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नक्सली आन्दोलन महज हिंसा नहीं

Dr. Yogesh mishr
Published on: 5 Jan 1997 9:58 PM IST
नक्सली आन्दोलन महज हिंसा नहीं था। इसे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई मानने वाले कला फिल्मों के  निर्माता-निर्देशक गोविंद निहलानी कलात्मक फिल्मों के  प्रति प्रेस के  बदलते रवैये से खुश नहीं हैं। वे मानते हैं कि अस्सी के  दशक में प्रेस ने जितना समानांतर सिनेमा को सपोर्ट किया वैसा आज नहीं है। श्री निहलानी ने आक्रोश, अर्धसत्य, पार्टी, आघात, तमस, जंजीरें, पिता और रूक्कमावती की हवेली, दृृष्टि, द्रोहकाल, संशोधन और हजार चैरासी की मां सहित अब तक तेरह फिल्में बनायी हैं। वे मानते हैं कि फिल्में हमारे समाज को ही रिफ्लेक्ट करती हैं। विचार और कल्पना के  स्तर पर नयापन नहीं आ पाने को भारतीय सिनेमा की ट्रेजडी मानने वाले श्री निहलानी तक्षक के  साथ व्यावसायिक सिनेमा के  मैदान में उतरे हैं। व्यावसायिक फिल्म बनाना उनके  लिए एक नया एक्साइटमेंट है। गत दिनों ‘सहारा इंडिया परिवार’ की प्रस्तुति हजार चैरासी की मां के  प्रीमियर शो के  अवसर पर श्री निहलानी से ‘राष्ट्रीय सहारा’ के  योगेश मिश्र की लंबी बातचीत हुई। प्रस्तुत है बातचीत के  प्रमुख अंश-
             नक्सल मूवमेन्ट के  बारे में आपकी निजी राय क्या है?
-मैं नक्सल मूवमेन्ट के  पाॅजिटिव आसपेक्ट को देखता हूं। लोग भले ही इस आंदोलन को हिंसा के  सिवाय कुछ नहीं मानते हों परन्तु यह पूरी तरह से सही नहीं है। अगर हिंसा के  आधार पर इसे खारिज करना हो तो इस आंदोलन के  अगेन्स्ट भी तो वायलेन्स था उसको आप क्या कहेंगे? मैं नक्सल आंदोलन को व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई मानता हूं जो चाय बागानों में काम करने वाले लेबरों के  वेतन को लेकर शुरू हुई थी। यह वह आंदोलन था, उन युवकों का आंदोलन था जो समाज को बदलना चाहते थे परन्तु दुर्भाग्य से सफल नहीं हो सका।
             क्या कारण है कि दिल को छू जाने वाली कलात्मक फिल्में बाक्स आफिस पर ही दम तोड़ जाती हैं?
-जनता में ऐसी फिल्मों के  प्रति जागरूकता पैदा करने के  लिए प्रेस की आजकल सकारात्मक भूमिका नहीं है। आज प्रेस भी समानान्तर सिनेमा के  बारे में उदासीन है। जितना उत्साह/सपोर्ट प्रेस ने अस्सी के  दशक में दिया उतना आज नहीं है।
             आखिर इसके  लिए आप दोषी किसे मानते हैं?
-इसके  लिए फिल्म मेकर भी जिम्मेदार हैं। समानान्तर सिनेमा के  नाम पर अब पहले जैसी कलात्मक फिल्में नहीं बनायी जा रही हैं। हालांकि जनता में पहले जैसा ही उत्साह है। एक दो अच्छी फिल्में बन भी रही हैं तो प्रेस जनता को यह बताने के  लिए आगे नहीं आ रहा है कि यह फिल्म कैसी है? उससे क्या अपेक्षा की जानी चाहिए? समानान्तर सिनेमा एक ओर टेक्निक से लड़ रहा है दूसरी ओर वितरक की उदासीनता से। हमें ही हर फिल्म के  साथ एक नयी लड़ाई लड़नी पड़ती है। हर बार स्क्वायर वन से शुरू करना पड़ता है।
             आप समानान्तर सिनेमा में दर्शकों की कमी के  पीछे पीढ़ी मंे सोच के  परिवर्तन को कारण मानते हैं या नहीं?
-देखिये मेरी दृष्टि में हर पीढ़ी में समानान्तर सिनेमा के  दर्शक होते हैं जिसे कोई रोक नहीं सकता। फिल्म देखकर पैसा वसूलने के  जुगत वाला दर्शक भी है परन्तु उसका अलग आब्जेक्टिव है।
             फिल्मी दुनिया पर माफिया के  बढ़ते शिकंजे के  बारे में आपकी क्या राय है?
-यह अचानक नहीं हुआ है। माफिया का पैसा कुछ फिल्मों में काफी सालों से लग रहा है। यह नार्मल कोर्स में चलता रहता है। न जाने किन कारणों से इधर माफियाओं ने फिल्म उद्योग पर अपना प्रेशर ज्यादा कर दिया है। पुलिस की ओर से रिएक्शन्स भी हुए परन्तु इससे मुझे नहीं लगता कि यह सिलसिला रूके गा। थोड़ा कम हो जाये यही बहुत है। माफिया हमारे समाज का हिस्सा बन गया है। आज जरूरत इस बात की है कि माफिया को आप छोटे संदर्भों में मत देखें। हत्या, आगजनी, लूट, फिरौती जैसे काम करने वाले लोग तो माफियाओं के  छोटे से अंग हैं।
             फिल्म उद्योग में माफियाओं के  प्रवेश/प्रभाव के  लिए आप (निर्माता/निर्देशक) कहां तक जिम्मेदार हैं?
-देखिये, आपकी इस बात से मैं इनकार तो नहीं कर सकता, लेकिन एक बात सही है कि इनके  पैसों से जिन भी निर्माता-निर्देशकों ने काम शुरू किया वे लम्बा नहीं चल पाये। स्टेबलिश नहीं हो पाये। ऐसे प्रोड्यूसर कांन्टीन्यू नहीं कर पाते हैं। सर्वाइव नहीं करते। जैसे ही सपोर्ट गया प्रोड्यूसर की हवा निकल जाती है। देखा जाये तो फिल्म एक कामर्शियल प्रीपोजीशन है, जिसे ज्यादा से ज्यादा लोग टिकट खरीदकर तभी देखना चाहेंगे जब परिवार की सेन्सेबिलिटी पर कोई आंच न आये। वैचारिक और कल्पना के  स्तर पर नयापन नहीं आना हमारी ट्रेजडी जरूर है।
             कलात्मक फिल्में बनाने में सरकार और सरकारी एजेन्सी की भूमिका के  बारे में आपकी क्या राय है?
-देखिये मैं तो यह मानता हूं कि समानान्तर सिनेमा को बचाये रखने में सरकार की मुख्य भूमिका है। श्याम बेनेगल और सत्यजित रे को ही लें इनकी अधिकांश कलात्मक फिल्मों में एन.एफ.डी.सी. ने धन लगाया है। मैंने भी एन.एफ.डी.सी. से पैसा लेकर कुछ फिल्में बनायी हैं। लेकिन कलात्मक फिल्मों को डिस्ट्रीब्यूट करना दिक्कत तलब होता है।
             क्या आप कोई व्यावसायिक फिल्म नहीं बनाना चाहते?
-व्यावसायिक फिल्म बनाना मेरे लिए एक नया एक्साइटमेंट है। आजकल तक्षक बना रहा हूं। उसमें वह सभी एलीमेंट हैं जो कामर्शियल सिनेमा को चाहिए-स्टार हैं, म्युजिक है। यह कहानी मैंने लिखी है जो आधुनिक मुम्बई की परिस्थितियों पर है। वह मुम्बई जो पूरे हिन्दुस्तान को रिप्रजेन्ट करती है। 88-89 तक की कहानी इसमें है। जिन इश्यूज को मैं डील करता रहा हूं, वे भी आपको फिल्म में मिलेंगे। अजय देवगन, तब्बू को लेकर बन रही मेरी इस फिल्म में म्युजिक रहमान ने दी है।
             कला फिल्मों से निकलकर व्यावसायिक फिल्मों में काम करने के  बाद कोई कलाकार फिर कला फिल्म की ओर मुड़कर क्यों नहीं आता?
-इस तरह की फिल्मों में मिलता क्या है। कितनी कम फिल्में बनती हैं। आखिर कलाकार को वर्ष भर काम तो चाहिए न।
             कला फिल्मों में लगातार काम के  संकट के  बाद भी आप कलात्मक फिल्मों से क्यों जुड़े हैं?
-मैं एडवरटाइजिंग फिल्में भी बनाता हूं। और भी तमाम काम करता हूं। वैसे मैं व्यावसायिक फिल्मों को भी अलग किस्म की एक ऐसी शैली मानता हूं जिसकी जड़ें हमारी संस्कृति में हैं। व्यावसायिक फिल्मों ने तमाम एलीमेंट हमारी संस्कृति से लिए हैं। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को छोड़कर किसी भी अन्य देश की फिल्मों में नाच, गाने ऐसे नहीं होते। फिल्मों को ही देखें। खलनायक अंत में मारा जाता है सत्य की जीत होती है। यह सब हमारी संस्कृति के  ही तो अंग हैं।
             अगर यह सब सच है तो हिन्दी फिल्मों में पश्चिमी फिल्मों की नकल क्यों होती है?
-नकल कहानी की होती है, थीम की होती है। मैंने पहले भी कहा कि कुछ नया न सोच पाने का संकट बरकरार है। हमारी फिल्मों में नाच गाने वेस्ट की फिल्मों से तो नहीं लिए जाते। संस्कृति पर सम्मिश्रण का प्रवाह चलता रहता है। वन्दनी, आवारा, मदर इंडिया, जागते रहो, संत तुकाराम, व्यावसायिक शैली में बनी हुई फिल्मंे ही हैं। सच देखा जाये तो व्यावसायिक फिल्मों की शैली में दिक्कत नहीं है। क्कित है बनाने वालों की मानसिकता में।
             फिल्मों में बढ़ रही हिंसा और अश्लीलता पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
-घबराने की बात नहीं है यह सब टेम्परेरी फेज है। बीच में अश्लील, द्विअर्थी गानों और संवादों की बाढ़ सी आयी थी पर आजकल ऐसा कुछ नहीं सुना जा रहा। एक बार जो चीज नहीं चलती है, प्रोड्यूसर उसे हाथ नहीं लगाता।
असली सेंसर हमारा कुटुम्ब है, हमारा दर्शक है। मेरा तो यह मानना है कि फिल्में समाज में जो चीजें चल रही होती हैं उसे पकड़ने की कोशिश करती हैं। फिल्मों का असर क्या होता है इसे हम बढ़ा चढ़ाकर बताते हैं। हर फिल्म में खलनायक हारता है, सत्य की जीजत होती है, अगर फिल्मों का इतना असर होता तो समाज को स्वर्ग हो जाना चाहिए। बैंडिट क्वीन की वजह से कौन सी नैतिकता चली गयी?
जहांनाबाद की हिंसा क्या फिल्मांे को देखकर हुई? चारा घोटाला, शेयर घोटाला, हवाला कांड यह सब क्या फिल्मों की देन है? मैं फिर कह रहा हूं समाज में जो चीजें चल रही होती हैं फिल्में उसे पकड़ने की कोशिश करती हैं।
हिंसा को ही देखिये, यह बात हो सकती है कि फिल्में वायलेंस पैदा करने के  तरीके  को बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रही हों पर फिल्में यह चीजें पैदा नहीं करती हैं लेकिन एक चीज तो देखी ही जानी चाहिए कि हिंसा या ऐसी अन्य चीजों को बताने के  लिए डायरेक्टर का रवैया क्या है? यदि हिंसा को देखकर मजा आये और हिंसा के  प्रति जागृति पैदा हो तो यह गलत है, परन्तु यदि हिंसा को भयानक तरीके  से दिखाया जा रहा है, उससे दर्शक घृणा का भाव ग्रहण करता है तो ठीक है। हिंसा के  प्रति मेरा दृष्टिकोण यह है कि हिंसा की भयानकता से घिन आनी चाहिए। तमस में मुर्गा काटते समय खून की एक छोटी सी बूंद चेहरे पर गिरती है, लेकिन लगता है कि हिंसा की कितनी बात हो रही है। पूरे फिल्म में इसके  अलावा कहीं चाकू भी नहीं चलता है।
             ‘हजार चैरासी की मां’ में हिंसा के  जो दृश्य हैं उन पर आपकी क्या राय है?
-पुलिस का रोल, हत्या, बलात्कार यह सब दृश्य उपन्यास की जरूरत थे और उपन्यास की जरूरत के  अनुसार उसे फिल्म में प्रतीकात्मक रूप से ही दर्शाया गया है। इससे दो फायदे होते हैं। एक तो काफी कुछ बिना दिखाए ही कहा जा सकता है और दूसरे हिंसा दिखाने के  आरोप से बचत हो जाती है।
             वीडियो पायरेसी को कैसे रोका जा सकता है?
-यह पहले बहुत होता था अब तो वीडियो मार्केट ही मर गया। (हंसते हुए) अब तो के बिल पायरेसी हो रही है, अगर फिल्म अच्छी हुई तो कुछ लोग सिनेमा हाल में जाकर देख आते हैं वरना....। अभी तक इसे रोकने का कोई फुलप्रूफ तरीका नहीं खोजा जा सका है। इतने लुमहोल्स हैं और इसकी सजा इतनी कम है कि फिलहाल इसे रोक पाना संभव नहीं दिखायी देता।
             एक व्यावसायी पुत्र होने के  बावजूद आप फिल्मों की ओर कैसे मुड़े?
-देखिये, ठीक से देखा जाये तो मेरा फिल्मों में आना एक रिएक्शन है। मेरे पिता बचपन में फिल्मों से हम लोगों को बहुत दूर रखते थे। सिर्फ धार्मिक फिल्में ही हमें दिखायी जाती थीं, शायद यही कारण है कि उदयपुर से अपनी शिक्षा पूरी करने के  बाद मैं सिनेमेटोग्राफी की तालीम हासिल करने बेंगलूर चला गया और तालीम हासिल करने के  बाद फिल्मों में फोटोग्राफी शुरू की। गुरूदत्त के  कैमरामैन वी.के . मूर्ति मेरे गुरू हैं। श्याम बेनेगल के  साथ छायाकार के  रूप में मैंने 12-13 फिल्में की फिर अपनी फिल्में शुरू कर दीं। फोटोग्राफी के  बाद डायरेक्शन का काम शुरू किया फिर प्रोड्यूसर भी बन गया। दृष्टि, पिता, जंजीरें, रूक्कमावती की हवेली और द्रोहकाल मैंने प्रोड्यूस की। अब तक बाहर की कोई फिल्म मैंने प्रोड्यूस नहीं की है।
यूनिसेफ और एन.एफ.डी.सी. के  लिए संशोधन फिल्म मैंने बनायी। यह न्याय पंचायतों में महिलाओं के  एक तिहाई आरक्षण को लेकर बनायी गयी है। इस फिल्म की नायिका वन्या जोशी लखनऊ की ही है। वह स्वयं नैनीताल में विधवाओं को लेकर काम कर रही हैं। इस काम के  लिए वह सरकार की कोई मदद नहीं लेतीं।
             तक्षक जैसी कामर्शियल फिल्म बनाने के  बाद कहीं ऐसा तो नहीं कि कला फिल्में आपसे छूट जाएंगी?
-उम्मीद तो नहीं है। कलात्मक फिल्मों के  लिए हमारा दरवाजा हमेशा खुला रहेगा वरना मैं पागल हो जाऊंगा। हजार चैरासी की मां’ मैंने तक्षक के  निर्माण को बीच में छोड़कर बनायी है। एक बात जरूर है कि अगर सहारा परिवार का सपोर्ट और प्रोत्साहन मिलता रहा (जैसा कि इस फिल्म में मिला) तो समानान्तर सिनेमा का दौर लौट सकता है। श्याम बेनेगल को ही लें, जिन्हंे ब्लेज ने काफी सहयोग किया। उनका मानना है कि अगर कलात्मक फिल्मांे को सहयोग करने के  लिए कुछ कारपोरेट सेक्टर आगे आएं तो वह दिन दूर नहीं कि कलात्मक फिल्में एक बार फिर तेजी से बाजार में आएंगी। इसके  लिए के वल एन.एफ.डी.सी. पर ही निर्भर रहा गया तो साल में दो-एक फिल्में ही बन पाएंगी।
             आपका अगला कोई प्रोजेक्ट?
-अभी तो कोई नया प्रोजेक्ट नहीं है लेकिन दिमाग में आया तो पहला आॅफर सहारा को ही दूंगा।
             आज के  कलाकारों के  बारे में आपकी क्या राय है?
-मुझे लगता है कि नए लोगों में उतनी ही एनर्जी है, उतना ही टैलेन्ट है, जितना पहले के  लोगों में था। आज भी पीढ़ी में जो सजगता है वह अचीवमेंट ओरिएन्टेड है। पर्सनल लिविंग पर अचीवमेंट के  प्रति आज का कलाकार ज्यादा सहज है। हो सकता है कि इसके  कुछ समाजार्थिक और ऐतिहासिक कारण हांे पर आज के  कलाकार की सजगता में समाज के  प्रति चिंता का बोध नहीं। आज की नयी पीढ़ी और वृत्ति (हजार चैरासी की मां का नायक) में जो अंतर है, उससे साफ जाहिर होता है कि वृत्ति समाज के  बारे में ज्यादा सोचता था और नयी पीढ़ी अपने बारे में। इसका मतलब किसी पीढ़ी का अच्छा बुरा होना नहीं है वरना इसके  पीछे जीवन दृष्टि एवं ऐतिहासिकता मुख्य कारण है।
Dr. Yogesh mishr

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