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विकास माॅडल में कहां हैं औरतें

Dr. Yogesh mishr
Published on: 2 Dec 1996 2:18 PM IST
सूर्योदय से पहले उठना। झाड़ू-पोछा करना बर्तन मांजना। सबके  कपड़े साफ करना। बच्चों को उठाना। ब्रश करना। तैयार करना। लंच बनाना। बैग देना। बच्चे को स्कूल भेजने के  लिए बाहर तक आना। वो उठ गये फिर ब्रश देना। कपड़े देना। नाश्ता देना और आफिस भेजते समय मुस्कुराना। दोपहर में किसी के  न होने के  कारण अके ले भोजन बनाने में आलस कर जाना। पूरे दिन घर की चीजों को तरतीब से रखना। मिलना। बच्चे के  स्कूल के  लौटने और उनके  आफिस से लौटने का इंतजार करना। फिर रात को खाना बनाना। बिस्तर लगाना। यह रोजनामचा देश की आधी आबादी का है। इतना ही नहीं, सूबेदार कही जाने वाली स्त्री से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी सभी भूमिकाएं बिना शिकायत के  पूरी करें। यह आधी आबादी घर परिवार में अधिष्ठाता होती है। परंतु निर्णायक नहीं। भारत की जनगणना के  अनुसार देश को पूरी श्रम शक्ति में मात्र एक तिहाई हिस्सा महिलाआंे का है। जाहिर है कि यह कहते हुए हमारी सरकार के  आधी आबादी के  रोजनामचे का खयाल नहीं करती। महिलाओं के  पारम्परिक काम को श्रम शक्ति का हिस्सा न मानने की वजह से यह धारणा घर कर गयी है कि महिलाएं कम काम करती हैं। जबकि विश्व बैंक का मानना है कि एक श्रमशक्ति के  रूप में महिलाएं कार्य का 51 फीसदी हिस्सा संभालती हैं। सबसे ज्यादा महिलाएं रोजगार के  लिए खेती पर निर्भर हैं। इसके  बाद कुटीर और घेरलू उद्योग मंे लगी हैं। शहर में सबसे ज्यादा महिलाएं उत्पादक कल कारखानों में नौकरी करती हैं। इसके  बाद सरकारी नौकरियां शिक्षिका एवं नर्सों के  रोजगार में बहुतायत महिलाएं हैं। 1981 की जनगणना के  अनुसार महिलाओं की पूरी आबादी का सिर्फ 19.6 प्रतिशत को ही रोजगार मिला था। जबकि 1991 में यह बढ़कर 23 फीसदी हो गया। यह आश्चर्यजनक बात है कि साक्षरता के  क्षेत्र में सबसे ज्यादा आगे रहकर भी महिलाओं के  रोजगार की व्यवस्था करने में के रल हालात को बढ़ाने में उनकी भूमिका को सहज की समझा जा सकता है। पंचायती राज के  प्रभारी जार्ज मैथ्यूज और उनके  दल ने जब बिहार के  कुछ गांवों का दौरा किया तो उन्हें यह देखकर बहुत कष्ट हुआ कि महिलाएं उनसे बात करने पुरूषों के  संरक्षण में आ रही हंै। महिलाओं की यह स्थिति देखकर स्वयं मैथ्यूज ने यह निष्कर्ष निकाला कि पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों के  होने से समाज व पंचायती राज व्यवस्था में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं होते दिखते हैं।
मैथ्यूज की बात को जांचने के  लिए अगर अपने समाज पर दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट होता है कि चुनाव के  समय अधिकांश स्त्रियां पुरूषों से पूछकर मतदान करती हैं। मीटिंगों में जाने के  लिए महिलाओं को पैसा घर के  पुरूषांे से मांगना पड़ता है और यह पुरूष की कृपा का ही परिणाम होता है कि वह महिलाओं को मीटिंग में जाने की अनुमति/सहायता देता है या नहीं। राजस्थान की एक महिला सरपंच ने क्षोभ में कहा कि हमें इस किस्म का कोई समाधान नहीं चाहिए। आरक्षण का लाभ भी पुरूषों ने उठाया है। औरतें तो सिर्फ काफी पीछे हैं। यहां मात्र 17 फीसदी महिलाएं बेरोजगार हैं। 1981 में जहां 1000 पुरूष पर मात्र 225 कामकाजी महिलाएं थी। वहीं 1991 मंे यह संख्या बढ़कर 489 हो गयी। कामकाजी महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी के  बाद भी आज तक ट्रेड यूनियनों में महिलाओं की समस्याओं पर विचार नहीं होता?
कहने के  लिए स्त्री को तमाम अधिकार प्राप्त हैं। स्त्री को निःशुल्क शिक्षा। 18 वर्ष से पहले विवाह न होने का कानून। नई महिला नीति के  तहत तमाम अधिकार सहित शराबी, दुराचारी पति से आसानी से तलाश। श्रमिक महिलाओं के  लिए बने फैक्ट्री एक्ट, जिसमें साफतौर पर यह कहा गया है कि किसी भी महिला से शाम सात बजे से सुबह छह बजे तक कुछ निश्चित क्षेत्र में काम नहीं लिया जा सकता।
इतना ही नहीं, महिलाओं के  लिए पंचायत के  तीनों स्तरों पर एक तिहाई आरक्षण की सुविधा संविधान के  73वें संशोधन के  तहत दी गयी है। परंतु जिस देश में स्त्री शिक्षा की दर मात्र 23 फीसदी हो वहां पंचायती राज महिलाओं के  ठप्पा लगा रही है।
राजस्थान की इस महिला सरपंच की बात पर गौर किया जाए तो यह पता चलता है कि महिलाएं आज नारी स्वायत्तता के  इस युग में स्वतंत्र नहीं हैं। लंबे जद्््दोजहद के  बाद भी नारी समानता की दिशा में कोई सार्थक प्रयास हो पाया हो। महिला साक्षरता बढ़ी है। व्यवसाय एवं नौकरियों के  सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति लगभग दर्ज करा दी है। फिर भी के न्द्र सरकार, राज्य सरकार एवं स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी 1981 में यहां 4.3, 11.4 एवं 20.4 फीसदी थी। वहीं 1989 में बढ़कर 5.9, 14.5 व 24.1 फीसदी मात्र हुई। जबकि के न्द्र सरकार में महिला राजपत्रित अधिकारियांे की संख्या का अनुपात मात्र 3.5 फीसदी है।
73वें संविधान संशोधन के  तहत पंचायतों के  चुनाव हुए। महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण भी मिला परंतु महिलाओं की स्थिति पर गौर किया जाय तो या एक सर्वेक्षण के  मुताबिक लोगों को बेटे इतने प्रिय हैं कि दम्पत्तियों की अच्छी खासी संख्या बेटे के  लिए अनगिनत बेटियां पैदा करने के  लिए तैयार हैं। इसी सर्वेक्षण के  नतीजे के  मुताबिक 2.2 प्रतिशत जोड़े दूसरे बेटे की आशा में पांच बेटियां, 4.6 फीसदी जोड़े चार बेटियां, 15.6 प्रतिशत तीन बेटियां पैदा करने का मन बनाए हुए हैं। इस सवेक्षण में अंडमान निकोबार को छोड़कर पूरे देश में 44889 दम्पत्तियों को शामिल किया गया था। मात्र 13.9 प्रतिशत दंपत्ति ऐसे मिले, जिनके  लिए बेटे-बेटियों में कोई फर्क नहीं था। इन जैसी तमाम घटनाएं यह बताती हैं कि समाज में स्त्री के  प्रति नजरिया क्या है? समाज किधर जा रहा है? कोख से कब्र तक यातना। असमानता। उत्पीड़न की शिकार हमारी आधी आबादी की एकतरफा जरूरत की गलत धारणा से भी प्रताड़ित होती है।
1975-85 मंे संयुक्त राष्ट्र संघ के  तहत महिला दशक मनाया गया। औरतों के  विरूद्ध भेदभाव के  तत्काल समाप्ति की मांग करते हुए 1989 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक विशेष प्रस्ताव पारित किया। 1985 मंे नैगेओ में तीसरा अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन हुआ। 1995 में पेइचिंग में हुए अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में भविष्योन्मुखी कार्यनीतियों पर विचार-विमर्श हुआ। इतना ही नहीं दक्षेस महिला दशक अभी जारी है। महिलाओं की इक्कीसवीं सदी में जाने की बात करने वाले इन तमाम आयोजनों में अठारवें सदी की दहलीज पर ठहरा दी गयी है। महिला बोध पर कुछ नहीं हुआ।
पंचायती राज अधिनियम के  तहत महिलाआंे को एक तिहाई आरक्षण देने के  सुख से राजनीतिक पार्टियां भले ही गर्व करें परंतु सच यह है कि 1996 की विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 27 महिलाओं को टिकट दिया था, जिनमें मात्र 10 फीसदी जीती थीं। सपा की सोलह महिलाओं में से छह को विजयश्री हाथ लगी। बसपा की पंाच महिलाओं में से मायावती तीन जगह से चुनाव कर आयीं। इस तरह प्रदेश की 425 सदस्यों वाली वर्तमान विधानसभा में महिलाओं की संख्या मात्र 17 फीसदी है।
हमारी वर्तमान लोकसभा में प्रदेश की 85 सीटांे में से नौ सीटें महिलाओं के  हाथों में गयी। अगर इन आंकड़ों पर गौर करें तो साफ होता है कि अभी तक किसी पार्टी में दस फीसदी महिलाओं को भी टिकट नहीं दिये गये। इसका कारण यह है कि वह पुरूषों के  द्वारा ही शोषित है। ये ही तय करें कि महिला किस हद तक आगे आए। इसी मानसिकता का परिणाम है कि सदन में महिलाओं के  33 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित कराने वाला विधेयक बजट जाये और पिछले दिनों की खबरों को देखा जाए तो यह साफ हो जाता है कि जिन महिलाओं को पंचायत के  तीनों स्तरों में आरक्षण के  नाते पद मिले, उनके  पुरूषों ने महिलाओं को रबर स्टैम्प बना डाला। हालात यहां तक बिगड़ गए कि प्रशासन को पद का दुरूपयोग रोकने के  लिए विजेता महिलाओं के  पतियों/संरक्षकों को कड़ी चेतावनी देनी पड़ी।
जून 1980 माया त्यागी कांड, दरौला गांव में हरिजन महिला के  साथ डकैतों का सामूहिक बलत्कार। अमृतसर में चार महिलाओं को गिरफ्तार कर उनके  सिर पर ‘जेबकतरी’ गोदवा देना। छौना गांव में शिवपतिया को निर्वस्त्र करके  घुमाना। पड़रिया (बिहार) में पुलिस वालों द्वारा किये गये बलत्कार, राजस्थान में बाल विवाह का विरोध करने वाली भंवरी देवी के  साथ हुआ सामूहिक बलत्कार, गजरौला का नर्स कांड। सूरत में साम्प्रदायिक दंगों के  दौरान हुए सामूहिक बलात्कार, राजस्थान के  एक थाने में बेटे को मां के  साथ सहवास करने के  लिए मजबूर करना। कलकत्ता में पुरीं के  शंकराचार्य निश्रलानंद की उपस्थिति में वेद पाठ करने से महिलाओं को मना कर देना रामकृष्ण मिशन के  स्कूल में एक नाटक मंडली को के वल इसलिए नाटक करने की अनुमति नहीं देना क्यांेकि उस मंडली में कुछ भूमिकाएं लड़कियां भी निभा रही थीं। इतना ही नहीं मौलवियों के  संगठन जमीयत-उलमाएं हिन्द द्वारा मुसलमान पति की एकपक्षीय तलाक देने के  अधिकार को सीमित करने के  खिलाफ बोलना। बंगाल के  मिदनापुर में स्त्री को गिरवीं रखना।
समाज में हर 54 मिनट में एक लड़की के  साथ बलात्कार 43वें मिनट पर एक लड़की का अपहरण, 102 मिनट पर दहेज के  लिए एक लड़की को प्रताड़ित किये जाने की घटना आम हो गयी है। हर छठवीं स्त्री की मौत अपने साथ हो रहे अन्याय के  खिलाफ यह जीन विरोधी के  कारण होती है। 25 फीसदी लड़कियां 25 वर्ष की आयु पूरा करने के  पहले ही मर जाती हैं। अपोलो हास्पिटल के  एक सर्वे के  अनुसार बहुत कम महिलाएं ऐसी हैं, जो पूरी तरह स्वस्थ हों।  इस अस्पताल ने एक हजार महिलाओं के  स्वास्थ्य की जांच करने के  बाद मात्र 23 महिलाअेां को पूरी तरह स्वस्थ बताया। महिलाओं में होने वाली बीमारियां काम के  अधिक बोझ, तनाव एवं कुपोषण के  कारण होती हंै। यह तथ्य भी अस्पताल के  सर्वे से उजागर हुआ कि गर्भावस्था में मारे जाने वाले 1000 भ्रूणों में 995 स्त्री भू्रण होते हैं।
1991 में आपरेशन रिसर्च ग्रुप द्वारा किये गये सत्र में पास नहीं हो पाया। और शीतकालीन सत्र में भी उसके  हूबहू पास हो जाने की संभावनाएं नहीं दिखतीं। राजनीतिक पार्टियों ने पंचायती राज अधिनियम के  पीछे महिलाओं को वोट के  शक्ल में देखने की राजनीतिक मंशा तैयार की है। महिलाओं को वोट के  शक्ल में सबसे पहले इन्दिरा गांधी ने महसूस किया था। तभी तो वो अपने बजट में कभी मंगल सूत्र के  लिए सोना सस्ता कर देती थीं। सिंदूर पर कर नहीं बढ़ाती थीं। धोती सस्ती कर देती थीं। अभी हाल में बिहार में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में भी समता पार्टी को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों ने महिलाओं के  वोट लेने के  लिए कई इंसेटिव स्कीम जारी की थी। यह सब कुछ सहज ही तय कर देता है कि हमारी विकास के  माॅडल में महिलाएं कहां हंै? गाडगिल फार्मूले में महिलाएं नहीं हैं।
लोफोरव्यू की यह प्रार्थना पता नहीं कब सार्थक होगी कि, ’स्त्री पुरूष में भाईचारे का सम्बन्ध होगा और शेाषण पुरूष का उद्देश्य नहीं होगा। दोनों सच्चे रूप से एक दूसरे का हाथ पकड़ेंगे। महिलाओं को न्यून और न्यूनतम जैसे सांचे में ढालकर नहीं देखा जाएगा।’


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Dr. Yogesh mishr

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