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विवाद के घेरे में दारियो फो

Dr. Yogesh mishr
Published on: 22 Oct 1997 7:35 PM IST
पुरस्कारों की राजनीति एवं राजनीति के  पुरस्कार का विवाद हमेशा प्रभावी रहा है। नोबल साहित्य पुरस्कार में यह प्रभाव इस बार काफी महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित होकर उभर रहा है। पैरोडी एवं व्यंग्य के  जरिये अन्याय के  खिलाफ आवाज उठाने वाले साहित्य के  नोबल पुरस्कार विजेता फो दारियो इस बार विवाद के  के न्द्र में हैं। फो नाटककार होने के  साथ ही स्वयं एक श्रेष्ठ नाट्यकर्मी भी है। 1926 में जन्मे इटली के  अभिनेता, व्यंग्यकार, नाटककार दारियो फो इस सम्मान को एशियाई कलाकारों का सम्मान मानते हैं। परंतु सच यह है कि भ्रष्टाचार पर तीखे आक्रमण की परम्परा को आगे बढ़ाते रहने का पाथेय है। 71 वर्षीय दारियो फो ने अब तक सत्तर नाटकों की रचना की है। फो की रचनाओं में चर्च में पाखण्ड, यूरोपीय व्यवस्था में फैली विसंगति और शासन व समाज में बैठे कुलीन तंत्र का गहरा और तीखा उपहास है। दारियो फो का जन्म उत्तरी इटली में मछुआरों और तश्करों का नगर कहे जाने वाले सैजियानो में 24 मार्च, 1926 को हुआ था। वे एक स्टेशन मास्टर के  तीन बच्चों में सबसे बड़े हैं। किस्सा सुनाने का हुनर शायद उन्हें अपने दादा से विरासत में मिला। जो अपने इलाके  के  जाने माने किस्सा सुनाने वालों में थे। फो ने ललित कला एवं स्थापत्य की पढ़ाई की परंतु कार्यक्षेत्र रंगमंच को चुना। 1952 में मिलान में उन्होंने अभिनेता के  रूप में अपने जीवन की शुरूआत की। 1954 में उन्होंने अभिनेत्री फैंका रैम से विवाह किया। फो ने अपना जीवन राजनीतिक स्क्रैचेज बनाने से आरम्भ किया। 1957 में फो और उनकी पत्नी ने एक हास्योन्मुख कार्यशाला खोली और 19वीं शताब्दी के  फार्स को लोकप्रिय किया। फार्स को लोकप्रिय करने में फो ने नुक्कड़ नाटकों की लोकप्रियता से काफी कुछ सीखा और उसका उपयोग किया। वे अपने नाटकों में तीखे राजनीतिक व्यंग्य करने में बेहद प्रभावी रहे। फो को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के  लिए कई बार सेंसर की कैंची का सामना करना ही पड़ा है। साथ ही 1960 के  दशक में इटली के  सरकारी टेलीविजन ने फो के  कार्यक्रमों के  प्रसारण पर रोक भी लगा दी थी। इतना ही नहीं फो के  लोकप्रिय नाटक मिस्तरोवुफो पर रोमन कैथोलिक चर्च ने 1977 में प्रतिबंध लगा दिया था। सन 1973 में फो की पत्नी रैम का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था। उन्हें बुरी तरह मार पीटकर छोड़ दिया। 1997 के  मई माह में फो के  अपहरण का भी प्रयास किया गया। कई देशों के  निर्देशकों और अभिनेताओं पर फो के  नाटक मंचित करने के  लिए अत्याचार किये गये। फो के  विरूद्ध न्यायालय में मुकदमें चले। कई बार उनकी पिटाई की गयी। इटली की पुलिस सरकार और टेलीविजन के  सेंसर का सामना तो उन्हें अक्सर ही करना पड़ा। कई बार गिरफ्तारी भी हुई। संघर्षशील जीवन वाले फो ने अभी तक कुल सत्तर नाटक लिखे हैं, जिसमें टू पिस्टल विद व्हाइट एण्ड ब्लैक आई एक्सीडेंटल डेथ आॅफ एन अनार्किस्ट नान सी पागा (मैं अदा कर नहीं सकता। अदा करूंगा नहीं), ट्रैम्पेटेस एण्ड रस्प वेरीज (पहचान में भूल), स्टिलबेगलेस (चोरी कम करो), ए वूमेन एलान पोप एण्ड दि विच दि ओपेन कपुल फीमेल पार्ट आदि महत्वपूर्ण प्ले हैं ।
फो के  दि ओपेन कपल नाटक में यौन उच्चश्रंखलताओं और आधुनिक नारी की समस्याओं की चर्चा है। टैम्पेटेस एण्ड रस्पवेरीज में व्यक्तियों के  पहचान की भूल को के न्द्र बनाया गया है। इसमें राजनेताओं पर तीखे व्यंग्य किये गये हैं, जो दर्शकों, श्रोताओं को गुदगुदाते हैं। यह पति-पत्नी दोनों की संयुक्त रचना है। फो के  लेखन की भाषा सरल एवं प्रवाहमय है। इनके  गद्य के  मुहावरे काफी हंसाते हैं और इनका अभिनय जिन दांवपेचों को खोलता है, उससे दर्शकों में एक जुड़ाव उत्पन्न होता है। फो माक्र्स फ्रायड, वायोस्की, ब्रेख्त से ज्यादा प्रभावित हैं। फो ने पाॅलिटिकल थियेटर जैसी संकल्पना की स्थापना की। वे जो पाॅलिटिकल थियेटर करते थे, उसे देखने अक्सर ही सम्भ्रान्त वर्ग के  लोग आते थे। फो के  पालिटिकल थियेटर में सम्भ्रान्त वर्ग के  नजरिये और उनकी हरकतों पर जो करारा व्यंग्य किया था, उससे नुक्कड़ नाटक देखने वालों को लगता था कि फो उनकी उन सभी बातों को कह रहे हैं, जिसे वे चाहकर भी तमाम विवशताओं के  कारण नहीं कह पाते हैं। इस तरह फो इटली की जनता के  एक बहुत बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करने लगे। फो के  नाटकों में ब्र्रेख्त के  नाटकों का प्रभाव साफ-साफ परिलक्षित होता है। फो ने 1968 में मुखाभिनय (पेटोमाइम) करने की शुरूआत की। पेटोमाइम में मात्र एक व्यक्ति अभिनय करता है। इटली की राजनीतिक स्थितियों एवं पोप के  धार्मिक प्रभावों पर लिखा फो का नाटक मिस्तेरेवुफो हास्यास्पद रहस्य काफी लोकप्रिय हुआ।
1969 में मंचित किये गये इस नाटक में भी पेटोमाइम शैली का प्रयोग किया गया था। फो के  इस नाटक की ख्याति इटली तथा विदेशों में भी खासी दर्ज हुई। इस नाटक में पोप के  धार्मिक अंधविश्वास का माखौल उड़ाया गया। 1969 में पोप ने फो के  इस नाटक पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि उनकी इस रचना ने इटलीवासियों की धार्मिक भावनाओं को आहत किया है। फो को नोबल पुरस्कार मिलने के  बाद वेटिकन सिटी (पोपनगरी) के  मुखपत्र इसरातोरे ने फो के  विरोध में सम्पादकीय लिखा। इसमें पत्र ने लिखा, इसके  पूर्व भी नोबल पुरस्कार ऐसे लोगों को मिला है जो अच्छे साहित्यकार के  रूप में विख्यात नहीं थे या जिनकी रचनाएं उच्चकोटि की नहीं थीं लेकिन अब तो नोबल प्राइज देने वाले इस सीमा को लांघ गये हैं। इस बार तो पुरस्कार ऐसे व्यक्ति को मिला है, जिसकी रचनाएं नैतिक दृष्टि से उचित नहीं की जा सकतीं। 1969 में ही फो जिस कम्युनिस्ट पार्टी के  साथ काम कर रहे थे, उससे उनके  सम्बन्ध विच्छेद हो गये। तदुपरान्त 1970 में फो और उनकी पत्नी फ्रैकारैम ने लाॅ कम्यून संस्था का गठन किया। कम्युनिस्ट आंदोलन को नई दिशा देने के  लिए न्यू लेफ्ट लाॅ कम्यून ने काफी काम किया। इटली की राजनीतिक परिस्थितियों एवं सामंतशाही के  विरूद्ध न्यू लेफ्ट का विद्रोह ज्यादा आक्रामक हो गया। न्यू लेफ्ट ने भ्रष्टाचार उत्पीड़न और उस समय की बुर्जुवा पूंजीवादी सरकार के  निकम्मेपन पर काफी प्रहार किया। फो के  1970-80 के  कामकाज का प्रचार पूरे यूरोप में हुआ। फो की ख्याति इटली की सीमाएं लांघती हुई पूरे यूरोप में पसर गयी। फो न के वल बहुत बड़े अभिनेता के  रूप में स्थापित हुए वरन राजनीतिक व्यंग्यों के  लिए उनका कोई सानी नहीं रह गया। मिस्तेरोवुफो से लोकप्रियता का जो दौर उनके  जीवन में आरम्भ हुआ था, वह साहित्य के  नोबल सम्मान पाने तक तो जारी है ही आगे वह किन-किन पड़ावों से गुजरेगा, यह तो समय ही बताएगा। साहित्य में नोबल पुरस्कार विजेता फो ने पुरस्कार पाने की सूचना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि यह पुरस्कार तुर्की, अल्जीरिया, अफगानिस्तान, चीन और अन्य उन देशों के  नाटक कलाकारांे का सम्मान है, जिन्हें उनके  विवादास्पद नाटकांे का मंचन करने के  लिए सजा भुगतनी पड़ी। इस पुरस्कार के  विजेता वे कलाकार हैं, जिन्होंने पैरोडी और व्यंग्य के  जरिये अन्याय के  खिलाफ आवाज उठायी और नंगे राजा को नंगा करने की हिम्मत जुटायी। एक विदूषक की ताजपोशी हो गयी है लेकिन यह मत भूलिये कितने अन्य को खामोश कर दिया गया है।
नोबल पुरस्कार पाने की सूचना फो को इटली में रोम से मिलान जाने वाले हाईवे रास्ते में कार पर मिली। फो ने बताया मैं कार द्वारा मिलान जा रहा था तभी एक दूसरी कार ने उनके  बराबर आकर एक नोट लिखकर दिखाते हुए कहा कि दारियो तुम एवार्ड जीत गये हो, स्वीडिश अकादमी ने दारियो फो को यह पुरस्कार देकर न सिर्फ उन्हें बल्कि सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्य में डाल दिया है। 7.5 मिलियन क्राउन (एक मिलियन डाॅलर) की राशि वाले इस पुरस्कार की प्रशस्ति पत्र में कहा गया है कि वह ठहाकों और गाम्भीर्य के  जायके  से समाज में पनप रहे अत्याचार और अन्य की तरफ हमारी आंखें खोलते हैं और अपने कद को व्यापक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में नापते हैं।
वेटिकन सिटी एवं फो को मिले इस पुरस्कार पर बेहद तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। देखा जाय तो फो के  चयन पर वेटिकन सिटी की प्रतिक्रिया फो के  नाटकों के  प्रभाव को भी बताने में मदद करती है। 1980 के  नोबल पुरस्कार विजेता साहित्यकार पोलैण्ड वासी जैसवाव मेमोस ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए यहां तक कहा कि वे दारियो फो से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। इतना ही नहीं इटली के  एक अन्य आलोचक ने लिखा है। इस प्रकार का निर्णय करके  नोबल पुरस्कार देने वालों ने न के वल अपनी संस्था का उपहास किया है बल्कि इससे पहले के  नोबल पुरस्कार विजेताओं की प्रकारान्तर से हंसी उड़ायी। वैसे तो पुरस्कारों का विवाद में रहना और पुरस्कारों पर सवाल उठना एक आम शगल है। यूरोपीयों के  पक्ष में साहित्य के  पहले तीस नोबल पुरस्कार जाने पर काफी आलोचना हो चुकी है। अभी तक मात्र तीन महिलाओं और दो यूरोपीय लेखकों को पुरस्कृत किया गया है। 1969 में सैमुअल बैके ट के  चयन के  बाद नोबल समिति ने सम्भवतः पहली बार किसी नाटककार को चुना है। बीसवीं शती का उत्तरार्ध बड़े नाटककारों के  लिए नहीं जाना है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि दारियो ने एक ऐसे समय अपने आपको गढ़ा है, जो उनके  अनुकूल नहीं था। इसके  अतिरिक्त उनके  पास समकालीन नाटककारों का कोई ऐसा समूह भी नहीं था, जिनसे तुलना करने, टकराने अथवा कुछ सीखने के  अवसर सुलभ हो सकते।
फो के  व्यंग्य विनोद के  कुछ दृष्टांत मुझे लगता है ईश्वर कुछ भी विदूषक है। पोप पर सत्ताधारियों पर और पुजारियों पर उसने कैसा निराशाजनक प्रहार इस अवसर पर किया है। एक बार पहले भी फो ने एक नाटक में कहा था मैं यह नहीं कहता कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर है उसका अस्तित्व है। उसे जानता हूं। वह कम्युनिस्ट है। फो का मानना है कि अगर आप किसी व्यक्ति को हंसा दें तो उसका दिमाग खोल देंगे और लगता है स्वीडिश अकादमी ने अपना दिमाग खोल दिया है। द्वितीय महायुद्ध के  जमाने में फो की रचनाएं विश्व को संदेश देती थीं।
फो का मानना है कि पुरस्कार की प्रतिष्ठा के  लिए यह जरूरी है कि मैं भविष्य में नागरिक अधिकारों के  लिए लड़ता रहूं। संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ है। अनेक देशों में सत्ता और धर्मपीठ न के वल मानवता का बल्कि हास्य विनोद का गला घोंट रहे हैं। उन्हें विदूषक का पुरस्कृत किया जाना अखरा है। वो यह भूल जाते हैं कि मध्ययुगीन सामंतों ने कितने विदूषकों को खामोश करने के  लिए उनका सिर काटा है। उन विदूषकों ने राजा को नंगा किया। सत्ता पर फब्ती कसने वाले विदूषकों पर जब जब प्रहार हुए तो किसी ने सामंतों की निंदा नहीं की। पोप को भी वे सामंती प्रिय थे। उसी पोप पीठ से आज मेरा विरोध हो रहा है। सच बात तो यह है कि उन्हें न मेरी रचना हजम होती है न मुझे मिला हुआ पुरस्कार।
फो नाटक के  मंच पर ही नहीं समाज में भी व्यक्तिगत स्तर पर भी वे वही कार्य करते हैं जो नाटकों के  माध्यम से करते हैं। मानवाधिकार उनका शौक है। उन्होंने रेड रोड संस्था का गठन किया, जो विश्व भर में राजबंदियों की दशा पर गौर करती है और उनके  लिए मानवाधिकार की लड़ाई लड़ती है। 1973 में जब इस संस्था की ओर से फो अमरीका जाना चाहते थे तो उन्हें अमरीका प्रवेश की इजाजत नहीं मिली थी।
1952 में पहली बार इटली के  रंगमंच पर उतरे फो की प्रसिद्धि 1960 में ही इटली की सरहद को पार करने लगी थी। फो का काफी जीवन कम्युनिस्ट पार्टी के  साथ काम करते हुए बीता। यही कारण है कि कई आलोचक आज यह कह रहे हैं कि जो पुरस्कार ग्राहम ग्रीन को राजनीतिज्ञ बताते हुए नहीं दिया गया, उसे ही फो को दे देने का क्या औचित्य है? फो राजनीतिज्ञ पहले हैं लेखक बाद में। वैसे फो के  पुरस्कार की चाहे जितनी आलोचना हो परंतु परम्परावादी वामपंथी धारा के  विरोधी फो ने नव वाम के  माध्यम से अधिक आक्रामक और क्रान्तिकारी तेवर अख्तियार किया। भ्रष्टाचार, दमन, बुर्जुवा, पूंजीवादी सरकार का डटकर विरोध किया। यह विरोध उनके  लेखन में ही नहीं जीवन के  हर क्षणों में अंतर्निहित है। तभी तो वे नोबल पुरस्कार की घोषणा के  बाद अपनी पहली प्रेस कान्फ्रेन्स मंे जो शर्ट पहनकर आए थे, उस पर भी कई ऐसे कार्टून बने थे, जो पोप और धार्मिकता का माखौल उड़ा रहे थे। इटली में बढ़ रही राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार एवं घोटालों ने फो के  लेखन की प्रासंगिकता को काफी ढंग से रेखांकित करने में मदद की।


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Dr. Yogesh mishr

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