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अब हम आर्थिक गुलामी की ओर
पंद्रह तारीख का लगता है भारत के दुर्भाग्य से कोई बहुत बड़ा रिश्ता है। 15 अगस्त, 1947 को भारत में जहां एक ओर स्वतंत्रता का चिरकालिक अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त किया। वहीं भारत-पाक विभाजन की ऐसी दुर्घटना भी घटी, जिसके चलते हमारी स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता पर हमेशा सवाल उठाये जाते रहे और हम कभी भी स्वतंत्रता के उस हर्ष को वर नहीं पाये। बाहर से ही नहीं आन्तरिक रूप से भी हमें हमारी स्वतंत्रता नहीं भायी। कुछ वामपंथी दल एवं वामपंथी सोच के लोगों ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया। कौन कहता है कि भारत स्वतंत्र है? वामपंथियों की यह सोच-समझ एवं निष्कर्ष उनकी उसी वेदना का पर्याय है, जिसके तहत पंद्रह अगस्त हमारे दुर्भाग्य का दिन रहा।
महात्मा गांधी अपने साबरमती आश्रम जिसे हृदयकुंज कहा जाता था, उससे आजादी के कई वर्ष पहले निकले तो उनसे आश्रम के प्रियजनों ने पूछा वापसी के लिए उनका उत्तर था। भारत आजाद हो जाएगा तो वापस जाऊंगा। भारत की स्वतंत्रता के 168 दिन तक बापू स्वस्थ जिये, परंतु वे हृदय कुंज नहीं गये। गांधी जी को जिसने पढ़ा होगा। जाना होगा। समझा होगा। वह आसानी से जान सकता है कि वह हृदय कुंज क्यों नहीं गये। वैसे सत्य के साथ प्रयोग में जुटे गांधी का हृदय कुंज न जाना साफ-साफ इशारा करता है कि भारत की स्वतंत्रता के अर्थ बोध के प्रति उनकी क्या स्वीकृति थी?
अब आयी आगामी 15 अप्रैल की बात। यह दिन है हमारे ऐसे दुर्भाग्य का जब हमें खड़े होने की ताकत के बाद भी बैशाखी लेकर खड़े होने का अभिशाप जीना पड़ेगा। हमें भारत की उन उन्नत एवं गौरवशाली उपलब्धियों पर रायल्टी देने को विवश होना पड़ेगा, जिन्हें हमारे चरक ऋषि एवं वेदों ने छठवीं शताब्दी ई.पू. खोज निकाला था।
इसी की पृष्ठभूमि में हमारी संसद को तैयार किया जा रहा है। कुछ देश बोधी लोग विरोध प्रदर्शन, धरना प्रदर्शन में भी जुटे हैं। पर देश के उल्लुओं के डेरे में जिस तरह की आवाज सुनी जाती है, वह लोग अब बोलने के अभ्यस्त नहीं रहे। डंके ल प्रस्ताव पर सरकार इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का खुलकर दुरूपयोग कर रही है। वह प्रचारित करवा रही है कि डंके ल से कृषि को कोई नुकसान नहीं होगा। ऐसे झूठ बोलने का साहस जुटाने वाली कमजोर सरकार के सामने हमारे देशबोधी लोगों के धरना-प्रदर्शन का क्या प्रभाव होगा? वैसे तो संसद में बहस के लिए दो दिन भी तय किये गये। परंतु यह सब कोरम पूरा करना है और किसी का कुछ भी कहना नक्कारखाने में तूती की आवाज होगा। इतना ही नहीं, 15 अप्रैल के बाद हमारी सरकार एक निरीहता भरा वक्तव्य देगी कि हम तो 107 में एक हैं। यानी हमारा एक होना कोई मायने नहीं रखता।
नियमानुसार डंके ल प्रस्तावों को उसके संपूर्ण रूप में ही स्वीकारना होगा। स्वीकृति के बाद उसमें परिवर्तन हमारी संसद नहीं कर पाएगी। इस प्रस्ताव में खेती एवं किसान के लिए गुलामी का पैगाम है। किसान का खेत, मेड़, नीम, गाय, बैल, बछिया पर मालिकाना हक नहीं रह जाएगा।
अमरीका यह जानता है कि भारत मात्र अपनी कृषि के सहारे अपनी सम्प्रभुता को कायम रखने में समर्थ है और तीसरी दुनिया के लगभग सभी देश कृषि प्रधान हैं। इसलिए कृषि का गैट के शिकंजे में कसन का प्रयास डंके ल में वरीयता से हो रहा है। डंके ल के बाद प्लांट ब्रीडर्स राईटर्स के तहत सभी प्रकार के बीज और उन्हें संस्कारित करने के अधिकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंप दिये जायेंगे।
भारतीय धान अनुसंधान संस्थान, कटक (उड़ीसा) के वैज्ञानिकों ने बैक्टीरिया से संघर्ष करके जीवित रहने वाली चावल की बीस हजार किस्में विकसित कीं। बहुराष्ट्रीय उद्योगों ने भारत सरकार के माध्यम से शोध के लिए इन चावलों के नमूने प्राप्त करने का प्रयास किया। इंस्टीट्यूट के अधिकारियों ने इस चावल का दुरूपयोग होने और व्यावसायिक स्वार्थ में इनके प्रयोग होने की आशंका व्यक्त करते हुए सरकारी आग्रह को ठुकरा दिया। परिणामतः इन अधिकारियों का स्थानान्तरण कर दिया गया तथा इस पूरे प्रकल्प को अंतरराष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान, फिलीपीन्स, जो कि विश्व बैंक एवं राॅकफेलर फाउण्डेशन (अमरीकी संस्था) द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त है, उसके हाथों दे दिया गया। इसके चलते इन बीस हजार प्रजातियों पर इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पेटेंट हो गया। इसके तहत अब देश भर में उपलब्ध 150 महत्वपूर्ण कृषि संस्थान, जो हैं उनकी अर्थवत्ता समाप्त हो जाएगी और विदेशी कम्पनियां, जिस बीज-पौधे या जींसों को पेटेंट करा लेंगी, उस पर उसी कम्पनी का अधिकार हो जाएगा। भले ही उसे भारतीय वैज्ञानिकों ने पैदा किया हो। इस तरह 35 कृषि विश्वविद्यालयों का क्या औचित्य रह जाएगा?
इतना ही नहीं, नीम, जो भारतीय मूल का वृक्ष है और इस सदी के प्रारम्भ में बंगलौर स्थित इण्डियन इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस के वैज्ञानिकों ने नीम के रासायनिक गुणों का अध्ययन सबसे पहले शुरू किया। नई दिल्ली के राष्ट्रीय रोग प्रतिरोधक संस्थान में नीम में पाये जाने वाले एक शुक्राणु नाशक तत्व का प्रयोग परिवार नियोजन कार्यक्रम पर किये जाने का अन्तिम विचार चल रहा है। एड्स के खिलाफ दवा के लिए भी नीम का प्रयोग हो रहा है। परंतु अमरीकी पेटेंट कानून ने नीम को भी अपनी गिरफ्त मे ले लिया है। अमरीका के टोनी लार्सन नामक एक नागरिक ने नीम की कीटनाशकीय और दूसरे जैव रासायनिक गुणों का पेटेंट करा लिया और इस पेटेंट उत्पाद का लाइसेंस अमरीका की डब्लू आर ग्रेस एण्ड कम्पनी ने डेढ़ लाख डाॅलर में खरीद दिया। डंके ल पर दस्तखत के बाद नीम के दातून से लेकर किसी भी उपयोग के लिए रायल्टी अमरीका को देना पड़ेगा। डंके ल प्रस्ताव के अनुच्छेद 14 (1) में वर्णित है कि खेती के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले बीज वन संवर्धन के लिए लगाये जाने वाले पौधे, उनकी रोपनी से उगे पौधों का पेटेंट अधिकार उसका होगा, जो उसे पंजीकृत कराएगा। इसके द्वारा उत्पादित बीज और पौधों के अतिरिक्त उनके उत्पादन की प्रक्रिया भी पेटेंट के अंतर्गत ही मानी जाएगी, जिसकी अवधि बीस वर्ष तक होगी। यानी किसान बीज पर अमरीका को पेटेंट के लिए रायल्टी देगा। अमरीका द्वारा निर्धारित मूल्य पर फसल बेचेगा। खेत पर किसान की भूमिका मात्र एक मजदूर की हो जाएगी।
यदि किसान अपनी गाय भैंस की नस्ल सुधारने के लिए विदेश से कोई उन्नत किस्म की प्रजाति मंगवाकर नस्ल सुधारता है तो किसान को रायल्टी देनी पड़ेगी। यदि वह रायल्टी नहीं देता है तो उसकी गाय भैंस से पैदा हुए बच्चे पर प्रजाति देने वाली विदेशी कम्पनी का अधिकार होगा। रायल्टी न देने, पेटेंट का उल्लंघन करने पर किसान पर मुकदमा चलेगा। उसे शारीरिक एवं आर्थिक दोनों प्रकार के दण्ड भुगतने पड़ेंगे। यह तीन वर्ष तक ही सख्त सजा और/या दस हजार रूपया जुर्माना दोनों हो सकते हैं। इस प्रकार के सभी वाद अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पेश होंगे। जहां पहुंच पाना हमारे ग्राम देवता के लिए संभव नहीं होगा। फिर एक्स पार्टी निर्णयों का खामियाजा हमारे किसान को भुगतान पड़ेगा।
डंके ल के नाते हमें बीज, खाद एवं कीटनाशकों के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर निर्भर रहना पड़ेगा। पारम्परिक बीज समाप्त हो जाएंगे। पेड़ों पर से हमारा स्वामित्व समाप्त हो जाएगा। कृषि सब्सिडी समाप्त करनी पड़ेगी जो कर भी दी गयी है, इससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में सम शीतोष्ण फसलों की कीमत बढ़ंेगी और भारत को इन फसलों का आयात करना पड़ेगा। एक ओर अमरीका चालीस हजार करोड़ के घाटे के बजट के बाद भी अपने किसानों को पचास हजार करोड़ की सब्सिडी देता है। दूसरी ओर हमें सब्सिडी कटौती को बाध्य कर रहा है।
डंके ल प्रस्ताव में यह प्रावधान भी है कि इसको स्वीकार करने के बाद मानने वाले देश को बिना किसी जरूरत के अपनी आवश्यकता का तीन प्रतिशत खाद्यान्न दस वर्षों तक अनिवार्य रूप से आयात करना पड़ेगा। यानी भारत को साठ लाख टन अनाज महंगे भावांे पर प्रति वर्ष आयात करना पड़ेगा।
इसके बाद भी के न्द्र सरकार यह दुष्प्रचार कर रही है कि डंके ल प्रस्तावों को मानने से कृषि को कोई नुकसान नहीं होगा। वह डंके ल प्रस्ताव के कृषि संबंधी पेटेंट को नहीं मानेगी। यह सब एक धोखा है, जिसे करने पर के न्द्र सरकार जुटी है। इसके लिए इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का प्रयोग किया जा रहा है। ऐसे दुष्प्रचार में जुटा मीडिया कितना विश्वसनीय है इस पर विचार करना आवश्यक है।
इस पंद्रह अप्रैल के बाद हम सिर्फ इसलिए काम करेंगे क्योंकि हमें अमरीका को रायल्टी देनी होगी। पंद्रह तारीख आर्थिक गुलामी को स्वीकारने का दिवस है, जिसकी पृष्ठभूमि मनमोहन ने तैयार कर ली है।
जिस तरह पंद्रह अप्रैल आनी तय है, उसी तरह डंके ल पर रजामंदी भी पंद्रह अगस्त, 1947 की स्वतंत्रता के बाद भी हम सम्प्रभुता के सवाल पर हमेशा निरूत्तरित दिखे हैं और अब डंके ल वाले पंद्रह अप्रैल के बाद भी हम अपनी आर्थिक सम्प्रभुता के सामने निरूत्तरित खड़े दिखेंगे।
महात्मा गांधी अपने साबरमती आश्रम जिसे हृदयकुंज कहा जाता था, उससे आजादी के कई वर्ष पहले निकले तो उनसे आश्रम के प्रियजनों ने पूछा वापसी के लिए उनका उत्तर था। भारत आजाद हो जाएगा तो वापस जाऊंगा। भारत की स्वतंत्रता के 168 दिन तक बापू स्वस्थ जिये, परंतु वे हृदय कुंज नहीं गये। गांधी जी को जिसने पढ़ा होगा। जाना होगा। समझा होगा। वह आसानी से जान सकता है कि वह हृदय कुंज क्यों नहीं गये। वैसे सत्य के साथ प्रयोग में जुटे गांधी का हृदय कुंज न जाना साफ-साफ इशारा करता है कि भारत की स्वतंत्रता के अर्थ बोध के प्रति उनकी क्या स्वीकृति थी?
अब आयी आगामी 15 अप्रैल की बात। यह दिन है हमारे ऐसे दुर्भाग्य का जब हमें खड़े होने की ताकत के बाद भी बैशाखी लेकर खड़े होने का अभिशाप जीना पड़ेगा। हमें भारत की उन उन्नत एवं गौरवशाली उपलब्धियों पर रायल्टी देने को विवश होना पड़ेगा, जिन्हें हमारे चरक ऋषि एवं वेदों ने छठवीं शताब्दी ई.पू. खोज निकाला था।
इसी की पृष्ठभूमि में हमारी संसद को तैयार किया जा रहा है। कुछ देश बोधी लोग विरोध प्रदर्शन, धरना प्रदर्शन में भी जुटे हैं। पर देश के उल्लुओं के डेरे में जिस तरह की आवाज सुनी जाती है, वह लोग अब बोलने के अभ्यस्त नहीं रहे। डंके ल प्रस्ताव पर सरकार इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का खुलकर दुरूपयोग कर रही है। वह प्रचारित करवा रही है कि डंके ल से कृषि को कोई नुकसान नहीं होगा। ऐसे झूठ बोलने का साहस जुटाने वाली कमजोर सरकार के सामने हमारे देशबोधी लोगों के धरना-प्रदर्शन का क्या प्रभाव होगा? वैसे तो संसद में बहस के लिए दो दिन भी तय किये गये। परंतु यह सब कोरम पूरा करना है और किसी का कुछ भी कहना नक्कारखाने में तूती की आवाज होगा। इतना ही नहीं, 15 अप्रैल के बाद हमारी सरकार एक निरीहता भरा वक्तव्य देगी कि हम तो 107 में एक हैं। यानी हमारा एक होना कोई मायने नहीं रखता।
नियमानुसार डंके ल प्रस्तावों को उसके संपूर्ण रूप में ही स्वीकारना होगा। स्वीकृति के बाद उसमें परिवर्तन हमारी संसद नहीं कर पाएगी। इस प्रस्ताव में खेती एवं किसान के लिए गुलामी का पैगाम है। किसान का खेत, मेड़, नीम, गाय, बैल, बछिया पर मालिकाना हक नहीं रह जाएगा।
अमरीका यह जानता है कि भारत मात्र अपनी कृषि के सहारे अपनी सम्प्रभुता को कायम रखने में समर्थ है और तीसरी दुनिया के लगभग सभी देश कृषि प्रधान हैं। इसलिए कृषि का गैट के शिकंजे में कसन का प्रयास डंके ल में वरीयता से हो रहा है। डंके ल के बाद प्लांट ब्रीडर्स राईटर्स के तहत सभी प्रकार के बीज और उन्हें संस्कारित करने के अधिकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंप दिये जायेंगे।
भारतीय धान अनुसंधान संस्थान, कटक (उड़ीसा) के वैज्ञानिकों ने बैक्टीरिया से संघर्ष करके जीवित रहने वाली चावल की बीस हजार किस्में विकसित कीं। बहुराष्ट्रीय उद्योगों ने भारत सरकार के माध्यम से शोध के लिए इन चावलों के नमूने प्राप्त करने का प्रयास किया। इंस्टीट्यूट के अधिकारियों ने इस चावल का दुरूपयोग होने और व्यावसायिक स्वार्थ में इनके प्रयोग होने की आशंका व्यक्त करते हुए सरकारी आग्रह को ठुकरा दिया। परिणामतः इन अधिकारियों का स्थानान्तरण कर दिया गया तथा इस पूरे प्रकल्प को अंतरराष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान, फिलीपीन्स, जो कि विश्व बैंक एवं राॅकफेलर फाउण्डेशन (अमरीकी संस्था) द्वारा वित्तीय सहायता प्राप्त है, उसके हाथों दे दिया गया। इसके चलते इन बीस हजार प्रजातियों पर इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पेटेंट हो गया। इसके तहत अब देश भर में उपलब्ध 150 महत्वपूर्ण कृषि संस्थान, जो हैं उनकी अर्थवत्ता समाप्त हो जाएगी और विदेशी कम्पनियां, जिस बीज-पौधे या जींसों को पेटेंट करा लेंगी, उस पर उसी कम्पनी का अधिकार हो जाएगा। भले ही उसे भारतीय वैज्ञानिकों ने पैदा किया हो। इस तरह 35 कृषि विश्वविद्यालयों का क्या औचित्य रह जाएगा?
इतना ही नहीं, नीम, जो भारतीय मूल का वृक्ष है और इस सदी के प्रारम्भ में बंगलौर स्थित इण्डियन इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस के वैज्ञानिकों ने नीम के रासायनिक गुणों का अध्ययन सबसे पहले शुरू किया। नई दिल्ली के राष्ट्रीय रोग प्रतिरोधक संस्थान में नीम में पाये जाने वाले एक शुक्राणु नाशक तत्व का प्रयोग परिवार नियोजन कार्यक्रम पर किये जाने का अन्तिम विचार चल रहा है। एड्स के खिलाफ दवा के लिए भी नीम का प्रयोग हो रहा है। परंतु अमरीकी पेटेंट कानून ने नीम को भी अपनी गिरफ्त मे ले लिया है। अमरीका के टोनी लार्सन नामक एक नागरिक ने नीम की कीटनाशकीय और दूसरे जैव रासायनिक गुणों का पेटेंट करा लिया और इस पेटेंट उत्पाद का लाइसेंस अमरीका की डब्लू आर ग्रेस एण्ड कम्पनी ने डेढ़ लाख डाॅलर में खरीद दिया। डंके ल पर दस्तखत के बाद नीम के दातून से लेकर किसी भी उपयोग के लिए रायल्टी अमरीका को देना पड़ेगा। डंके ल प्रस्ताव के अनुच्छेद 14 (1) में वर्णित है कि खेती के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले बीज वन संवर्धन के लिए लगाये जाने वाले पौधे, उनकी रोपनी से उगे पौधों का पेटेंट अधिकार उसका होगा, जो उसे पंजीकृत कराएगा। इसके द्वारा उत्पादित बीज और पौधों के अतिरिक्त उनके उत्पादन की प्रक्रिया भी पेटेंट के अंतर्गत ही मानी जाएगी, जिसकी अवधि बीस वर्ष तक होगी। यानी किसान बीज पर अमरीका को पेटेंट के लिए रायल्टी देगा। अमरीका द्वारा निर्धारित मूल्य पर फसल बेचेगा। खेत पर किसान की भूमिका मात्र एक मजदूर की हो जाएगी।
यदि किसान अपनी गाय भैंस की नस्ल सुधारने के लिए विदेश से कोई उन्नत किस्म की प्रजाति मंगवाकर नस्ल सुधारता है तो किसान को रायल्टी देनी पड़ेगी। यदि वह रायल्टी नहीं देता है तो उसकी गाय भैंस से पैदा हुए बच्चे पर प्रजाति देने वाली विदेशी कम्पनी का अधिकार होगा। रायल्टी न देने, पेटेंट का उल्लंघन करने पर किसान पर मुकदमा चलेगा। उसे शारीरिक एवं आर्थिक दोनों प्रकार के दण्ड भुगतने पड़ेंगे। यह तीन वर्ष तक ही सख्त सजा और/या दस हजार रूपया जुर्माना दोनों हो सकते हैं। इस प्रकार के सभी वाद अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पेश होंगे। जहां पहुंच पाना हमारे ग्राम देवता के लिए संभव नहीं होगा। फिर एक्स पार्टी निर्णयों का खामियाजा हमारे किसान को भुगतान पड़ेगा।
डंके ल के नाते हमें बीज, खाद एवं कीटनाशकों के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर निर्भर रहना पड़ेगा। पारम्परिक बीज समाप्त हो जाएंगे। पेड़ों पर से हमारा स्वामित्व समाप्त हो जाएगा। कृषि सब्सिडी समाप्त करनी पड़ेगी जो कर भी दी गयी है, इससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में सम शीतोष्ण फसलों की कीमत बढ़ंेगी और भारत को इन फसलों का आयात करना पड़ेगा। एक ओर अमरीका चालीस हजार करोड़ के घाटे के बजट के बाद भी अपने किसानों को पचास हजार करोड़ की सब्सिडी देता है। दूसरी ओर हमें सब्सिडी कटौती को बाध्य कर रहा है।
डंके ल प्रस्ताव में यह प्रावधान भी है कि इसको स्वीकार करने के बाद मानने वाले देश को बिना किसी जरूरत के अपनी आवश्यकता का तीन प्रतिशत खाद्यान्न दस वर्षों तक अनिवार्य रूप से आयात करना पड़ेगा। यानी भारत को साठ लाख टन अनाज महंगे भावांे पर प्रति वर्ष आयात करना पड़ेगा।
इसके बाद भी के न्द्र सरकार यह दुष्प्रचार कर रही है कि डंके ल प्रस्तावों को मानने से कृषि को कोई नुकसान नहीं होगा। वह डंके ल प्रस्ताव के कृषि संबंधी पेटेंट को नहीं मानेगी। यह सब एक धोखा है, जिसे करने पर के न्द्र सरकार जुटी है। इसके लिए इलेक्ट्राॅनिक मीडिया का प्रयोग किया जा रहा है। ऐसे दुष्प्रचार में जुटा मीडिया कितना विश्वसनीय है इस पर विचार करना आवश्यक है।
इस पंद्रह अप्रैल के बाद हम सिर्फ इसलिए काम करेंगे क्योंकि हमें अमरीका को रायल्टी देनी होगी। पंद्रह तारीख आर्थिक गुलामी को स्वीकारने का दिवस है, जिसकी पृष्ठभूमि मनमोहन ने तैयार कर ली है।
जिस तरह पंद्रह अप्रैल आनी तय है, उसी तरह डंके ल पर रजामंदी भी पंद्रह अगस्त, 1947 की स्वतंत्रता के बाद भी हम सम्प्रभुता के सवाल पर हमेशा निरूत्तरित दिखे हैं और अब डंके ल वाले पंद्रह अप्रैल के बाद भी हम अपनी आर्थिक सम्प्रभुता के सामने निरूत्तरित खड़े दिखेंगे।
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