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तमाम सवाल उठे कहानी को लेकर

Dr. Yogesh mishr
Published on: 11 Nov 1997 7:35 PM IST
राजधानी में कथाक्रम के  दो दिवसीय परिसंवाद में कहानी के  रूप, कथ्य, कला एवं प्रतिबद्धता जैसे सवालों को रेखांकित करते हुए कहानी को लेकर तमाम सवाल उठे। सफल होने के  लिए अपनाए जा रहे उपक्रम की कहानी में घुसपैठ पर चिंता जताते हुए कहानी को एक खास किस्म के  यथार्थ से डील करने की कोशिश के  खिलाफ मुखर किया गया।
कहानी में छंद के  सवाल को उठाकर इसे ठीक ढंग से रेखांकित कर सार्थक बहस चलायी गयी। निर्मित जैसी अवधारणा चलाकर हिंदी कहानी में प्रतिबद्धता के  प्रति जो नजरिया है, उसे क्या और कितना सही कहा जाय? इस सवाल ने भी इस परिसंवाद में आकार लिया है।
पिछले वर्ष कथाक्रम में दलित चेतना कहानी के  रूप, के न्द्रीय संरचना के  सवाल के न्द्र में थे और यह स्वीकार किया गया था कि कहानी कानूनन होती है। कहानी को कारपेट से निचले स्तर के  तर्ज पर देखा जाना चाहिए। कहानी के  फार्म, कंटेंट में प्याज और छिलके  जैसे सम्बन्ध की बात भी स्वीकार की गयी थी। यह दूसरी बात है कि कथाक्रम के  दोनों ही आयोजनों में समीक्षा के  व्यवस्थित विकास की बात कही गयी। पिछले वर्ष जहां यह जिम्मेदारी मात्र राजेन्द्र यादव पर डाली गयी थी। वहीं इस वर्ष की जिम्मेदारी को सभी लेखकों ने सामूहिक रूप से स्वीकार किया। पिछली बार पर्सनल इज पाॅलिटिकल के  बहस की शुरूआत हुई थी। इस बार उससे आगे बढ़कर आयोजन में आए कथाकार समीक्षक समाज के  प्रति चिंतक थे। पिछले कथाक्रम में नामवर सिंह की संजीदगी के  सामने जिस तरह राजेन्द्र यादव खड़े थे। उसी तरह अबकी बार राजेन्द्र यादव के  सामने मनोहर श्याम जोशी खड़े हो लिए। राजेन्द्र यादव पर मनोहर श्याम जोशी लगातार आक्रमण करते रहे। राजेन्द्र यादव के  लेखन, कथन को काटने के  लिए श्री जोशी द्वारा किये जा रहे आक्रमण से ऐसा लगता था कि जैसे वे धावा बोलने का सिलसिला चला रहे हों। यह कहा जा सकता है कि परिसंवाद का पहला दिन अगर राजेन्द्र यादव और मनोहर श्याम जोशी के  टकराव और विभेद का दिन था तो दूसरा और अन्तिम दिन विचारोत्तेजक बहस के  साथ साथ राजेन्द्र यादव के  अके ले पड़ने का दिन रहा। परन्तु पूरी बहस को देखने से साफ हो जाता है कि चाहे जितनी भी कोशिशें राजेन्द्र यादव को अके ले करने की हुई हों, परंतु उसके  हंस ने उन्हें अके ले नहीं रहने दिया। हंस के  माध्यम से राजेन्द्र यादव रेखांकित होते रहे। कला और प्रतिबद्धता सहित तमाम पुराने पड़ चुके  सवालों को आज भी प्रासंगिक बताते हुए नए सवाल उठाये गये। कहानियांे, उपन्यासों में बढ़ रही कविता की भाषा के  प्रयोग को सराहा गया। अपरोक्ष रूप से यह स्वीकार किया गया कि कहानी मंे कविता और कविता में कहानी के  गुणधर्म का होना आवश्यक है। पिछली बार पर्सनल इज पाॅलिटिकल कहकर जो बहस चली थी, उससे आगे के  सवाल आज खड़े किये गये। लम्बी कहानियां लिखे जाने के  पीछे के  सच को देखने की बात उठी। यह भी रेखांकित किया गया कि आखिर क्या कारण है कि हमारे समाज के  चित्र छोटी कहानियांे में नहीं समा रहे हैं।
रचनाकारों को नित नए शिखर बनाने के  लिए कहा गया। कहानी की दुनिया में जो वैविध्य है, वह कविता के  स्वर/दुनिया से कम क्यों है। इस पर चिंता जताते हुए कहानी को किसी खास किस्म के  यथार्थ से डील करने की कोशिश से कटने को कहा गया। कहानी में छंद के  आग्रह को ठाठ से जोड़ते हुए हर कलाकृति के  अपने छंद होने की बात स्वीकार की गयी। निर्मिति जैसी अवधारणा पर बहस खड़ी करने की बात उठाकर जटिल यथार्थ के  अन्वेषण प्रतिरोध के  चेतना का स्वर प्रतिबद्धता के  स्तर व आयाम पर कथाकार/समीक्षक खुलकर बोले।
यथार्थ की भावुकता को साहित्यजीविता बताकर कहा गया है कि दिखा हुआ विलुप्त हो जाएगा परन्तु लिखा हुआ रह जाएगा। इसलिए लिखे हुए को बार-बार जांचा और परखा जाना चाहिए। ये बातें प्रिन्ट मीडिया के  विजेता होने की ओर भी संके त करती है। आज हम निरन्तर भयावह यथार्थ के  समय में जी रहे हैं। समय की परिधि दबाव के  बाहर जाकर हम कुछ भी नहीं तलाश सकते। कहानी की मार्केटिंग पर चिंता जताते हुए कहानी द्वारा नित नई-नई जमीन तलाशने को खुद संके त कहकर प्रतिबद्धता बनाम कला के  प्रश्न को कुछ हद तक कृत्रिम बताते हुए खारिज भी किया गया। यहां तक कहा गया कि सिर्फ कला से काम चल सकता है। प्रतिबद्धता से काम चलने वाला नहीं है। जिस लेखक के  पास कला नहीं है, वह लेखक नहीं है। यह तय होते-होते रह गया। लेखक के  बदलते मोटिव फोर्स की चर्चा करते हुए यह निष्कर्ष जुटाया गया कि जो रचना प्रतिबद्ध नहीं है वह साहित्य नहीं है। परन्तु प्रतिबद्धता का सवाल अब कहानी में वैसे ही होना चाहिए, जैसे पानी में नमक या चीनी। अब यह गैर जरूरी हो गया कि प्रतिबद्धता कहानी मंे पानी पर तेल जैसे दिखाई दे। रचना कहानी में कला और प्रतिबद्धता दोनो के  तत्व होते हैं। यह एकदम तय हो, यह बात दीगर है कि इनका अंश किस रचना/कहानी मंे कितना है। कला का मूल्यांकन रायल्टी के  स्तर पर खारिज करने के  सवाल को गम्भीरता से स्वीकार किया गया। इस बात से बचने की बात कही गयी कि रचना का मूल्य बाजार तय करें। कहा गया कि हर लेखन के  अंदर एक समाज मौजूद है।
कथाक्रम के  परिसंवाद में साहित्यकार के  इस्तेमाल होने की प्रवृत्ति पर चिंता जतायी गयी और कहा गया कि साहित्यकार के  पास चूंकि शब्द है, इसलिए उसके  ज्यादा इस्तेमाल होने की संभावना है। इसलिए इससे बचना ही चाहिए। कलावाद/कलात्मकता जैसे शब्दों के  अंतर समझने, कहानियों में युगबोध, आत्मबोध को जोड़ने की जहां जरूरत जतायी गयी, पिछले वर्ष कथाक्रम के  संवाद में जहां कहानी को अके ले की चीख ‘लोनली क्राई’ एटम बताया गया था। वहीं अबकी लेखकों ने अपनी बातों को उपभोक्तावाद के  लच्छे में खूब फेंटा। खतरे जताए। ग्रोविंग रियल्टी पर लिखी गयी कहानियों की तारीफ भी हुई परंतु पात्रों के  रूप में विचार परोसने की बात को खारिज किया गया।
कहानी पर अपने-अपने आग्रह/पूर्वाग्रह सहमति/असहमति तर्क भले ही दिखी परन्तु कथाक्रम का मंच कुछेक दृष्टांतों को छोड़कर प्लेटफार्म नहीं बन पाया। पुरस्कृत कहानीकार संजीव की कहानियां, उनकी कथायात्रा इस बार जेरे बहस का मुद्दा नहीं बन पायीं। इस बात की छटपटाहट दिखी कि साहित्य में कहीं यूटिलिटेरियन एटीट्यूड तो घर नहीं कर रहा है। साहित्य का यह दायित्व तय हुआ कि वह हमें ऐसा सत्य प्रदान करे जो समाज को समझने के  लिए लोगों को अन्तर्दृष्टि दे सके । क्योंकि साहित्य का अपना सत्य होता है। उसका सत्य परजीवी नहीं होता।
हिंदी साहित्य मंे आज भी जीवन की सभी झलकियां नहीं दिखतीं। जबकि बांगला और अन्य भाषाई साहित्य की सीमाएं बड़ी विस्तृत हैं। साहित्य में स्वच्छन्दता के  सवाल पर विराम लगाने को कहा गया। विचारधारा से मुक्ति का आंदोलन चला रहे लोगों को सचेत करते हुए यह कहा गया कि विचारधारा से मुक्ति का मतलब होगा, मूल्यों से मुक्ति। कला और प्रतिबद्धता के  साथ-साथ उन तमाम सवालों पर चर्चा हुई, जिसे आज की कहानी रू-ब-रू हो रही है। पूरी चर्चा में यह लगभग तय सा हो गया है कि कहानी, कला और प्रतिबद्धता दोनों से मिलकर बनती है। उन्हें देखने और समझने के  नजरिये भले ही भिन्न-भिन्न हों। परंतु अपनी बुनावट कहानी के  ये तन्तु कहीं छितराये हुए दिखते हैं और कहीं ठीक से बुनकर इतराते हुए।
कहानी के  इस आयोजन में विक्रम सेठ और अरून्धती राय की बात चलाकर किस ओर इशारा किया जा रहा है, यह तो समय ही बतलाएगा। लेकिन अगर अरून्धती राय की भाषा लालित्य और अनुकृति के  योग्य स्वीकार किया गया, तो इस बात के  गम्भीर  खतरे हैं कि जिस तरह हमारी आलोचना पश्चिमोन्मुखी और आयातित वही हालात हमारे कहानी और साहित्य का भी हो जाएगा।
कला और प्रतिबद्धता के  सवाल से कम जरूरी यह नहीं है कि हम यह पड़ताल करें कि हमारी कहानी और हमारा साहित्य हमारे समाज का दर्पण है या नहीं। हमारा समाज धीरे-धीरे बेहद जटिल होता जा रहा है। और इस जटिलता के  कारण कहानी में तकनीकी प्रभावी होती जाएगी। इससे तो इंकार नहीं किया जा सकता है। कहानी में तकनीकी के  प्रभाव का ही परिणाम है कि अब कहानियां दीर्घजीवी नहीं हैं और किस्सागोई के  रूप में वे पीढ़ियों को हस्तान्तरित करने का कौशल नहीं रखती हैं क्योंकि तकनीकी में परिवर्तन जितनी तेजी से हो रहा है, उतनी ही तेजी से तो कहानियां भी अपना टेक्स्ट बदल रही हैं। आज लेखक के  सामने यथार्थ का दुहराव है और उसके  सामने एक साथ दो-दो सत्य कई बार खड़े मिलते हैं। परिणाम यह होता है कि जटिल यथार्थ में लेखक के  औजार भी जटिल होते जाते हैं। कला और प्रतिबद्धता का मानदण्ड तय करना लेखक का निजी प्रश्न है। प्रतिबद्धता के  प्रति बढ़ते आग्रहों से खतरे ही पैदा होंगे। यही कारण है कि कई लोगों को इधर की कहानियों से चिंता झलकती है। वैसे आग्रह और तर्क के  आधार पर चाहे जो कुछ कहा जाय पर कथाक्रम ने अपने पूरे स्वरूप में कहानी के  सामने उठती चुनौतियों और सवालों पर सोचनेे के  लिए कथाकारों/समीक्षकों को अवसर और समय प्रदान किया।
Dr. Yogesh mishr

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