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हिन्दू होने का निहितार्थ
हमें गर्व है कि हम भारतीय हैं की तर्ज पर ‘92’ से यह कहने का चलन हो गया है, कि ‘हमंे गर्व है हम हिदू हैं।’ वैसे हिन्दू होने के मायने खोजते समय अपनी निजी से घिर जाने की सम्भावना प्रबल होती है क्योंकि किसी आदमी के लिए यह सहज नहीं होता है कि उसके पास सभी धर्मो का पर्याप्त ज्ञान हो जिससे वह हिन्दू होने, मुसलमान होने, इसाई होने या सिक्ख होने, बौद्ध या यदी होने के मतलब की सहज एवं सटीक व्याख्या कर सके । वैसे भी धर्म को जानना और जीना दो अलग-अलग प्रक्रियायें है। आजकल हिन्दू होने के मतलब और मुसलमान होने के मतलब की व्याख्या की राजनीतिक अभिव्यक्तियां प्रखर और प्रबल हैं। इस प्रखरता के चलते मौजूदा स्थितियां एक ‘प्रति भारत’ की पृष्ठभूमि तैयार कर रहीं हैं। कई बार तो भ्रमवश ही सही ‘प्रति भारत’ ही असली भारत लगने लगता है। प्रति भारत की संकल्प धर्म के राजनीति निरूपण से खी हो रही है। तभी तो हिन्दू और मुसलमान होने के सवाल को राजनीति ने प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्ति देने की दिशा में लम्बी मुहिम चला रखी है। अल्पसंख्यकों में इस मुहिम ही शुरूआत मांउटवेटन योजना से हुई थी। जिसे 3 जून, 1947 को भारतीय नेताओं को बताया गया। परिणामस्वरूप द्वि- राष्ट्रवाद की नींव पड़ी। जिसे 15 जून को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में स्वीकृति के लिए रखा गया। गांधी जी द्वारा द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत को मान लेने की बात कहने के बाद भी इस प्रस्ताव के विपक्ष में 29 मत पड़े और 32 तटस्थ रहे। 61 लोगों के विरूद्ध 157 वोटों से माउण्बेटन योजना स्वीकृत हो गयी।
हिन्दुत्व की परिभाषा, निजात और अर्थवा सत्ता की प्रांसगिक अभिव्यक्ति के लिए महज किसी राजनीतिक दल विशेष को दोषी ठहराया उचित नहीं होगा। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (1925) की स्थापना नहीं हुई थी, तब भी कुछ ऐसे हिन्दू थे जो हिन्दुत्व के वर्तमान अभिप्राय का समर्थन करते थे। आज का हिन्दू जब अपनी परिभाषा करता है, तो वह दूसरो के संदर्भ में करता है। परिणामतः आज के हिन्दुत्व की परिभाषा पर प्रतिशोध की गहरी छाया दिखायी देती है। ‘प्रति भारत’ के निर्माण में यह भी कम जिम्मेदार नहीं है। आमतौर पर माना जाता है कि हिन्दुत्व शब्द स्वतः व्याख्यायित नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि हिन्दू जितनी बार आत्मोत्थान के दौर से गुजरा है, उससे कम बार उसे विपर्यय के अंधेरे से नहीं गुजरना पड़ा है। प्राचीन भारतीय समाज मेें संाख्य, योग, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और वेदांत दर्शन की भूमिका हिन्दू समाज के एक गौरवशाली अहसास की ओर संके त करती है। दार्शनिक तर्क और विचारों की स्वतंत्रता के कारण ही धार्मिक आस्था उस दौर में बंद, इकहरी और संघवादी नहीं थी। जितने धर्म भारत में पैदा हुए, दुनिया के किसी भी देश मे नहीं। फिर भी यहां किसी एक धर्म या आस्था का फासीवादी समतलीकरण कभी संभव नहीं हुआ।
कोई यदि हमसे पूछे कि, ‘तुम शाक्त, वैष्णव, शैव, बौद्ध, जैन, सिक्ख, क्या हो? ‘ उस समय मन में यह सवाल उठता है कि किसी एक की बात कह देना, किसी एक के साथ ‘कमिटमेंट’ जताना उसकी सर्वोच्चता और बाकी को हेय बताना है। एक ही उत्तर जंचता है- ‘हिन्दू हैं।’ यह बात दूसरी है कि अज्ञेय ने हिन्दू कहने को अनावश्यक बताते हुए तर्क दिया था कि यह नाम मध्यकाल में दूसरों के द्वारा अवज्ञा के भाव से दिया गया है। लेकिन सच यह है कि अवज्ञा द्वारा प्रदान किया गया शब्द अधिकार भेद के यथार्थ को आंखों से ओल नहीं होने देता। अचारण पर बल देता है। उधर आधुकनिकता के दौर में बुद्धिवाद के परिणामस्वरूप सात्र के अस्तित्ववाद ने आचरण के स्वहितपोषी उपयोग की खासी छूट दे दी हैै। इसी का परिणाम था कि द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत की बलि चढ़ गये महात्मा गांधी। नेहरू की शेरवानी पर लगे गुलाब को देखकर मोहित होने वाला वर्ग उनके समाजवाद और धर्म निरपेक्षता को कोसने लगा। उसके लिए साधन की पवित्रता नहीं सफलता जरूरी हो उठी। अपनी समृद्धि का वह विस्तार अस्तित्वाद के विस्तार की तर्ज पर चाहने लगा। सिद्धांतहीनता, उपभोक्तावाद और स्वार्थपरता उसके अभीष्ट लक्ष्य हो गये। इसी के आधार पर आज हिन्दू नवाजागरण को खड़ा करने की साजिश की जा रही है। यह नव हिन्दुवाद, धर्म से नहीं राजनीति से रेखांकित और परिभाषित हो रहा है।
नव हिन्दू और हिन्दूवाद के नये प्रतीक और प्रतिमान भारतीय संस्कृति के अंह का सहारा लेते हैं। परन्तु यह भूल जाते हैं कि हिन्दू होने का यह अधिष्ठान महज धीर्मिक ही नहीं सांस्कृतिक भी है परन्तु राजनीतिक एकदम नहीं। हिन्दुत्व एक विचार, एक दर्शन, एक सनातन दृष्टि का उद्गाता रहा है और एक अविच्छिन्न परम्परा का उत्तराधिकारी भी। हिन्दुत्व ने सर्वात्म एवं एकात्म मानव दर्शन का आविष्कार किया। उसमें एक ओर जहां द्वैतवाद है वहीं विशिष्टता द्वैतवाद भी। उसकी जीवन पद्धति में व्यष्टि एवं समष्टि का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। उसमें ‘चित्ति’ और ‘विराट’ का अद्भुत संगम है। विविधता में एकता के साक्षात्कार का यह एक दिव्य एवं भव्य रंगमंच है। हिन्दु होने का वह नैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक निहितार्थ तभी संभव हो पायेगा जब हिन्दू होने का वही मतलब लिया जाये जो प्राचीन ऋषि चिंतन परम्परा में था। जिसका यह अर्थ जुटाया जाये कि वह चीजों का मर्म देखता है। उसकी बाहरी तड़क-भड़क से प्रभावित नहीं होता है। अपने आस-पास के समाज की चिंता करता है। उसे कुछ भी होने में गर्व नहीं होता। यदि होता भी है तो गर्व का बोध ‘प्रति भारत’ का निर्माण करने की दिशा में सहायक नहीं होता। उसमें समन्वय होता है। सत्यम-शिवम-सुन्दरम’ हिन्दुत्व के मूल के एकदम सन्निकट हैं। राजनीतिक हिन्दू, धार्मिक, हिन्दू जैसे हिन्दुत्व से वह दूर रहता हैै। हिन्दूवाद और हिन्दू साम्प्रदायिकता को घालमेल करने की कोशिश नहीं करता है। हिन्दू के सामाजिक सरोकारों का यह भी मतलब नहीं होना चाहिए कि एक सम्प्रदाय विशेष की ज्यादतियों के अलावा हर क्रिया/प्रतिक्रिया के प्रति उदासीन रहा जाये। उसे याद रखना चाहिए - उच्चत्तर आध्यात्मिक क्षेत्र में कहीं मतद्वैध नहीं है। अरबी में बहुत पहले आर्यभट्ट और बगुप्त आदि के ज्योतिष ग्रन्थों का अनुवाद हुआ था। इन ग्रन्थों के आधार और अनुकरण पर मुसलमान ज्योतिषियों ने अनेक ग्रन्थ लिखें। दशगुणोार अंक-क्रम को अलखारिजमी ने सारे यूरोप में फैलाया था। मुसलमानी धर्म में मक्का की दिशा और प्रातः एवं सांय गोधूलि का बड़ा महत्व है, क्योंकि नमाज पढ़ने के लिए दोनों की विशेष जरूरत है। इन दोनों बातों का सूक्ष्म विवेचन करने के लिए मुसलमान ज्योंतिषियों ने अक्षांश, देशान्तर - संस्कार तथा चर और उदयास्त का बड़ा सूक्ष्म और व्यापक अध्ययन किया। हिन्दुओं का मुर्त - शास्त्र मुस्लिम ज्योतिष में ग्रहित हुआ है और अरबों का ताजक शास्त्र और रमल - विद्या संस्कृत में सम्मानपूर्ण स्थान पा सकी है। इन शास्त्रों के परिभाषिक शब्द अरबी भाषा के हैं। ताजक नीलकंठी के प्रसिद्ध सोलह योगों के नाम सीधे अरबी से लिए गये है। असराफ, इकबाल, मणां (मनअ) आदि शब्द संस्कृत के नहीं अरबी के हैं। चिकित्सा के ग्रन्थों का भी अरबी में अनुवाद हुआ था। यूनानी चिकित्सा पद्धति के साथ भारतीय पद्धति के मिश्रण से हकीमी चिकित्सा पद्धति का जन्म हुआ जो हिन्दू और मुसलमानों की प्रतिभा की मिलन का सुन्दर फल है। इस तरह हिन्दू कहने में जो गर्व का बोध होता है। वही बोध मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, पारसी कहने में क्यों न हो। परन्तु ये ध्यान देना जरूरी है कि अभिव्यक्ति के इस बोध में राजनीतिक पक्षधरता को कोई स्थान न मिल जाए क्योंकि राजनीतिक हिन्दू, राजनीतिक मुसलमान, राजनीति इसाई होने का मतलब ‘कुछ नहीं’ होने से भी बदतर होता है।
हिन्दुत्व की परिभाषा, निजात और अर्थवा सत्ता की प्रांसगिक अभिव्यक्ति के लिए महज किसी राजनीतिक दल विशेष को दोषी ठहराया उचित नहीं होगा। जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (1925) की स्थापना नहीं हुई थी, तब भी कुछ ऐसे हिन्दू थे जो हिन्दुत्व के वर्तमान अभिप्राय का समर्थन करते थे। आज का हिन्दू जब अपनी परिभाषा करता है, तो वह दूसरो के संदर्भ में करता है। परिणामतः आज के हिन्दुत्व की परिभाषा पर प्रतिशोध की गहरी छाया दिखायी देती है। ‘प्रति भारत’ के निर्माण में यह भी कम जिम्मेदार नहीं है। आमतौर पर माना जाता है कि हिन्दुत्व शब्द स्वतः व्याख्यायित नहीं है। इसका मुख्य कारण यह है कि हिन्दू जितनी बार आत्मोत्थान के दौर से गुजरा है, उससे कम बार उसे विपर्यय के अंधेरे से नहीं गुजरना पड़ा है। प्राचीन भारतीय समाज मेें संाख्य, योग, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और वेदांत दर्शन की भूमिका हिन्दू समाज के एक गौरवशाली अहसास की ओर संके त करती है। दार्शनिक तर्क और विचारों की स्वतंत्रता के कारण ही धार्मिक आस्था उस दौर में बंद, इकहरी और संघवादी नहीं थी। जितने धर्म भारत में पैदा हुए, दुनिया के किसी भी देश मे नहीं। फिर भी यहां किसी एक धर्म या आस्था का फासीवादी समतलीकरण कभी संभव नहीं हुआ।
कोई यदि हमसे पूछे कि, ‘तुम शाक्त, वैष्णव, शैव, बौद्ध, जैन, सिक्ख, क्या हो? ‘ उस समय मन में यह सवाल उठता है कि किसी एक की बात कह देना, किसी एक के साथ ‘कमिटमेंट’ जताना उसकी सर्वोच्चता और बाकी को हेय बताना है। एक ही उत्तर जंचता है- ‘हिन्दू हैं।’ यह बात दूसरी है कि अज्ञेय ने हिन्दू कहने को अनावश्यक बताते हुए तर्क दिया था कि यह नाम मध्यकाल में दूसरों के द्वारा अवज्ञा के भाव से दिया गया है। लेकिन सच यह है कि अवज्ञा द्वारा प्रदान किया गया शब्द अधिकार भेद के यथार्थ को आंखों से ओल नहीं होने देता। अचारण पर बल देता है। उधर आधुकनिकता के दौर में बुद्धिवाद के परिणामस्वरूप सात्र के अस्तित्ववाद ने आचरण के स्वहितपोषी उपयोग की खासी छूट दे दी हैै। इसी का परिणाम था कि द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत की बलि चढ़ गये महात्मा गांधी। नेहरू की शेरवानी पर लगे गुलाब को देखकर मोहित होने वाला वर्ग उनके समाजवाद और धर्म निरपेक्षता को कोसने लगा। उसके लिए साधन की पवित्रता नहीं सफलता जरूरी हो उठी। अपनी समृद्धि का वह विस्तार अस्तित्वाद के विस्तार की तर्ज पर चाहने लगा। सिद्धांतहीनता, उपभोक्तावाद और स्वार्थपरता उसके अभीष्ट लक्ष्य हो गये। इसी के आधार पर आज हिन्दू नवाजागरण को खड़ा करने की साजिश की जा रही है। यह नव हिन्दुवाद, धर्म से नहीं राजनीति से रेखांकित और परिभाषित हो रहा है।
नव हिन्दू और हिन्दूवाद के नये प्रतीक और प्रतिमान भारतीय संस्कृति के अंह का सहारा लेते हैं। परन्तु यह भूल जाते हैं कि हिन्दू होने का यह अधिष्ठान महज धीर्मिक ही नहीं सांस्कृतिक भी है परन्तु राजनीतिक एकदम नहीं। हिन्दुत्व एक विचार, एक दर्शन, एक सनातन दृष्टि का उद्गाता रहा है और एक अविच्छिन्न परम्परा का उत्तराधिकारी भी। हिन्दुत्व ने सर्वात्म एवं एकात्म मानव दर्शन का आविष्कार किया। उसमें एक ओर जहां द्वैतवाद है वहीं विशिष्टता द्वैतवाद भी। उसकी जीवन पद्धति में व्यष्टि एवं समष्टि का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। उसमें ‘चित्ति’ और ‘विराट’ का अद्भुत संगम है। विविधता में एकता के साक्षात्कार का यह एक दिव्य एवं भव्य रंगमंच है। हिन्दु होने का वह नैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक निहितार्थ तभी संभव हो पायेगा जब हिन्दू होने का वही मतलब लिया जाये जो प्राचीन ऋषि चिंतन परम्परा में था। जिसका यह अर्थ जुटाया जाये कि वह चीजों का मर्म देखता है। उसकी बाहरी तड़क-भड़क से प्रभावित नहीं होता है। अपने आस-पास के समाज की चिंता करता है। उसे कुछ भी होने में गर्व नहीं होता। यदि होता भी है तो गर्व का बोध ‘प्रति भारत’ का निर्माण करने की दिशा में सहायक नहीं होता। उसमें समन्वय होता है। सत्यम-शिवम-सुन्दरम’ हिन्दुत्व के मूल के एकदम सन्निकट हैं। राजनीतिक हिन्दू, धार्मिक, हिन्दू जैसे हिन्दुत्व से वह दूर रहता हैै। हिन्दूवाद और हिन्दू साम्प्रदायिकता को घालमेल करने की कोशिश नहीं करता है। हिन्दू के सामाजिक सरोकारों का यह भी मतलब नहीं होना चाहिए कि एक सम्प्रदाय विशेष की ज्यादतियों के अलावा हर क्रिया/प्रतिक्रिया के प्रति उदासीन रहा जाये। उसे याद रखना चाहिए - उच्चत्तर आध्यात्मिक क्षेत्र में कहीं मतद्वैध नहीं है। अरबी में बहुत पहले आर्यभट्ट और बगुप्त आदि के ज्योतिष ग्रन्थों का अनुवाद हुआ था। इन ग्रन्थों के आधार और अनुकरण पर मुसलमान ज्योतिषियों ने अनेक ग्रन्थ लिखें। दशगुणोार अंक-क्रम को अलखारिजमी ने सारे यूरोप में फैलाया था। मुसलमानी धर्म में मक्का की दिशा और प्रातः एवं सांय गोधूलि का बड़ा महत्व है, क्योंकि नमाज पढ़ने के लिए दोनों की विशेष जरूरत है। इन दोनों बातों का सूक्ष्म विवेचन करने के लिए मुसलमान ज्योंतिषियों ने अक्षांश, देशान्तर - संस्कार तथा चर और उदयास्त का बड़ा सूक्ष्म और व्यापक अध्ययन किया। हिन्दुओं का मुर्त - शास्त्र मुस्लिम ज्योतिष में ग्रहित हुआ है और अरबों का ताजक शास्त्र और रमल - विद्या संस्कृत में सम्मानपूर्ण स्थान पा सकी है। इन शास्त्रों के परिभाषिक शब्द अरबी भाषा के हैं। ताजक नीलकंठी के प्रसिद्ध सोलह योगों के नाम सीधे अरबी से लिए गये है। असराफ, इकबाल, मणां (मनअ) आदि शब्द संस्कृत के नहीं अरबी के हैं। चिकित्सा के ग्रन्थों का भी अरबी में अनुवाद हुआ था। यूनानी चिकित्सा पद्धति के साथ भारतीय पद्धति के मिश्रण से हकीमी चिकित्सा पद्धति का जन्म हुआ जो हिन्दू और मुसलमानों की प्रतिभा की मिलन का सुन्दर फल है। इस तरह हिन्दू कहने में जो गर्व का बोध होता है। वही बोध मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, पारसी कहने में क्यों न हो। परन्तु ये ध्यान देना जरूरी है कि अभिव्यक्ति के इस बोध में राजनीतिक पक्षधरता को कोई स्थान न मिल जाए क्योंकि राजनीतिक हिन्दू, राजनीतिक मुसलमान, राजनीति इसाई होने का मतलब ‘कुछ नहीं’ होने से भी बदतर होता है।
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