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जारी है भाषा को हथियार बनाने की राजनीति
उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार ने माध्यमिक शिक्षा परिषद की परीक्षाओं में उर्दू भाषा के प्रश्न पत्र को वरीयता देते हुए त्रिभाषा फार्मूला की अपनी नयी नीति के तहत उर्दू के साथ राजनीति का खेल खेला है। प्रदेश में भाजपा सरकार के आरूढ़ होते ही शिक्षा के स्वहित बोधी दृष्टिकोण की एक परम्परा सी चल निकली परिणामतः हर सरकार शैक्षिक पाठ्यक्रम अपने वैचारिक एवं सैद्धान्तिक धरातल पर तैयार करने में जुटी दिखती है। यह कितना हास्यास्पद है कि किसी देश के पाठ्यक्रम राजनीतिक सिद्धान्तों एवं दर्शनों से नियमित एवं नियंत्रित होते हों, जबकि पाठ्यक्रम हमेशा समाज एवं देश की आवश्यकता के अनुरूप बनाये और चलाये जाने चाहिए। जिस तरह अंग्रेजी को भाषा के जगह ‘स्टेट्स सिम्बल’ के स्तर पर स्वीकार किया गया है उसी तर्ज पर उर्दू को भी भाषा की जगह वोट बैंक के तर्ज पर फलने और फूलने का अवसर दिया जा रहा है। यही कारण है कि उर्दू को प्रदेश की माध्यमिक परीक्षाओं में तरजीह देने को संस्कृत भाषा का अपमान बताया जा रहा है।
इसी सरकार के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अपने पूर्व के शासनकाल में हिंदी की व्यापक स्तर पर स्थापना के कई प्रयास किये, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जाकर अंग्रेजी भाषा पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने यहां तक कहा कि मुकदमों के तारीख लेने में भी अधिवक्ता लोग अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं जिससे मुवक्किल को लगे कि वकील साहब बहस कर रहे हैं। इतना ही नहीं, मुलायम सिंह यादव ने अपने पिछले कार्यकाल में प्रदेश के कुछ संभागों में भारतीय भाषा अध्ययन के न्द्र खोलकर हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की दिशा में जो कार्य किये वो सर्वथा प्रशंसनीय हैं। इस बार भी मुख्यमंत्री ने अपने सभी काम काज में हिन्दी को वरीयता का एलान करके हिन्दी पक्षधरता की छवि बनायी है।
परन्तु, सरकार ने अभी हाल में सभी प्राथमिक पाठशाला पर प्रदेश में उर्दू शिक्षकों की नियुक्ति करने का एलान किया है जिससे प्रदेश पर लगभग 50 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ बनेगा। इसे उर्दू को सरकारी वरीयता मानी जाए या राजनीतिक चाल? क्योंकि और भी तमाम विषयों के रिक्त पड़े पदों की ओर सरकार का ध्यान नहीं जा रहा है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के आधार पर निर्मित त्रिभाषा सूत्र के क्रियान्वयन के संदर्भ में हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी तथा संस्कृत, पंजाबी, बंगाली, गुजराती, मराठी, उड़िया, कश्मीरी, तेलगू, तमिल, मलयालम, कन्नड़, सिंधी, में से किसी एक भाषा के शिक्षण की व्यवस्था हुई थी परन्तु इस नीति को दर किनार करके प्रदेश सरकार जो नया त्रिभाषा फार्मूला लागू करने जा रही है उसके खिलाफ जनाक्रोश भड़काने के प्रयास जारी हैं।
वैसे तो देश में समाजवादी चिंतकों ने भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का तो विरोध किया ही था साथ ही साथ इन्होंने अंग्रेजी हटाओ, हिन्दी लाओ की दिशा में भी लम्बा आन्दोलन चलाया था। ये लोग अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं की बात करते थे, परन्तु कई भारतीय भाषाओं की मूल संस्कृत को दोयम दर्जे में रखने के पीछे मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की राजनीतिक विवशता चाहे जो हो परन्तु इसके पीछे उनकी समाजवादी सोच का कोई पक्ष नजर नहीं आ रहा है।
वैसे तो आजादी के बाद से ही भाषा का सवाल हमारे लिये एक अनसुली पहेली के रूप में खा हुआ। फिर भी इस सवाल के साथ लगातार छेड़छाड़ जारी है। जबकि भाषा का सवाल राष्ट्र और उसकी जनता की अस्मिता का सवाल होता है। हम यह जानते हैं कि भारत को छोड़कर किसी भी देश में उर्दू को भाषा के रूप में वह स्वीकृति नहीं मिली है जो यहां है। उर्दू भारत में ही सरकारी भाषा के रूप में पनपी। कुछ उर्दू दां लोग उर्दू को उत्तर प्रदेश की मातृभाषा तक कह उठते हैं। उर्दू को बिहार के तर्ज पर सरकारी काम काज में प्रयोग होने वाली भाषा के रूप में स्थापना के प्रयास जो लोग चला रहे हैं उन लोगों को जानना चाहए कि बिहार में अभी भी हिन्दी ही सरकारी काम काज की भाषा है। जबकि उर्दू को सरकारी काम-काज में लाने का कानून बहुत पहले ही बन चुका है। यानि हिन्दी या किसी भारतीय भाषा को विस्थापित करके उर्दू की स्थापना सम्भव नहीं है। यद्यपि की उर्दू के संस्कार में सत्ता परस्ती है। अभिजात्य के प्रति आग्रह है। उर्दू भाषा के साथ सबसे अधिक कठिनाई यह है कि यह ठेंठपन को स्वीकार नहीं कर सकती है। उर्दू में बंदिश और मुहावरों को छोड़ा नहीं जा सकता जहां यह छूटा वहीं तमीज का सवाल उठ खड़ा होता है और तमीज के प्रति जहां अधिक आग्रह होगा, वहां कथ्य का बहुत कुछ ऐसा होगा जो छूट जाएगा, जो छूट जाएगा वहीं लोक होगा। उर्दू के इसी गुण के कारण उर्दू के किसी शायर, लेखक और उर्दू दां ने अंग्रेजी हटाने की बात कभी नहीं की। जबकि तमिलों तक ने अंग्रेजी हटाओं की बात उठायी। इतना ही नहीं, जब-जब अंग्रेजी हटाओ के आन्दोलन चले तब-तब उर्दू वालों ने उर्दू लागू करो, उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाओ जैसे आन्दोलन चलाये। इससे तो यह लगता है कि उर्दू एवं अंग्रेजी में कोई मौन समझौता है।
सत्ता की वैसाखी के सहारे जो लोग किसी भाषा को स्थानापन्न करके उर्दू का विकास करना चाहते हैं वे न ही भाषा के नियम को जानते हैं नही समाज के , क्योंकि जब-जब सत्ता बदलती है तो नये किस्म के ‘भद्रलोग’ का जन्म होता है।
उर्दू को अफीम की तरह खिलाने के लिये जो प्रयास किये जा रहे हैं, वे सार्थक नहीं हो सकते। एक ऐसे समय जब देश के गणमान्य नेता एवं पूर्व रापति अंग्रेजी को संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं से हटवाने के लिए सत्याग्रह पर हों वैसे में क्या यह नहीं मान लिया जाय कि उर्दू से अंगे्रजी को फिर मौन समर्थन दिलवाया जा रहा है। तभी तो जब अंगे्रजी हटाओ की बात उठी है तभी उर्दू स्थापना के प्रयास हो रहे हैं ?
भाषा की राजनीति एवं राजनीति की भाषा में जब भी तालमेल लाने की कोई कोशिश राजनीतिक पार्टी के तरफ से की जाती है तो भाषा का स्वरूप चाटुकारिता का हो जाता है। राजनीतिज्ञ या राजनीतिक पार्टी का कुछ नहीं बिगता है परन्तु भाषा के प्रति समाज के बोध में अन्तर आ जाता है क्योंकि भाषा शब्दों की तकनीक नहीं होती। उसका रिश्ता दय से होता है इसे कोई सरकार आयात नहीं करा सकती है। फिर भी राजनीति के आज के दौर में भाषा, साहित्य व संस्कृति का सिलसिलेवार ढंग से संहार किया जा रहा है। आज का राजनीतिक उर्दू को धर्म से जोकर हिन्दी से अलग करता है। तब उसका किसी भाषा के साथ लगाव नहीं होता है वरन वह भाषा के हथियार से ‘वोट बैंक’ की शक्ल गढ़ता है।
वह भाषा साहित्य को अपने साम्प्रदायिक व सत्ताधारी स्वार्थों की पूर्ति का साधन मानता है यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारे राजनीतिज्ञों को यह खुली छूट है कि वह भाषा और साहित्य जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भी अपनी टांग अड़ा दे जबकि उसे नहीं पता कि हिन्दी की एक शाखा या बोली है - उर्दू। उर्दू हिन्दी से अलग भाषा नहीं है। टांग अड़ाने वाला राजनीतिज्ञ यह भाषा वैज्ञानिक तथ्य जानता ही नहीं है। अभी तक संस्कृत को विवाद का आधार नहीं बनाया गया था। आज संस्कृत उर्दू को आपस में लाने की पृष्टभूमि तैयार की जा रही है इसे उर्दू दां एवं संस्कृतनिष्ठ लोगों को समझते हुए उत्तर देना चाहिए। भाषा को हथियार बनाकर लड़ने और लड़ाने की मंशा के खिलाफ खड़ा होना चाहिए क्योंकि भाषाएं, बोलियां हमारे मनोभावों को प्रकट करने के साधन इतने गंदे और राजनीतिज्ञों के हथियार बन जाएंगे तो हम जिस समाज में रहेंगे या जिस समाज का निर्माण करेंगे उसमें विद्वेष एवं वैमनस्यता का बीज पनपेगा। उर्दू दां लोगों को यह सबक लेना चाहिए कि हिन्दी को लगातार सरकारी संरक्षण प्राप्त होने के बाद भी उसे राजभाषा का अभी तक प्रमाणिक व स्वीकृत दर्जा नहीं मिल पाया ? क्योंकि सत्ता व राजनीति की बैसाखियां भाषाओं की मान्यता के लिए जरूरी नहीं होती हैं। इन बैसाखियों पर भाषाएं समाज की यात्रा नहीं कर सकती हैं। इसलिए सरकार या राजनीतिक दलों की इस मंशा को अस्वीकार करना चाहिए, अपनी बोली भाषा को हथियार बनने से रोकने में जुटना चाहिए अन्यथा संस्कृत और उर्दू विवाद खड़ा करके कुछ लोग कुर्सी तक तो जरूर पहुंच जाएंगे और कुछ लोग कुर्सी बरकरार रख लेंगे, परन्तु उर्दू से तमीज तथा संस्कृत से संस्कृति छूट जाएगी।
इसी सरकार के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अपने पूर्व के शासनकाल में हिंदी की व्यापक स्तर पर स्थापना के कई प्रयास किये, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जाकर अंग्रेजी भाषा पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने यहां तक कहा कि मुकदमों के तारीख लेने में भी अधिवक्ता लोग अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं जिससे मुवक्किल को लगे कि वकील साहब बहस कर रहे हैं। इतना ही नहीं, मुलायम सिंह यादव ने अपने पिछले कार्यकाल में प्रदेश के कुछ संभागों में भारतीय भाषा अध्ययन के न्द्र खोलकर हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की दिशा में जो कार्य किये वो सर्वथा प्रशंसनीय हैं। इस बार भी मुख्यमंत्री ने अपने सभी काम काज में हिन्दी को वरीयता का एलान करके हिन्दी पक्षधरता की छवि बनायी है।
परन्तु, सरकार ने अभी हाल में सभी प्राथमिक पाठशाला पर प्रदेश में उर्दू शिक्षकों की नियुक्ति करने का एलान किया है जिससे प्रदेश पर लगभग 50 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ बनेगा। इसे उर्दू को सरकारी वरीयता मानी जाए या राजनीतिक चाल? क्योंकि और भी तमाम विषयों के रिक्त पड़े पदों की ओर सरकार का ध्यान नहीं जा रहा है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के आधार पर निर्मित त्रिभाषा सूत्र के क्रियान्वयन के संदर्भ में हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी तथा संस्कृत, पंजाबी, बंगाली, गुजराती, मराठी, उड़िया, कश्मीरी, तेलगू, तमिल, मलयालम, कन्नड़, सिंधी, में से किसी एक भाषा के शिक्षण की व्यवस्था हुई थी परन्तु इस नीति को दर किनार करके प्रदेश सरकार जो नया त्रिभाषा फार्मूला लागू करने जा रही है उसके खिलाफ जनाक्रोश भड़काने के प्रयास जारी हैं।
वैसे तो देश में समाजवादी चिंतकों ने भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का तो विरोध किया ही था साथ ही साथ इन्होंने अंग्रेजी हटाओ, हिन्दी लाओ की दिशा में भी लम्बा आन्दोलन चलाया था। ये लोग अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं की बात करते थे, परन्तु कई भारतीय भाषाओं की मूल संस्कृत को दोयम दर्जे में रखने के पीछे मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की राजनीतिक विवशता चाहे जो हो परन्तु इसके पीछे उनकी समाजवादी सोच का कोई पक्ष नजर नहीं आ रहा है।
वैसे तो आजादी के बाद से ही भाषा का सवाल हमारे लिये एक अनसुली पहेली के रूप में खा हुआ। फिर भी इस सवाल के साथ लगातार छेड़छाड़ जारी है। जबकि भाषा का सवाल राष्ट्र और उसकी जनता की अस्मिता का सवाल होता है। हम यह जानते हैं कि भारत को छोड़कर किसी भी देश में उर्दू को भाषा के रूप में वह स्वीकृति नहीं मिली है जो यहां है। उर्दू भारत में ही सरकारी भाषा के रूप में पनपी। कुछ उर्दू दां लोग उर्दू को उत्तर प्रदेश की मातृभाषा तक कह उठते हैं। उर्दू को बिहार के तर्ज पर सरकारी काम काज में प्रयोग होने वाली भाषा के रूप में स्थापना के प्रयास जो लोग चला रहे हैं उन लोगों को जानना चाहए कि बिहार में अभी भी हिन्दी ही सरकारी काम काज की भाषा है। जबकि उर्दू को सरकारी काम-काज में लाने का कानून बहुत पहले ही बन चुका है। यानि हिन्दी या किसी भारतीय भाषा को विस्थापित करके उर्दू की स्थापना सम्भव नहीं है। यद्यपि की उर्दू के संस्कार में सत्ता परस्ती है। अभिजात्य के प्रति आग्रह है। उर्दू भाषा के साथ सबसे अधिक कठिनाई यह है कि यह ठेंठपन को स्वीकार नहीं कर सकती है। उर्दू में बंदिश और मुहावरों को छोड़ा नहीं जा सकता जहां यह छूटा वहीं तमीज का सवाल उठ खड़ा होता है और तमीज के प्रति जहां अधिक आग्रह होगा, वहां कथ्य का बहुत कुछ ऐसा होगा जो छूट जाएगा, जो छूट जाएगा वहीं लोक होगा। उर्दू के इसी गुण के कारण उर्दू के किसी शायर, लेखक और उर्दू दां ने अंग्रेजी हटाने की बात कभी नहीं की। जबकि तमिलों तक ने अंग्रेजी हटाओं की बात उठायी। इतना ही नहीं, जब-जब अंग्रेजी हटाओ के आन्दोलन चले तब-तब उर्दू वालों ने उर्दू लागू करो, उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाओ जैसे आन्दोलन चलाये। इससे तो यह लगता है कि उर्दू एवं अंग्रेजी में कोई मौन समझौता है।
सत्ता की वैसाखी के सहारे जो लोग किसी भाषा को स्थानापन्न करके उर्दू का विकास करना चाहते हैं वे न ही भाषा के नियम को जानते हैं नही समाज के , क्योंकि जब-जब सत्ता बदलती है तो नये किस्म के ‘भद्रलोग’ का जन्म होता है।
उर्दू को अफीम की तरह खिलाने के लिये जो प्रयास किये जा रहे हैं, वे सार्थक नहीं हो सकते। एक ऐसे समय जब देश के गणमान्य नेता एवं पूर्व रापति अंग्रेजी को संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं से हटवाने के लिए सत्याग्रह पर हों वैसे में क्या यह नहीं मान लिया जाय कि उर्दू से अंगे्रजी को फिर मौन समर्थन दिलवाया जा रहा है। तभी तो जब अंगे्रजी हटाओ की बात उठी है तभी उर्दू स्थापना के प्रयास हो रहे हैं ?
भाषा की राजनीति एवं राजनीति की भाषा में जब भी तालमेल लाने की कोई कोशिश राजनीतिक पार्टी के तरफ से की जाती है तो भाषा का स्वरूप चाटुकारिता का हो जाता है। राजनीतिज्ञ या राजनीतिक पार्टी का कुछ नहीं बिगता है परन्तु भाषा के प्रति समाज के बोध में अन्तर आ जाता है क्योंकि भाषा शब्दों की तकनीक नहीं होती। उसका रिश्ता दय से होता है इसे कोई सरकार आयात नहीं करा सकती है। फिर भी राजनीति के आज के दौर में भाषा, साहित्य व संस्कृति का सिलसिलेवार ढंग से संहार किया जा रहा है। आज का राजनीतिक उर्दू को धर्म से जोकर हिन्दी से अलग करता है। तब उसका किसी भाषा के साथ लगाव नहीं होता है वरन वह भाषा के हथियार से ‘वोट बैंक’ की शक्ल गढ़ता है।
वह भाषा साहित्य को अपने साम्प्रदायिक व सत्ताधारी स्वार्थों की पूर्ति का साधन मानता है यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारे राजनीतिज्ञों को यह खुली छूट है कि वह भाषा और साहित्य जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भी अपनी टांग अड़ा दे जबकि उसे नहीं पता कि हिन्दी की एक शाखा या बोली है - उर्दू। उर्दू हिन्दी से अलग भाषा नहीं है। टांग अड़ाने वाला राजनीतिज्ञ यह भाषा वैज्ञानिक तथ्य जानता ही नहीं है। अभी तक संस्कृत को विवाद का आधार नहीं बनाया गया था। आज संस्कृत उर्दू को आपस में लाने की पृष्टभूमि तैयार की जा रही है इसे उर्दू दां एवं संस्कृतनिष्ठ लोगों को समझते हुए उत्तर देना चाहिए। भाषा को हथियार बनाकर लड़ने और लड़ाने की मंशा के खिलाफ खड़ा होना चाहिए क्योंकि भाषाएं, बोलियां हमारे मनोभावों को प्रकट करने के साधन इतने गंदे और राजनीतिज्ञों के हथियार बन जाएंगे तो हम जिस समाज में रहेंगे या जिस समाज का निर्माण करेंगे उसमें विद्वेष एवं वैमनस्यता का बीज पनपेगा। उर्दू दां लोगों को यह सबक लेना चाहिए कि हिन्दी को लगातार सरकारी संरक्षण प्राप्त होने के बाद भी उसे राजभाषा का अभी तक प्रमाणिक व स्वीकृत दर्जा नहीं मिल पाया ? क्योंकि सत्ता व राजनीति की बैसाखियां भाषाओं की मान्यता के लिए जरूरी नहीं होती हैं। इन बैसाखियों पर भाषाएं समाज की यात्रा नहीं कर सकती हैं। इसलिए सरकार या राजनीतिक दलों की इस मंशा को अस्वीकार करना चाहिए, अपनी बोली भाषा को हथियार बनने से रोकने में जुटना चाहिए अन्यथा संस्कृत और उर्दू विवाद खड़ा करके कुछ लोग कुर्सी तक तो जरूर पहुंच जाएंगे और कुछ लोग कुर्सी बरकरार रख लेंगे, परन्तु उर्दू से तमीज तथा संस्कृत से संस्कृति छूट जाएगी।
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