TRENDING TAGS :
कविता में बढ़ रही वादीय चेतना...
वर्तमान हिंदी साहित्य में कविता के साथ खासा मजाक जुड़ गया है। कवियों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। परंतु काव्य से संवेदना का रिश्ता टूटता जा रहा है। कविता ने लय खोया। उससे गेयता चुक गई। कविता में भाव पक्ष गौण हुआ। कविता का संबंध हृदय से नहीं मस्तिष्क से जुड़ा। नूतन अलंकरणों और अपने कर्म का औचित्य सिद्ध कर सकने की तर्क शक्ति से संपन्न आज के अधिकांश कवि ऐसी कविता लिख रहे हैं जो संगठित राजनीति, खासकर संगठित राज्य शक्ति की क्रूरताओं को शांत, चिकनी, आत्मलिप्त चासनी की भाषा में कुछ ऐसी अदा में अपनी बात कहते हैं कि उससे अपने वर्ग के मूलभूत आचरण में निहित दोगलेपन पर कोई चोट न पड़े।
कविता की इन स्थितियों से कविता में राज्य शक्ति की क्रूर भावनाओं की अभिव्यक्ति न पाकर पाठक कविता से कटने लगा। उसे लगा कि लेखक अपने दायित्व के निर्वाह से वंचित होने लगा है। बाजार तंत्र का ऐसा कुप्रभाव हुआ कि कविगण अपनी कवि सुलभ संवेदनशील और वैचारिक प्रगतिशीलता के बावजूद अत्यंत आत्मबद्ध स्थितियों के माध्यम से ही जीवन की विषय वस्तु थोड़ी बहुत मात्रा में ला पाते हैं।
यही कारण है कि कविता अपने यथार्थ से कटती हुई दिखायी पड़ने लगी है। कविता की यथार्थवदी प्रकृति के लिए कवि की विचारात्मक प्रतिबद्धता उतनी जरूरी नहीं है। जितना समाज के बहुआयामी विविधताओं से कवि का परिचय। जबकि स्थिति यह है कि समाज के मध्य वर्गीय स्थितियों एवं नगरीय आपाधापी ने कवि को श्रमिक और जनता के दैनिक जीवन से काट दिया है। कवि को अब अपने चित्रण के लिए घटित से साक्षात्कार करने का समय नहीं है। वह कविता को संगणक की तर्ज पर देखने और स्वीकारने लगा है। उसे गरीबी, भूख, यातना के चित्रण के लिए किसी न किसी तरह कल्पना का सहारा लेना पता है। वैसे मृत्यु के चित्रण के लिए मरना आवश्यक है। ऐसा भी कुतर्क देकर लोग आत्म घटित से साक्षात्कार की बात से कट सकते हैं। परंतु यह सत्य की अस्वीकृति जैसा पलायनवाद है क्यांेकि हमारे संचार-सूचना, साम्राज्यवाद के तहत गरीबी, भूख, यातना और ऐसे ह्दय विदारक दृश्य देख-देख कर हम प्रभावहीन हो गए हैं।
इसलिए आत्मघटित को आत्मानुभूति के स्तर पर जीने की जो विशेषता कवियों, साहित्यकारों में हुआ करती थी। वह मर गई। इस अभिव्यक्ति की विषय वस्तु के अभाव के कारण शिल्प के अभ्यास पर से कवि का नियंत्रण उठ गया। परिणामतः प्रगतिशील वैचारिक रुझान के बावजूद परोक्ष रूप से पूंजीवादी, विज्ञापन आश्रित राजसत्ता का औचित्य स्थापना करती हुई कविता दिखायी पड़ने लगी है। इस तरह कविता और जनता के बीच भाषा की अभिव्यक्ति की एक ऐसी चैड़ी खाई दिखायी पड़ने लगी है। जिसमें भाषा अर्थ से विच्छिन्न हो जाती है। पिछली सदी में मलार्मे ने कहा था कि कविता क¢वल शब्दांे में रची जाती है। मलार्मे यह भूल गए कि शब्दांे के उत्स भाव एवं महाभाव भी जरूरी होते हैं। क्योंकि भाषा महज शब्दों का प्रयोग नहीं है। अगर ऐसा ही होता तो सार्थक व निरर्थक शब्द भेद नहीं होते। इसलिए कविता भाषा का सघन प्रयोग है। यही कारण है कि तुलसीदास जनमानस के चिरंजीवी कवि हो उठते हैं तथा क¢शव एक संप्रदाय विशेष से संबद्ध कवि। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था कि क¢शव को कवि दय नहीं मिला। इसके पीछे निश्चित तौर से उनका यही तर्क रहा होगा कि क¢शव में मलार्मे के तर्ज पर कविता का बोध था। यह स्पष्ट एवं अभीष्ट है कि भाव योग के स्थगित होने से रचनायोग भी स्थगित हो जाता है। भाव की शक्ति से कोई भी काव्य कालजयी बनता है। यानी भाव हमारे साहित्य का बुनियादी तत्व है। मनुष्य में भाव की चिर भूख है। कविता का कार्य इसी भूख को शांत करना है और या राज्यसत्ता के दोगलेपन पर आक्रमण करना है।
इसलिए कविता के भाव बोध से कटने के बाद भी उसके यथार्थवाद को बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया गया था परंतु कविता आज इस दायित्व से भी विमुख होती नजर आ रही है। कवि दलीय चेतनाओं, राज्यसत्ता से संरक्षण एवं लाभ की आशाओं के नाते स्पष्ट कह पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहा है। आम लोगों में मलार्मे की बात पैठ कर गई है। लेकिन हमें हमारे साहित्य को कालजयी होने के लिए जनवाद, जनवाद में भटकाव मूलक रुझानों से कटकर या तो यथार्थवाद को स्वीकारना होगा और या कविता को ह्दय से जोड़ना होगा। क्योंकि यही दृष्टि ही कविता की रचनात्मक समस्याओं को समझने और सुलझाने की एकमात्र सही दृष्टि है। यही कवि और समाज के मध्य परस्पर प्रभावकारी संबंध के यथार्थ को व्याख्यापित कर सकते हैं। कविता को इसके सिवाय जो लोग कुछ भी मानते हैं। वे चाहे जो भी हों वे कविता के हितैषी नहीं है। क्योंकि समकालीन कविता के अभिव्यक्ति और समाज बोध का जो संकट है। वह वास्तव में इन्हीं की देन है।
इन्हीं के कारण कविता तमाम वादों की खेमेबाजी में लगातार उलती जा रही है जबकि लिखते समय कोई भी कवि पूरी तरह से वादमुक्त होता है। उसकी समूची कविता उसके आत्मघटित या आत्मानुभूति की सघन वेदनात्मक परिणति होती है। तभी तो यह कहा गया था- वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा ज्ञान, निकलकर नैनों से चुपचाप वही होगी कविता अनजान। परंतु हम अपनी पक्षधरता, प्रतिबद्धता से मुक्त हुए बिना यदि साहित्यकर्म में रत रहें तो कविता या साहित्य के कालजयी होने के लिए कुछ करने की जगह अपनी प्रतिबद्धताओं के साथ कहीं न कहीं अपने साहित्य को लिए खड़े मिलेंगे और हमारी प्रतिबद्धताएं समयगामी और अवसरगामी हैं। इसलिए हमारे परिवर्तन से कविता और साहित्य में जो प्रभाव उत्पन्न होंगे उसले दलित साहित्य, उसे ही मानने की प्रवृत्ति बलवती होगी। जो दलित रचित हो और यह वादीय संघर्ष हमारी संवेदना के लिए घातक होगा।
कविता की इन स्थितियों से कविता में राज्य शक्ति की क्रूर भावनाओं की अभिव्यक्ति न पाकर पाठक कविता से कटने लगा। उसे लगा कि लेखक अपने दायित्व के निर्वाह से वंचित होने लगा है। बाजार तंत्र का ऐसा कुप्रभाव हुआ कि कविगण अपनी कवि सुलभ संवेदनशील और वैचारिक प्रगतिशीलता के बावजूद अत्यंत आत्मबद्ध स्थितियों के माध्यम से ही जीवन की विषय वस्तु थोड़ी बहुत मात्रा में ला पाते हैं।
यही कारण है कि कविता अपने यथार्थ से कटती हुई दिखायी पड़ने लगी है। कविता की यथार्थवदी प्रकृति के लिए कवि की विचारात्मक प्रतिबद्धता उतनी जरूरी नहीं है। जितना समाज के बहुआयामी विविधताओं से कवि का परिचय। जबकि स्थिति यह है कि समाज के मध्य वर्गीय स्थितियों एवं नगरीय आपाधापी ने कवि को श्रमिक और जनता के दैनिक जीवन से काट दिया है। कवि को अब अपने चित्रण के लिए घटित से साक्षात्कार करने का समय नहीं है। वह कविता को संगणक की तर्ज पर देखने और स्वीकारने लगा है। उसे गरीबी, भूख, यातना के चित्रण के लिए किसी न किसी तरह कल्पना का सहारा लेना पता है। वैसे मृत्यु के चित्रण के लिए मरना आवश्यक है। ऐसा भी कुतर्क देकर लोग आत्म घटित से साक्षात्कार की बात से कट सकते हैं। परंतु यह सत्य की अस्वीकृति जैसा पलायनवाद है क्यांेकि हमारे संचार-सूचना, साम्राज्यवाद के तहत गरीबी, भूख, यातना और ऐसे ह्दय विदारक दृश्य देख-देख कर हम प्रभावहीन हो गए हैं।
इसलिए आत्मघटित को आत्मानुभूति के स्तर पर जीने की जो विशेषता कवियों, साहित्यकारों में हुआ करती थी। वह मर गई। इस अभिव्यक्ति की विषय वस्तु के अभाव के कारण शिल्प के अभ्यास पर से कवि का नियंत्रण उठ गया। परिणामतः प्रगतिशील वैचारिक रुझान के बावजूद परोक्ष रूप से पूंजीवादी, विज्ञापन आश्रित राजसत्ता का औचित्य स्थापना करती हुई कविता दिखायी पड़ने लगी है। इस तरह कविता और जनता के बीच भाषा की अभिव्यक्ति की एक ऐसी चैड़ी खाई दिखायी पड़ने लगी है। जिसमें भाषा अर्थ से विच्छिन्न हो जाती है। पिछली सदी में मलार्मे ने कहा था कि कविता क¢वल शब्दांे में रची जाती है। मलार्मे यह भूल गए कि शब्दांे के उत्स भाव एवं महाभाव भी जरूरी होते हैं। क्योंकि भाषा महज शब्दों का प्रयोग नहीं है। अगर ऐसा ही होता तो सार्थक व निरर्थक शब्द भेद नहीं होते। इसलिए कविता भाषा का सघन प्रयोग है। यही कारण है कि तुलसीदास जनमानस के चिरंजीवी कवि हो उठते हैं तथा क¢शव एक संप्रदाय विशेष से संबद्ध कवि। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था कि क¢शव को कवि दय नहीं मिला। इसके पीछे निश्चित तौर से उनका यही तर्क रहा होगा कि क¢शव में मलार्मे के तर्ज पर कविता का बोध था। यह स्पष्ट एवं अभीष्ट है कि भाव योग के स्थगित होने से रचनायोग भी स्थगित हो जाता है। भाव की शक्ति से कोई भी काव्य कालजयी बनता है। यानी भाव हमारे साहित्य का बुनियादी तत्व है। मनुष्य में भाव की चिर भूख है। कविता का कार्य इसी भूख को शांत करना है और या राज्यसत्ता के दोगलेपन पर आक्रमण करना है।
इसलिए कविता के भाव बोध से कटने के बाद भी उसके यथार्थवाद को बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया गया था परंतु कविता आज इस दायित्व से भी विमुख होती नजर आ रही है। कवि दलीय चेतनाओं, राज्यसत्ता से संरक्षण एवं लाभ की आशाओं के नाते स्पष्ट कह पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहा है। आम लोगों में मलार्मे की बात पैठ कर गई है। लेकिन हमें हमारे साहित्य को कालजयी होने के लिए जनवाद, जनवाद में भटकाव मूलक रुझानों से कटकर या तो यथार्थवाद को स्वीकारना होगा और या कविता को ह्दय से जोड़ना होगा। क्योंकि यही दृष्टि ही कविता की रचनात्मक समस्याओं को समझने और सुलझाने की एकमात्र सही दृष्टि है। यही कवि और समाज के मध्य परस्पर प्रभावकारी संबंध के यथार्थ को व्याख्यापित कर सकते हैं। कविता को इसके सिवाय जो लोग कुछ भी मानते हैं। वे चाहे जो भी हों वे कविता के हितैषी नहीं है। क्योंकि समकालीन कविता के अभिव्यक्ति और समाज बोध का जो संकट है। वह वास्तव में इन्हीं की देन है।
इन्हीं के कारण कविता तमाम वादों की खेमेबाजी में लगातार उलती जा रही है जबकि लिखते समय कोई भी कवि पूरी तरह से वादमुक्त होता है। उसकी समूची कविता उसके आत्मघटित या आत्मानुभूति की सघन वेदनात्मक परिणति होती है। तभी तो यह कहा गया था- वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा ज्ञान, निकलकर नैनों से चुपचाप वही होगी कविता अनजान। परंतु हम अपनी पक्षधरता, प्रतिबद्धता से मुक्त हुए बिना यदि साहित्यकर्म में रत रहें तो कविता या साहित्य के कालजयी होने के लिए कुछ करने की जगह अपनी प्रतिबद्धताओं के साथ कहीं न कहीं अपने साहित्य को लिए खड़े मिलेंगे और हमारी प्रतिबद्धताएं समयगामी और अवसरगामी हैं। इसलिए हमारे परिवर्तन से कविता और साहित्य में जो प्रभाव उत्पन्न होंगे उसले दलित साहित्य, उसे ही मानने की प्रवृत्ति बलवती होगी। जो दलित रचित हो और यह वादीय संघर्ष हमारी संवेदना के लिए घातक होगा।
Next Story