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भारतीयता की पहचान क्या है ?

Dr. Yogesh mishr
Published on: 20 Aug 1996 4:11 PM IST
किसी भारतीय से यह पूछा जाये कि भारत क्या है तो भारत की भौगोलिक सीमा बताकर वह व्यक्ति इस प्रश्न से निजात पा सकता है परन्तु इसी प्रश्न को थोड़ा सा विस्तार दे दिया जाए -‘भारतीयता क्या है? भारतीयता की पहचान क्या है ? तो इसका उत्तर न तो सहज रह जाता है और न ही सम्पूर्ण।
फिर भी यह तो हम कह ही सकते हैं कि ‘भारतीयता हमारा धर्म है।’
जब हम भारत में, भारतीयता में धर्म की बात करते हैं तो हमें स्प करना ही होगा कि ‘धर्म’ व ‘रिलीजन’ में क्या अन्तर है। वैसे व्यवहार में हम दोनों को पर्यायवाची या भाषानुवाद के  रूप में स्वीकारते चले आ रहे हैं जबकि ‘रिलीजन’ में व्यक्तिगत आस्था और पूजा पद्धति से सम्बन्धित हैं तो धर्म मानव कल्याण व ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसी संकल्पना के  आधारभूत गुणों से संचालित होता है। धर्म की अवधारण मूलतः भारतीय है। यह संस्कृत भाषा का शब्द है। महाभारत में धर्म की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि ‘जो प्राणियों के  उत्थान में सहायक हो, जो प्राणियों के  कल्याण को सुनिश्चित करें वही धर्म है।’ हमारे यहां धर्म के  दस लक्षण - अहिंसा, सत्य, अस्तेष, अपरिग्रह, दया, परोपकार, प्रेम, दान, सेवा, समानता माने गये हैं। यही कारण है कि मानव जाति के  भाग्य/समाज निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं उन सबमें धर्म के  रूप में जो शक्ति प्रकट हुई वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
दुनिया का इकलौता देश भारत है जहां ‘अनेकता में एकता’ और ‘एकता में अनेकता’ जैसे दोनों विरोधाभासी सिद्धान्त साथ-साथ सह अस्तित्व में पाये जाते हैं। इतना ही नहीं, आध्यात्मिक स्तर पर ‘कहीं भोग का कर्म’ और कहीं ‘कर्म के  भोग’ की सन्तोष परक धारणा समानान्तर रूप से चलती है। विरोध, वैपरीत्य का संगम जो यहां दृगित होता है वैसा कहीं की संस्कृति में नहीं। यहां विभिन्न मत, सम्प्रदाय, वैचारिकी का समय-समय पर प्रभुत्व रहा है फिर भी यहां है चिरन्तन रूप से हजारों वर्षो के  साथ-साथ रहते, सुख-दुःख सहते, प्रकृति के  रहस्यों को खोजते, इससे पराजित होते, विजय पाते, जरा मरण की गुत्थियों में उलझते। कभी फंस जाते पर टूटते नहीं। कभी निराश हो जाते। कभी थक जाते और कभी कभी मोक्ष की संकल्पना से आसन्न सुख-दुःख दोनों का बोध पाते, जन समूह ने जिस जीवन शैली का विकास किया उसमें जो कुछ उत्तम, उदात्त और धरोहर लायक है, रहा, कालान्तर में वही जाकर संस्कृति के  रूप में मान्य हुआ। उसी ने हमारे लिए मजबूत सांस्कृतिक परिवेश का ताना बुना जिसमें माक्र्स फिर एडवर्ड से टिरो तक के  संशोधनवादियों की विधि व्याख्याएं, राबर्ट ओवन, फोरियर व कैबे के  सामाजिक प्रयोगों, सेण्ट साइमन के  सिद्धान्तों, ग्रयूएनबुक व लेनिन के  समाजवादी सैन्यवाद, ओकानर का प्रकृतिवाद, ओ ब्राइन के  सर्वहारा समाजवाद, ब्लेगुंई का अल्पसंख्यक चेतना सिद्धान्त, लुईस ब्लाक के  विकासवादी समाजवाद, शुल्ज डेलित्व के  स्वयं सहायता सिद्धान्त, ब्रुनो नायर, नोए हेंस और कार्ल गुन नामक जर्मन विभूतियों के  यथार्थ समाजवाद व लासेल, सिम्मोदी, लेमोनास, प्रोधोन का अध्ययन, माक्र्स से पहले और बाद की यूरोपीय अवधारणाएं, बुद्ध, जैन, इसाई, मुस्लिम धर्मो सभी के  मुख्य व भौतिक अंगों के  बीज मूल रूप में कहीं न कहीं उपस्थित जरूर मिलेंगे।
यही सब आदर्श, व्यवहार जीवन की परम्परा में रच-बस कर जीवन मूल्यों के  रूप में भारतीयता के  नाम पर जाने और पहचाने जाते हैं। भारत के  मूल ग्रन्थ ग्वेद में उििखत है कि -
‘जन  विभ्रती  बहुदा  विवाचसं,
नाना धर्माणां पृथिवी यथोक्सम्’
भारतीयता चिन्तन की दिशा भी है, आचार संहिता भी। वह स्थित भी है, चलायमान भी। वह अणु भी है, ब्रह्माण्ड भी। स्थैकिकता भी है, गत्यात्मकता भी। वह हमारी माटी में दृढ़ता से जमी जों से रस ग्रहण करती हैं, एक जन के  रूप में जीवन जीने वाले समाज में शक्ति लेती रहती है और उसी को अपनी ऊर्जा देकर एकात्मकता के  दर्शन की दृष्टि देती है।
भारतीयता का मूलगुण है - ‘धर्म पर दृढ़ रहते की शक्ति।’ धर्म से आशय किसी सम्प्रदाय या उपासाना पद्धति से नहीं है, वरन् ‘कर्म ही पूजा है’ जैसी दृष्टि यहां धर्म के  लिए स्वीकार की गयी है। धर्म पर दृढ़ रहने की शक्ति, सत्य के  बल पर ही आदमी में पल्लवित एवं पुष्पित हो सकती है। सत्य की इस गहन अनुभूति के  कारण ही सब कुछ सहने, सब कुछ झेलने के  मूल में दुर्बलता या दीनता का भाव कभी नहीं उरजता।
असहिष्णुता को बढ़ावा नहीं मिलता। क्षमा के  अर्थ का बोध कायरता में होने देती। अतिथि सत्कार, समन्वय ही ऐसे कारक रहे जिनके  कारण विदेशी आक्रांता भी भारतीय जीवन में ऐसे घुल गये कि आर्य और अनार्य तय कर पाना कठिन हो गया है। भारतीयता में संयम, सन्तोष और तप तो चार पुरुषार्थों के  प्रतीक के  रूप में स्वीकार किया गया है। हमारे यहां मानव जीवन को 84 लाख योनियों में भटकने का परिणाम माना और बताया गया। जिससे इस लोक के  साथ परलोक की चिन्ता, संसार की अनित्यतता और शरीर की नश्वरता का विचार जीवन को ऐसी ऊर्जा या उदात्तता प्रदान करता है जिससे मनुष्य की कुरूपता, कमजोरियां और कुरुचियां इच्छा होकर भी खुलकर नहीं खेल पाती हैं।
हमारे यहां धर्म में न्याय, विधि, लोकहित, जनकल्याण के  साथ-साथ श्रेष्ट परम्पराएं भी समाहित रहती हैं। हर व्यवसाय, वर्ग, संस्कृति व समय का अलग-अलग धर्म है। हमारे यहां अशोक के  बौद्ध व अकबर के  दीन- ए- इलाही को छोड़कर कभी भी राजधर्म नहीं रहा। धर्मराज की बात हमेशा होती रही। हमारे संविधान के  निर्माण के  समय भी अम्बेडकर ने कहा था कि रिलीजन सटीक रूप से एक व्यक्तिगत मामला है जबकि धर्म का सम्बन्ध समाज से है।
इसलिए हमें धर्मनिरपेक्ष नही होना चाहिए क्योंकि धर्म का सम्बन्ध समाज से ही है फिर समाज निरपेक्ष ? धर्मनिरपेक्षता को अंग्रेजी में ‘सेक्यूलरिज्म’ कहते हैं। यह शब्द लैटिन के  ‘सेकुलरिज्म’ से बना है। जो उन इसाई पादरियों के  लिए प्रयोग होता था जो नगर संस्कृति में रहना पसन्द करते थे।
अमरीकी ‘ज्ञान कोष’ में धर्मनिरपेक्षता को व्याख्यातित करते हुये इसे आचार, व्यवहार तथा कायदे कानून को एक संहिता माना गया है। जिसे धार्मिक मान्यताओं से अलग रखा गया था। सर्वप्रथम 1850 जार्ज होलीओक ने इस शब्द का प्रयोग किया था। यह शब्द इन्होंने ब्रेला जूके न से मिलने के  बाद गढ़ा था। प्रकारान्तर से इसके  पांच अर्थ जुटाये गये जिसमें बहु स्वीकार्य रहा ‘विश्व को सुन्दरतम बनाने का प्रयास करना।’ यूरोप में राज्य व्यवस्था पर चर्च के  अधिपत्य के  विरोध में पोप के  धर्मतंत्रीय अधिपत्य से मुक्ति हेतु इस ‘सेक्युलर स्टेट’ की संकल्पना का प्रयोग हुआ। भारत में कभी भी धर्म ने किसी भी राज्य को संचालित करने की कोशिश नहीं की क्योंकि भारतीय परिवेश में धर्म जहां से आरम्भ होता है वहां से राज्य खत्म हो जाता है। हमारे यहां धर्म गृहस्थाश्रम यानी 50 वर्षो के  बाद आरम्भ होता है जबकि राजा इस उम्र तक राजकुमार का राज्याभिषेक हो चुका रहता है।
यही कारण था कि संस्कृति की हमारी संस्कृति की प्रचुर सम्पन्नता आज भी दुनिया के  सामने एक उदाहरण है जबकि विभिन्न मतों, वैचारिकी के  साथ भौगोलिक रूप से पराजित होने और जीने का कड़वा अनुभव हमारे पास है।
जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
धरती पर ही परत है, सीत धाम अरु मेह।।
इसमें भारतीयता को कायम रखने के  लिये धरती जैसा सहनशील, भार ढोने वाला बनने की जो प्रेरणा दी गयी है उसी का समष्टि परिणाम यह रहा कि 1947 में अलग राष्ट्र के  सिद्धान्त पर पाक चले जाने वाले इकबाल ने कहा कि -
यूनान, मिस्र, रुमां सब मिट गये जहां से,
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।।
इकबाल ने इसे कहा कि नहीं पाक जाने के  बाद इसका कभी खण्डन भी नहीं किया। यहां जो ‘कुछ बात’ है वही भारतीयता है जो विश्लेषित व व्याख्यायित नहीं की जा सकती है। वह ‘गूंगे के री शर्करा’ जैसी है। यह बोध है। बोध को पूरी तौर से, सम्पूर्णता में व्यक्त कर पाने की ताकत हमारे शब्दों में नहीं है और न ही भरी जाती है इतनी शक्ति हमारे बोध को व्यक्त करने की। मौन में भी मुखरता होती है। तभी तो मौन व्यथा के  मुखर भुलावे की बात की जाती है। हमारी भारतीयता में ‘कर्म का भोग और भोग के  कर्म’ का द्वन्द है, जिसमें संतुलन की ताकत है। जो स्वयं व दूसरों के  साथ न्याय का संतुलन कायम करती है। प्राप्त करने और भारतीयता को कायम रखने की प्रेरणा जिससे हमें मिलती है वह ‘चित्त’ ही है। जो मानव की आत्मा, राष्ट्र की आत्मा, और राष्ट्र की चेतना है।
जिसे मारने की कई बार कोशिश हुई और जाने कितने बार गैर भारतीय संस्कारों के  लबादे ओेढ़े भारतीय मारने की कोशिश करते रहेंगे। इनके  एहतियात बरतने की जरूरत है। क्योंकि इन्हें धर्मनिरपेक्षता, धर्म और तमाम शब्दों के  बारे में सही-सही कुछ पता नहीं है। शब्दों की अपनी एक संस्कृति होती है और समाज में उनकी एक विशेष स्वीकृति भी ‘अंग्रेजी’ ? लोगों ने शब्द तो स्वीकारे पर उनकी संस्कृति हमारे यहां नहीं थी और न ही होने की सम्भावना भी थी। फलतः उन शब्दों की विशेष स्वीकृति का प्रश्न ही नहीं उठता था।
विभाजन के  बाद जिन लोगों ने हमारे साथ विभाजन की विभीषिका झेली और जीना स्वीकार किया  वे हमारे परिजन ही हैं। उन्हें जातीय इतिहास की रक्षा के  नाम पर बहकाने की साजिश के  खिलाफ हमें उनके  साथ खड़ा होना पड़ेगा यही हमारी भारतीयता है क्योंकि यहां ‘नेशनलटी’ व ‘सेक्यूलरिज्म’ से बड़़ा हमारा ‘वसुधैव कुटुम्बकम् व सर्वभूतहित’ है।
हमारे यहां जितने भी सम्प्रदाय हैं, जितने वर्ग हैं, जितनी अनेकता है उसके  लक्षणों में उसकी आत्मा में कुछ तो, एकात्मकता जरूर है। उसी एकात्मकता के  तलाश की आवश्यकता है। इन्हीं लक्षणों की प्राथमिकताओं के  अन्तर को दूर करने की आवश्यकता है।
लेकिन इस कार्य से उन लोगों को विरत करना होगा जो लोग आज तक करते आये हैं। जिनके  लिए राष्ट्र से बड़ा राज्य और राज्य कुर्सी के  नीचे हुआ करता है। क्योंकि ये लोग ऐसे हैं जिनसे जुकर मूल्य और भी संदिग्ध और स्वअर्थी तथा पेंचीदा हो जाते हैं और हमें तो जो मूल्य स्वीकारना है उसमें ‘आना भद्रा तवों यन्तु विश्वतः।
इसी पहचान को बिखरने से रोकना है तभी तो मानव मूल्यों और आपसी सौहार्द के  परस्पर दायित्व वहन करने वाले परिवेश का निर्माण हो पाएगा। हमें मकानों से बाहर आकर घर का निर्माण करना होगा। भारत ही नहीं भारतीयता की भी रक्षा करनी होगी।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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