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एकता परिषद के मायने

Dr. Yogesh mishr
Published on: 30 Sept 1994 4:10 PM IST
राष्ट्रीय एकता परिषद की गत 23 नवंबर की बैठक का भाजपा व विहिप ने बहिष्कार करके  समस्याओं के स आम सहमति से हल निकालने वाली संस्था के  सम्मुख प्रष्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। इतना ही नहीं, मंदिर मुद्दे पर एकता परिष्द की इस बैठक का बहिष्कार करते हुए भाजपा व विहिप ने इसे कपटी वाद-विवाद सोसायटी जैसी संज्ञा देकर देष के  लोकतंत्र और संविधान के  प्रति जो निष्ठा बरती है वह एक दुखद अध्याय है। ऐसा उस समय हुआ है जबकि 2 नवंबर 1991 की एकता परिष की ही बैठक में प्रदेष के  मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने विवादित ढांचे की सुरक्षा के  प्रस्ताव का समर्थन करते हुए ढांचे के  सुरक्षा की जिम्मेदारी भी ली थी। यह बात दूसरी है कि विहिप के  अषोक ंिसहल ने इस आष्वासन को तथाकथित छद्म धर्मनिरपेक्ष तत्वों को खुष करने और अनुचित प्रश्रय देने का प्रयास बताया पर यह सिंधल की राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है ओर उनका बयान उनकी पार्टी के  प्रति टिप्पणी थी। अतः इसे गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। दो नंवंबर तक जिस संस्था के  प्रति सभी राजनीतिक दलों की आस्था थी, वह अचानक मात्र 19 दिनों बाद यहां तक बिखर गयी कि भाजपा जैसी पार्टी के  राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोषी ने इस बैठक को राजनीतिक उद्देष्यों व निहित स्वार्थों की पूर्ति के  लिए प्रेरित बताया।
यह सत्य है कि समस्याओं के  आम सहमति से हल के  लिए जिस संस्था का गठन किसी सैद्धांतिक आधार कर किया गया हो उसे राजनीतिक उद्देष्यों व निहित स्वार्थों की पूर्ति के  लिए प्रयोग करना उचित नहीं है लेकिन राम का राजनीति के  लिए प्रयोग करना कितना उचित है। कितना उचित है धार्मिक मुलम्मा चढ़ाकर कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति व जद के  जामा मस्जिदी फरमान का उत्तर देना? यह संभव है कि लोग कट्टर मुस्लिम पंथ का जवाब उग्र हिंदूवाद के  रूप में देना व देखना चाहते हों और षायद अल्पकाल के  लिए आवष्यक भी हो परंतु देष किसी क्षण, काल, समय विषेष की सीमाओं का समाधान समस्याएं पैदा करके  लोहा लोहे को काटता है की तर्ज पर करना कितना न्यायसंगत है। इस बार राष्ट्रीय एकता परिषद का बहिष्कार लालकृष्ण आडवाणी के  इषारे पर भाजपा षासित राज्यों के  मुख्यमंत्रियों ने भी किया। एक ऐसे समय जब सदन की गरिमा बनाए रखने के  लिए राजनीति के  अपराधीकरण पर चिंता जतायी जा ही हो वैसे मैं एकता परिषद जैसी सर्वमान्य संस्था का बहिष्कार करके  एक नयी परंपरा डालना किसी राष्ट्रव्यापी राजनीतिक दल के  लिए कितना सार्थक व आवष्यक है वह भी एक ऐसी स्थिति में जबकि एकता परिषद की यह बैठक विहिप व बाबरी एक्षन कमेटी के  बीच मंदिर मुद्दे पर बातचीत विफल हो जाने के  बाद संविधान के  अनुच्छेद 138 (2) के  तहत उच्चतम न्यायालय को यह मामला सौंपने के  केंद्र सरकार के  प्रस्ताव को प्रदेष सरकार द्वारा खारिज कर दिए जाने के  बाद बुलायी गयी हो। इतना ही नहीं, जिस 2.77 एकड़ भूमि को गैर विवादित करार देकर प्रदेष के  मुख्यमंत्री कल्याण सिंह कारसेवा करवा कर मंदिर मुद्दे की तात्कालिक गंभीरता को कुछ वर्षों तक टालना चाहते हैं, उसके  बारे में मुख्यमंत्री को निष्चित तौर पर यह पता होगा कि इस भूखंड पर तीन-तीन स्थगनादेष पड़े हैं।
भाजपा ने एकता परिषद का बहिष्कार भले ही किया हो परंतु जयललिता ने भाजपा का माउथ पीस बनकर जिस तरह बंगारप्पा द्वारा अपने प्रति किए गए व्यवहार के  खिलाफ रोष प्रकट करते हुए भाजपायी तेवर दिखाया उससे भाजपा की अनुपस्थिति खली नहीं क्योंकि जयललिता की भाषा, भाव और बोध सब भाजपायी था, जिसमें कट्टर मुस्लिमवाद के  खिलाफ उग्र हिंदू पथ को खड़ा करने का उमा भारती सरीखा तेवर दिखा। वह भी एक ऐसे दल की मुखिया द्वारा जो केंद्र में इंका का सहयोगी दल है। जयललिता ने भाजपा व विहिप की अनुपस्थिति को यह कहकर बनाए रखा कि 2.77 एकड़ भूमि पर से सभी बाधाएं कारसेवा हेतु हटायी जानी चाहिए और बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं का ख्याल भी रखा जाना चाहिए। इतना ही नहीं, इस विवाद के  लिए उच्चतम न्यायालय की भूमिका भी उपस्थित होकर इससे ज्यादा कुछ नहीं कह पाती लेकिन जयललिता की इस धारणा के  पीछे वह मंषा नहीं है जो भाजपा व विहिप की है वरन ये बंगारप्पा और सुब्रमण्यम स्वामी को कांगे्रस का प्लांटेड मैन स्वीकार करते हुए कांग्रेस के  खिलाफ खड़ी होने कीकोािषष में है। भाजपा के  दम से जयललिता में इतना दुस्साहस भर आया कि कांग्रेस से मोहभंग का बिगुल तो उन्होंने बजाया ही साथ ही साथ अन्नाद्रमुक के  11 सांसदांे की ताकत से केंद्र सरकार को भी चुनौती दी। इतना ही नहीं, संसद में बंदेमातरम गाने को लेकर जो विवाद उठा उस मुद्दे पर भी अन्नाद्रमुक ने कांग्रेस का साथ नहीं दिया और अन्नाद्रमुक, सुलेमान सेठ, षहाबुद्दीन व जद आदि के  राजनीतिक बांझपन का षिकार हो उठी। भाजपा को यह जानना होगा कि यह वही वंदेमातरम है जिसे संघ देष का राष्ट्रीय व सांस्कृतिक प्रतीक मानता है। एकता परिषद में जो कुछ हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि अब अपनी पसंद के  मुद्दों पर राजनीतिक करने का जोर जो चल निकला है। यह सुखद नहीं होगा क्योंकि कभी अन्नाद्रमुक जद के  साथ होगी, कभी कांग्रेस, रामो-वामो के  साथ और कभी रामो-वामो भाजपा के  साथ। वस्तुतः मंदिर निर्माण पर भाजपा के  तीखे तेवर का कारण मंडल विवाद पर उच्चतम न्यायालय के  निर्णय का वीपी सिंह के  खाते में चला जाना है, जिससे वोट की गणित में वीपी सिंह मजबूत हुए। भाजपा के  सामने वीपी सरकार गिराने के  पीछे भी लगभग यही स्थिति थी। वैसे भी सत्य है कि मंदिर निर्माण हेतु ही भाजपा केा जनोदष प्राप्त हुआ था और भाजपा समझ गयी कि 16 लाख कारसेवक के  रूप में जो वोटों की तिजोरियां हाथ लग गयी हैं, उसे बनाए रखने और बढ़ाने का एकमात्र तरीका मंदिर निर्माण को और उकसाना है। पादुका पूजन की असफलता के  बाद पराजय का आक्रोष जोरों पर है। भाजपा यह समझने लगी है कि पहले बिना कुछ खोए प्रदेष पा लिया गया है और अब लखनऊ खो कर दिल्ली पाने का सपना पूरा किया जा सकता है। क्योंकि भाजपा के  स्वदेषी व एकता यात्रा सरीखे कार्यक्रमों की असफलता अब किसी बड़े उत्सर्ग की मांग कर रही है।
वैसे तो मुस्लिम तुष्टीकरण की लगातार बढ़ती प्रत्याषा के  खिलाफ हिंदू मतों का जखीरा खड़ा करने की चाल इंदिरा गांधी ने ही चलायी थी। उनके  ही अंतिम दिनों के  कार्यकाल में विहिप का रथ उत्तरी भारत का परिक्रमा कर रहा था। अचानक उनकी हत्या के  बाद वह सब समाप्त हो गया। राजीव गांधी की सरकार बनाने के  लिए विहिप और संघ ने इंका को विजयी बनाने हेतु पक्ष में फरमान पूरे राष्ट्र स्तर पर जारी किया था। सहसा भाजपा ने हिंदू मतों की संकल्पना को झटक लिया और मंदिर मुद्दा उसकी झोली चला गया। समय-समय पर इंका ने इस मुद््दे को अपने हथियार के  रूप में प्रयोग करने की तमाम असफल कोषिष कीें। दूसरी ओर भाजपा के  केंद्रीय नेताओं व प्रादेषिक नेताओं के  तेवर में काफी अंतर है। विहिप आरपार की लड़ाई लड़ने की स्थिति में है। केंद्र सरकार का परमहंस रामचंद्र से वार्ता का प्रयास असफल हो गया है। प्रदेष के  नेता और मुख्यमंत्री कल्याण सिंह 2.77 एकड़ भूमि पर कारसेवा की अनुमति चाहते हैं और चाहते हैं कि इसके  अधिग्रहण की वैधता की चुनौती पर षीघ्र फैसला सुना दिया जाए पर केंद्रीय नेतृत्व कल्याण सरकार की षहादत चाहता है। दोनों ओर एक दूसरे को कतरने-ब्योंतने की प्रक्रिया जारी है। कल्याण सिंह षहादत के  लिए एक ऐसी स्थिति बनाए रखना चाहते हैं कि पंाच दिसंबर तक केंद्र सरकार को भुलावे में रखकर षहीद होने का स्वयं बांध लें। केंद्र व प्रदेष सरकार को बर्खास्त करने या निलंबित करने के  लिए परिणाम की गंभीरता से वाकिफ है। यानि टकराव केंद्र नहीं चाहता है अगर मंदिर के  2.77 एकड़ भूमि पर कारसेवा केंद्र नहीं चाहता है अगर मंदिर के  2.77 एकड़ भूमि पर कारसेवा करने की अनुमति मिल भी जाए तो क्या भाजपा विहिप से अपने संबंधों और सुप्रीम कोर्ट पर अपनी आस्था को अभी स्पष्ट करके  अंत तक स्थिर रहेगी। इस विवाद को सरकारी और गैर सरकारी दोनों स्तरों से देखने की जरूरत है। तभी समस्या हल हो पाएगी। इसके  लिए आवष्यक है कि 2.77 एकड़ भूमि को कारसेवा के  लिए मुक्त कर दिया जाए। विवादित ढांचे के  लिए प्रदेष सरकार को संविधान के  138 (2) पर आस्था जताकर उच्चतम न्यायालय के  निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर दोनों साथ-साथ नहीं हुआ तो भयमुक्त समाज का नारा देने वाली सरकार मंदिर निर्माण के  भूत से जाने कब तक डराती रहेगी। अब जरूरत इस बार की है कि यथास्थितिवाद की राजनीति को तलाक दे दिया जाए और राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए एक गैर राजनीतिक फेसला लिया जाए जिसमें वोट की लहलहाती फसल का कोई स्थान न हो।
Dr. Yogesh mishr

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