घटना के  कारण मेरी आस्था गांधी जी के  प्रति कम थी। मैं सोचता था विभाजन के  मुद्दे पर गांधी जी के  प्रति कम थी। मैं सोचता था कि विभाजन के  मुद्दे पर गांधी जी के  प्रति कम थी। मैं सोचता था कि विभाजन के  मुद्दे पर गांधी जी चुप क्यों क्यों हो गए। भगत सिंह आदि के  साथ जो हुआ उसके  लिए मैं गांधी जी की गाहे-बगाहे आलोचना करता था, परंतु मैंने गांधी जी के  लिए भगत सिंह को पढ़ा। सुभाष बाबू को पढ़ा। पाया- किसी में भी महात्मा गांधी के  प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव कम नहीं था। मैंने सोचा का भाव कम नहीं था। मैंने सोचा जब सुभाष बाबू व भगत सिंह के  दिलो-दिमाग में गांधी जी के  प्रति कभी कोई गलत भाव नहीं रहा तो हममंे क्यों ? हमने गांधी को पढ़ा। अभिभूत हआ। गांधी वाडंमय के  अध्ययन के  बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि गांधी की आलोचना वही व्यकित कर सकता है, जिसने उन्हें पढ़ा न हो। मायावती के  साथ भी यही है। उनसे गांधी के  बारे में पांच सवाल पूछ लिए जाएं तो नहीं बता पाएंगी। इतना ही नहीं, अंबेडकर के  बारे में पूछे सवालों के  बारे में भी वह असहाय दिखती हैं। पर आलोचना करने का अधिकार जैसे उन्हें प्रकृति प्रदत्त है। होगा क्यों नहीं, बे साहब का निर्देश है। बे साहब के  पार्टी के  लोगों ने ही, गांाधी समाधि पर जूतम-पैजार का खेल खेला था। बसपा के  लोग एक ओर जाति तोड़-समाज जोड़ का वार्षिक अभियान चला रहे हैं, दूसरी ओर गांधी का तिरस्कार कर रहे हैं। इन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि गांधी का तिरस्कार करके  भारत ही नहीं दुनिया के  किसी समाज को नहीं जोा जा सकता है। क्योंकि गांधी जी के  आत्म परीक्षक एवं आत्माकर्षक रूप ने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह के  आधार पर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नए विश्व की गांधी कोे ही देश के  लोग आत्म निरीक्षणऔर निग्रह से दूर हैं। मद्यपान, आमिष भोजन, अनियंत्रित उन्मुक्त भोग लीला में संलिप्त हैं। फिर भी गांधी जी पर टिप्पणी का उनमें साहस है, दंभ है।
महात्मा गांधी की लोकप्रियता महज राष्ट्रपिता होने की नहीं है। उनका विशेषण महज राष्ट्रपिता नहीं है। वरन गांधी दुनिया के  एकमात्र वह व्यक्ति रहे हैं जिसने ‘जो कहा सो किया जो जिया सो कहा।’ यही कारण है कि गांधी का खादी वस्त्र नहीं विचार हो गया । दक्षिण अफ्रीका में गांधी की नस्लवादी विरोधी सघंर्ष की विजय होती दिख रही है। ‘सत्यमेव जयते ’ आदि वाक्य के  तर्ज पर ‘सत्य के  साथ प्रयोग ’ ही अंतिम पथ सुहा रहा है।
दुनिया गांधी के  ‘सत्य के  साथ प्रयोग’ को स्वीकृति दे रही है। गांधी दुनिया की स्वीकृति के  सीमाओं में समा गए हैं और हमारे यहां कुछ निहित स्वार्थी तत्व गांधीवाद की हत्या की साजिश में अभी भी संलिप्त हैं। उन्हें नहीं पता था कि स्थायी एवं अंतिम विजय का पथ गांधीवाद ही है। गांधी के  समानान्तर अंबेडकर को खड़ा करने की साजिश ‘सूरज को चिराग दिखाना’ है। गांधी के  खिलाफ कुछ भी कहना -‘आसमान पर थूकना है।’ परंतु इन अज्ञानियों को इनका हश्र पता नहीं है। इसलिए यह सब जारी रहेगा। विशेषण को मारने का ज्ञान इनमें नहीं है। ताकत इनमें नहीं है। इनमें नहीं है विशेषण के  विशेथ्य को समझने और पढ़ने की सोच। फिर ऐसे लोग थूकते रहें- आसमान पर। इन्हें नहीं पता कि गांधी जो हो उठे थे उसकी हत्या नहीं होती, वह चिर काल में होता है, सनातन होता है।
इन्हंे नहीं पता कि जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आज वो दुपयोग कर रहे हैं, जिस सत्ता के  संस्कार में आपा खो रहे हें। वह सब गांधी के  उत्सर्ग का ही परिणाम है। अब ऐसी मनोवृत्तियों से गांधीवाद को बचाने की जरूरत है क्योंकि हमारी स्वतंत्रता पर कभी भी ऐसी मनोवृत्तियां अंकुश लगा सकती है। ऐसी ही मनोवृत्तियांे ने तुलसी की कलम बेची है। गांधी की कसमें बेची हैं। सर पर गांधी टोपी और शरीर पर खाादी परिधान पहनकर अंदर रावणी विचार रखते हैं। इन शक्तियों पर विजय के  लिए गांधीवाद ही अंततः पथ है, क्योंकि ‘सत्यमेव जयते। ’
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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