TRENDING TAGS :
हमारे गणतंत्र के धब्बे
भारतीय गणतंत्र अभी तक कई बार कसौटियों पर जांचा-परखा जा चुका है। परंतु हमारे राजनेताओं की हरकतों के कारण कई बार यह क्षत-विक्षत दिखा। सामजवादी और पंथनिरपेक्ष समाज का हमारा सपना टूट रहा है। हमारे गणतंत्र के मूलाधार में घोटाला, अपराध, मनी पावर, मसल्स पावर की पैठ बती जा रही है। समाजवाद की जगह हम बहुराष्ट्रीय मंडियों में पहंुच रहे हैं। राजनीति में इंस्टैटिज्म का प्रभाव बढ़ रहा है। संविधान की उद्देशिका में संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक स्थितियों को बनाए रखना, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय प्रदान करना स्वतंत्रता, समता व व्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्रीय एकता व अखंडता जैसे महत्वपूर्ण लक्ष्य निर्धारित किए गए थे। लेिकन आज ये सारे के सारे लक्ष्य महज शोपीस बन कर रह गए हैं।
राष्ट्रीय एकता व अखंडता की जगह हमने लोगों के दिलों को तोड़ा तथा हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई सभी को वोट बैंक के शक्ल में देखा। असहिष्णुता व हिंसा को उभारा। जातिवाद को एक-एक इंच पर बोया। समता व व्यक्ति की गरिमा जैसे सवाल जातीय चेतना के नारे में विलुप्त हो गए। औरत को बाजार दिया। बच्चों के नन्हें हाथों को विवशता और आदमी के सामने लाचारी का ऐसा जाल बुना, जिसकी ओट में वह कुछ भी करने के तर्क के तहत कुछ भी कर रहा है। स्वतंत्रता के सवाल पर हमने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पाई। आसमान की ओर मुंह उठा कर थूकने लगे। आजादी के पूर्व जो जमींदार, ताल्लुक¢दार कांग्रेस के जुलूसों को न निकलने देने के लिए रास्ता रोकने का काम करते थे, वे कांग्रेस में शरीक होकर सदनों के सदस्य हो गए। उनके पर हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करने और देश के संविधान का अनुपालन कराने का जिम्मा आ गया। इन्होंने स्वतंत्रता व स्वराज्य का मतलब सुतंत्र जुटाया और राज्य सत्ता पाने के लिए धार्मिक उन्माद फैलाया, जातिवाद का वृक्ष बोया, क्षेत्रवाद की संकीर्णताएं पसारी। इनसे यह भूल हो गई कि जाति, धर्म व क्षेत्र, राष्टवाद, संविधान व स्वतंत्रता के आधार नहीं हो सकते। अंग्रेजों के मूल मंत्र फूट डालो और राज करो, को इन्होंने भी अपना हथियार बनाया।
सामाजिक, आर्थिक व रजनीतिक न्याय के उद्देश्य पाने के लिए हमने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने घुटने टेक¢। नयी आर्थिक नीति के तहत समाजवाद व आर्थिक न्याय लाने का लक्ष्य पूरा करने में हम जुट गए। हम यह ढिंढंोरा पीटने लगे कि समाजवाद समााजिक न्याय लाएगा। यह ढिंढंोरा पीटने वाली सकरार के कार्यकाल में सर्वाधिक घोटाले हुए। हमारी आर्थिक स्वतंत्रता, अमरीका, विश्व व्यापार संगठन, मुद्रा कोष, विश्व बैंक व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर दी गई। सभी को न्याय देने के नाम पर पूरी न्यायिक व्यवस्था ताकतवरों के हवाले हो गई। लोकतंत्र का तो हमने ऐसा पालन किया कि पंद्रह से बीस फीसदी मत पाकर भी सदन का सदस्य हुआ जा सकता है। ये विजयी प्रत्याशी बहुमत के प्रतिनिधित्व का दावा भी करते हैं। पंथनिरपेक्षता के साथ तो हमारे यहां खासा खिलवा हुआ। दलित राष्ट्रपति हो, यह सवाल उठाकर समाज हित पोषक बनने का दावा किया जाता है। प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति बनने के लिए कुछ जाति व धर्म विशेष का होना समीकरण हो गए हैं। विभिन्न धर्मों के त्योहारों एवं मठों पर जाना एक यांत्रिक रस्म बन गया है। यहंा जमात के वोटों की ठेक¢दारी होती है। धर्म एवं राजनीति को अलग करने पर खासा बवाल मचता है। मानव धर्म, राष्ट्रीय धर्म जैसे शब्दों को काटकर राजनीति को देखने का फैशन चल निकला है।
रोजगार की जगह बेरोजगारी ने ले ली। ईमानदारी, विश्वास व आशा को बेइमानी, निराशा, ईष्या ने प्रतिस्थापित कर दिया है। अस्पतालों की जगह कत्लगाह बनाए जा रहे हैं। एक ऐसी व्यवस्था बनानी थी, जो जनतंत्र की सेवा कर सक¢। परंतु हमने एक ऐसा विराट तर्कहीन सिस्टम तैयार किया, जो पैसे के बिना नहीं चलता। इस सिस्टम का पैसा ही पैर हो गया है। चारो ओर हताशा व्याप्त है। निराशा के बादल छंट नहीं रहे हैं। अहर्निश प्रलाप जारी है। हमारे चारों तरफ बौखलाए आदमी का संलाप गूंज रहा है। स्वराज्य की मांग हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने स्व-तंत्र के अर्थ में नहीं की थी। उन्होंने चाहा था सुराज। जिसमें हाथों को काम मिले, पेट को दो जून की रोटी, मन को स्वतंत्रता का बोध, समाज को स्वदेशी का एहसास, परंतु आज हमारी उपभोक्ता वस्तुएं बहुराष्ट्रीय कंनियों के उत्पादकों का प्रयोग किए बिना गुजारना मुश्किल हो गया है। चारो तरफ इनका संजाल फैल चुका है। राजनीतिक गुलामी ने अपना चोला उतार फेंका है। उसकी जगह ले ली है आर्थिक गुलामी ने। आर्थिक गुलामी हमारा गला दबोच रही है। एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने दो शताब्दी से अधिक दिनों तक हमें गुलाम बनाए रखा।
शताब्दी के अंतिम दशक में भारतीय गणतंत्र की मूलाधार मान्यताएं परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। बहुसंख्यकों की कीमत पर अल्पसंख्यकों के संतुष्टि का दौर चल निकला है। धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द के साथ खासा मजाक किया गया और यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। हमारा संविधान अपने असली स्वरूप में राष्ट्रीय कम औपनिवेशक ज्यादा दिख रहा है। आज संविधान बदलने और राष्ट्रगान पर पुनर्विचार करने की मांग जोर पकड़ती जा रही है। इन मांगों को एक तबका देशद्राही जैसी हरकतें भले ही मानत हो परंतु यह भारत की स्वाधीनता के बाद उसकी रूपरेखा पर विचार न करने की परिणति है। राष्ट्रगान देशकाल से गुथे होने की अनुगूंज होता है। भारत भाग्य विधाता की शब्दावली आम जनों में यह जिज्ञासा पैदा करती है कि आखिर हमने सोने की चिड़िया के भाग्य का विधाता कौन है ? कहां है ? एक ऐसे देश में जहां राम, कृष्ण को भी भारत भाग्य विधाता या अधिनायक नहीं माना गया है तो वहां राष्ट्रगान में भारत भाग्य विधाता का उल्लेख सहज कौतुहल का प्रश्न तो खड़ा करता ही है। लोगों के दिमाग में यह सवाल तो अभी तक अनुत्तरित है कि जन-गण-मन को राष्ट्रगान और वंदेमातरम को राष्ट्रगीत बनाने और स्वीकार करने के पीछे आधार या तर्क क्या था ? गणतंत्र दिवस पर हमें हर साल यह याद दिलाया जाता है कि हम लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। पर वस्तुतः हम एक संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं। भारतीय गणतंत्र को नेताओं, अपराधियों के गठजोड़ ने अगवा कर लिया है। सब कुछ चलता है की संस्कृति ने चारो ओर अपनी पैठ बना ली है। दो वर्ष पूर्व गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति को अपने प्रसारण में राजनेताओं को अपने आचरण में सुधार लाने की बात कहनी पड़ी थी।
संविधान के अप्रगासंगिक होने की सवाल जोर पकड़ता जा रहा है। इस सवाल के पक्षधर कहते हैं कि तमाम समस्याओं के बारे में संविधान ने कुछ नहीं कहा है। लेकिन आज जो कुछ स्थितियां हैं उसका पूर्वानुमान डाॅ. राजेंद्र प्रसाद को था। उन्होंने 26 जनवरी 1949 को संविधान सभा की बहस में कहा था कि हमने लोकतांत्रिक संविधान बनाया है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं की सफल कार्यकशुलता उन लोगों की इच्छा शक्ति पर निर्भर करती है जो दूसरों की भावनााओं का ध्यान रखेंगे व सहयोग लेंगे। ऐसी बहुत सी चीजें जो संविधान में शामिल नहीं की जा सकती हैं, उन्हें परंपरा से पूरा करना होगा। मुझे उम्मीद है कि वह क्षमता हम दिखाएगें और परंपराओं को विकसित करेंगे। ठीक उसी तरह से जिस तरह से हमने बिना मताधिकार के इस्तेमाल के इस संविधान को रचा है। हमारे संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान हैं जो लोगों को खटक सकते हैं। यदि ऐसे जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं जो निष्ठावान और चरित्रवान हों तो वे इन खामियों के बावजूद देश को बेहतर ढंग से चला सकेंगे। लेकिन यदि उनमें ऐसे गुण नहीं होंगे तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सक¢गा। डा. राजेंद्र प्रसाद ने जो कहा वह आज सही साबित हो रहा है। हमारे लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष संविधान के सामने तमाम सवाल इसलिए खड़े हो गए हंै कि हमारे राजनेताओं में ऐसे गुण नहीं हैं जिनकी अपेक्षा की गई थी।
गणतंत्र का मतलब होता है संपूर्ण तंत्र पर गण शक्ति की पक मजबूत हो परंतु हमारे गणतंत्र में तंत्र प्रभावी है और गण नगण्य। गणतंत्र के 47 वर्षों का लेखा-जोखा करें तो हम पाते हंै कि उनका अवमूल्यन ज्यादा हुआ है। जिनकी संपदाओं का मूल्य बड़ा है। संविधान के उद्देश्य तिरोहित हो गए हैं। अब तक संविधान में 86 संशोधन हो चुके हैं। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां आज भी प्रासंगिक हैं - हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी। यह समय है क्या होंगे यह तय कर लें।
राष्ट्रीय एकता व अखंडता की जगह हमने लोगों के दिलों को तोड़ा तथा हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख-ईसाई सभी को वोट बैंक के शक्ल में देखा। असहिष्णुता व हिंसा को उभारा। जातिवाद को एक-एक इंच पर बोया। समता व व्यक्ति की गरिमा जैसे सवाल जातीय चेतना के नारे में विलुप्त हो गए। औरत को बाजार दिया। बच्चों के नन्हें हाथों को विवशता और आदमी के सामने लाचारी का ऐसा जाल बुना, जिसकी ओट में वह कुछ भी करने के तर्क के तहत कुछ भी कर रहा है। स्वतंत्रता के सवाल पर हमने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पाई। आसमान की ओर मुंह उठा कर थूकने लगे। आजादी के पूर्व जो जमींदार, ताल्लुक¢दार कांग्रेस के जुलूसों को न निकलने देने के लिए रास्ता रोकने का काम करते थे, वे कांग्रेस में शरीक होकर सदनों के सदस्य हो गए। उनके पर हमारी स्वतंत्रता की रक्षा करने और देश के संविधान का अनुपालन कराने का जिम्मा आ गया। इन्होंने स्वतंत्रता व स्वराज्य का मतलब सुतंत्र जुटाया और राज्य सत्ता पाने के लिए धार्मिक उन्माद फैलाया, जातिवाद का वृक्ष बोया, क्षेत्रवाद की संकीर्णताएं पसारी। इनसे यह भूल हो गई कि जाति, धर्म व क्षेत्र, राष्टवाद, संविधान व स्वतंत्रता के आधार नहीं हो सकते। अंग्रेजों के मूल मंत्र फूट डालो और राज करो, को इन्होंने भी अपना हथियार बनाया।
सामाजिक, आर्थिक व रजनीतिक न्याय के उद्देश्य पाने के लिए हमने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने घुटने टेक¢। नयी आर्थिक नीति के तहत समाजवाद व आर्थिक न्याय लाने का लक्ष्य पूरा करने में हम जुट गए। हम यह ढिंढंोरा पीटने लगे कि समाजवाद समााजिक न्याय लाएगा। यह ढिंढंोरा पीटने वाली सकरार के कार्यकाल में सर्वाधिक घोटाले हुए। हमारी आर्थिक स्वतंत्रता, अमरीका, विश्व व्यापार संगठन, मुद्रा कोष, विश्व बैंक व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर दी गई। सभी को न्याय देने के नाम पर पूरी न्यायिक व्यवस्था ताकतवरों के हवाले हो गई। लोकतंत्र का तो हमने ऐसा पालन किया कि पंद्रह से बीस फीसदी मत पाकर भी सदन का सदस्य हुआ जा सकता है। ये विजयी प्रत्याशी बहुमत के प्रतिनिधित्व का दावा भी करते हैं। पंथनिरपेक्षता के साथ तो हमारे यहां खासा खिलवा हुआ। दलित राष्ट्रपति हो, यह सवाल उठाकर समाज हित पोषक बनने का दावा किया जाता है। प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति बनने के लिए कुछ जाति व धर्म विशेष का होना समीकरण हो गए हैं। विभिन्न धर्मों के त्योहारों एवं मठों पर जाना एक यांत्रिक रस्म बन गया है। यहंा जमात के वोटों की ठेक¢दारी होती है। धर्म एवं राजनीति को अलग करने पर खासा बवाल मचता है। मानव धर्म, राष्ट्रीय धर्म जैसे शब्दों को काटकर राजनीति को देखने का फैशन चल निकला है।
रोजगार की जगह बेरोजगारी ने ले ली। ईमानदारी, विश्वास व आशा को बेइमानी, निराशा, ईष्या ने प्रतिस्थापित कर दिया है। अस्पतालों की जगह कत्लगाह बनाए जा रहे हैं। एक ऐसी व्यवस्था बनानी थी, जो जनतंत्र की सेवा कर सक¢। परंतु हमने एक ऐसा विराट तर्कहीन सिस्टम तैयार किया, जो पैसे के बिना नहीं चलता। इस सिस्टम का पैसा ही पैर हो गया है। चारो ओर हताशा व्याप्त है। निराशा के बादल छंट नहीं रहे हैं। अहर्निश प्रलाप जारी है। हमारे चारों तरफ बौखलाए आदमी का संलाप गूंज रहा है। स्वराज्य की मांग हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने स्व-तंत्र के अर्थ में नहीं की थी। उन्होंने चाहा था सुराज। जिसमें हाथों को काम मिले, पेट को दो जून की रोटी, मन को स्वतंत्रता का बोध, समाज को स्वदेशी का एहसास, परंतु आज हमारी उपभोक्ता वस्तुएं बहुराष्ट्रीय कंनियों के उत्पादकों का प्रयोग किए बिना गुजारना मुश्किल हो गया है। चारो तरफ इनका संजाल फैल चुका है। राजनीतिक गुलामी ने अपना चोला उतार फेंका है। उसकी जगह ले ली है आर्थिक गुलामी ने। आर्थिक गुलामी हमारा गला दबोच रही है। एक ईस्ट इंडिया कंपनी ने दो शताब्दी से अधिक दिनों तक हमें गुलाम बनाए रखा।
शताब्दी के अंतिम दशक में भारतीय गणतंत्र की मूलाधार मान्यताएं परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। बहुसंख्यकों की कीमत पर अल्पसंख्यकों के संतुष्टि का दौर चल निकला है। धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द के साथ खासा मजाक किया गया और यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। हमारा संविधान अपने असली स्वरूप में राष्ट्रीय कम औपनिवेशक ज्यादा दिख रहा है। आज संविधान बदलने और राष्ट्रगान पर पुनर्विचार करने की मांग जोर पकड़ती जा रही है। इन मांगों को एक तबका देशद्राही जैसी हरकतें भले ही मानत हो परंतु यह भारत की स्वाधीनता के बाद उसकी रूपरेखा पर विचार न करने की परिणति है। राष्ट्रगान देशकाल से गुथे होने की अनुगूंज होता है। भारत भाग्य विधाता की शब्दावली आम जनों में यह जिज्ञासा पैदा करती है कि आखिर हमने सोने की चिड़िया के भाग्य का विधाता कौन है ? कहां है ? एक ऐसे देश में जहां राम, कृष्ण को भी भारत भाग्य विधाता या अधिनायक नहीं माना गया है तो वहां राष्ट्रगान में भारत भाग्य विधाता का उल्लेख सहज कौतुहल का प्रश्न तो खड़ा करता ही है। लोगों के दिमाग में यह सवाल तो अभी तक अनुत्तरित है कि जन-गण-मन को राष्ट्रगान और वंदेमातरम को राष्ट्रगीत बनाने और स्वीकार करने के पीछे आधार या तर्क क्या था ? गणतंत्र दिवस पर हमें हर साल यह याद दिलाया जाता है कि हम लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। पर वस्तुतः हम एक संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं। भारतीय गणतंत्र को नेताओं, अपराधियों के गठजोड़ ने अगवा कर लिया है। सब कुछ चलता है की संस्कृति ने चारो ओर अपनी पैठ बना ली है। दो वर्ष पूर्व गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति को अपने प्रसारण में राजनेताओं को अपने आचरण में सुधार लाने की बात कहनी पड़ी थी।
संविधान के अप्रगासंगिक होने की सवाल जोर पकड़ता जा रहा है। इस सवाल के पक्षधर कहते हैं कि तमाम समस्याओं के बारे में संविधान ने कुछ नहीं कहा है। लेकिन आज जो कुछ स्थितियां हैं उसका पूर्वानुमान डाॅ. राजेंद्र प्रसाद को था। उन्होंने 26 जनवरी 1949 को संविधान सभा की बहस में कहा था कि हमने लोकतांत्रिक संविधान बनाया है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं की सफल कार्यकशुलता उन लोगों की इच्छा शक्ति पर निर्भर करती है जो दूसरों की भावनााओं का ध्यान रखेंगे व सहयोग लेंगे। ऐसी बहुत सी चीजें जो संविधान में शामिल नहीं की जा सकती हैं, उन्हें परंपरा से पूरा करना होगा। मुझे उम्मीद है कि वह क्षमता हम दिखाएगें और परंपराओं को विकसित करेंगे। ठीक उसी तरह से जिस तरह से हमने बिना मताधिकार के इस्तेमाल के इस संविधान को रचा है। हमारे संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान हैं जो लोगों को खटक सकते हैं। यदि ऐसे जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं जो निष्ठावान और चरित्रवान हों तो वे इन खामियों के बावजूद देश को बेहतर ढंग से चला सकेंगे। लेकिन यदि उनमें ऐसे गुण नहीं होंगे तो संविधान देश की कोई मदद नहीं कर सक¢गा। डा. राजेंद्र प्रसाद ने जो कहा वह आज सही साबित हो रहा है। हमारे लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष संविधान के सामने तमाम सवाल इसलिए खड़े हो गए हंै कि हमारे राजनेताओं में ऐसे गुण नहीं हैं जिनकी अपेक्षा की गई थी।
गणतंत्र का मतलब होता है संपूर्ण तंत्र पर गण शक्ति की पक मजबूत हो परंतु हमारे गणतंत्र में तंत्र प्रभावी है और गण नगण्य। गणतंत्र के 47 वर्षों का लेखा-जोखा करें तो हम पाते हंै कि उनका अवमूल्यन ज्यादा हुआ है। जिनकी संपदाओं का मूल्य बड़ा है। संविधान के उद्देश्य तिरोहित हो गए हैं। अब तक संविधान में 86 संशोधन हो चुके हैं। मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां आज भी प्रासंगिक हैं - हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी। यह समय है क्या होंगे यह तय कर लें।
Next Story