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पाश्चात्य मूल्यों की दुहाई ठीक नहीं-डाॅ. अनत

Dr. Yogesh mishr
Published on: 17 Dec 1997 7:25 PM IST
‘लाल पसीना’... ‘गांधी जी बोले’... ‘और पसीना बहता रहा’... आदि पुस्तकों के  माध्यम से गिरमिटिया मजदूरों की आवाज उठाने वाले अभिमन्यु अनत हिन्दी साहित्य में रूसी परिचय के  मोहताज नहीं हैं। कलम से मारीशस में क्रान्ति लिखने और फ्रेंच साहित्य के  सामने हिन्दी को खड़ा करने में जुटे डाॅ. अनत ने उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता, नाटक, अनुवाद और सम्पादन जैसे सभी क्षेत्रों में अपनी खासी उपस्थिति दर्ज कराते हुए भारत से तीन पीढ़ी पहले मारीशस में दास के  रूप में गये गिरमिटिया मजदूरों की यंत्रणा, यातना और संघर्ष को अपने साहित्य का मूल विषय बनाया है। अप्रवासी भारतीयों की थाती के  रूप में रामचरित मानस की प्रति, हिमालय का प्रण और ंगंगा की निर्मलता आज है। अनत के  साहित्य में मुड़िया पहाड़ दास पुत्रों की यंत्रणा का मूक गवाह है। दास पुत्रों ने अपनी यातना समय-समय पर अपना मन हलका करने के  लिए इसी मुड़िया पहाड़ ने सुनाया। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में सम्मानित किये जाने के  उपलक्ष्य में वे लखनऊ आये थे। इस अवसर पर साहित्य और समाज से जुड़े तमाम मुद्दों पर उनसे ‘राष्ट्रीय सहारा’ के  योगेश ने बातचीत की। लगभग चालीस पुस्तकों के  लेखक डाॅ. अनत आजकल महात्मा गांधी संस्थान के  रचनात्मक लेखन और प्रकाशन विभाग के  अध्यक्ष हैं। प्रस्तुत हैं उनसे बातचीत के  अंशः
             आपके  पुरखे हिन्दुस्तान से गये दूसरे दर्जे की नागरिकता जीते रहे। मूल भारतीय लोग दूसरे दर्जे की नागरिकता से छुट्टी नहीं पा पाये हैं। अब आप संख्या बल में अधिक हैं, कब तक मात खाते रहेंगे?
-उन्नीस सौ दस के  बीच जब विश्व से --मिट गयी थी तो मारीशस में फ्रांसीसी जो --अफ्रीका से दास ले गये थे, उन दासों ने-- से इंकार कर दिया। फ्रांसीसी पूंजीपतियों-- कि अगर ऐसा हुआ तो खेती-बारी खत्म--। उन्होंने भारत की ओर देखा। मारीशस-- के  ठेके दार भारत आये। उन्होंने यहां की -- लाभ उठाया और लोगों को समझाया। --में पत्थर उलटेंगे तो सोना मिलेगा। --में भारतीय अप्रवासी गिरमिटिया बनकर मारीशस गये। उन्हें भेड़ों बकरियों-- ले जाया गया। जहां रखा गया वे जगहें- से कम नहीं थीं फिर भी लोगों ने-- झेलकर अपनी अस्मिता/संस्कृति/--- धर्म का अस्तित्व बनाये रखा।
             मारीशस में हिन्दी और भोजपुरी को लोकप्रियता आप और अन्य लेखक --दिला पाये, जो अपेक्षित है, क्यों?
-देखियेे, पहले भी बताया है कि फ्रांसीसी-- के  भाषा प्रेम के  आगे हम कहीं नहीं टिकते-- की भाषा और सम्राटों की भाषा की कोई-- क्या? विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी को--दर्जा अभी तीन चार साल पहले मिला है--। गिरमिटिया मजदूरों के  संघर्ष के  बीच भाषाओं का अध्ययन, अध्यापन चटाई पर खुले आकाश तले शुरू हुआ। रामायण -- रहे, लागों में चेतना आती गयी। समय के --- हिन्दी एवं भारतीय भाषाएं बैठकाओं -- में बैठक वहां के  भारतीय वंशजों --स्थल हे, जहां से उन्होंने अपने भीतर-- को बढ़ाया। उनकी राजनीतिक शक्ति --ही बैठकों में राजनीति की आवाज प्रबल-- उभर के  थके  हारे मजदूर शाम को गांव-- शहर-शहर के  बच्चों को इन्हीं बैठकाओं --पढ़ाते रहे। यह परम्परा आज भी बनी हुई-- आज भी हिन्दी की पढ़ाई निःशुल्क ही होती--। आज चटाई से उठकर सरकारी स्कूल और कालेजों में निःशुल्क पढ़ायी जा रही है। यह सब क्या आपको हिन्दी प्रेमियों की उपलब्धि नहीं लगता।
             महात्मा गांधी के  तीन दिन के  प्रवास की आपने चर्चा की इसका क्या प्रभाव पड़ा?
-गांधी जी मारीशस में तीन दिन टिके , उनके  टिकने का ही परिणाम था कि आज राजनीति में दास पुत्र, गिरमिटिया मजदूरों का प्रभाव है। पकड़ है। गांधी जी ने मारीशस में रह-रह भारतीयों को यह महामंत्र दिया कि वे अपने बच्चों को जहां तक हो सके  पढ़ायें और देश की राजनीति में सक्रिय भाग लें। बस यहीं से मारीशस में भारतीयों की राजनीतिक शक्ति का प्रभाव शुरू हुआ।
             मारीशस में हिन्दी के  प्रचार-प्रसार की कथा क्या है और इसके  लिए श्रेय आप किसे देंगे?
-मैंने बताया न। हिन्दी वहां एक स्वैच्छिक भाषा नहीं.. संस्कृति और धर्म का हिस्सा है। देश की आजादी से पहले जहां हिन्दू महासभा, आर्यसभा तक अन्य सांस्कृतिक और धार्मिक संस्थाओं ने भाषा और संस्कृति के  प्रचार-प्रसार में योगदान किया। वहीं पं. विष्णु दयाल के  जनान्दोलन ने भी धर्म, संस्कृति और भाषा के  प्रचार-प्रसार में बहुत कुछ किया। आजादी के  पहले कुछ किताबें हिन्दी में लिखी गयीं जिनका विषय धर्म, इतिहास और संस्कृति रहा। उन दिनों साहित्य पर बहुत कम ध्यान दिया गया। फिर भी एक दो पत्र पत्रिकाएं निकलती रहीं जेसे-हिन्दुस्तानी जनता जमाना और अनुरागा। लेकिन आजादी के  बाद ही हिन्दी का सही स्वरूप सामने आया। इस यात्रा के  प्रथम सेनानी के  रूप में सोमदत्त, मधुकर भगत का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने हिन्दी परिषद की नींव डाली। साहित्य चर्चा और गोष्ठियां शुरू हुईं। अनुराग और बसन्त पत्र एक सशक्त मंच के  रूप में लेखकों के  सामने उभरे और हिन्दी साहित्य के  एक महत्वपूर्ण यात्रा की शुरूआत हुई। 1969 में देश की सीमा को तोड़ा गया। एक जंगल को काटा गया और मारीशस के  हिन्दी लेखक भारत के  पत्र पत्रिकाओं में छपने लगे। इनमें सोमदत्त, भगत जी, पूजा मनेमा, रामदेव धुरंधर, हेमराज, सुन्दर, भानुमति नागदान, सुमति संधू आदि को रेखांकित किये बिना आगे बढ़ना न्याय नहीं होगा। आज मारीशस की सबसे बड़ी साहित्यिक उपलब्धि यह है कि वहां चार सौ से ऊपर हिन्दी की पुस्तके  ंप्रकाशित हो उठी हैं। भारत के  बाहर शायद ही किसी देश को यह उपलब्धि हासिल हुई हो। इनमें कई पुस्तकें कई-कई संस्करणों तक पहुंची। भारत और मारीशस के  पाठ्यक्रमों में भी इन्हें स्थान मिला। आज विश्व भर में मारीशस के  हिन्दी साहित्य पर कोई तीस से अधिक शोध हो रहे हैं जिसकी शुरूआत सबसे पहले गढ़वाल विश्वविद्यालय के  श्यामधर तिवारी ने की। आज अनेक संस्थाओं जिसकी स्थापना भारत सरकार के  सहयोग से हुई थी, से भारतीय भाषाओं के  प्रचार-प्रसार का पूरा योगदान मिल रहा है।
             कोई ऐसी पांच पत्रिकाएं और हिन्दी का कोई राष्ट्रीय अखबार मारीशस में है क्या?
-नहीं है। एकदम नहीं हैं।
             लाल पसीना, गांधीजी बोले और पसीना बहता रहा ये तीनों पुस्तकें आपकी गिरमिटिया मजदूरों के  तीन पीढ़ियों के  व्यथा कथा पर के न्द्रित हैं, गिरमिटिया मजदूर की समस्याओं पर लेखन के  अलावा आपका कोई रेखांकित होने वाला साहित्य नहीं है?
-यह बात नहीं है, सही यह है कि गिरमिटिया मजदूरों की दास्तान हमारा भोगा हुआ यथार्थ था इसलिए इसने लोगों की संवेदना को छुआ और आमजन में इसकी खासी उपस्थिति दर्ज हुई।
             हिन्दुस्तान की कौन-कौन सी साहित्यिक पत्रिकाएं वहां जाती हैं?
-जिन-जिन पत्रिकाओं में मैंने लिखना शुरू किया उन्हें मारीशस में मंगाने और पाठकों को उपलब्ध कराने का मार्ग मैंने प्रशस्त किया। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी, नवनीत सरीखी तमाम पत्रिकाएं वहां जाती थीं। भारत में कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं के  लगातार बंद होने से मारीशस के  हिन्दी पाठकों में निराशा बढ़ी है।
             मारीशस मे एक जमाने में राजनीति सत्ता अंग्रेजों के  हाथ थी फिर भी सांस्कृतिक सत्ता फ्रांसीसियों के  हाथ से नहीं खिसकी। इतना ही नहीं आज यदि देखा जाय तो मारीशस की राजनीतिक सत्ता भारतीयों के  पास है, परन्तु सांस्कृतिक सत्ता फ्रांसीसियों के  पास, क्यों?
-इतिहास यह बताता है कि कभी बाली, सुमात्रा, जावा तथा और भी कई देश ऐसे थे जिनको भारतीयता और रामायण के  देश कहा जाता था। एक ओर जहां यह सभी देश भारत से कटते चले गये वहीं ये अब फ्रांस के  करीब जाते प्रकट होने लगे हैं। आज से कोई तीस साल पहले फ्रांस को इस बात का गर्व था कि उसके  पास तीन फ्रांकोफोनी (फ्रेंच बोलने वाले) देश हैं। फ्रांकोफोनी देशों का पहला सम्मेलन क्यूबिक (कनाडा) में हुआ था। उस समय चीन और वियतनाम जैसे देश महासम्मेलन में रामायण पर नृत्य नाटिका लेकर पहुंचे थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि आज उसी वियतनाम में इसी साल फ्रांकोफोनी देशों का विश्व सम्मेलन हुआ जहां यह उद्घोष किया गया कि अब विश्व में पचास के  करीब फ्रांकोफोनी देश हैं।
अगर यही प्रवृत्ति रही तो मारीशस जो कि पहले से ही फ्रेंच बोलने वाले देशों की श्रेणी में गिना जाता रहा है। धीरे-धीरे भारत सरकार की लापरवाही के  कारण हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं से कटता चला जायेगा। वहां के  फ्रेंच अखबारों के  मुकाबले में एक-दो पत्र पत्रिकाएं निकलती हैं लेकिन उनमें वह दम नहीं है जिससे बड़े पैमाने पर निकलने वाले पत्र पत्रिकाओं का मुकाबल किया जा सके । समय आ गया है कि युगाण्डा, फीजी, ब्रिटिश, गुयाना तथा कुछ अन्य देशों की सांस्कृतिक स्थिति को देखने के  बाद भारत में मारीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद तथा इसी तरह के  अन्य देशों के  प्रति नये सिरे से एक जागरूकता पैदा की जाये। भारत और मारीशस के  बीच हमेशा से एक सांस्कृतिक पुल रहा हे, लेकिन अब समय आ गया है कि इस बांस के  पुल को वज्र या कंक्रीट के  पुल का रूप दिया जाये। मारीशस को आर्थिक सहयोग से कहीं अधिक सांस्कृतिक साहित्यिक और कलात्मक आदान-प्रदान की जरूरत है।
             हिन्दी साहित्य में विखंडन वाद एवं उत्तर आधुनिकता जैसे वाद/विवाद हैं क्या?
-भारत में वादों/विवादों का शोसा फैलाकर गुटबाजी और खेमेबाजी चलाते हुए काफी ऊर्जा एक दूसरे को नकारने में लगा दी जाती है। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। जब हम वहां परिचर्चा करते हैं तो एक मान्य स्वर यह उभरता है कि भारत में उलटी गंगा बहती है। चित्रकार चित्र बनाने से पहले फ्रेम बनाकर दीवार पर टांग देता है जबकि होना इसका उलटा चाहिए। हम लोग वहां पर वादों और विवादों से बचकर विसंगतियों और शोषण के  खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे हैं।
             भारत में हिन्दी समीक्षा पद्धति पर पाश्चात्य प्रभाव होने का आरोप है, मारीशस में क्या स्थिति है?
-हमें आधुनिकता के  नाम पर पाश्चात्य मूल्यों की दुहाई देना अच्छा नहीं लगता है, जब कोर्ठ हिन्दी में कामे, सात्र और काफ्का बनता है तो दुःख होता है। पाश्चात्य समीक्षा पद्धति जब भारत में पहुंचती है तो इतनी पुरानी पड़ चुकी होती है कि उसका मतलब खत्म हो जाता है। हम अपनी जरूरत के  हिसाब से समीक्षा की दृष्टि विकसित कर रहे हैं।
             और कुछ...?
-भारत से मुझे बहुत प्रेम मिला। हिन्दी के  लिए बहुत करना चाहता हूं। मारीशस में रह रहे मुसलमानों की परम्परा आज भी बिहार के  हिन्दुओं सीखा है उनके  विवाहों में वैसे ही भोजपुरी गीत गाये जाते हैं, उसी तरह विवाह होते हैं, लेनिक पेट्रोडीलर के  प्रभाव में हिन्दी, उर्दू को लड़ाने के  पृष्ठभूमि जो तैयार हो रही है, उससे डर लगता है। अपने पूरे साक्षात्कार में डाॅ. अनत ने कई सवालों का उत्तर देने के  लिए अपनी बेटी की ओर देखा और उसके  उत्तरों की पुष्टि कर दी। साहित्य को रजानीति से अलग रखने की विचारधारा के  प्रबल समर्थक हैं डाॅ. अनत।
प्रकाशित पुस्तकें-मार्क टूवेन का स्वर्ग, फैसला आपका, मुड़िया पहाड़ बोल उठा, और नदी बहती रही, आन्दोलन, एक बीघा प्यार, जम गया सूरज, तीसरे किनारे पर, चैथा प्राणी, लाल पसीना, तपती दोपहरी, कुहासे का दायरा, शेफाली, हड़ताल कब होगी, चुन-चुन चुनाव, अपनी ही तलाश, पर पगडंडी मरती नहीं, अपनी-अपनी सीमा, गांधी जी बोले थे, शब्द-भंग, और पसीना बहता रहा।
कहानी संग्रहः- एक थाली समन्दर, खामोशी के  चीत्कार, इंसान और मशीन, वह बीच का आदमी।
नाटकः- विरोध, तीन दृश्य, गूंगा इतिहास, रोक दो कान्हा।
कविताः-गुलमोहर खौल उठा, नागफनी में उलझी सांसें, कैक्टस के  दांत, एक डायरी बयान।
प्रतिनिधि संकलनः-आत्म विज्ञापन।
अनुवादः-मारीशस में भारतीयृ प्रवासियों का इतिहास।
सम्पादनः-मारीशस की हिन्दी कहानी, मारीशस की हिन्दी कविता।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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