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अद्भुत नेतृत्व, ठोस संकल्प के धनी नेता जी
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नाम आते ही भारतीय जनमानस के सामने एक ऐसे व्यक्ति की तस्वीर उभरती है जिसमें अदम्य साहस, सफलता के प्रति अटूट आस्था, स्वतंत्रता के महायज्ञ के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने का संकल्प था। उन्हें महज आजादी को ही नहीं, आजाद भारत के निर्माण की भी चिन्ता थी। उनमें अद्भुत नेतृत्व, ठोस संकल्प था। नेतृत्व की क्षमता के नाते ही सुभाष बाबू नेताजी स्वतः स्वीकृत हो गये। उन्होंने न के वल आजाद हिन्द फौज का गठन किया, वरन आईसीएस और कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे देकर तमाम सवाल खड़े किये। नेताजी के विवाह और उनकी मृत्यु से जुड़े कई प्रश्न आज भी लोगों के लिए जिज्ञासा का के न्द्र हैं। उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन करके अंग्रेजी से मात्र संघर्ष का एलान नहीं किया वरन अंग्रेजों से आठ राज्य छीनकर आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की। नेताजी पर बीबीसी ने भी एक भ्रामक फिल्म बनाकर तमाम विवाद खड़े किये थे। सही कहा जाये तो अभी तक नेताजी का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया है। प्रभा दीक्षित ने अपने लेख में यह स्वीकार किया कि नेताजी ने अपने जीवन में दो इस्तीफे दिये। ये दोनों त्यागपत्र अलग-अलग स्तर पर नेताजी के खिलाफ सक्रिय सामाजिक शक्तियों का परिचय तो देते ही हैं साथ ही तत्कालिन सामाजिक राजनीतिक घटनाओं को समझने में भी मदद करते हैं।
नेताजी ने आईसीएस की परीक्षा पास करने के बाद इस्तीफा दे दिया था। अपने पिता को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था कि ‘आप कह सकते हैं कि इस कुत्सित व्यवस्था का त्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि इसमें प्रवेश करके अन्त तक इसमें संघर्ष करना ही उचित होगा। पर संघर्ष करना होगा सरकार की फटकार सहते हुए।... मैं जानता हूं कि मेरे इस हठ के कारण मेरे बहुत से स्वजन नाराज हों। पर उनके विचारों से, निन्दा और प्रशंसा से मेरा कुछ नहीं बिगड़ता। अपने आदर्शवाद में मेरी आस्था है। उन्होंने आईसीएस से त्यागपत्र देते हुए यह बात स्वीकार की थी कि उनका दिमाग/सिद्धांत शासन तंत्र का पुर्जा होने की बात सोच भी नहीं सकता है। कट्टरपंथ, स्वार्धान्धता, हृदयहीनता और सरकारी चालाकी से यह शासन तंत्र भरा हुआ है और इसकी वास्तविक उपयोगिता के दिन समाप्त हो चुके हैं। एक बार नौकरी कर लेने से उन्होंने स्वीकार किया कि उनका सम्पूर्ण तेज समाप्त हो जाएगा। नेताजी ने लिखा कि, ‘मेरा विश्वास है जिस दिन नौकरी के प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर कर दूंगा, उस दिन से मैं स्वाधीन मनुष्य नहीं रहूंगा।’
पिता की अनुमति नहीं मिलने पर सुभाष चन्द्र बोस अवज्ञा कर बैठे। उन्होंने लिखा ‘मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि समझौता एक खराब चीज है-यह मनुष्य को नीचे ले जाता है और उसके आदर्श को क्षति पहुंचाता है। मेरा विश्वास है कि अब समय आ गया है कि हमें ब्रिटिश सरकार के साथ अपने सम्बन्ध समाप्त करने का सबसे अच्छा रास्ता उसके साथ असहयोग है।’ यह लिखते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने 22 अप्रैल, 1921 को 23 वर्ष की उम्र में आईसीएस से इस्तीफा दे दिया। आईसीएस की परीक्षा में उनका चैथा स्थान था।
स्वतंत्र विचारों वाले नेताजी के दिमाग में आईसीएस की परीक्षा देने का प्रस्ताव उनके पिता ने डाला था। उन्होंने यह तर्क दिया कि प्रतिदिन असंख्य लोग जिस अन्न की चिंता से कष्ट पा रहे हैं और व्यग्र हो रहे हैं इससे यह चिंता सदैव के लिए समाप्त हो जाएगी।... वो एक दिन नेताजी को आईसीएस की परीक्षा देने के लिए इंग्लैण्ड भेजने का प्रस्ताव लेकर आये। उन्होंने सुभाष बाबू को निर्णय के लिए चैबीस घण्टे का समय देते हुए कहा कि अगर सिविल सर्विस की पढ़ाई के लिए विलायत नहीं गये तो सदा के लिए विलायत जाने का प्र्रस्ताव रखा रह जाएगा। अपने पिता से यह प्रस्ताव पाकर सुभाष बाबू मानसिक अन्र्तद्वंद्व को उजागर करते हुए लिखा मैंने सिविल सर्विस की परीक्षा में सफलता पा ली तो लक्ष्य भ्रष्ट हो जाउंगा। पिछले कई दिन मैंने मानसिक संघर्ष में बिताये हैं। मानसिक द्वंद्व के बाद विलायत यात्रा पर अपनी सहमति दे दी है। पर मन को अभी तक आश्वस्त नहीं कर पाया हूं कि मेरा यह फैसला उचित है या नहीं।
सुभाष बाबू के आईसीएस से इस्तीफे से जहां देश के लिए कुछ भी बलिदान करने की परम्परा को बल मिला वहीं उन्होंने स्वयं को स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए तैयार कर लिया। इस इस्तीफे के बाद 18 साल तक सुभाष बाबू कांग्रेस में रहे। 18 वर्षों तक कांग्रेस में रहने के बाद भी सुभाष बाबू कभी महात्मा गांधी के न ही अनन्य भक्त बन पाये और महात्मा गांधी ने भी कभी उन्हें अपने भीतरी दायरे में स्वीकार नहीं किया। 1930 के बाद भारत के आर्थिक विकास और सामाजिक उथल-पुथल ने इन दोनों नेताओं के मतभेद और गहरा दिये। 1938 में सुभाष चन्द्र बोस ने प्रगतिशील आदर्शों का प्रतिपादन किया और हरिपुरा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। 1939 में जब नेताजी ने दोबारा चुनाव लड़ने की घोषणा की तो उनके विरोधी सक्रिय हुए।
इस चुनाव के लिए उन्होंने गांधी जी से अनुमति नहीं ली थी, जो कांग्रेस परम्परा में अपराध था। गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैय्या को अपना उम्मीदवार बनाया। नेताजी को 1580 वोट मिले और गांधी जी के उम्मीदवार को 1370। गांधी जी ने सीतरमैय्या की पराजय को अपनी नीति के प्रति अविश्वास स्वीकार करते हुए उनकी हार को अपनी पराजय माना। गांधी जी चुनाव को निष्फल बनाने में व्यस्त हो गये। पहले कार्यकारिणी के 15 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफे दे दिये। कांग्रेस में यह परम्परा थी कि कार्यकारिणी के सदस्यों का मनोनयन अध्यक्ष स्वयं करता था। सुभाष बाबू को इस अधिकार से वंचित करने के लिए एआईसीसी ने प्रस्ताव रखा कि वह अध्यक्ष से यह अनुरोध करती है कि वह गांधी जी की इच्छानुसार कार्यकारिणी के सदस्यों को मनोनीत करें। सहज ही यह प्रस्ताव पारित हो गया।
गांधीजी सुभाष बाबू से समझौते को तैयार नहीं थे। उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस के अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस का पथ प्रदर्शन करने से इनकार कर दिया। त्रिपुरी अधिवेशन के बाद 29 मार्च 1939 को रवीन्द्र नाथ टैगोर ने एक पत्र में गांधीजी को लिखा कि पिछले अधिवेशन के कुछ क्षुब्ध हाथों ने अनुदार दृढ़ता के साथ बंगाल को गहरा आघात पहुंचाया है। कृपया अपने दयालु हाथों से इस घाव पर मरहम लगाकर इसे सड़ने से बचाइये। रवीन्द्र नाथ टैगोर के इस पत्र का गांधीजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस को यह संके त दिया कि यदि महासमिति तुम्हारी कार्ययोजना स्वीकार कर लेती है तो ठीक है नहीं तो तुम त्यागपत्र दे दो और महासमिति को दूसरा अध्यक्ष चुन लेने दो। सुभाष बाबू भी गांधी जी का सहयोग पाने के लिए शर्तें मानने को तैयार नहीं थे और 21 अप्रैल, 1939 को उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। सुभाष चन्द्र बोस का यह त्यागपत्र भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए एक ऐसा निर्णय था जिससे लोगों में महात्मा गांधी के प्रति खासी अनास्था उपजी।
कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चन्द्र बोस ने देश को आजाद कराने के लिए अपना अलग रास्ता बनाया। यह बात दूसरी है कि लोग आज भी यह कहते हुए पाये जा सकते हैं- ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल।’ सच यह है कि सुभाष बाबू की आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों से आठ राज्य छीन लिये थे और आजाद हिन्द सरकार भी बनायी थी। एच.वी. कामथ ने सुीााष चन्द्र बोस के कांग्रेस से इस्तीफे पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि गम्भीर अन्तरराष्ट्रीय संकट और तीव्र अन्तरराष्ट्रीय गतिविधियों के दौर में वे न तो कांग्रेस को धक्का पहुंचाना चाहते थे और न उसे कमजोर करना चाहते थे। वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद और युद्ध की स्थिति में अंग्रेजों द्वारा भारतीय संसाधनों के दुरुपयोग के विरूद्ध राष्ट्र और कांग्रेस को एक मजबूत संगठन के रूप में सामने लाने के गुरूतर दायित्व के प्रति पूरी तरह सचेत थे।
कांग्रेस की अध्यक्षता से इस्तीफा देकर सुभाष बाबू ने फारवर्ड ब्लाक के नाम से परिवर्तनवादी शाखा का गठन किया। जिसका पहला अधिवेशन 22 जून 1939 को मुम्बई में हुआ। उन्होंने फारवर्ड ब्लाक का उद्देश्य बताते हुए कहा साम्राज्यवाद विरोधी सभी आमूल परिवर्तनवादी तत्वों को इकट्ठा कर एक मंच पर लाना, परिवर्तनवादी विचारधाराओं के बीच अधिकतम सहमति के समझौते का प्रतिनिधित्व करने वाले अल्पसूत्री कार्यक्रम तय करना और वास्तविक राष्ट्रीय एकता कार्रवाई की एकता स्थापित करना।
फारवर्ड ब्लाक का कांग्रेस से अन्तर बताते हुए सुभाष बाबू अपनी सभाओं में कहा करते थे क्रान्तिकारी (सुधारवादी और उदारतावादी रुख के विपरीत) दृष्टिकोण और अग्रगामी कार्यक्रम फारवर्ड ब्लाक के काम हैं। वे संविधानवाद की ओर बढ़ते रुझान को रोकने, कांग्रेस के मौजूदा कार्यक्रम में क्रान्तिकारी आवेग पैदा करने, देश को आगामी संघर्ष के लिए तैयार करने, कांग्रेस वालन्टियर कोर को मजबूत करने और किसान सभा, ट्रेड यूनियनों, युवा वर्ग, छात्र संगठनों तथा राज्यों में चल रहे जनान्दोलनों के साथ घनिष्ठ और आत्मिक सम्बन्ध स्थापित करने को फारवर्ड ब्लाक का कार्य मानते थे। वे भारत की आजादी के लिए किसी भी अन्तरराष्ट्रीय संकट का लाभ उठाने को तत्पर थे। फारवर्ड ब्लाक के गठन के बाद नेताजी की लोकप्रियता बढ़ी थी।
स्वयं गांधी जी ने यह स्वीकार किया कि कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देेन के बाद सुभाष चन्द्र बोस की लोकप्रियता में काफी वृद्धि हुई है। 26 अगस्त 1939 के हरिजन के एक सम्पादकीय में गांधीजी ने यह भी स्वीकार किया कि सुभाष चन्द्र बोस को निष्कासित करने वाले प्रस्ताव के मसौदाकार वे ही थे। कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चन्द्र बोस ने दस माह तक पूरे देश का व्यापक दौरा किया। नेताजी पर मार्कण्डेय द्वारा लिखी गयी पुस्तक नेताजी पैसेज टू इमोर्टलिटी में लेखक ने लिखा है कि उनके भाषणों की विषयवस्तु यह होती थी कि ब्रिटिश शासन क्षीण हो गया है। अंग्रेजों की कमजोरी का लाभ उठाकर आजादी जबरन प्राप्त कर लेनी चाहिए। और ऐसा न करना गैर जिम्मेदारी की इन्तहां हैं। ब्रिटिश सत्ता में भरोसा रखने के समान है।
सुभाष चन्द्र बोस की भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति खासी समझ थी और वे अंग्रेजी की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर भारत को जल्दी ही आजाद करा लेने के लिए संकल्पित थे। सुभाष चन्द्र बोस की दृष्टि इसी बात से समझी जा सकती है कि मार्च 1939 से ही नेताजी यह चेतावनी देते आ रहे थे कि छह माह के अन्दर विश्वयुद्ध शुरू हो जाएगा और तीन सितम्बर 1939 को जब वे मद्रास के मरीना समुद्र तट पर एक विशाल सभा को सम्बोधित कर रहे थे तो श्रोताओं में से किसी एक ने उन्हें सांध्य समाचार लाकर दिया जिसमें ब्रिटेन द्वारा जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की खबर छपी थी।
सुभाष चन्द्र बोस ने एक विदेशी महिला से विवाह किया था। विदेशी महिला से क्यों विवाह किया था? यह आज भी खासा जिज्ञासा का विषय है। 1994 में प्रकाशित पुस्तक नेताजी कलेक्टेड वक्र्स के (वाल्यूम-7) लेटर्स टू एमिल शेक्ल, (1934-42) में इस बात का उल्लेख है कि 1937 में नेताजी ने एमिल से विवाह किया था। एमिल 1934 में नेताजी के सम्पर्क में उस समय आयीं जब वो इंडियन स्ट्रगल नामक पुस्तक लिख रहे थे। उस समय एमिल अंग्रेजी जानने वाली सहकारी के रूप में उनके साथ काम करती थीं। 30 नवम्बर से नेताजी ने एमिल को पत्र लिखना शुरू किया। 7 दिसम्बर 1934 को एमिल को लिखे पत्र में नेताजी ने अपने पिता की मृत्यु के चालीस घण्टे बाद घर पहुंचने पर जहां अफसोस जताया, वहीं एमिल को यह भी बताने की कोशिश की कि हिन्दू पत्नी के जीवन में पति इतनी गहराई से जुड़ा होता है कि पति के बिना उसका जीवन यापन मुश्किल होता है। नेताजी के पत्रों से यह भी पता चलता है कि उन्होंने एमिल को धूप और विवेकानन्द की पुस्तक वेदान्त भावना उपहार स्वरूप दी थी। 13 मार्च 1936 को सुभाष चन्द्र बोस ने बडगास्टन से एमिल को पत्र लिखकर कहा था कि अगर तुम्हारे माता-पिता अनुमति दे दें तो एक सप्ताह के लिए मेरे पास आ जाओ। एमिल नेताजी के पास गयीं।
उन्होंने 30 मार्च 1936 को एमिल को लिखे अपने पत्र में कहा कि, ‘जीवन में कभी किसी स्वार्थ या उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रार्थना कदापि न करना। प्रार्थना करना तो सिर्फ जनकल्याण की। अपने पत्रों में नेताजी ने एमिल को सुझाव दिया था शरीर स्वस्थ रखो और इसके लिए नियमित व्यायाम करो। सेक्रेटरी का प्रशिक्षण ले लो। संगीत की शिक्षा भी जरूरी है। थोड़ी सिलाई, कढ़ाई, एम्ब्राइडरी, ऊन बुनना भी आना चाहिए। जयादा से ज्यादा भाषाएं सीख लो। दर्शन शास्त्र का अध्ययन जरूर करना। जर्मन भाषा की भगवत गीता पढ़ना।’ बडगास्टन में नेताजी ने इंडियन पिलगीम्ज नामक अपनी पुस्तक पूरी की और 26 दिसम्बर 1937 को एमिल से परिणय सूत्र में बंधे। सुभाष चन्द्र बोस ने अपने भाई शरद चन्द्र बोस को पत्र लिखकर अपने विवाह और 29 नवम्बर 1942 को जन्मी पुत्री अनीता के बारे में बताया था।
आजाद भारत का स्वरूप कैसा होगा इस प्रश्न पर नेताजी ने तमाम योजनाएं बनायी थीं। उन्हीं के शब्दों में-‘भारत पूंजीपतियों, जमींदारों तथा जातियों का देश नहीं होगा, अपितु वह सामाजिक और राजनीतिक लोकतंत्र होगा। भावी भारत में समाजवादी गणतंत्र का विकास होगा, जिसमें प्रत्येक मानव को कार्य करने तथा जीवन यापन के अधिकार दिये जाएंगे।’ नेताजी के समाजवाद की परिकल्पना सम्पत्ति का समान और निष्पक्ष बटवारा था। संसाधनों का नियंत्रण वे राज्य के हाथ में देना चाहते थे। जाति, वर्ग तथा लिंग भेद को वे कतई बर्दाश्त नहीं करते थे। 1935 में वियना की एक पत्रिका में छपे लेख में नेताजी ने इस प्रश्न पर कि ‘क्या पूंजीवाद और आजादी साथ-साथ रह सकते हैं, लिखा था-‘नहीं, उद्योगपति देश की आम जनता की भलाई के लिए कुछ नहीं कर सकते। वे तो साम्राज्यवाद के पहियों के रूप मंे काम करते हैं।’ सुभाष बाबू कृषि को प्राथमिकता देते थे तथा लघु उद्योग, कुटीर उद्योग सहित बड़े उद्योगों के उन्नत विकास का सपना संजोये थे। वे चाहते थे भारत की व्यवस्था श्रम तथा उत्पादन पर आधारित हो। ताकि उद्योगों पर से पूंजीपतियों का दबाव खत्म हो जाये, करोड़ों बेरोजगारों को मजदूरी मिले। नेताजी राजनीति में आने से पूर्व प्रशिक्षण के कायल थे। भारतीय जनमानस में सुभाष चन्द्र बोस की पैठ का ही परिणाम है कि बिना सरकारी प्रयास के भी देश के सभी महत्वपूर्ण शहरांे में सुभाष नगर स्वतः बस गया और उनका नाम आते ही आम भारतीय श्रद्धानत हो जाता है।
नेताजी ने आईसीएस की परीक्षा पास करने के बाद इस्तीफा दे दिया था। अपने पिता को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था कि ‘आप कह सकते हैं कि इस कुत्सित व्यवस्था का त्याग नहीं करना चाहिए, बल्कि इसमें प्रवेश करके अन्त तक इसमें संघर्ष करना ही उचित होगा। पर संघर्ष करना होगा सरकार की फटकार सहते हुए।... मैं जानता हूं कि मेरे इस हठ के कारण मेरे बहुत से स्वजन नाराज हों। पर उनके विचारों से, निन्दा और प्रशंसा से मेरा कुछ नहीं बिगड़ता। अपने आदर्शवाद में मेरी आस्था है। उन्होंने आईसीएस से त्यागपत्र देते हुए यह बात स्वीकार की थी कि उनका दिमाग/सिद्धांत शासन तंत्र का पुर्जा होने की बात सोच भी नहीं सकता है। कट्टरपंथ, स्वार्धान्धता, हृदयहीनता और सरकारी चालाकी से यह शासन तंत्र भरा हुआ है और इसकी वास्तविक उपयोगिता के दिन समाप्त हो चुके हैं। एक बार नौकरी कर लेने से उन्होंने स्वीकार किया कि उनका सम्पूर्ण तेज समाप्त हो जाएगा। नेताजी ने लिखा कि, ‘मेरा विश्वास है जिस दिन नौकरी के प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर कर दूंगा, उस दिन से मैं स्वाधीन मनुष्य नहीं रहूंगा।’
पिता की अनुमति नहीं मिलने पर सुभाष चन्द्र बोस अवज्ञा कर बैठे। उन्होंने लिखा ‘मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि समझौता एक खराब चीज है-यह मनुष्य को नीचे ले जाता है और उसके आदर्श को क्षति पहुंचाता है। मेरा विश्वास है कि अब समय आ गया है कि हमें ब्रिटिश सरकार के साथ अपने सम्बन्ध समाप्त करने का सबसे अच्छा रास्ता उसके साथ असहयोग है।’ यह लिखते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने 22 अप्रैल, 1921 को 23 वर्ष की उम्र में आईसीएस से इस्तीफा दे दिया। आईसीएस की परीक्षा में उनका चैथा स्थान था।
स्वतंत्र विचारों वाले नेताजी के दिमाग में आईसीएस की परीक्षा देने का प्रस्ताव उनके पिता ने डाला था। उन्होंने यह तर्क दिया कि प्रतिदिन असंख्य लोग जिस अन्न की चिंता से कष्ट पा रहे हैं और व्यग्र हो रहे हैं इससे यह चिंता सदैव के लिए समाप्त हो जाएगी।... वो एक दिन नेताजी को आईसीएस की परीक्षा देने के लिए इंग्लैण्ड भेजने का प्रस्ताव लेकर आये। उन्होंने सुभाष बाबू को निर्णय के लिए चैबीस घण्टे का समय देते हुए कहा कि अगर सिविल सर्विस की पढ़ाई के लिए विलायत नहीं गये तो सदा के लिए विलायत जाने का प्र्रस्ताव रखा रह जाएगा। अपने पिता से यह प्रस्ताव पाकर सुभाष बाबू मानसिक अन्र्तद्वंद्व को उजागर करते हुए लिखा मैंने सिविल सर्विस की परीक्षा में सफलता पा ली तो लक्ष्य भ्रष्ट हो जाउंगा। पिछले कई दिन मैंने मानसिक संघर्ष में बिताये हैं। मानसिक द्वंद्व के बाद विलायत यात्रा पर अपनी सहमति दे दी है। पर मन को अभी तक आश्वस्त नहीं कर पाया हूं कि मेरा यह फैसला उचित है या नहीं।
सुभाष बाबू के आईसीएस से इस्तीफे से जहां देश के लिए कुछ भी बलिदान करने की परम्परा को बल मिला वहीं उन्होंने स्वयं को स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए तैयार कर लिया। इस इस्तीफे के बाद 18 साल तक सुभाष बाबू कांग्रेस में रहे। 18 वर्षों तक कांग्रेस में रहने के बाद भी सुभाष बाबू कभी महात्मा गांधी के न ही अनन्य भक्त बन पाये और महात्मा गांधी ने भी कभी उन्हें अपने भीतरी दायरे में स्वीकार नहीं किया। 1930 के बाद भारत के आर्थिक विकास और सामाजिक उथल-पुथल ने इन दोनों नेताओं के मतभेद और गहरा दिये। 1938 में सुभाष चन्द्र बोस ने प्रगतिशील आदर्शों का प्रतिपादन किया और हरिपुरा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। 1939 में जब नेताजी ने दोबारा चुनाव लड़ने की घोषणा की तो उनके विरोधी सक्रिय हुए।
इस चुनाव के लिए उन्होंने गांधी जी से अनुमति नहीं ली थी, जो कांग्रेस परम्परा में अपराध था। गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैय्या को अपना उम्मीदवार बनाया। नेताजी को 1580 वोट मिले और गांधी जी के उम्मीदवार को 1370। गांधी जी ने सीतरमैय्या की पराजय को अपनी नीति के प्रति अविश्वास स्वीकार करते हुए उनकी हार को अपनी पराजय माना। गांधी जी चुनाव को निष्फल बनाने में व्यस्त हो गये। पहले कार्यकारिणी के 15 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफे दे दिये। कांग्रेस में यह परम्परा थी कि कार्यकारिणी के सदस्यों का मनोनयन अध्यक्ष स्वयं करता था। सुभाष बाबू को इस अधिकार से वंचित करने के लिए एआईसीसी ने प्रस्ताव रखा कि वह अध्यक्ष से यह अनुरोध करती है कि वह गांधी जी की इच्छानुसार कार्यकारिणी के सदस्यों को मनोनीत करें। सहज ही यह प्रस्ताव पारित हो गया।
गांधीजी सुभाष बाबू से समझौते को तैयार नहीं थे। उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस के अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस का पथ प्रदर्शन करने से इनकार कर दिया। त्रिपुरी अधिवेशन के बाद 29 मार्च 1939 को रवीन्द्र नाथ टैगोर ने एक पत्र में गांधीजी को लिखा कि पिछले अधिवेशन के कुछ क्षुब्ध हाथों ने अनुदार दृढ़ता के साथ बंगाल को गहरा आघात पहुंचाया है। कृपया अपने दयालु हाथों से इस घाव पर मरहम लगाकर इसे सड़ने से बचाइये। रवीन्द्र नाथ टैगोर के इस पत्र का गांधीजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस को यह संके त दिया कि यदि महासमिति तुम्हारी कार्ययोजना स्वीकार कर लेती है तो ठीक है नहीं तो तुम त्यागपत्र दे दो और महासमिति को दूसरा अध्यक्ष चुन लेने दो। सुभाष बाबू भी गांधी जी का सहयोग पाने के लिए शर्तें मानने को तैयार नहीं थे और 21 अप्रैल, 1939 को उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। सुभाष चन्द्र बोस का यह त्यागपत्र भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए एक ऐसा निर्णय था जिससे लोगों में महात्मा गांधी के प्रति खासी अनास्था उपजी।
कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चन्द्र बोस ने देश को आजाद कराने के लिए अपना अलग रास्ता बनाया। यह बात दूसरी है कि लोग आज भी यह कहते हुए पाये जा सकते हैं- ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल।’ सच यह है कि सुभाष बाबू की आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों से आठ राज्य छीन लिये थे और आजाद हिन्द सरकार भी बनायी थी। एच.वी. कामथ ने सुीााष चन्द्र बोस के कांग्रेस से इस्तीफे पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि गम्भीर अन्तरराष्ट्रीय संकट और तीव्र अन्तरराष्ट्रीय गतिविधियों के दौर में वे न तो कांग्रेस को धक्का पहुंचाना चाहते थे और न उसे कमजोर करना चाहते थे। वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद और युद्ध की स्थिति में अंग्रेजों द्वारा भारतीय संसाधनों के दुरुपयोग के विरूद्ध राष्ट्र और कांग्रेस को एक मजबूत संगठन के रूप में सामने लाने के गुरूतर दायित्व के प्रति पूरी तरह सचेत थे।
कांग्रेस की अध्यक्षता से इस्तीफा देकर सुभाष बाबू ने फारवर्ड ब्लाक के नाम से परिवर्तनवादी शाखा का गठन किया। जिसका पहला अधिवेशन 22 जून 1939 को मुम्बई में हुआ। उन्होंने फारवर्ड ब्लाक का उद्देश्य बताते हुए कहा साम्राज्यवाद विरोधी सभी आमूल परिवर्तनवादी तत्वों को इकट्ठा कर एक मंच पर लाना, परिवर्तनवादी विचारधाराओं के बीच अधिकतम सहमति के समझौते का प्रतिनिधित्व करने वाले अल्पसूत्री कार्यक्रम तय करना और वास्तविक राष्ट्रीय एकता कार्रवाई की एकता स्थापित करना।
फारवर्ड ब्लाक का कांग्रेस से अन्तर बताते हुए सुभाष बाबू अपनी सभाओं में कहा करते थे क्रान्तिकारी (सुधारवादी और उदारतावादी रुख के विपरीत) दृष्टिकोण और अग्रगामी कार्यक्रम फारवर्ड ब्लाक के काम हैं। वे संविधानवाद की ओर बढ़ते रुझान को रोकने, कांग्रेस के मौजूदा कार्यक्रम में क्रान्तिकारी आवेग पैदा करने, देश को आगामी संघर्ष के लिए तैयार करने, कांग्रेस वालन्टियर कोर को मजबूत करने और किसान सभा, ट्रेड यूनियनों, युवा वर्ग, छात्र संगठनों तथा राज्यों में चल रहे जनान्दोलनों के साथ घनिष्ठ और आत्मिक सम्बन्ध स्थापित करने को फारवर्ड ब्लाक का कार्य मानते थे। वे भारत की आजादी के लिए किसी भी अन्तरराष्ट्रीय संकट का लाभ उठाने को तत्पर थे। फारवर्ड ब्लाक के गठन के बाद नेताजी की लोकप्रियता बढ़ी थी।
स्वयं गांधी जी ने यह स्वीकार किया कि कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देेन के बाद सुभाष चन्द्र बोस की लोकप्रियता में काफी वृद्धि हुई है। 26 अगस्त 1939 के हरिजन के एक सम्पादकीय में गांधीजी ने यह भी स्वीकार किया कि सुभाष चन्द्र बोस को निष्कासित करने वाले प्रस्ताव के मसौदाकार वे ही थे। कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सुभाष चन्द्र बोस ने दस माह तक पूरे देश का व्यापक दौरा किया। नेताजी पर मार्कण्डेय द्वारा लिखी गयी पुस्तक नेताजी पैसेज टू इमोर्टलिटी में लेखक ने लिखा है कि उनके भाषणों की विषयवस्तु यह होती थी कि ब्रिटिश शासन क्षीण हो गया है। अंग्रेजों की कमजोरी का लाभ उठाकर आजादी जबरन प्राप्त कर लेनी चाहिए। और ऐसा न करना गैर जिम्मेदारी की इन्तहां हैं। ब्रिटिश सत्ता में भरोसा रखने के समान है।
सुभाष चन्द्र बोस की भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति खासी समझ थी और वे अंग्रेजी की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर भारत को जल्दी ही आजाद करा लेने के लिए संकल्पित थे। सुभाष चन्द्र बोस की दृष्टि इसी बात से समझी जा सकती है कि मार्च 1939 से ही नेताजी यह चेतावनी देते आ रहे थे कि छह माह के अन्दर विश्वयुद्ध शुरू हो जाएगा और तीन सितम्बर 1939 को जब वे मद्रास के मरीना समुद्र तट पर एक विशाल सभा को सम्बोधित कर रहे थे तो श्रोताओं में से किसी एक ने उन्हें सांध्य समाचार लाकर दिया जिसमें ब्रिटेन द्वारा जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की खबर छपी थी।
सुभाष चन्द्र बोस ने एक विदेशी महिला से विवाह किया था। विदेशी महिला से क्यों विवाह किया था? यह आज भी खासा जिज्ञासा का विषय है। 1994 में प्रकाशित पुस्तक नेताजी कलेक्टेड वक्र्स के (वाल्यूम-7) लेटर्स टू एमिल शेक्ल, (1934-42) में इस बात का उल्लेख है कि 1937 में नेताजी ने एमिल से विवाह किया था। एमिल 1934 में नेताजी के सम्पर्क में उस समय आयीं जब वो इंडियन स्ट्रगल नामक पुस्तक लिख रहे थे। उस समय एमिल अंग्रेजी जानने वाली सहकारी के रूप में उनके साथ काम करती थीं। 30 नवम्बर से नेताजी ने एमिल को पत्र लिखना शुरू किया। 7 दिसम्बर 1934 को एमिल को लिखे पत्र में नेताजी ने अपने पिता की मृत्यु के चालीस घण्टे बाद घर पहुंचने पर जहां अफसोस जताया, वहीं एमिल को यह भी बताने की कोशिश की कि हिन्दू पत्नी के जीवन में पति इतनी गहराई से जुड़ा होता है कि पति के बिना उसका जीवन यापन मुश्किल होता है। नेताजी के पत्रों से यह भी पता चलता है कि उन्होंने एमिल को धूप और विवेकानन्द की पुस्तक वेदान्त भावना उपहार स्वरूप दी थी। 13 मार्च 1936 को सुभाष चन्द्र बोस ने बडगास्टन से एमिल को पत्र लिखकर कहा था कि अगर तुम्हारे माता-पिता अनुमति दे दें तो एक सप्ताह के लिए मेरे पास आ जाओ। एमिल नेताजी के पास गयीं।
उन्होंने 30 मार्च 1936 को एमिल को लिखे अपने पत्र में कहा कि, ‘जीवन में कभी किसी स्वार्थ या उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रार्थना कदापि न करना। प्रार्थना करना तो सिर्फ जनकल्याण की। अपने पत्रों में नेताजी ने एमिल को सुझाव दिया था शरीर स्वस्थ रखो और इसके लिए नियमित व्यायाम करो। सेक्रेटरी का प्रशिक्षण ले लो। संगीत की शिक्षा भी जरूरी है। थोड़ी सिलाई, कढ़ाई, एम्ब्राइडरी, ऊन बुनना भी आना चाहिए। जयादा से ज्यादा भाषाएं सीख लो। दर्शन शास्त्र का अध्ययन जरूर करना। जर्मन भाषा की भगवत गीता पढ़ना।’ बडगास्टन में नेताजी ने इंडियन पिलगीम्ज नामक अपनी पुस्तक पूरी की और 26 दिसम्बर 1937 को एमिल से परिणय सूत्र में बंधे। सुभाष चन्द्र बोस ने अपने भाई शरद चन्द्र बोस को पत्र लिखकर अपने विवाह और 29 नवम्बर 1942 को जन्मी पुत्री अनीता के बारे में बताया था।
आजाद भारत का स्वरूप कैसा होगा इस प्रश्न पर नेताजी ने तमाम योजनाएं बनायी थीं। उन्हीं के शब्दों में-‘भारत पूंजीपतियों, जमींदारों तथा जातियों का देश नहीं होगा, अपितु वह सामाजिक और राजनीतिक लोकतंत्र होगा। भावी भारत में समाजवादी गणतंत्र का विकास होगा, जिसमें प्रत्येक मानव को कार्य करने तथा जीवन यापन के अधिकार दिये जाएंगे।’ नेताजी के समाजवाद की परिकल्पना सम्पत्ति का समान और निष्पक्ष बटवारा था। संसाधनों का नियंत्रण वे राज्य के हाथ में देना चाहते थे। जाति, वर्ग तथा लिंग भेद को वे कतई बर्दाश्त नहीं करते थे। 1935 में वियना की एक पत्रिका में छपे लेख में नेताजी ने इस प्रश्न पर कि ‘क्या पूंजीवाद और आजादी साथ-साथ रह सकते हैं, लिखा था-‘नहीं, उद्योगपति देश की आम जनता की भलाई के लिए कुछ नहीं कर सकते। वे तो साम्राज्यवाद के पहियों के रूप मंे काम करते हैं।’ सुभाष बाबू कृषि को प्राथमिकता देते थे तथा लघु उद्योग, कुटीर उद्योग सहित बड़े उद्योगों के उन्नत विकास का सपना संजोये थे। वे चाहते थे भारत की व्यवस्था श्रम तथा उत्पादन पर आधारित हो। ताकि उद्योगों पर से पूंजीपतियों का दबाव खत्म हो जाये, करोड़ों बेरोजगारों को मजदूरी मिले। नेताजी राजनीति में आने से पूर्व प्रशिक्षण के कायल थे। भारतीय जनमानस में सुभाष चन्द्र बोस की पैठ का ही परिणाम है कि बिना सरकारी प्रयास के भी देश के सभी महत्वपूर्ण शहरांे में सुभाष नगर स्वतः बस गया और उनका नाम आते ही आम भारतीय श्रद्धानत हो जाता है।
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