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साक्षात्कार

Dr. Yogesh mishr
Published on: 20 Nov 1995 4:24 PM IST
पंाचवे दशक में ही नयी कविता आंदोलन के  माध्यम से अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लेने वाले डा. गुप्त नयी कविता आंदोलन को कभी समाप्त प्रायः नहीं मानते। क्योंकि वह आंदोलन और काव्यधारा को अलग-अलग रूप में रखकर चलते हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी कभी निष्क्रिय न होने वाले डा0 गुप्त हृदय की बाईपास सर्जरी के  बाद पूरी तरह स्वस्थ न होते हुए भी सहज एवं सक्रिय हैं। सामान्य कार्यों एवं मैथलीशरण गुप्त पुरस्कार मिलने के  बाद शुभचिन्तकों से घिरे उन्होंने व्यक्तिगत और साहित्यिक संदर्भ में ढेर सारी बातें कहीं। प्रस्तुत है डा. जगदीश गुप्त से हुई बातचीत के  कुछ अंश-
देखिए, काव्य शब्दगत कला जबकि चित्रकला स्वगत है। ये दोनों एक ही स्रोत से निकलने के  कारण अन्योन्याश्रित होती है। किसी स्थिति में यह (कविता) प्रमुख होती है तो किसी स्थिति में वह (चित्रकला)। कविता लिखने बैठता हूं तो कहीं न कहीं उसमें चित्रात्मकता होती है और चित्र बनाते समय भी उसका काव्यगत पक्ष मस्तिष्क में होता है। परन्तु यह दोनों विधाएं स्वतंत्र हैं और एक दूसरे का आधार नहीं बनती।
आपके  आरंभिक जीवन और शिक्षा के  बारे में ‘आज’ के  पाठक जानना चाहेंगे, कृपया इस संदर्भ में कुछ बताएं?
मेरी छठी कक्षा तक की शिक्षा जन्म स्थान इलाहाबाद में हुई। सातवीं कक्षा में देहरादून में था। उसी समय घर पर पिताजी का स्वर्गवास हो गया। आठवीं कक्षा में सीतापुर फिर मौसा जी के  साथ इलाहाबाद और फिर बहनोई के  साथ रहकर कानपुर से मैंने इण्टरमीडिएट किया। इण्टरमीडिएट में उप्र में मेरा तृतीय स्थान और गणित में 95 प्रतिशत अंक थे। इसके  आगे की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुई। इन विभिन्न स्थानों के  वातावरण का प्रभाव मुझ पर बहुत अधिक पड़ा। इस बीच में विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्ति के  लोगों के  साथ रहने का अवसर मिला, जिसका मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मुझमें विविधता भी इसी कारण आयी।
वस्तुतः जीवन के  बारे में खण्ड दृष्टि गलत परिणामों की ओर ले जाती है। टुकड़ों-टुकड़ों में परिणाम भिन्न लगेंगे। बिखरी हुई चीजों के  बीच में भी सारी चीजें समन्वित हैं। बिखराव बहुविध व्यक्तित्व का प्रतीक है। निर्जीवता के  बिखराव में यूनिटी नहीं होती। जिसमें स्वच्छन्दता नहीं है वह रचनाकार नहीं है। स्वच्छन्दता विश्रंखलता का प्रतीक नहीं है।
आपको कविता लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?
मेरी शिक्षा-दीक्षा विभिन्न परिस्थितियांे और स्थानों में हुई जहां कई साहित्यिक प्रवृत्ति के  लोगों के  साथ रहने का सुयोग मिला जिनसे मुझे बहुत अधिक सीख मिली।
मेरी कविता वातावरण की देन है। राम मंदिर में अंताक्षरी होती थी। वहां कवित्त, सवैया, गीत इत्यादि लिखने वाले बहुत सारे लोग आते थे। तुलसी जयंती के  अवसर पर वहां एक कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ। मैंने पहली कविता उसी समय लिखी थी जो पांच चरण का तुलसीदास पर लिखा गया कवित्त था। उस समय मैं यह नहीं जानता था कि कवित्त में कितने चरण हाते हैं। हम कुछ रचें यह हमारा संकल्प होता है।
उन दिनों मेरी माता जी ‘नैमिषारण्य’ में अपनी दीक्षा गुरू स्वामी नारदानंद जी आश्रम पर रहा करती थीं। मैं वहां हमेशा आता जाता रहता था और कभी रेल यात्रा में और कभी गोमती के  तट पर घूमते-फिरते काव्य रचना करता रहता था। आप जानते हैं रेखाचित्रों के  संदर्भ में मेरी यह प्रवृत्ति अभी भी कायम है। नैमिषारण्य की रेतीली जमीन और खुले आकाश में बहुत कुछ लिखने के  लिए प्रेरित किया। ‘मेटिकै चंद समेटिकै तारक जाने कहां चलि जाति विभावरी’ जैसे कई छंद वहीं लिखे गये थे।
प्रारम्भिक अवस्था में अपने आसपास के  साहित्यिक वातावरण का उल्लेख करें जिनसे आप जुड़े और प्रभावित हुए।
सीतापुर के  साहित्यिक वातावरण की छाया मेरे ऊपर आठवीं कक्षा से ही पड़ने लगी थी, जब मैं वहां राष्ट्रीय महाजनी पाठशाला का विद्यार्थी था। डाक्टर राम नवल मिश्र आदि समीक्षकों तथा अनूप शर्मा, वंशीधर शुक्ला और कृपाण जी आदि कवियों से मेरा सम्पर्क तभी हो गया था। 1941 से 43 तक कानपुर के  वातावरण का भी मेरे ऊपर प्रभाव पड़ा।
साहित्य के  अध्ययन-अध्यापन के  संस्कार मुझे पंडित सद्गुरू शरण अवस्थी की सजगह एवं ओजस्वी वाणी से मिले और काव्य रचना की दिशा में सनेही जी तथा माखन लाल चतुर्वेदी जी की वात्सल्यपूर्ण वरद छाया ने मुझे विशेष प्रभावित किया। इलाहाबाद पहुंचने पर भी मुझे यही वातावरण मिला। गजेन्द्रनाथ चतुर्वेदी ‘ईश’ आदि कुछ अन्य मिश्र ब्रजभाषा में रचनाएं करते थे। एक बार प्रतिभा परीक्षणा के  लिए रसाल जी ने हम लोगों के  सामने एक समस्या रखी और उस पर मैंने जो छंद रचा वह सर्वोत्कृष्ट मानकर पुरस्कृत किया गया।
प्रयोग में ही परिमिल का दौर प्रारंभ हुआ। उसका मैं प्रारम्भिक सदस्य बना ओर फिर मुझे संयोजक बनाया गया। परिमल तरूण साहित्यकारों की संस्था थी जो साहित्यकारों की स्वतंत्रता का प्रतीक बन गयी। आप जानते हैं कि इस संस्था में फिर हर व्यय के  लोग किसी ने किसी संदर्भ में शामिल हुए।
परिमल ने साहित्य में दलगत भावनाओं के  विपरीत नये सौन्दर्यात्मक तत्वों को रेखांकित करते हुए जिस साहित्यिक मूल्य बोध का विकास किया वह एक ओर प्रगतिशीलों को भारी पड़ा तो दूसरी ओर संकीर्ण परम्परावादियों के  लिए संकट बना। लिखना स्वाभाविक कर्म है।
मैं अंतः प्रेरणा को विशेष महत्व देता हूं। इसमें कुछ पूर्व संस्कार का भी महत्व होता हे, जो मनुष्य को रचना कर्म की ओर प्रवृत्त करते हैं। कविता और चित्रकला में मेरी स्वतः प्रवृत्ति है।
आपने अंतः प्रेरणा और पूर्व संस्कार की चर्चा की। कृपया उन्हें अपने संदर्भ में स्पष्ट करें।
मैं ‘शम्बूक’ की भूमिका में इसकी चर्चा की है। मंै इतना अधिक अध्यात्मवादी नहीं हूं कि भौतिक धरातल पर होने वाले सारे अनाचारों-अत्याचारों को हरि लीला मात्र मानकर आनंदित हो जाऊं। और इतना भौतिकवादी भी नहीं हूं कि आत्मा की सत्ता को नकार दूं। कर्मशील मनुष्य के  मूलभूत सामाजिक दायित्व को समझकर एक संतुलित मध्य-मार्ग खोजने की चेष्टा मानकर मेरा मन निरन्तर करता रहता है।
साहित्य में भी विभिन्न मार्ग अपनाये गये। विभिन्न खेमों में साहित्य रचना की जा रही है और इनसे साहित्य बहुत हद तक प्रभावित भी हुआ। क्या ये खेमेबाजी साहित्य का अहित नहीं कर रही है?
साहित्य का हित अहित उस संवाद में निहित है जो रचनाकार और पाठक के  बीच स्थापित होता है, बाकी लोगों की कोई बात नहीं है। यदि इसका एक भी अच्छा श्रोता या पाठक है तो ठीक है संख्या का कोई महत्व नहीं है। महत्व क्वालिटी का होता है क्वान्टिटी का नहीं। गुटबाजी से हम भयभीत नहीं हैं। साहित्य के  लिए ग्रहणशीलता ही मुख्य है।
विमुख व्यक्ति को सम्मुख बनाना ही प्रमुख बात है, मन बहलाना साहित्य का मुख्य कार्य नहीं है। मन बहलाना विलास की कोटि में आता है। साहित्य विकल्प नहीं सोचता। रचना का विकल्प नहीं होता। रचना अपने आप में संकल्प है। वह आदमी विलासी है जो वस्तु के  अन्तरगतासे नहीं जुड़ता। मैं साहित्य में मानसिकता को अधिक महत्व देता हूं।
राजनीतिक कविता का महत्व होता है किन्तु स्थायी नहीं। गांधी और माक्र्स के  मानव तत्व से जुड़ने में खतरा नहीं है। कविता की शक्ति उसकी गहरी अंतर्दृष्टि में है।
जिस मानव तत्व की बात अभी आपने की, साहित्य के  सभी तथा कथित खेमे इसे ही आधार मानते हैं। इन खेमों को मानववादी विचारधारा से जोड़कर कहां तक देखा जा सकता है।
मानव हित चेतना को यथाशक्ति बंधन मुक्त करके  विज्ञान की वस्तुपरक उपलब्धियों से सम्बद्ध करके  सामाजिक स्तर पर प्रस्तुत करना आज का प्रमुख ध्येय है। मनुष्य मनुष के  बीच जन्मजात आर्थिक और सामाजिक अधिकार-साम्य की भावना साम्यवाद तक ले जाती है तथा मानव सम्बन्धों के  बीच एक दूसरे के  स्वाभाविक एवं स्वातंत्रय की रक्षा का भाव मौलिक समानाधिकार के  साथ मिलकर प्रजातंत्र तक पहुंच जाता है।
दोनों के  मूल में गहरी मानववादी चेतना है परन्तु मनुष्य स्वयं क्या है इसकी तात्विक धारणा छोटी होने के  कारण व्यावहारिक रूप से दूषित हो गये हंै। मनुष्य के  सुख की धारणा विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग मिलती है। भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन के  अनुसार विचारों के  स्वातंत्रय और धर्म के  स्वच्छन्दता के  अभाव में भौतिक समृद्धि निरर्थक हो जाती है।
मैं ऐसे देश में रहना पसन्द नहीं करूंगा जहां मुझे मेरी इच्छा के  विरूद्ध किसी विशेष विचारधारा को मानने के  लिए बाध्य किया जाय और न चाहूंगा कि भारत कभी ऐसा देश बने। इसी तरह सारा स्वातं.य होने के  बाद पूजा को ही सबसे बड़ा देवता मान लेने पर जो विकृतियां मानव आचरण और समाज के  नैतिक स्तर में आती हैं। वे भी कम भयावह नहीं होतीं। ‘न मनुषात श्रेष्ठतरम् हि किंचित’ मेरी दृष्टि में अपूर्ण रहता है यदि उसके  साथ यह न जोड़ा जाय कि ‘न वित्तेन तर्पणयों मनुष्यः’। इन दोनों को मिलाकर जो मानववादी धारण बनती है, मैं उसे ग्राह्य समझता हूं। मनुष्य के  विषय में भारत की ऐसी धारणा अत्यन्त प्रौढ़ है और युगों के  ठोस अनुभवों से बनी है, इसीलिए समनवय भाव से नहीं, आत्माभिव्यक्ति के  मान से भारत के  लिए आवश्यक है कि वह अपनी कल्पना के  अनुरूप समाज के  लिए कृत संकल्प हो।
Dr. Yogesh mishr

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