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पूंजी निवेश का मकसद क्या है?
गत 28 मार्च 93 को फरीदाबाद की एक जनसभा में विदेशी कर्ज लेने और आर्थिक उदारीकरण के नाम पर विदेशी पूंजीनिवेश की तरफदारी करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, इससे बड़ा और कोई झूठ नहीं हो सकता कि सरकार ने विदेशी कर्ज लेने के लिए गुलामी स्वीकार कर ली है। सरकार कभी किसी के आगे घुटने नहीं टेके गी। हम विदेश से खैरात नहीं लेते, कर्ज लेते हैं और समय पर चुका देते हैं। कोई अपनी गरज से देता है तो कोई अपनी गरज से लेता है। आज देश को दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने और तेजी से विकास करने की जरूरत हैं जिसके लिए विदेशी कर्ज लेना जरूरी है।
यहां सवाल यह है कि क्या दुनिया ईमानदारी से चाहती है कि भारत विकास करे, स्वावलम्बी बने, कर्जमुक्त हो? प्रधानमंत्री का यह कहना कितना हास्यास्पद है कि विदेशी कर्ज नहीं लेगे तो जनता पर टैक्स लगाने पड़ेंगे, लोगों के पेट काटने पड़ेंगे। इस तरह प्रधानमंत्री ने विदेशी कर्ज लेने की अपनी गरज का जिक्र तो किया पर विश्वबैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और गैट के डंकल प्रस्ताव की कठिन, अपमानजनक और देश को आर्थिक गुलामी की ओर ढके लने वाली शर्तों का खुलासा नहीं किया और न ही यह स्पष्ट किया कि कर्ज देने की विदेशियों की गरज क्या है?
हकीकत यह है कि 31 मार्च 1993 तक दो लाख 76 हजार 662 करोड़ रूपया विदेशी कर्ज भारत पर चढ़ चुका था जिसका ब्याज 28750 करोड़ रूपया प्रतिवर्ष अदा करना पड़ेगा। दो लाख 20 हजार करोड़ रूपया घरेलू कर्ज भी ब्याज सहित अदा करना है। 32432 करोड़ रूपया रूस का कर्ज अलग से बकाया है। इतने कर्ज का भारी भरकम बोझ देश पर लाद देने के बाद भी नौ अरब डालर (दो खरब सत्तर अरब रूपये) तीन किश्तों में वित्त मंत्री ने वाशिंगटन जाकर उनकी कठिन शर्तों पर प्राप्त करने का आश्वासन प्राप्त कर लिया है। दूसरी ओर स्पेशल 301 व सुपर 301 भारत पर लागू करने की धमकी अमरीका ने दिया है। अमरीका ने ईराक पर भी यही धाराएं लागू कर उसकी आर्थिक नाके बंदी की है। यही अमरीका का ब्रम्हास्त्र है जो किसी विकासशील देश को गुलामी के बाहुपाश में जकड़ने के लिए समय-समय पर उसने प्रयोग किया है।
देश पर इतना भारी भरकम असहनीय कर्ज का बोझ लादने के बाद भी सरकार ने तीनों वार्षिक बजटों में नये कर लगाये हैं। रेल भाड़े में वृद्धि, गेहूं, चावल, कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ (पेट्रोल, डीजल, वेक्स, गैस चूल्हा आदि) इस्पात आदि के दाम बढ़ाकर मंहगाई बढ़ाई और अभाव, गरीबी, भूखमरी से पीड़ित व महंगाई से लस्त-पस्त जनता से अरबों रूपये वसूल लिये। अब आप ही फैसला करें कि सरकार ने जनता पर टैक्स लगाये या नहीं। प्रधानमंत्री के कथनानुसार नया कर्जा इसलिए लिया जा रहा है ताकि आम जनता पर नया कर न लगाना पड़े। पर इसकी क्या गारंटी है कि अब निकट भविष्य में मूल्यवृद्धि नहीं की जाएगी। अभी पिछले दिनों विश्व बैंक ने भारत सरकार को निर्देश दिया है कि बिजली, परिवहन और सिंचाई की दरें बढ़ाई जायें। राशन पर सब्सिडी समाप्त करने अथवा राशनिंग प्रणाली समाप्त करने पर भी दबाव डाला है।
डाक्टरों की सलाह पर सन्तुलित आहार के लिए 10 से 20 ग्रा ततक नमक और मिठास के लिए 50 ग्राम चीनी की दैनिक जरूरत है अर्थात एक महीने में 600 ग्राम नमक और 1500 ग्राम चीनी प्रति व्यक्ति उपलब्ध होनी चाहिए और साल भर में 18 किलो चीनी की खपत प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य के लिए डाक्टरों ने अनिवार्य बतायी है। वर्ष 1991-92 में एक करोड़ बीस लाख टन और 1992-1993 के सत्र में एक करोड़ पैंतीस लाख टन चीनी का उत्पादन कर भारत ने विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया। देश की 85 करोड़ आबादी पर दो वर्ष की दो करोड़ 55 लाख टन चीनी बराबर-बराबर बांटी जाय तो प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 33 किलो चीनी उसके हिस्से में आती है। जबकि शहरी इलाकांे में 12 किलोग्राम और ग्रामीण अंचलों में 3 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति वार्षिक चीनी दी जाती है। निर्धारित कोटे की चीनी आम लोगों को मिलती भी है या नहीं यह अलग प्रश्न है।
पिछले वर्ष के शुरू में सरकार ने 5 लाख 60 हजार टन चीनी दो हजार रूपये प्रतिटन (दो रूपये प्रति किलो), दस लाख टन गेहूं 237 रूपये प्रति कुन्तल (95 डालर प्रति टन), सात लाख टन चावल (गैर बासमती) 255 रूपया प्रति कुन्तल विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के लिए निर्यात किया और उससे विदेशी कर्ज का ब्याज चुकाया। उस समय भारतीय बाजार में 9 रूपये किलो चीनी, पांच रूपये किलो गेहूं और 6 रूपये किलो चावल का भाव था। इस वर्ष 10 लाख टन चीनी उसी भाव पर निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित किया। अब आप ही फैसला करें कि राव सरकार ने जनता का पेट काटा या नहीं?
एक विदेशी कम्पनी का नाम है-मैकडोनाल्ड जो खाद्य प्रसंस्करण का कारखाना चलाती है। यह कम्पनी पांच तारा भारतीय होटलों में तुरन्त भोजन सप्लाई करती है और विदेशों को भी निर्यात करती है। इस तुरन्त भोजन का नाम हैम्बर्गर है। जो बछड़े के मांस (बीफ) से बनता है। विद्युत चालित संयत्रों से युक्त बडे़-बड़े सरकारी बूचड़खानो में आटोमेटिक मशीनों से गाय के पेट से निकाले गये सुकोमल नवजात शिशु के मांस को बीफ कहते हैं। हैम्बर्गर पर 255 प्रतिशत निर्यात के रूप में 650 करोड़ रूपये की आय सीमा कर से भारत सरकार को प्रतिवर्ष होती थी। अर्थात् 100 रूपये का माल भेजने पर 255 रूपये निर्यात श्ुाल्क सरकार को प्राप्त होता था। शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के गोरक्षा विधेयक पर राष्ट्रपति ने अभी तक हस्ताक्षर नहीं किये। विश्व बैंक और गैट के महानिदेशक सर आर्थर डंकल के दबाव में आकर इस वर्ष के बजट में हैम्बर्गर का निर्यात शुल्क माफ कर दिया। इस बजट घाटे को पूरा करने के लिए पिछले वर्ष की कन्ट्रोल की 56 लाख टन चीनी पर 1400 रूपया प्रतिटन मूल्य बढ़ाकर 784 करोड़ रूपया जनता का पेट काटकर छीन लिए और 650 करोड़ रूपया विदेशी कम्पनी की जेब में डाल दिये। इस बंदरबांट में सरकार ने 134 करोडऋ रूपया का अतिरिक्त लाभ कमाया और चीनी का दाम 6.90 रूपये से 8.30 रूपया प्रति किलो बढ़ाकर जनता का शोषण किया। सरकार ने गन्ना व चीनी का भाव निर्धारित करने का एक फार्मूला बनाया था जिसे टैरिफ कमीशन कहते हैं। जिसका मतलब है कि गन्ने के बढ़े मूल्य से 16 गुना अधिक चीनी का मूल्य बढ़ाया जा सकता है। के न्द्र सरकार 8.5 प्रतिशत रिकवरी के आधार पर हर साल 50 पैसा प्रति कुन्तल गन्ने का मूल्य बढ़ाती है। 1991-92 वर्ष के सत्र में गन्ने का मूल्य 31.50 रूपया प्रति कुन्ततल के सीजन के लिए 32.50 रूपया प्रति कुन्तल 8.5 प्र.श. चीनी के परते के आधार पर के न्द्र ने गन्ने के मूल्य की पूर्वघोषणा की है। अब यह राज्य सरकारों का काम है कि 8.5 श.प्र. से अधिक चीनी का परता आने पर उसी के अनुपात में गन्ने का मूल्य बढ़ा दे। टैरिफ कमीशन फार्मूले के मुताबिक सरकार गन्ने के बढ़े मूल्य से 16 गुना अधिक चीनी का मूल्य बढ़ा सकती थी यानी 80 रूपया प्रति टन (आठ रूपया प्रति क्विंटल) या 8 पैसा प्रति किलो। अन्यथा गन्ने को 17.50 रूपया प्रति कुन्तल गन्ने का अतिरिक्त मूल्य बढ़ाकर 1991-92 से लेकर अब तक किसानों को मिलना चाहिए। पर खेद है कि सरकार ने एक ओर उपभोक्ता को लूटा और दूसरी ओर किसान का भी शोषण किया और टैरिफ कमीशन के अपने बनाये फार्मूले की भी ऐसा की तैसी कर दिया। इधर सरकार ने शीरा लाइसेंस मुक्त कर दिया इससे मिल मालिकों को 500 करोड़ का शुद्ध अतिरिक्त लाभ मिला। बताते हैं कि इसके एवज में सरकार ने करीब एक अरब रूपया चीनी मिलों से वसूला और वह धन कठौरा (अमेठी) में गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करने और राजीव गांधी की आत्मा को शान्ति पहुंचाने के उपलक्ष्य में जश्न मनाने पर खर्च किया। हकीकत यह है कि शीरा, खोई, लदोई किसान सम्पत्ति है और चीनी के अतिरिक्त अवशिष्ट का मूल्यांकन कर गन्ने के मूल्य में जोड़कर किसानों को मिलना चाहिए। सरकार यहां भी किसान के साथ अन्याय कर रही है।
इसके अलावा फूड प्रोसेसिंग की विदेशी कम्पनियों के तैयार माल (तुरन्त भोजन) की 35 आइटमों पर 255 से 135 प्रतिशत सीमा शुल्क घटा दिया। एक अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी है कारगिल। राव सरकार ने सौराष्ट्र (कच्छ) में कांडला बन्दरगाह के पास नमक बनाने के लिए 15 हजार एकड़ भूमि कारगिल कम्पनी को पट्टा कर दिया। कारगिल अमरीका की बहुराष्ट्रीय कम्पनी विश्व की सबसे बड़ी निजी कम्पनी है। इसने 1991-92 में एक लाख 92 हजार करोड़ रूपये का उत्पादन किया जो भारत के राष्ट्रीय उत्पाद का एक तिहाई है। इस कम्पनी से 800 अन्य कम्पनियां जुड़ी हुई हैं। जो पांच महा देशों और 45 देशों में कार्य कर रही हैं। इसके तहत 60 हजार कर्मचारी काम करते हैं। काण्डला में इसे 10 लाख टन नमक उत्पादन हेतु इकाई लगाने की अनुमति दी है। परन्तु इस बात की पूरी आशंका है कि धीरे-धीरे कारगिल काण्डला बन्दरगाह को अपनी निजी उद्यम के रूप में परिवर्तित कर लेगी। वास्तव में इस भूमि का मालिक कांडला पोर्ट ट्रस्ट है। 9 दिसम्बर 92 को ट्रस्ट ने अपनी बैठक में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया था कि कारगिल कम्पनी को 15 हजार एकड़ भूमि नहीं दी जाएगी। क्योंकि यह काण्डला बन्दरगाह के हित में नहीं है। प्रस्ताव में यह तर्क भी दिया गया कि सुरक्षा की दृष्टि से बन्दरगाह के विस्तृत पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव के बचाव तथा घरेलू नमक उद्योग के हितों के मद्देनजर कम्पनी को यह जमीन नहीं दी जा सकती। लेकिन इसके बावजूद विदेशी शक्तियों के दबाव में आकर 20 फरवरी 93 को भारत सरकार ने ट्रस्ट पर दबाव डालकर कारगिल कम्पनी को उक्त जमीन दान कर दिया। गांधी जी के नमक सत्याग्रह आन्दोलन डांडी यात्रा का खुला अपमान किया है राव सरकार ने। गांधी जी ने नमक सत्याग्रह को आजादी के संघर्ष का प्रतीक बताया था। आज गांधी जी का नाम भुनाने वाली कांग्रेस सरकार नमक को भी आर्थिक गुलामी के लिए प्रयोग कर रही है। भारत के लिए नमक सिर्फ खाने की वस्तु नहीं है अपितु यह राष्ट्रप्रेमी भारतीयों के लिए एक चुनौती है। राव सरकार के इस राष्ट्र विरोधी और जनाकांक्षाओं के विपरीत कदम है। इससे न के वल देश की सुरक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता के लिए खतरा पैदा हुआ है बल्कि नमक उद्योग में लगे दो लाख लोगों के सामने बेरोजगारी का खतरा पैदा हो गया है।
जब आप ही इसका भी निर्णय करें कि यह देश को दिवालिया बनाने का कदम है या नहीं? इसका भारतीय उद्योगों पर विनाशकारी असर होगा या नहीं? हजारों लोग बेरोजगार होंगे या नहीं? देश का सिर शर्म से झुका या नहीं? एक दिलचस्प किस्सा और है जिसकी जानकारी बहुत कम लोगों को होगी। एफ.एम. मोड नामक एक रेडियो ट्रांसमीटर विदेशी कम्पनियों के सौजन्य से स्थापित हुआ है। जिस पर आयातित पुर्जों पर 460 करोड़ की विदेशी मुद्रा खर्च की गयी हैं ऐसे 43 रेडियो स्टेशन खोले जा चुके हैं। 24 और के न्द्र खुल रहे हैं। एफ.एम. प्रसारण नयी तकनीक पर आधारित रेडियो ट्रांसमीटर पर स्वदेशी रेडियो ट्रांजिस्टर पर नहीं सुना जा सके गा। इसके लिए विदेशी कम्पनियों के ही महंगे रेडियो ट्रांजिस्टर खरीदने पड़ेंगे। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं मित्सुबिसी, बुश, फिलिप्स और एचएमवी। इनका मूल्य काला-सफेद टीवी के बराबर है। रेडियो प्रसारण किन तरंगों पर होगा इसका निर्णय अन्तरराष्ट्रीय संस्था ही करेगी। विदेशी कम्पनियों ने मशीन व कल पुर्जे तो भारत के हाथ बेच दिये पर भारत को यह अधिकार नहीं है कि वह वे कल पुर्जे खुद बना सकें। अब आप ही बताइये कि गृह उद्योग में सस्ते स्वदेशी रेडियो सेट बनाने वाले बरौज होंगे या नहीं? बड़े आश्चर्य की बात है कि लगभग पौने पांच करोड़ की बरबादी के साथ देश के सस्ते रेडियो ट्रांजिस्टर सेट उद्योग की तबाही और गरीब जनता को रेडियो सुनने से वंचित रखने की साजिश में कितनी कमीशनखोरी की गयी?
विश्व बैंक आईएमएफ, डंकल प्रस्ताव और विदेशी कम्पनियों के दबाव में भारत सरकार ने भारतीय मुद्रा को पूर्ण परिवर्तनीय बना दिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि डालर का मूल्य बढ़ गया है। रूपये के पूर्ण परिवर्तन से पूर्व एक डालर का मूल्य बढ़ गया है। रूपये के पूर्ण परिवर्तन से पूर्व एक डालर का मूल्य 24 रूपया था जो अब बढ़कर 33 रूपया हो गया है और निकट भविष्य में 35 रूपये हो जाने की आशा है। इसके कारण रूपया का मूल्य (आधार वर्ष 1948) के वल सात पैसा रह गया है और विदेशी कर्ज और ब्याज की वार्षिक किश्त चुकाने में 50 अरब का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। सरकार ने इस सत्य को स्वीकार भी किया है कि आयात की तुलना में निर्यात काफी कम है। पिछले वर्ष छह करोड़ डालर (एक खरब 90 अरब रूपये) व्यापार घाटा रहा। इस वर्ष व्यापार घाटा और बढे़गा जिससे मुद्रास्फीति के साथ महंगाई का ग्राफ और ऊपर चढे़गा। विदेशी ऋणांे की किश्त 80 अरब 95 करोड़ डालर (दो खरब 72 अरब रूपये) के स्थान पर सौ अरब 24 करोड़ डालर (दो खरब 78 करोड़ रूपये ) अदा करना पड़ेगा। एक वर्ष का ब्याज भी 28750 करोड़ रूपये के बजाये करीब 38 हजार करोड़ रूपया अदा करना पड़ेगा। इसका परिणाम होगा देश की अर्थव्यवस्था का सर्वनाश। पेट्रोलियम पदार्थ, अनाज, तेल-तिलहन, उर्वरक, तरल गैस, भारी मशीनरी, मशीन के कल-पुर्जे, कृषि यंत्र, रसायन आदि आयात करने पर 24 रूपये प्रति डालर के बजाय अब 33-35 रूपया प्रति डालर भुगतान करना पड़ेगा। 1500 करोड़ रूपया तेल के लिए और अन्य आयात के लिए 2500 करोड़ रूपया अतिरिक्त व्यय भार बढ़ेगा।
1980 में जब इन्दिरा गांधी पुनः सत्ता में लौटी थीं, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) ने 5.2 अरब डालर (एक खरब 70 अरब रूपये) भारत को ऋण स्वीकृत किया था जो 10 वर्षों की अवधि में तीन किश्तों में प्राप्त होना था। प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल (1951-52) में भारत सरकार ने पहली बार के वल 32 करोड़ रूपया विदेशी ऋण स्वीकार किया था। 1947 में आजाद भारत 2200 करोड़ पौंड का धनी देश था जो पिछले 30 सालों के अन्तराल में 1980 में बढ़कर 19470 करोड़ रूपया हो गया था, जिसका ब्याज 107 करोड़ रूपया देना था। उस समय भारत पर कर्ज का बोझ बढ़ते जाने का सदन में विपक्ष ने घोर विरोध किया था। लोकसभा में ऋण सीमा निश्चित करने का प्रस्ताव भी पारित हुआ था। श्रीमती गांधी ने विपक्ष के दबाव में आकर इस ऋण की तीसरी किस्त लेने से इनकार कर दिया था उस समय भी गैट और विदेशी बैंकों का भारी दबाव था कि विदेशी कम्पनियों के हित में भारतीय अर्थव्यवस्था को उनके निर्देश के अनुरूप बनाया जाय। श्रीमती गांधी ने अनुभव किया कि सशर्त ऋण भार बढ़ाने से देश से देश की आजादी और आर्थिक प्रगति खतरे में पड़ जाएगी। उन्हें तभी पता चल गया था कि शर्तों के साथ ऋण लेना देश के हित में नहीं होगा। उनके जिद्दी स्वभाव और दृढ़ता के तेवर भांपकर विदेशी अधिकारियों में तहलका मच गया लेकिन इन विदेशी अधिकारियों ने अपने आर्थिक सलाहकारों को भारत भेजने में सफलता हासिल कर ली।
उसी के आधार पर जी सात (अमरीका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, जापान) द्वारा संचालित तीनों संस्थाओं ने भारत की आन्तरिक अर्थव्यवस्था के स्रोतों का विस्तृत अध्ययन कराया। फिर उसी के आधार पर तीनों संस्थाओं ने जी-7 द्वारा संचालित रणनीति बनायी। इसी के तहत विश्व बैंक ने 750 करोड़ रूपये खर्च कर भारत की सम्पूर्ण कृषि भूमि और घरेलू आर्थिक स्थिति पर 650 पृष्ठों की विस्तृत रिपोर्ट तैयार करायी। इस रिपोर्ट को विश्व बैंक के अर्थशास्त्री और अर्थ एवं संख्या विभाग के सलाहकार राबर्ट जे. एडरसन ने 1990 में विश्वबैंक को सौंप दिया। भारत के वित्तमंत्री जब कर्ज लेने वाशिंगटन गये तो विश्वबैंक ने उस रिपोर्ट की सभी शर्तों का मनवा लिया। डा. मनमोहन सिंह के तीनों वार्षिक बजट सर्वे रिपोर्ट की शर्तों के आधार पर विदेशी कम्पनियों की गुलामी का शिकंजा भारत पर कसता जा रहा है।
अन्य बातों के अलावा जिन क्षेत्रों में जो वस्तु पैदा होती है उन क्षेत्रों को पेटेन्टी कम्पनियों को अनुबन्धित किया जा रहा है। ये कम्पनियां पेटेन्ट किये गये वृक्ष लगाने, खाद्यान्न, कपास, फल सब्जी, तेल-तिलहन, मेवे-मसाले, वनस्पतियां, जड़ी-बूटियां और कच्चे माल के रूप में औषधियां पैदा करने और उनके बीच-पौध तैयार करने का काम करेगी। कच्चे माल की उपलब्धता के आधार पर फल और खाद्य प्रसंस्करण, फूलों से इत्र, फलों से जूस, अचार आदि और औषधि निर्माण के कारखाने खड़े करेंगी। डंकल प्रस्ताव और विश्व बैंक की रिपोर्ट के आधार पर पहले दौर में भारत सरकार ने निजी क्षेत्र की नीति अपनाने के बहाने पेटेन्टी विदेशी कम्पनियों को बीज पैदा करने, बीजों का शोधन करने, जनरेटिंग इन्जीनियरिंग से जर्मप्लाज्म (जननद्रव्य) में हेर-फेर कर हाईब्रिड का संकरित बीज तैयार करने के लिए देश के सभी विश्वविद्यालयों की कृषि भूमि (देश में 29 कृषि विश्वविद्यालय हैं) और सरकारी व्यावसायिक कृषि फार्मों की सारी भूमि अनुबन्धित करने का फैसला कर लिया है। यही है आर्थिक उदारीकरण के नाम पर विदेशी पूंजीनिवेश करने का भारत सरकार का मकसद और विदेशी धन का प्रवाह भारत की ओर मोड़ने की योजना और कृषि नीति?
विदेशी कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए चन्द्रशेखर सरकार ने देश का 20 टन सोना अन्तरराष्ट्रीय बाजार भाव पर 1900 रूपये प्रति 10 ग्राम की दर पर विदेशों में नीलाम कर विदेशी मुद्रा प्राप्त की थी जबकि उस समय भारत में 5500 रूपये प्रति दस ग्राम के आसपास सोने का भाव था। उस समय विश्व बाजार में 336 डालर प्रति औंस (एक औंस 31.1 ग्राम) सोने का भाव था। बाद में राव सरकार ने 47 टन सोना दो बार में 1294 रूपया 10 ग्राम की दर पर विश्व के बैंकों में गिरवीं रखकर ब्याज चुकाया था। गत वर्ष लोकसभा मे ंएक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने बताया था कि गिरवी रखा सोना छुड़ा लिया गया है। परन्तु पिछले दिनों वित्त राज्यमंत्री ने लोकसभा में बताया कि जुलाई 1991 में गिरवी रखवाया गया 46.61 टन सोना अभी तक स्वदेश वापस नहीं आया है। अब प्रधानमंत्री का यह कथन कि इससे बड़ा और कोई झूठ नहीं हो सकता कि सरकार ने विदेशी कर्ज लेने के लिए गुलामी स्वीकार कर ली है। आप ही सच झूठ का फैसला करेें कि झूठ कौन बोल रहा है। राव सरकार या जनता? हकीकत क्या है? इसका पर्दाफाश स्वयं जनता करेगी निकट भविष्य में?
डंकल प्रस्ताव 446 पेज का दस्तावेज है जिसे डंकल ड्राफ्ट टेक्टर (डीडीटी) कहते हैं। यह डीडीटी जहरीली डीडीटी दवा से भी घना मीठा जहर है जो धीरे-धीरे असर करेगा। मुद्राकोष और विश्वबैंक की अनेक शर्तें डंकल की शर्तों के समान हैं। मसलन कृषि पर दी जाने वाली सब्सिडी पूरी तरह समाप्त करना, भारत को मुक्त व्यापार के लिए तैयार करना ताकि पूरे तौर पर भारत विदेशी वस्तुओं का उपभोक्ता बाजार बन जाय, कृषि को दी जाने वाली घरेलू सहायता में कमी करना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त करना, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर से नियंत्रण समाप्त करना ताकि विदेशी माल की खपत पूरी तरह हो सके और उसको भारत की सम्पत्ति को लूटने का मार्ग खुल जाये। विदेशी कम्पनियों का माल आयात-निर्यात के लिए करमुक्त हो ताकि उसका माल सस्ता हो जिससे स्वदेशी लघु उद्योग बंद हो जाएं।
इस तरह विदेशी तकनीक और विदेशी कर्ज पर आधारित आर्थिक नियोजन से क्या देश आत्मनिर्भर बन सकता है? उदारीकरण के नाम पर मुनाफावादी मानसिकता से ग्रसित डंकल प्रस्ताव के तहत सैकड़ों विदेशी कम्पनियांे को बुलाकर भारी पूंजी निवेश से क्या भारत सुखी और वैभव सम्पन्न बन सकता है? राव सरकार देश को पूंजीवादी मार्ग पर ले जाना चाहती है। पर पूंजीवादी व्यवस्था को संचालित करने के लिए निजी माल की खपत के लिए क्या बाजार उपलब्ध है। यदि नहीं तो इन दोनों के अभाव में पूंजीवादी व्यवस्था कैसे चल सकती है? कर्ज के सहारे पूंजीवाद नहीं पनप सकता। विदेशी पूंजी प्रवाह से अपना बाजार विदेशी कम्पनियों के हाथों गिरवीं होगा और भारत विदेशी गुलामी के शिकंजे में पुनः जकड़ जाएगा। चन्द लोग हर तरह से आधुनिक और भोगवादी विदेशी संस्कृति के पोषक बन जाएंगे, शेष आम लोग अभाव, गरीबी और गिरावट के कष्ट भोगेंगे, उनका उत्पीड़न, शोषण और वेदना बढ़ेगी।
यहां सवाल यह है कि क्या दुनिया ईमानदारी से चाहती है कि भारत विकास करे, स्वावलम्बी बने, कर्जमुक्त हो? प्रधानमंत्री का यह कहना कितना हास्यास्पद है कि विदेशी कर्ज नहीं लेगे तो जनता पर टैक्स लगाने पड़ेंगे, लोगों के पेट काटने पड़ेंगे। इस तरह प्रधानमंत्री ने विदेशी कर्ज लेने की अपनी गरज का जिक्र तो किया पर विश्वबैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और गैट के डंकल प्रस्ताव की कठिन, अपमानजनक और देश को आर्थिक गुलामी की ओर ढके लने वाली शर्तों का खुलासा नहीं किया और न ही यह स्पष्ट किया कि कर्ज देने की विदेशियों की गरज क्या है?
हकीकत यह है कि 31 मार्च 1993 तक दो लाख 76 हजार 662 करोड़ रूपया विदेशी कर्ज भारत पर चढ़ चुका था जिसका ब्याज 28750 करोड़ रूपया प्रतिवर्ष अदा करना पड़ेगा। दो लाख 20 हजार करोड़ रूपया घरेलू कर्ज भी ब्याज सहित अदा करना है। 32432 करोड़ रूपया रूस का कर्ज अलग से बकाया है। इतने कर्ज का भारी भरकम बोझ देश पर लाद देने के बाद भी नौ अरब डालर (दो खरब सत्तर अरब रूपये) तीन किश्तों में वित्त मंत्री ने वाशिंगटन जाकर उनकी कठिन शर्तों पर प्राप्त करने का आश्वासन प्राप्त कर लिया है। दूसरी ओर स्पेशल 301 व सुपर 301 भारत पर लागू करने की धमकी अमरीका ने दिया है। अमरीका ने ईराक पर भी यही धाराएं लागू कर उसकी आर्थिक नाके बंदी की है। यही अमरीका का ब्रम्हास्त्र है जो किसी विकासशील देश को गुलामी के बाहुपाश में जकड़ने के लिए समय-समय पर उसने प्रयोग किया है।
देश पर इतना भारी भरकम असहनीय कर्ज का बोझ लादने के बाद भी सरकार ने तीनों वार्षिक बजटों में नये कर लगाये हैं। रेल भाड़े में वृद्धि, गेहूं, चावल, कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ (पेट्रोल, डीजल, वेक्स, गैस चूल्हा आदि) इस्पात आदि के दाम बढ़ाकर मंहगाई बढ़ाई और अभाव, गरीबी, भूखमरी से पीड़ित व महंगाई से लस्त-पस्त जनता से अरबों रूपये वसूल लिये। अब आप ही फैसला करें कि सरकार ने जनता पर टैक्स लगाये या नहीं। प्रधानमंत्री के कथनानुसार नया कर्जा इसलिए लिया जा रहा है ताकि आम जनता पर नया कर न लगाना पड़े। पर इसकी क्या गारंटी है कि अब निकट भविष्य में मूल्यवृद्धि नहीं की जाएगी। अभी पिछले दिनों विश्व बैंक ने भारत सरकार को निर्देश दिया है कि बिजली, परिवहन और सिंचाई की दरें बढ़ाई जायें। राशन पर सब्सिडी समाप्त करने अथवा राशनिंग प्रणाली समाप्त करने पर भी दबाव डाला है।
डाक्टरों की सलाह पर सन्तुलित आहार के लिए 10 से 20 ग्रा ततक नमक और मिठास के लिए 50 ग्राम चीनी की दैनिक जरूरत है अर्थात एक महीने में 600 ग्राम नमक और 1500 ग्राम चीनी प्रति व्यक्ति उपलब्ध होनी चाहिए और साल भर में 18 किलो चीनी की खपत प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य के लिए डाक्टरों ने अनिवार्य बतायी है। वर्ष 1991-92 में एक करोड़ बीस लाख टन और 1992-1993 के सत्र में एक करोड़ पैंतीस लाख टन चीनी का उत्पादन कर भारत ने विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया। देश की 85 करोड़ आबादी पर दो वर्ष की दो करोड़ 55 लाख टन चीनी बराबर-बराबर बांटी जाय तो प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 33 किलो चीनी उसके हिस्से में आती है। जबकि शहरी इलाकांे में 12 किलोग्राम और ग्रामीण अंचलों में 3 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति वार्षिक चीनी दी जाती है। निर्धारित कोटे की चीनी आम लोगों को मिलती भी है या नहीं यह अलग प्रश्न है।
पिछले वर्ष के शुरू में सरकार ने 5 लाख 60 हजार टन चीनी दो हजार रूपये प्रतिटन (दो रूपये प्रति किलो), दस लाख टन गेहूं 237 रूपये प्रति कुन्तल (95 डालर प्रति टन), सात लाख टन चावल (गैर बासमती) 255 रूपया प्रति कुन्तल विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के लिए निर्यात किया और उससे विदेशी कर्ज का ब्याज चुकाया। उस समय भारतीय बाजार में 9 रूपये किलो चीनी, पांच रूपये किलो गेहूं और 6 रूपये किलो चावल का भाव था। इस वर्ष 10 लाख टन चीनी उसी भाव पर निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित किया। अब आप ही फैसला करें कि राव सरकार ने जनता का पेट काटा या नहीं?
एक विदेशी कम्पनी का नाम है-मैकडोनाल्ड जो खाद्य प्रसंस्करण का कारखाना चलाती है। यह कम्पनी पांच तारा भारतीय होटलों में तुरन्त भोजन सप्लाई करती है और विदेशों को भी निर्यात करती है। इस तुरन्त भोजन का नाम हैम्बर्गर है। जो बछड़े के मांस (बीफ) से बनता है। विद्युत चालित संयत्रों से युक्त बडे़-बड़े सरकारी बूचड़खानो में आटोमेटिक मशीनों से गाय के पेट से निकाले गये सुकोमल नवजात शिशु के मांस को बीफ कहते हैं। हैम्बर्गर पर 255 प्रतिशत निर्यात के रूप में 650 करोड़ रूपये की आय सीमा कर से भारत सरकार को प्रतिवर्ष होती थी। अर्थात् 100 रूपये का माल भेजने पर 255 रूपये निर्यात श्ुाल्क सरकार को प्राप्त होता था। शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के गोरक्षा विधेयक पर राष्ट्रपति ने अभी तक हस्ताक्षर नहीं किये। विश्व बैंक और गैट के महानिदेशक सर आर्थर डंकल के दबाव में आकर इस वर्ष के बजट में हैम्बर्गर का निर्यात शुल्क माफ कर दिया। इस बजट घाटे को पूरा करने के लिए पिछले वर्ष की कन्ट्रोल की 56 लाख टन चीनी पर 1400 रूपया प्रतिटन मूल्य बढ़ाकर 784 करोड़ रूपया जनता का पेट काटकर छीन लिए और 650 करोड़ रूपया विदेशी कम्पनी की जेब में डाल दिये। इस बंदरबांट में सरकार ने 134 करोडऋ रूपया का अतिरिक्त लाभ कमाया और चीनी का दाम 6.90 रूपये से 8.30 रूपया प्रति किलो बढ़ाकर जनता का शोषण किया। सरकार ने गन्ना व चीनी का भाव निर्धारित करने का एक फार्मूला बनाया था जिसे टैरिफ कमीशन कहते हैं। जिसका मतलब है कि गन्ने के बढ़े मूल्य से 16 गुना अधिक चीनी का मूल्य बढ़ाया जा सकता है। के न्द्र सरकार 8.5 प्रतिशत रिकवरी के आधार पर हर साल 50 पैसा प्रति कुन्तल गन्ने का मूल्य बढ़ाती है। 1991-92 वर्ष के सत्र में गन्ने का मूल्य 31.50 रूपया प्रति कुन्ततल के सीजन के लिए 32.50 रूपया प्रति कुन्तल 8.5 प्र.श. चीनी के परते के आधार पर के न्द्र ने गन्ने के मूल्य की पूर्वघोषणा की है। अब यह राज्य सरकारों का काम है कि 8.5 श.प्र. से अधिक चीनी का परता आने पर उसी के अनुपात में गन्ने का मूल्य बढ़ा दे। टैरिफ कमीशन फार्मूले के मुताबिक सरकार गन्ने के बढ़े मूल्य से 16 गुना अधिक चीनी का मूल्य बढ़ा सकती थी यानी 80 रूपया प्रति टन (आठ रूपया प्रति क्विंटल) या 8 पैसा प्रति किलो। अन्यथा गन्ने को 17.50 रूपया प्रति कुन्तल गन्ने का अतिरिक्त मूल्य बढ़ाकर 1991-92 से लेकर अब तक किसानों को मिलना चाहिए। पर खेद है कि सरकार ने एक ओर उपभोक्ता को लूटा और दूसरी ओर किसान का भी शोषण किया और टैरिफ कमीशन के अपने बनाये फार्मूले की भी ऐसा की तैसी कर दिया। इधर सरकार ने शीरा लाइसेंस मुक्त कर दिया इससे मिल मालिकों को 500 करोड़ का शुद्ध अतिरिक्त लाभ मिला। बताते हैं कि इसके एवज में सरकार ने करीब एक अरब रूपया चीनी मिलों से वसूला और वह धन कठौरा (अमेठी) में गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करने और राजीव गांधी की आत्मा को शान्ति पहुंचाने के उपलक्ष्य में जश्न मनाने पर खर्च किया। हकीकत यह है कि शीरा, खोई, लदोई किसान सम्पत्ति है और चीनी के अतिरिक्त अवशिष्ट का मूल्यांकन कर गन्ने के मूल्य में जोड़कर किसानों को मिलना चाहिए। सरकार यहां भी किसान के साथ अन्याय कर रही है।
इसके अलावा फूड प्रोसेसिंग की विदेशी कम्पनियों के तैयार माल (तुरन्त भोजन) की 35 आइटमों पर 255 से 135 प्रतिशत सीमा शुल्क घटा दिया। एक अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी है कारगिल। राव सरकार ने सौराष्ट्र (कच्छ) में कांडला बन्दरगाह के पास नमक बनाने के लिए 15 हजार एकड़ भूमि कारगिल कम्पनी को पट्टा कर दिया। कारगिल अमरीका की बहुराष्ट्रीय कम्पनी विश्व की सबसे बड़ी निजी कम्पनी है। इसने 1991-92 में एक लाख 92 हजार करोड़ रूपये का उत्पादन किया जो भारत के राष्ट्रीय उत्पाद का एक तिहाई है। इस कम्पनी से 800 अन्य कम्पनियां जुड़ी हुई हैं। जो पांच महा देशों और 45 देशों में कार्य कर रही हैं। इसके तहत 60 हजार कर्मचारी काम करते हैं। काण्डला में इसे 10 लाख टन नमक उत्पादन हेतु इकाई लगाने की अनुमति दी है। परन्तु इस बात की पूरी आशंका है कि धीरे-धीरे कारगिल काण्डला बन्दरगाह को अपनी निजी उद्यम के रूप में परिवर्तित कर लेगी। वास्तव में इस भूमि का मालिक कांडला पोर्ट ट्रस्ट है। 9 दिसम्बर 92 को ट्रस्ट ने अपनी बैठक में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया था कि कारगिल कम्पनी को 15 हजार एकड़ भूमि नहीं दी जाएगी। क्योंकि यह काण्डला बन्दरगाह के हित में नहीं है। प्रस्ताव में यह तर्क भी दिया गया कि सुरक्षा की दृष्टि से बन्दरगाह के विस्तृत पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव के बचाव तथा घरेलू नमक उद्योग के हितों के मद्देनजर कम्पनी को यह जमीन नहीं दी जा सकती। लेकिन इसके बावजूद विदेशी शक्तियों के दबाव में आकर 20 फरवरी 93 को भारत सरकार ने ट्रस्ट पर दबाव डालकर कारगिल कम्पनी को उक्त जमीन दान कर दिया। गांधी जी के नमक सत्याग्रह आन्दोलन डांडी यात्रा का खुला अपमान किया है राव सरकार ने। गांधी जी ने नमक सत्याग्रह को आजादी के संघर्ष का प्रतीक बताया था। आज गांधी जी का नाम भुनाने वाली कांग्रेस सरकार नमक को भी आर्थिक गुलामी के लिए प्रयोग कर रही है। भारत के लिए नमक सिर्फ खाने की वस्तु नहीं है अपितु यह राष्ट्रप्रेमी भारतीयों के लिए एक चुनौती है। राव सरकार के इस राष्ट्र विरोधी और जनाकांक्षाओं के विपरीत कदम है। इससे न के वल देश की सुरक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता के लिए खतरा पैदा हुआ है बल्कि नमक उद्योग में लगे दो लाख लोगों के सामने बेरोजगारी का खतरा पैदा हो गया है।
जब आप ही इसका भी निर्णय करें कि यह देश को दिवालिया बनाने का कदम है या नहीं? इसका भारतीय उद्योगों पर विनाशकारी असर होगा या नहीं? हजारों लोग बेरोजगार होंगे या नहीं? देश का सिर शर्म से झुका या नहीं? एक दिलचस्प किस्सा और है जिसकी जानकारी बहुत कम लोगों को होगी। एफ.एम. मोड नामक एक रेडियो ट्रांसमीटर विदेशी कम्पनियों के सौजन्य से स्थापित हुआ है। जिस पर आयातित पुर्जों पर 460 करोड़ की विदेशी मुद्रा खर्च की गयी हैं ऐसे 43 रेडियो स्टेशन खोले जा चुके हैं। 24 और के न्द्र खुल रहे हैं। एफ.एम. प्रसारण नयी तकनीक पर आधारित रेडियो ट्रांसमीटर पर स्वदेशी रेडियो ट्रांजिस्टर पर नहीं सुना जा सके गा। इसके लिए विदेशी कम्पनियों के ही महंगे रेडियो ट्रांजिस्टर खरीदने पड़ेंगे। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं मित्सुबिसी, बुश, फिलिप्स और एचएमवी। इनका मूल्य काला-सफेद टीवी के बराबर है। रेडियो प्रसारण किन तरंगों पर होगा इसका निर्णय अन्तरराष्ट्रीय संस्था ही करेगी। विदेशी कम्पनियों ने मशीन व कल पुर्जे तो भारत के हाथ बेच दिये पर भारत को यह अधिकार नहीं है कि वह वे कल पुर्जे खुद बना सकें। अब आप ही बताइये कि गृह उद्योग में सस्ते स्वदेशी रेडियो सेट बनाने वाले बरौज होंगे या नहीं? बड़े आश्चर्य की बात है कि लगभग पौने पांच करोड़ की बरबादी के साथ देश के सस्ते रेडियो ट्रांजिस्टर सेट उद्योग की तबाही और गरीब जनता को रेडियो सुनने से वंचित रखने की साजिश में कितनी कमीशनखोरी की गयी?
विश्व बैंक आईएमएफ, डंकल प्रस्ताव और विदेशी कम्पनियों के दबाव में भारत सरकार ने भारतीय मुद्रा को पूर्ण परिवर्तनीय बना दिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि डालर का मूल्य बढ़ गया है। रूपये के पूर्ण परिवर्तन से पूर्व एक डालर का मूल्य बढ़ गया है। रूपये के पूर्ण परिवर्तन से पूर्व एक डालर का मूल्य 24 रूपया था जो अब बढ़कर 33 रूपया हो गया है और निकट भविष्य में 35 रूपये हो जाने की आशा है। इसके कारण रूपया का मूल्य (आधार वर्ष 1948) के वल सात पैसा रह गया है और विदेशी कर्ज और ब्याज की वार्षिक किश्त चुकाने में 50 अरब का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। सरकार ने इस सत्य को स्वीकार भी किया है कि आयात की तुलना में निर्यात काफी कम है। पिछले वर्ष छह करोड़ डालर (एक खरब 90 अरब रूपये) व्यापार घाटा रहा। इस वर्ष व्यापार घाटा और बढे़गा जिससे मुद्रास्फीति के साथ महंगाई का ग्राफ और ऊपर चढे़गा। विदेशी ऋणांे की किश्त 80 अरब 95 करोड़ डालर (दो खरब 72 अरब रूपये) के स्थान पर सौ अरब 24 करोड़ डालर (दो खरब 78 करोड़ रूपये ) अदा करना पड़ेगा। एक वर्ष का ब्याज भी 28750 करोड़ रूपये के बजाये करीब 38 हजार करोड़ रूपया अदा करना पड़ेगा। इसका परिणाम होगा देश की अर्थव्यवस्था का सर्वनाश। पेट्रोलियम पदार्थ, अनाज, तेल-तिलहन, उर्वरक, तरल गैस, भारी मशीनरी, मशीन के कल-पुर्जे, कृषि यंत्र, रसायन आदि आयात करने पर 24 रूपये प्रति डालर के बजाय अब 33-35 रूपया प्रति डालर भुगतान करना पड़ेगा। 1500 करोड़ रूपया तेल के लिए और अन्य आयात के लिए 2500 करोड़ रूपया अतिरिक्त व्यय भार बढ़ेगा।
1980 में जब इन्दिरा गांधी पुनः सत्ता में लौटी थीं, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) ने 5.2 अरब डालर (एक खरब 70 अरब रूपये) भारत को ऋण स्वीकृत किया था जो 10 वर्षों की अवधि में तीन किश्तों में प्राप्त होना था। प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल (1951-52) में भारत सरकार ने पहली बार के वल 32 करोड़ रूपया विदेशी ऋण स्वीकार किया था। 1947 में आजाद भारत 2200 करोड़ पौंड का धनी देश था जो पिछले 30 सालों के अन्तराल में 1980 में बढ़कर 19470 करोड़ रूपया हो गया था, जिसका ब्याज 107 करोड़ रूपया देना था। उस समय भारत पर कर्ज का बोझ बढ़ते जाने का सदन में विपक्ष ने घोर विरोध किया था। लोकसभा में ऋण सीमा निश्चित करने का प्रस्ताव भी पारित हुआ था। श्रीमती गांधी ने विपक्ष के दबाव में आकर इस ऋण की तीसरी किस्त लेने से इनकार कर दिया था उस समय भी गैट और विदेशी बैंकों का भारी दबाव था कि विदेशी कम्पनियों के हित में भारतीय अर्थव्यवस्था को उनके निर्देश के अनुरूप बनाया जाय। श्रीमती गांधी ने अनुभव किया कि सशर्त ऋण भार बढ़ाने से देश से देश की आजादी और आर्थिक प्रगति खतरे में पड़ जाएगी। उन्हें तभी पता चल गया था कि शर्तों के साथ ऋण लेना देश के हित में नहीं होगा। उनके जिद्दी स्वभाव और दृढ़ता के तेवर भांपकर विदेशी अधिकारियों में तहलका मच गया लेकिन इन विदेशी अधिकारियों ने अपने आर्थिक सलाहकारों को भारत भेजने में सफलता हासिल कर ली।
उसी के आधार पर जी सात (अमरीका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, जापान) द्वारा संचालित तीनों संस्थाओं ने भारत की आन्तरिक अर्थव्यवस्था के स्रोतों का विस्तृत अध्ययन कराया। फिर उसी के आधार पर तीनों संस्थाओं ने जी-7 द्वारा संचालित रणनीति बनायी। इसी के तहत विश्व बैंक ने 750 करोड़ रूपये खर्च कर भारत की सम्पूर्ण कृषि भूमि और घरेलू आर्थिक स्थिति पर 650 पृष्ठों की विस्तृत रिपोर्ट तैयार करायी। इस रिपोर्ट को विश्व बैंक के अर्थशास्त्री और अर्थ एवं संख्या विभाग के सलाहकार राबर्ट जे. एडरसन ने 1990 में विश्वबैंक को सौंप दिया। भारत के वित्तमंत्री जब कर्ज लेने वाशिंगटन गये तो विश्वबैंक ने उस रिपोर्ट की सभी शर्तों का मनवा लिया। डा. मनमोहन सिंह के तीनों वार्षिक बजट सर्वे रिपोर्ट की शर्तों के आधार पर विदेशी कम्पनियों की गुलामी का शिकंजा भारत पर कसता जा रहा है।
अन्य बातों के अलावा जिन क्षेत्रों में जो वस्तु पैदा होती है उन क्षेत्रों को पेटेन्टी कम्पनियों को अनुबन्धित किया जा रहा है। ये कम्पनियां पेटेन्ट किये गये वृक्ष लगाने, खाद्यान्न, कपास, फल सब्जी, तेल-तिलहन, मेवे-मसाले, वनस्पतियां, जड़ी-बूटियां और कच्चे माल के रूप में औषधियां पैदा करने और उनके बीच-पौध तैयार करने का काम करेगी। कच्चे माल की उपलब्धता के आधार पर फल और खाद्य प्रसंस्करण, फूलों से इत्र, फलों से जूस, अचार आदि और औषधि निर्माण के कारखाने खड़े करेंगी। डंकल प्रस्ताव और विश्व बैंक की रिपोर्ट के आधार पर पहले दौर में भारत सरकार ने निजी क्षेत्र की नीति अपनाने के बहाने पेटेन्टी विदेशी कम्पनियों को बीज पैदा करने, बीजों का शोधन करने, जनरेटिंग इन्जीनियरिंग से जर्मप्लाज्म (जननद्रव्य) में हेर-फेर कर हाईब्रिड का संकरित बीज तैयार करने के लिए देश के सभी विश्वविद्यालयों की कृषि भूमि (देश में 29 कृषि विश्वविद्यालय हैं) और सरकारी व्यावसायिक कृषि फार्मों की सारी भूमि अनुबन्धित करने का फैसला कर लिया है। यही है आर्थिक उदारीकरण के नाम पर विदेशी पूंजीनिवेश करने का भारत सरकार का मकसद और विदेशी धन का प्रवाह भारत की ओर मोड़ने की योजना और कृषि नीति?
विदेशी कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए चन्द्रशेखर सरकार ने देश का 20 टन सोना अन्तरराष्ट्रीय बाजार भाव पर 1900 रूपये प्रति 10 ग्राम की दर पर विदेशों में नीलाम कर विदेशी मुद्रा प्राप्त की थी जबकि उस समय भारत में 5500 रूपये प्रति दस ग्राम के आसपास सोने का भाव था। उस समय विश्व बाजार में 336 डालर प्रति औंस (एक औंस 31.1 ग्राम) सोने का भाव था। बाद में राव सरकार ने 47 टन सोना दो बार में 1294 रूपया 10 ग्राम की दर पर विश्व के बैंकों में गिरवीं रखकर ब्याज चुकाया था। गत वर्ष लोकसभा मे ंएक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने बताया था कि गिरवी रखा सोना छुड़ा लिया गया है। परन्तु पिछले दिनों वित्त राज्यमंत्री ने लोकसभा में बताया कि जुलाई 1991 में गिरवी रखवाया गया 46.61 टन सोना अभी तक स्वदेश वापस नहीं आया है। अब प्रधानमंत्री का यह कथन कि इससे बड़ा और कोई झूठ नहीं हो सकता कि सरकार ने विदेशी कर्ज लेने के लिए गुलामी स्वीकार कर ली है। आप ही सच झूठ का फैसला करेें कि झूठ कौन बोल रहा है। राव सरकार या जनता? हकीकत क्या है? इसका पर्दाफाश स्वयं जनता करेगी निकट भविष्य में?
डंकल प्रस्ताव 446 पेज का दस्तावेज है जिसे डंकल ड्राफ्ट टेक्टर (डीडीटी) कहते हैं। यह डीडीटी जहरीली डीडीटी दवा से भी घना मीठा जहर है जो धीरे-धीरे असर करेगा। मुद्राकोष और विश्वबैंक की अनेक शर्तें डंकल की शर्तों के समान हैं। मसलन कृषि पर दी जाने वाली सब्सिडी पूरी तरह समाप्त करना, भारत को मुक्त व्यापार के लिए तैयार करना ताकि पूरे तौर पर भारत विदेशी वस्तुओं का उपभोक्ता बाजार बन जाय, कृषि को दी जाने वाली घरेलू सहायता में कमी करना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त करना, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर से नियंत्रण समाप्त करना ताकि विदेशी माल की खपत पूरी तरह हो सके और उसको भारत की सम्पत्ति को लूटने का मार्ग खुल जाये। विदेशी कम्पनियों का माल आयात-निर्यात के लिए करमुक्त हो ताकि उसका माल सस्ता हो जिससे स्वदेशी लघु उद्योग बंद हो जाएं।
इस तरह विदेशी तकनीक और विदेशी कर्ज पर आधारित आर्थिक नियोजन से क्या देश आत्मनिर्भर बन सकता है? उदारीकरण के नाम पर मुनाफावादी मानसिकता से ग्रसित डंकल प्रस्ताव के तहत सैकड़ों विदेशी कम्पनियांे को बुलाकर भारी पूंजी निवेश से क्या भारत सुखी और वैभव सम्पन्न बन सकता है? राव सरकार देश को पूंजीवादी मार्ग पर ले जाना चाहती है। पर पूंजीवादी व्यवस्था को संचालित करने के लिए निजी माल की खपत के लिए क्या बाजार उपलब्ध है। यदि नहीं तो इन दोनों के अभाव में पूंजीवादी व्यवस्था कैसे चल सकती है? कर्ज के सहारे पूंजीवाद नहीं पनप सकता। विदेशी पूंजी प्रवाह से अपना बाजार विदेशी कम्पनियों के हाथों गिरवीं होगा और भारत विदेशी गुलामी के शिकंजे में पुनः जकड़ जाएगा। चन्द लोग हर तरह से आधुनिक और भोगवादी विदेशी संस्कृति के पोषक बन जाएंगे, शेष आम लोग अभाव, गरीबी और गिरावट के कष्ट भोगेंगे, उनका उत्पीड़न, शोषण और वेदना बढ़ेगी।
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