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नये ढंग की शिक्षा पद्धति के हिमायती आचार्य नरेन्द्र देव

Dr. Yogesh mishr
Published on: 19 Feb 1997 6:59 PM IST
शताब्दियों में ही कभी कभार ऐसे मनीषियों का अवतरण होता है जो संपूर्ण युग पर अपने कर्म और विचार की अमिट छाप छोड़ जाता है। जो अपने सौहार्द, अपनी बुद्धि, विलक्षणता, सहजता तथा सहिष्णुता वाले समाज की अमिट आकांक्षा से जन-जन को अभिभूत कर जाते हैं। बहुत कम ऐसे अवसर आते हैं जब किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व समूचे समाज और समय से भी बड़ा दिखने लगता है और समय/समाज उस व्यक्ति का ऋणी हो जाता है। भारत के  स्वाधीनता संग्राम के  दौरान कुछ ऐसे युग पुरूष उभर कर सामने आये जिन्होंने राजनीति, इतिहास, पत्रकारिता, शिक्षा और संस्कृति को एक साथ प्रभावित किया। उनमें से ही एक थे आचार्य नरेन्द्र देव। जिस गंभीरता से वह राजनीति से जुड़े उसी गंभीरता से वह शिक्षा के  प्रति भी समर्पित रहे। उनकी दृष्टि में शिक्षक का पद राजनेता के  पद से कहीं बड़ा था। काशी विद्यापीठ के  आचार्य तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं लखनऊ विश्वविद्यालय के  कुलपति के  रूप में उन्होंने शिक्षा जगत को नयी दिशा प्रदान की।
शिक्षा के  सवाल पर उन्होंने कहा था, एक गंभीर प्रकार के  सांस्कृतिक संकट ने हमें घेर लिया है। हमारी समाज-नीति के  पुराने रोग पहले से बहुत ही अधिक उग्र रूप में उमड़ पड़े हैं और हमें नष्ट करना चाहते हैं। ये रोग दलवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और प्रान्तवाद। गैर सरकारी सेनाओं को गैर कानूनी करार देने और सम्प्रदायमूलक राजनीतिक संगठनों पर रोक लगाने मात्र से यह बुराई समूल नष्ट होने वाली नहीं है। बीमारी अस्थि मज्जा के  अंदर घुसी बैठी है। हमें अपने बच्चों को नवीन शिक्षा देनी होगी और समस्त जनता का मन ही बदलना होगा। तभी कोई मकान कार्य बन सकता है। अपने नवयुवकों को हमें ऐसा बनाना होगा कि धार्मिक द्वेष और शत्रुता का सम्प्रदाय उन पर अपना कोई असर न डाल सके । उन्हें लोकतंत्र और अखंड मानवता के  आदर्शों की दीक्षा देनी होगी, तभी हम साम्प्रदायिक सामंजस्य और सद्भाव चिरन्तन आधार पर स्थापित कर सकेंगे।
साम्प्रदायिक मेल उत्पन्न करने की सदिच्छा से ही कदाचित् स्कूलों के  पाठ्यक्रम में धार्मिक शिक्षा के  समावेश की बात कही जाती है।
यह बात भी हमें ध्यान रखनी चाहिए कि कोई बच्चा धर्म और चरित्र की बातें मौखिक शिक्षा से नहीं सीखा करता। उसके  चारों ओर जो परिस्थितियां होती हैं, उसी से उसको प्रेरणा मिलती है। दर्जे में बैठकर जो मौखिक शिक्षा व कान से सुनता है, उससे उसका चरित्र उतना प्रभावित नहीं होता है बल्कि उसके  अध्यापकों, माता-पिताओं और पड़ोसियों के  चरित्र उस पर अपना पूरा प्रभाव डालते हैं। अतः उदाहरणार्थ यदि हम अपने बच्चों को सेवा भाव सिखाना चाहें तो सेवा भाव के  गुणों की प्रशंसा करने से बच्चों के  वैसे भाव नहीं बनेंगे। बल्कि उन्हें सेवा करने के  अवसर देने से दूसरों की सेवा करने में जो सुख और आनंद है, वह उन्हें प्राप्त होगा।
हमारी शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन होना चाहिए। मानव कल्याण के  हेतु अंतर्राष्ट्रीय शांति और सहयोग प्राप्त करने के  लिए एक नये जीवन दर्शन और नपये प्रयास की आवश्यकता है। तात्पर्य यह कि हमारी जन शिक्षा-योजना इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे जीवन के  प्रति स्वस्थ और असम्प्रदायिक दृष्टिकोण बन सके  उसमें लोकतांत्रिक और मानवीय दमूल्यों की प्रतिष्ठा हो और सामाजिक व्यवहार के  नवीन संस्थानों का निर्माण हो। साथ ही शिक्षा में जीवन पर्यन्त प्रगति होनी चाहिए। हम लोग एक परिवर्तनशील जगत में रहते हैं। इसलिए समय-समय पर हमारे मनोभावों और विचारों की पुनव्र्यवस्था आवश्यक है। साहित्यिक शिक्षा के  अतिरिक्त राज्य का यह कर्तव्य है कि वह समय-समय पर जनता को महत्वपूर्ण सार्वजनिक समस्याओं की भी शिक्षा दें।
हमें पहले अपना शिक्षा सिद्धांत फिर से निर्धारित करना होगा और नये ढंग से शिक्षा पद्धति चलानी होगी। मध्ययुगीन शिक्षा में धनिक वर्ग की प्रधानता थी। अब इस युग की शिक्षा मुख्यतः जनतंत्रात्मक होगी। यदि हम अपना जीवन क्रम सुखमय और सुव्यवस्थित बनाना चाहते हैं तो हमें शिक्षा सम्बन्धी नवीन सिद्धांत और जीवन सम्बन्धी नवीन समस्याएं स्वीकार करनी होंगी। शिक्षा का सच्चा ध्येय ऐसे व्यक्तित्व के  निर्माण एवं विकास में सहायता पहुंचाना है।
अध्यापक वर्ग को नये संसार में बहुत महत्वपूर्ण कर्तव्य पालन करना होगा। अब वे जनता के  प्रतिदिन के  जीवन से पृथक नहीं सकते। उन्हें समाज की बौद्धिक एंव व्यावहारिक समस्याओं के  संबंध में सतर्क और सचेष्ट रहना होगा। विश्वविद्यालय का वह पुराना वातावरण जिसमें के वल बौद्धिक अध्ययन एवं विकास हुआ करता था, अब एकदम बदलना होगा। अध्यापक वर्ग को अपनी उदासीनता आलस्य और निष्क्रियता का त्याग करना पड़ेगा और देश की राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं के  समाधान में सक्रिय भाग लेना होगा। आगे बढ़कर उस नये समाज की व्यवस्था में सक्रिय योग देना होगा। उसे यह निर्णय करना होगा कि पुरानी संस्कृति और शिक्षा सिद्धान्त का कितना अंश सुरक्षित रखना है और कितना अंश के वल रूढ़िगत महत्व का, पर यथार्थ में निःसार होने से निकाल फेंका है।
विद्यार्थी समाज की उच्छृंखलता विदेशी शासन से लड़ने का एक अनिवार्य फल है। परन्तु अब समय आ गया है कि जब विद्यार्थियों को आत्म शासन के  महत्व को समझना चाहिए। आज की उच्छृंखलता के  बदले में कोई सार वस्तु नहीं मिलती। इतना ही नहीं, उससे समाज का अनिष्ट ही होगा। यह उच्छृंखलता युवक के  अधिकार को स्वीकार करने से ही दूर होगी।
उनका कहना था कि शिकायत है कि विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। इसके  लिए किसी को दोषी ठहराने से पहले यह समझना चाहिए कि यदि स्कूलों में पठन-पाठन का स्तर अच्छा न रहे तो विश्वविद्यालयों में अवनति के  क्रम को रोका नहीं जा सकता। वास्तव में होना यह चाहिए कि माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम अपने में परिपूर्ण और उस स्तर तक के  लिए पर्याप्त होना चाहिए। विभिन्न प्रकार के  कौशल सिखाए जाने चाहिए जिसके  द्वारा इतनी शिखा के  बाद ही व्यक्ति नौकरी या रोजगार में लग सके । कुछ पाठ्यक्रम हों जो विद्यार्थी को विश्वविद्यालय में शिक्षा के  लिए तैयार करें। इस विधि से स्कूल के  पाठ्यक्रम पर बहुत बोझ कम हो जाएगा। आजकल जो साहित्य बोझिल शिक्षा है उसकी आवश्यकता समाप्त हो जाएगी। माध्यमिक शिक्षा के  बाद ही जब नौकरी, रोजगार मिलने लगेगा, तब विवश होकर विश्वविद्यालय में भर्ती होने की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। इसका नतीजा होगा कि विश्वविद्यालय में शिक्षा का स्तर ऊंचा हो जाएगा। वे इंटर की पढ़ाई तीन साल की होनी चाहिए।
आचार्य नरेन्द्र देव ने सदन में बहस के  दौरान कहा था कि हमारे लायक दोस्त लोग कहते हैं कि यूनिवर्सिटी शिक्षा में व्यापारिक सम्मान दे दिया जाये। यूनिवर्सिटी को ठीक होना चाहिए जिससे वहां जो तालीम दी जाए उससे नौकरी मिल सके । अगर इस किस्म की तालीम वहां दी जाए कि यूनिवर्सिटी की तालीम खतम करने के  बाद विद्यार्थियों को नौकरी मिलने में आसानी हो तो ठीक है। मगर काबलियत वहां हासिल नहीं होगी। मेरे अर्ज करने का मतलब यह है कि यूनिवर्सिटी शिक्षा को व्यापारिक सम्मान देना ठीक नहीं है। सदन में मेरे एक दोस्त ने फरमाया है कि बेकारी के  मसले को हल करने के  लिए वहां चित्रकारी का विभाग (फैके ल्टी आॅफ पेन्टिंग) कायम होना चाहिए। मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई। मगर गरीब मुल्क में गरीबी की वजह से तस्वीरों का शौक तक नहीं है। अगर चित्रकारी कला के  स्कूल कायम हो जाए तो उससे लोग अपनी रोजी कमा सकेंगे। यह बात गलत है। जब तक राज्य प्रणाली नहीं बदलती है बेकारी का मसला हल नहीं होता है। सही तरीका तो यह है कि हुकूमत की शिक्षा नीति में तब्दीली होनी चाहिए यह इससे हमको गाफिल रखना चाहती है। हमारे ख्यालात गलत रास्ते पर डाले जा रहे हैं। यह कहा जाता है कि यूनिवर्सिटी एजूके शन को व्यापारिक सम्मान दिया जाए। व्यापारिक सम्मान देने पर विद्यार्थियों के  अंदर काबलियत क्या होगी।
वे मौजूदा तालीम को बेकारी का कारण नहीं मानते थे। बेकारी का कारण राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संस्थाएं हैं। इनकी वजह से देश में बेकारी और गरीबी फैल रही है। इनमें तब्दीली की जरूरत है। जब तक ये तब्दीलियां नहीं होगी बेकारी दूर नहीं हो सकती। लेकिन मेरे अर्ज करने का यह मतलब है कि मौजूदा यूनिवर्सिटी शिक्षा के  तरीके  में खराबियां नहीं है। जितनी खामियां जहां हैं मैं उनसे सहमत हूं उनको दूर करने की जरूरत है।
अपने जीवन का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए आचार्य नरेन्द्र देव ने स्वयं कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए जीवन के  अर्थ और महत्व की खोज करनी चाहिए। जीवन समृद्ध और वैविध्यपूर्ण है। यह सपाट और खुरदुरा दोनों ही है, इससे सुख और दुःख, विजय और पराजय दोनों ही है, विविधता जीवन का जायका है और इसीलिए जीवन के  कई पहलू हैं।
आचार्य नरेन्द्र देव से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तिथियां
1889       31 अक्टूबर, जन्म सीतापुर
1902       शिक्षारम्भ, फैजाबाद
1907       इन्ट्रेन्स पास स्वदेशी का व्रत, गरम दल में रुझान
1911       बीए पास, इलाहाबाद
1913       एमए, क्वीन्स कालेज काशी
1915       एलएलबी, इलाहाबाद
1915-21                फैजाबाद में वकालत, होमरूल लीग का संगठन प्रांतीय मंत्री, जवाहर लाल नेहरू का काशी विद्यापीठ जाने का आग्रह, काशी विद्यापीठ के  उपाध्यक्ष नियुक्त। कांग्रेस में सक्रिय। काशी विद्यापीठ के  अध्यक्ष। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के  1918 में सदस्य निर्वाचित हुए। असहयोग आंदोलन में शामिल। अकबरपुर तहसील में किसान आंदोलन का नेतृत्व।
1929       सोवियत रूस की एशिया नीति पर लेख।
1930       जय प्रकाश नारायण से राजनीति पर पहली बातचीत।
1930       जून, सविनय अवज्ञा में प्रथम कारावास। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के  मंत्री। नमक सत्याग्रह व सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व।
1932       अक्टूबर, फिर एक वर्ष की जेल।
1934       17 मई, अखिल भारतीय कांग्रेस-समाजवादी पार्टी की स्थापना, सम्मेलन के  अध्यक्ष।
1935       जून, गुजरात कांग्रेस सोशलिस्ट सम्मेलन के  अध्यक्ष।
1936       उप्र प्रांतीय कांग्रेस के  अध्यक्ष व राष्ट्रीय कांग्रेस कार्यसमिति के  नेहरू जी के  आमंत्रण पर सदस्य मनोनीत। उप्र राजनीतिक सम्मेलन के  अध्यक्ष।
1937       विधानसभाओं के  चुनावों, उप्र विधान सभा के  सदस्य निर्वाचित। प्रीमियर (प्रधानमंत्री) न बनने का निश्चय।
1939       जुलाई, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी दिल्ली में अध्यक्षीय भाषण।
1939       किसान सभा, गया की अध्यक्षता।
1940       अक्टूबर में गांधी जी के  आदेश पर व्यक्तिगत सत्याग्रह का प्रदेश में नेतृत्व व जेल।
1941       व्यक्तिगत सत्याग्रह में गिरफ्तार।
1942       09 अगस्त, कांग्रेस कार्यसमिति के  सदस्यों के  साथ गिरफ्तार होकर अहमदनगर जेल में बंद। विश्व युद्ध पर लेख।
1946       फरवरी, भारतीय क्रान्ति पर वक्तव्य।
1946       उप्र विधान सभा के  सदस्य निर्विरोध निर्वाचित।
1947       लखनऊ विश्वविद्यालय के  उप कुलपति नियुक्त। देशी रियासतों के  बारे में वक्तव्य।
1948       31 मार्च, कांग्रेस समाजवादी पार्टी के  नासिक निर्णय के  अनुसार कांग्रेस से त्याग-पत्र और विधानसभा से भी त्याग-पत्र देकर एक नयी मान्यता स्थापित की।
1948       29 मई, लखनऊ में पंच सम्मेलन का उद्घाटन।
1949       पटना अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष नियुक्त।
1950       बर्मा व श्याम की यात्रा, काशी नागरी प्रचारिणी सभा के  अध्यक्ष निर्वाचित।
1951       बनारस विवि के  उप कुलपति नियुक्त।
1952       राज्यसभा के  सदस्य निर्वाचित, चीनी सांस्कृतिक मिशन में चीन की यात्रा। प्रथम प्रेस आयोग के  सदस्य।
1953       काशी नागरी प्रचारिणी सभा हीरक जयंती में अध्यक्ष पद।
1954       यूरोप में स्वास्थ्य लाभ के  लिए यात्रा और नागपुर प्रसोपा सम्मेलन के  अध्यक्ष।
1955       गया प्रसोपा सम्मेलन के  अध्यक्ष। बिहार राष्ट्र भाषा परिषद में अध्यक्षीय भाषण।
1956       3 जनवरी, स्वास्थ्य लाभ के  लिए तेन्दुरई (मद्रास) प्रस्थान।
1956       19 फरवरी, महानिर्वाण। सायंकाल 5 बजकर 10 मिनट पर इरोड (तमिलनाडु) में निधन।
1956       20 फरवरी, लखनऊ में दाह संस्कार।
Dr. Yogesh mishr

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