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गांधीवाद के समानान्तर गोड़सेवाद को खड़ा करने की साजिश
प्रदेश में शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे लगातार प्रयोगों से विद्यार्थियों एवं संरक्षकों का उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद से मोहभंग होता जा रहा है। भाजपा के सत्तारूढ़ होते ही उसने राष्ट्रीय स्वयं सेवक के निर्देशों के तहत संस्कार शिक्षा के नाम पर माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में कई तब्दीलियां कीं। वैदिक गणित के नाम पर गणित पाठ्यक्रम में हुए परिवर्तन को ठीक से पढ़ाने के लिए अध्यापकों को शिक्षित करने के व्यापक प्रबंध किये गये। भाजपा ने हमारे महापुरूषों की पूरी सूची में व्यापक रद्दोबदल किया। महापुरूषों में खेमेबाजी की परम्परा का निर्वाह शुरू किया गया।
इसी श्रंखला में प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा मंत्री रशीद मसूद ने माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में नाथूराम गोड़से की जीवनी पढ़ाने की अपनी इच्छा जाहिर की है। यह बात उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहीं है।
रशीद मसूद बसपा के नेता हैं और इनकी महासचिव मायावती पहले ही महात्मा गांधी को शैतान की औलाद बताकर खासी चर्चित हो चुकी हैं। महात्मा गांधी के हत्यारे की जीवनी पाठ्यक्रम में शामिल करने के पीछे मसूद का तर्क चाहें जो हो, परंतु उनके तर्क को कोई भी सोच समझ वाला आदमी स्वीकार नहीं करेगा। अगर गोड़से की जीवनी पाठ्यक्रम में शामिल कर छात्रों को पढ़ने पर विवश किया जा सकता है तो डाकू मंगल सिंह, माधो सिंह, ददुआ और फूलन देवी क्यों नहीं? वैसे लोग इसके पीछे लोग चाहे जो तर्क दें परंतु हमारा मानना है कि हम एक ऐसे देश में हैं। ऐसे संस्कारों एवं संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं, जहां हिंसा को कभी कोई स्थान नहीं मिलता। वैसे तो बसपा के नेतागण अपने बचाव में यह भी तर्क गढ़ सकते हैं कि हिन्दुओं के भगवान राम ने श्रीलंका में तमाम लोगों का वध किया। संहार किया। हिंसा फैलायी। तो फिर देश की संस्कृति में हिंसा विहीनता कैसी? परंतु समाजबोध से सम्पन्न इन लोगों को यह समझना चाहिए कि उनके बौद्ध धर्म जिसको वे हिन्दू धर्म से अलग मानते हैं, में उनके भगवान बुद्ध के लिए अहिंसा परमो धर्मः को स्वीकार किया गया है और अपने बौद्ध धर्म को ही मानें तो भी किसी हिंसक व्यक्ति को पाठ्यक्रम में शामिल करना अपराध है। वह भी पाठ्यक्रम में महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति के हत्यारे को शामिल किया जाना सिर्फ दिमागी दिवालियापन है।
हमारी शिक्षा पांच प्रश्न के चक्रवात में फंसी है और हमारा विद्यार्थी प्रतिस्पर्धा की होड़ में इस तरह उलझ गया है कि उसके पास अपने पाठ्यक्रम के औचित्य के सामने उठ खड़े होने का समय नहीं है और न ही अवसर। अतएव पाठ्यक्रम में चाहें गोड़से को जोड़ें या फूलन देवी को। हमारे विद्यार्थियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी चेतना कभी इन सवालों के लिए जागृत नहीं होती है। लगता है बसपाई मंत्री को यह बात कहीं से समझ में आ गयी है कि महात्मा गांधी भाजपा या कांग्रेस की सम्पत्ति हैं और विरोध करना बसपाई राजनीति का एक अभिनव हिस्सा है। इसी हिस्से के अनुपालन में जुटे शिक्षा मंत्री दक्षिण अफ्रीका की आजादी में एक दशक बाद भी गांधी जी की आंदोलन शैली की उनकी नीतियों के विजय से कुछ सीख नहीं पा रहे हैं।
उन्हें नहीं पता यह पूरे समाज के लिए गांधीवाद की प्रासंगिकता को एक जोरदार समर्थन है। गांधीवाद को लगातार गाली देने वाले लोगों को सत्य के साथ प्रयोग करते हुए एक सप्ताह गुजारने का प्रयास करना चाहिए। परंतु सत्य के साथ प्रयोग आज की राजनीति में असंभव है। मैं तो एक दिन भी सत्य के साथ प्रयोग सफल नहीं कर पाया।
गोड़से की जीवनी को शामिल करके हम अपने उत्तराधिकारियों को किस बात का संके त या चेतावनी देना चाहते हैं यह तो मंत्री महोदय को बताना होगा। महापुरूषों की श्रेणियों में तब्दीलियां करके हम किसी के कद पर छोटा या बड़ा नहीं कर सकते और कई व्यक्तित्व एवं कृतित्व पाठ्यक्रमों के मोहताज नहीं होते। इसलिए गोड़से को स्वीकार करने की बात उठाकर शिक्षा मंत्री ने ओछी मानसिकता का परिचय दिया है। ऐसी ओछी मानसिकता के आदमी को देश के संस्कार निर्मित करने और भविष्य निर्माण का मुखिया होने का कोई हक नहीं। हमारी सारी शिक्षा प्रथम होने की एंग्जाइटी पर टिकी है। यही प्रथा होने की एंग्जाइटी दूसरों से आगे होने की प्रतिस्पर्धा एक कम्पटीशन है। यह कम्पटीशन ईष्र्या पर टिका है।
एक ओर हम बड़े-बड़े उपदेश देते हैं। ईष्र्या मत करो। सम दृष्टि रखो। दूसरी ओर पाठ्यक्रमों के स्तर पर हम विघटनकारी पाठ्यक्रमों, निजी हित पोषक पाठ्यक्रमों को लगातार अपने राजनीतिक कौशल के अनुरूप प्रयोग कर रहे हैं।
हमारी शिक्षा हमारे बच्चों को भेद सिखाती है और बताती है कि जीवन के लिए भेद उपयोगी है। जबकि हमारी जिंदगी का प्रभाव ऐसा होना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियों को जीवन समाज, अखण्ड मालूम हो। लेकिन ऐसा नहीं हो, कहा है हमारे बच्चों को यह सिखाया जा रहा है कि यह अगड़ा छात्र है। यह पिछड़ा मास्टर है। वह पिछड़ा छात्र है। वह दलित मास्टर है। वह दलित छात्र है। यानी बच्चों को मास्टर छात्र जैसी चीजों से अलग भी कुछ बताया जा रहा है और यह बताने के लिए हमारा अध्यापक पता नहीं किस विवशता के तहत सदैव तैयार रहता है। शिक्षा नए जगत, नए जीवन, मनुष्यता के जन्म का माध्यम हो सकता है। लेकिन ऐसा होता नहीं। वरन शिक्षक सारा श्रम नयी पीढ़ी के मस्तिष्क में पुरानी पीढ़ी के ज्ञान को समायोजित करने और पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं को नयी पीढ़ी के मन में प्रविष्ट करने में ही अपनी ऊर्जा व्यय करता।
ऐसे शिक्षकों पाठ्यक्रमों से उदास छात्र एवं विद्यालयों में वोटांे की सफल जातिवाद एवं वर्गवाद से रसायन से पैदा करने में जुटा राजनेता इन तीनों से नई पीढ़ी को कोई शुभ संके त मिल जाएगा। ऐसा सोचना बेमानी है।
नाथूराम गोड़से के बारे में हमारे मंत्री महोदय क्या पढ़वा पायेंगे। बच्चों को क्या बतायेंगे। लगता है मनोरंजन के नाम पर हिंसा परोसने वाली बम्बइया फिल्मी निर्देशकों से वे प्रभावित हैं। तभी तो शिक्षा के नाम पर वो अहिंसा, हत्या को पाठ्यक्रमों में शामिल कराने में अमादा हैं। जो शिक्षा जीवन को कोई अंतरदृष्टि नहीं देती, वह अधूरी है। आखिर इस शिक्षा से कौन सी अंतर दृष्टि दी जाएगी हमारे छात्रों को। हमारी शिक्षा जब तक राजनीति के हत्थे चढ़ती रहेगी, तब तक हमारे विद्यालय महज वोटों की फसल उगाने वाले नेताओं के चारागाह बने रहेंगे।
अभी हमारी शिक्षा में निहित दोहरे मानदंडों को समाप्त करने के लिए संघर्ष चल ही रहा था कि इसी बीच हमें शिक्षा के माध्यम से और वर्गों में बंटकर जीने को विवश किया जा रहा है। इससे तो अब लगने लगा है कि अंग्रेजों का ही नहीं, कहीं भी शासन करने का एक ही सूत्र है विभाजित करो और राज करो। विभाजित करने की यह घटिया चाल गांधीवाद के समानान्तर गोड़सेवाद को खड़ा करने की साजिश है। गांधी शैतान की औलाद थे। शैतान की औलाद की हत्या करके फांसी पर चढ़ने वाला गोड़से शहीद हो सकता है शिक्षामंत्री की दृष्टि में। परंतु ऐसे शहीदों की स्वीकृति वे अपनी पार्टी में करें। घर में करें। उन्हें इतना ही अधिकार है। मनगढ़ंत शहीदों को थोपने की साजिश न की जाय। वैसे भी रशीद मसूद विद्यालयों में जो बीज बो रहे हैं, उसमें कक्षाओं में वर्ग अ, ब, स की जगह विद्यालयों में दलित वर्ग, मुस्लिम वर्ग, पिछड़ा वर्ग, अगड़ा वर्ग होंगे और इन वर्गों में आपस में ईष्र्या होगी और इन वर्गों को भी जातीय चेतना से सम्पन्न अध्यापक ही पढ़ायेंगे।
कह रहीम कैसे निभे, बेर के र के संग। वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग। जैसी स्थिति हो जाएगी।
इसी श्रंखला में प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा मंत्री रशीद मसूद ने माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में नाथूराम गोड़से की जीवनी पढ़ाने की अपनी इच्छा जाहिर की है। यह बात उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहीं है।
रशीद मसूद बसपा के नेता हैं और इनकी महासचिव मायावती पहले ही महात्मा गांधी को शैतान की औलाद बताकर खासी चर्चित हो चुकी हैं। महात्मा गांधी के हत्यारे की जीवनी पाठ्यक्रम में शामिल करने के पीछे मसूद का तर्क चाहें जो हो, परंतु उनके तर्क को कोई भी सोच समझ वाला आदमी स्वीकार नहीं करेगा। अगर गोड़से की जीवनी पाठ्यक्रम में शामिल कर छात्रों को पढ़ने पर विवश किया जा सकता है तो डाकू मंगल सिंह, माधो सिंह, ददुआ और फूलन देवी क्यों नहीं? वैसे लोग इसके पीछे लोग चाहे जो तर्क दें परंतु हमारा मानना है कि हम एक ऐसे देश में हैं। ऐसे संस्कारों एवं संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं, जहां हिंसा को कभी कोई स्थान नहीं मिलता। वैसे तो बसपा के नेतागण अपने बचाव में यह भी तर्क गढ़ सकते हैं कि हिन्दुओं के भगवान राम ने श्रीलंका में तमाम लोगों का वध किया। संहार किया। हिंसा फैलायी। तो फिर देश की संस्कृति में हिंसा विहीनता कैसी? परंतु समाजबोध से सम्पन्न इन लोगों को यह समझना चाहिए कि उनके बौद्ध धर्म जिसको वे हिन्दू धर्म से अलग मानते हैं, में उनके भगवान बुद्ध के लिए अहिंसा परमो धर्मः को स्वीकार किया गया है और अपने बौद्ध धर्म को ही मानें तो भी किसी हिंसक व्यक्ति को पाठ्यक्रम में शामिल करना अपराध है। वह भी पाठ्यक्रम में महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति के हत्यारे को शामिल किया जाना सिर्फ दिमागी दिवालियापन है।
हमारी शिक्षा पांच प्रश्न के चक्रवात में फंसी है और हमारा विद्यार्थी प्रतिस्पर्धा की होड़ में इस तरह उलझ गया है कि उसके पास अपने पाठ्यक्रम के औचित्य के सामने उठ खड़े होने का समय नहीं है और न ही अवसर। अतएव पाठ्यक्रम में चाहें गोड़से को जोड़ें या फूलन देवी को। हमारे विद्यार्थियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी चेतना कभी इन सवालों के लिए जागृत नहीं होती है। लगता है बसपाई मंत्री को यह बात कहीं से समझ में आ गयी है कि महात्मा गांधी भाजपा या कांग्रेस की सम्पत्ति हैं और विरोध करना बसपाई राजनीति का एक अभिनव हिस्सा है। इसी हिस्से के अनुपालन में जुटे शिक्षा मंत्री दक्षिण अफ्रीका की आजादी में एक दशक बाद भी गांधी जी की आंदोलन शैली की उनकी नीतियों के विजय से कुछ सीख नहीं पा रहे हैं।
उन्हें नहीं पता यह पूरे समाज के लिए गांधीवाद की प्रासंगिकता को एक जोरदार समर्थन है। गांधीवाद को लगातार गाली देने वाले लोगों को सत्य के साथ प्रयोग करते हुए एक सप्ताह गुजारने का प्रयास करना चाहिए। परंतु सत्य के साथ प्रयोग आज की राजनीति में असंभव है। मैं तो एक दिन भी सत्य के साथ प्रयोग सफल नहीं कर पाया।
गोड़से की जीवनी को शामिल करके हम अपने उत्तराधिकारियों को किस बात का संके त या चेतावनी देना चाहते हैं यह तो मंत्री महोदय को बताना होगा। महापुरूषों की श्रेणियों में तब्दीलियां करके हम किसी के कद पर छोटा या बड़ा नहीं कर सकते और कई व्यक्तित्व एवं कृतित्व पाठ्यक्रमों के मोहताज नहीं होते। इसलिए गोड़से को स्वीकार करने की बात उठाकर शिक्षा मंत्री ने ओछी मानसिकता का परिचय दिया है। ऐसी ओछी मानसिकता के आदमी को देश के संस्कार निर्मित करने और भविष्य निर्माण का मुखिया होने का कोई हक नहीं। हमारी सारी शिक्षा प्रथम होने की एंग्जाइटी पर टिकी है। यही प्रथा होने की एंग्जाइटी दूसरों से आगे होने की प्रतिस्पर्धा एक कम्पटीशन है। यह कम्पटीशन ईष्र्या पर टिका है।
एक ओर हम बड़े-बड़े उपदेश देते हैं। ईष्र्या मत करो। सम दृष्टि रखो। दूसरी ओर पाठ्यक्रमों के स्तर पर हम विघटनकारी पाठ्यक्रमों, निजी हित पोषक पाठ्यक्रमों को लगातार अपने राजनीतिक कौशल के अनुरूप प्रयोग कर रहे हैं।
हमारी शिक्षा हमारे बच्चों को भेद सिखाती है और बताती है कि जीवन के लिए भेद उपयोगी है। जबकि हमारी जिंदगी का प्रभाव ऐसा होना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियों को जीवन समाज, अखण्ड मालूम हो। लेकिन ऐसा नहीं हो, कहा है हमारे बच्चों को यह सिखाया जा रहा है कि यह अगड़ा छात्र है। यह पिछड़ा मास्टर है। वह पिछड़ा छात्र है। वह दलित मास्टर है। वह दलित छात्र है। यानी बच्चों को मास्टर छात्र जैसी चीजों से अलग भी कुछ बताया जा रहा है और यह बताने के लिए हमारा अध्यापक पता नहीं किस विवशता के तहत सदैव तैयार रहता है। शिक्षा नए जगत, नए जीवन, मनुष्यता के जन्म का माध्यम हो सकता है। लेकिन ऐसा होता नहीं। वरन शिक्षक सारा श्रम नयी पीढ़ी के मस्तिष्क में पुरानी पीढ़ी के ज्ञान को समायोजित करने और पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं को नयी पीढ़ी के मन में प्रविष्ट करने में ही अपनी ऊर्जा व्यय करता।
ऐसे शिक्षकों पाठ्यक्रमों से उदास छात्र एवं विद्यालयों में वोटांे की सफल जातिवाद एवं वर्गवाद से रसायन से पैदा करने में जुटा राजनेता इन तीनों से नई पीढ़ी को कोई शुभ संके त मिल जाएगा। ऐसा सोचना बेमानी है।
नाथूराम गोड़से के बारे में हमारे मंत्री महोदय क्या पढ़वा पायेंगे। बच्चों को क्या बतायेंगे। लगता है मनोरंजन के नाम पर हिंसा परोसने वाली बम्बइया फिल्मी निर्देशकों से वे प्रभावित हैं। तभी तो शिक्षा के नाम पर वो अहिंसा, हत्या को पाठ्यक्रमों में शामिल कराने में अमादा हैं। जो शिक्षा जीवन को कोई अंतरदृष्टि नहीं देती, वह अधूरी है। आखिर इस शिक्षा से कौन सी अंतर दृष्टि दी जाएगी हमारे छात्रों को। हमारी शिक्षा जब तक राजनीति के हत्थे चढ़ती रहेगी, तब तक हमारे विद्यालय महज वोटों की फसल उगाने वाले नेताओं के चारागाह बने रहेंगे।
अभी हमारी शिक्षा में निहित दोहरे मानदंडों को समाप्त करने के लिए संघर्ष चल ही रहा था कि इसी बीच हमें शिक्षा के माध्यम से और वर्गों में बंटकर जीने को विवश किया जा रहा है। इससे तो अब लगने लगा है कि अंग्रेजों का ही नहीं, कहीं भी शासन करने का एक ही सूत्र है विभाजित करो और राज करो। विभाजित करने की यह घटिया चाल गांधीवाद के समानान्तर गोड़सेवाद को खड़ा करने की साजिश है। गांधी शैतान की औलाद थे। शैतान की औलाद की हत्या करके फांसी पर चढ़ने वाला गोड़से शहीद हो सकता है शिक्षामंत्री की दृष्टि में। परंतु ऐसे शहीदों की स्वीकृति वे अपनी पार्टी में करें। घर में करें। उन्हें इतना ही अधिकार है। मनगढ़ंत शहीदों को थोपने की साजिश न की जाय। वैसे भी रशीद मसूद विद्यालयों में जो बीज बो रहे हैं, उसमें कक्षाओं में वर्ग अ, ब, स की जगह विद्यालयों में दलित वर्ग, मुस्लिम वर्ग, पिछड़ा वर्ग, अगड़ा वर्ग होंगे और इन वर्गों में आपस में ईष्र्या होगी और इन वर्गों को भी जातीय चेतना से सम्पन्न अध्यापक ही पढ़ायेंगे।
कह रहीम कैसे निभे, बेर के र के संग। वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग। जैसी स्थिति हो जाएगी।
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