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लेखक का व्यक्तित्व कविता के क्षरण में साफ-साफ दिखता है
पिछले पचास सालों में कविता और कहानी को लेकर जो आंदोलन चले उनमें साहित्य का हित हुआ या अहित?
ये आंदोलन वैचारिक थे। रचनाओं के माध्यम से विचार तलाशने की कोशिश थी। उसके बाद जो परिदृश्य सामने आया उसमें वैचारिक ऊर्जा समाप्त हो गयी। परन्तु उस पाठक को संभालने के लिए सम्पादन की जो दृष्टि चाहिए थी उसका लेखन में अभाव होता गया। रचना मूलतः उसमें निहित विचार से जीवित रहती है। सिर्फ भाषा के प्रयोग से कुछ नहीं हो सकता। यह जानते हुए भी कई लेखक जबरदस्ती देशज शब्दों के प्रयोग में जुट गये इससे साहित्य का अहित तो होना ही था।
समकालीन कविता के बारे में आपकी क्या राय है? किन कवियों को आप पसंद करते हैं?
मुस्कराये-कविता में बहुत कुछ ऐसा है जो मुहावरा नहीं बन पाया। कविता से कवि की पहचान नहीं उभर पा रही है। मुक्तिबोध, के दारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, नागार्जुन आदि को पढते ही लगता जाता था कि यह किसकी कविता है। लेकिन आजकल यह स्थिति कम है। कविताएं मैं काफी पढ़ता हूं-मंगलेश डबराल और राजेश जोशी मेरे प्रिय कवि हैं। आज की कविताओं में प्रतिवाद का स्वर अच्छा लगता है। कविताएं संस्कृति संक्रमण में हस्तक्षेप कर रही हैं।
कहा जा रहा है कि समकालीन कविता के पति पाठक उदासीन हो हैं, आपको क्या लगता है?
आज के कवि के दिमाग में अनुगूंज है, उलझन है, जो शब्द खोज रही है, उसे मिलने में समय तो लगेगा ही। कविता और अकविता में भेद करना चाहिए। आज ऐसा न होने का मूल कारण सम्पादकीय दृष्टि का कमजोर होना है। सम्पादकों को इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि वे किसी कवि को मौका देकर उसका भला कर रहे हैं। क्योंकि प्रतिभा तो अपना रास्ता खुद तय ही कर लेती है।
निराला ने छंद तोड़ने के बावजूद जो लय दी थी वह कहां गयी? आज के कवि कविता में कोलाज बनाते हैं। कवि अपनी संवेदनात्मक भाषा को लेकर बेहद गरीब है। अपने समय से ऊपर उठकर बात करने वाला धूमिल जैसा कवि अब क्यों नहीं दिखता? कवियों में साहित्यिक रूप से जीने की प्रवृत्ति तो है लेकिन साहसिक रूप से नहीं। आजकल हिंसा के खिलाफ, घोटालों के विरोध में, तानाशाही की मुखालफत करती हुई कविताएं कहां दिखती हैं? बात, विचार और कविता का कथ्य सब कुछ अलग-अलग बिखरा हुआ है। कविता से कवि की पहचान नहीं हो पा रही है। लेखक के व्यक्तित्व का विघटन कविता के क्षरण में साफ-साफ दिखता है। साहित्य में बने रहने की कोशिश में जो कुछ लिखा जा रहा है वह कविता नहीं है। वह गद्य काव्य भी नहीं है। इन स्थितियों में पाठकों की उदासीनता जायज है।
आज कहानी की के न्द्रीयता का सवाल काफी जोर पकड़ता जा रहा है। कहानी के बारे में आपकी क्या राय है?
आज कह कहानियों ने स्टाइल और शैली जरूर डेवलप की मगर यह कहानी नहीं है। कहानी का एक प्राण बिन्दु होता है जो प्रेमचन्द में मानवतावाद के रूप में और प्रसाद में परिवर्तनवाद बनकर उपस्थित है। कहानी सांस्कृतिक-आर्थिक माहौल में हस्तक्षेप करके भी रचना बनी रहती है। परन्तु आज की कहानी में काव्य की कमी है। वैसे देखा जाये तो हस्तक्षेप चेतना के साथ जरूरी है। अगर चेतना के साथ हस्तक्षेप नहीं है तो वह रचना के साथ न्याय नहीं कहा जाएगा क्योंकि हस्तक्षेप तो लाठी भी करती है। अखिलेश, शशांक, स्वयंप्रकाश और असगर वजाहत की कहानियां सोचती हुई लगती हैं। उदय प्रकाश उत्तर आधुनिकता के चक्कर में पड़ गये।
पिछले कुछ वर्षों से आपका अधिकांश समय धारावाहिक लेखन में जाता है, इतना समय खर्च करने के बाद एक रचनाकार की हैसियत से आप क्या महसूस करते हैं?
यह सही है कि पिछले कुछ सालों से इन धारावाहिकों ने जैसे मेरे समय पर कब्जा सा कर लिया है। कारण यह है कि ‘चंद्रकान्ता’ की धूम मचा देने वाली सफलता के बाद दर्शकों की अपेक्षाएं बढ़ती गयीं और मेरी व्यस्तताएं, मेरे रचनाकार ने इन व्यस्तताओं को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। कई बार रचनात्मक संतोष के साथ-साथ माध्यमों की चुनौतियों से भी जूझना पड़ता है। शिकायतें तो आप भी सुनते होंगे कि सीरियल्स के लिए अच्छी, रोचक, मनोरंजक पटकथाओं का अभाव है। शिकायतें देखने वाले भी करते हैं और लिखने वाले भी... और सीरियल बनाने वाले भी। मेरा विश्वास शिकायतों का पुलिंदा बांधने में नहीं है। मैं शुरू से काम करने में यकीन करता आया हूं। मैंने चन्द्रकान्ता को एक चुनौती के रूप में लिया था।
वह चुनौती क्या थी?
चुनौती यह थी कि क्या ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जेसी विख्यात और रची-बसी कहानियों के बिना भी एक धारावाहिक ऐसा बन सकता है जो लेाकप्रियता की दृष्टि से इनका मुकाबला कर सके ।... और आपने देखा कि चन्द्रकांता के वल दूरदर्शन ही नहीं, बल्कि चैनल के इतिहास में कीर्तिमान स्थापित करने वाला धारावाहिक सिद्ध हुआ।
क्या आपको नहीं लगता कि चन्द्रकांता की चुनौती का सामना करते हुए आपने मूल उपन्यास के साथ कहीं अन्याय भी किया है?
ऐसे बहुत आरोप लगे हैं मुझ पर... कि कमलेश्वर ने चन्द्रकांता को गायब कर दिया है... आज बाबू देवकीनंदन खत्री की आत्मा बहुत दुःखी होगी.. आदि... वगैरह, वगैरह। मगर मुझे आज तक ऐसा नहीं लगता कि मैंने उपन्यास की मूल भावना के साथ कोई अन्याय किया है। आपने देखा होगा कि चन्द्रकांता उपन्यास हमारे धारावाहिक का प्रेरणास्रोत था... और मीडिया से जुड़े लोग जानते हैं कि प्रेरणा और अक्षरशः पालन में क्या अंतर है। मेरा तो यह भी मानना है कि छपे हुए को दृश्य बनाते समय जो लेखक माध्यमों का अंतर नहीं समझता वह असफल हो जाता है। आप मुझे बताइये कि क्या ऐसी कोई कृति है जिसकी फिल्म या सीरियल बनाते हुए उसमें कुछ जोड़ने-घटनाने की जरूरत न महसूस की गयी हो। मैंने खुद अपनी रचनाओं में भी ऐसा ही किया है। बहरहाल, जहां तक चन्द्रकांता का सवाल है तो इसका बहुत सा हिस्सा इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि वह अल्पसंख्यक विरोधी है। मैं ऐसा धारावाहिक चाहता था जिसे सभी सम्प्रदाय के लोग बैठकर देख सकें और यह भी सच है कि उस हिस्से को तराशने से उपन्यास की मौलिक समझ और मूल भावना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। अगर ऐसा होता तो चन्द्रकांता धारावाहिक को इतनी अपार सफलता नहीं मिलती। मैंने तो चन्द्रकांता के संके तों का रचनात्मक विस्तार किया है। उसके नरेटिव को पकड़कर उसकी रोचकता बरकरार रखना शायद यही एक रास्ता था जो मुझे आज भी सही लगता है। रही बात लिखने वालों की... आरोपों की राजनीति करने वालों की तो अगर वे चन्द्रकांता पर न लिखकर दूसरे धारावाहिक पर लिखते तो उनकी बातें सुनता भी कौन। चन्द्रकांता की बेशुमार सफलता में इन्होंने इस तरीके से अपना हिस्सा हासिल किया... मैं इसका बुरा भी नहीं मानता।
कुछ लोगों का कहना है कि ‘युग’ में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को पूरी प्रमाणिकता के साथ नहीं प्रस्तुत किया गया है?
युग में जंग-ए-आजादी की जद्दोजहद को अपने तरीके से पेश करने की कोशिश की गयी है। प्रमाणिकता से आशय यदि तथ्यों और तिथियों की सूची देने से है... तो शायद लोगों का कहना सही है। इतिहास हमें एक स्थूल रेखाचित्र प्रदान करता है क्योंकि जीवन जगत में कितना कुछ होता है जो इतिहास लिखने का दावा करने वालों से भी छूट जाता है। इस छूटी हुई किन्तु महत्वपूर्ण जिन्दगी का सच साहित्य में मुखरित होता है। देश जब आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था तब जीवन का सहज प्रवाह रूक तो नहीं गया था। क्या फूलों ने खिलना छोड़ दिया था... या दिलों ने धड़कना बंद कर दिया था। युग में इतिहास की बजाय जीवन को प्रमुखता दी गयी है, जिसे दर्शकों ने पसंद भी किया है।
और ‘बेताल’?
‘बेताल’ जेसे चरित्र की विशेषताओं से लाभ उठाते हुए उसका भारतीय करण करने की योजना भी पर्याप्त सफल रही है... आज वैश्विक सोच की बातें चल रही हैं तो ऐसी कोशिशों की सराहना की जानी चाहिए। एक ऐसा चरित्र जो अनाचार का विरोध करता है... देश-काल अलग हो सकता है किन्तु बेताल के मन का जज्बा जो है वह आज भी कायम है। खुशी की बात यह है कि बेताल ने आज की ज्वलंत समस्याओं से भी मुठभेड़ की है। पर्यावरण, अजनबीपन, भेदभाव, सांस्कृकि संकट जैसे बिन्दुओं पर भी इस धारावाहिक में विचार किया गया है। मैं तो यह भी कहूंगा कि बेताल में व्यक्तिवाद के विरूद्ध सामाजिकता को खड़ा किया गया है यही कारण है कि बेताल का सारा का सारा सोच सामाजिक है और वह किसी भी समस्या के समाधान के लिए जनमत तैयार करता है।
आजकल ‘विराट’ की बहुत चर्चा है। विराट के चरित्र पर कुछ विशेष प्रकाश डालें?
हां... मुझे भी अच्छा लग रहा है कि टेलीकास्ट शुरू होने से पहले ही विराट चर्चित हो रहा है। दरअसल विराट एक दार्शनिक कथा है जिसे पूरी भव्यता के साथ फिल्मांकित कियाग या है। एक आदिवासी वीर योद्धा की गाथा पर बना यह सीरियल गीता के कर्मयोग और बुद्ध के उपदेशों का गहरा प्रचार करता है। विराट अपने विवेक की रोशनी में प्रत्येक निर्णय लेना चाहता है। उसका विवेक परिस्थितियों से टकराता है। विराट समस्याओं को अपने दार्शनिक अंदाज में कैसे सुलझाता है-यही धारावाहिक की विशेषता है। युद्ध, शांति, अस्त्र-शस्त्र, न्याय-अन्याय, समर्थन-विरोध, प्रेम-घृणा जेसे न जाने कितने सवालों और स्थितियों से विराट जूझता है। इतना ही नहीं वह अनेक समकालीन सवालों से भी दो-चार होता है।
विराट के अतिरिक्त और किन धारावाहिकों पर काम चल रहा है?
मैं ‘महासमर’ का नाम लेना चाहूंगा जो आल्हा-ऊदल की प्रसिद्ध कहानी पर आधारित है। लिखा है, मर्जी के मुताबिक बन गया तो एक नायाब चीज साबित होगी। इसके बाद ‘उपनिषद’ है। भारतीय संस्कृति की पुराकथाओं के मर्मस्थानों को छूने की एक ईमानदार कोशिश की गयी है।
इन तमाम योजनाओं के चलते आपके साहित्यिक लेखन पर असर पड़ा है? क्या आपको अपनी रचनाओं के लिए यथेष्ट समय मिल जाता है?
देखिए... समय उन्हीं के पास होता है जिनके पास बिल्कुल समय नहीं होता। आप मुझे बताएंगे कि जो बिल्कुल खाली हैं वे किन महान रचनाओं से समाज को उपकृत कर रहे हैं... सच्चाई ये है कि अगर आपने समय से दोस्ती कायम कर ली तो किसी भी काम को करने का मौका मिल ही जाता है। आप जाते हैं कि मैंने हमेशा कठिनतम व्यवस्तताओं के बीच काम किया है... और आज भी मुझे कोई दिक्कत नहीं होती, पिछले दिनों मेरी पुस्तकें आयी हैं... कुछ कहानियां छपी हैं। ये जरूर है कि थोड़ी देर-सबेर हो जाती है, मगर ये सब तो जिन्दगी का हिस्सा है रचना प्रक्रिया में जब रचना पक जाती है तो अभिव्यक्ति का समय खुद तय हो जाता है।
एक उपन्यास पर आप काम कर रहे थे?
जी, हां... उम्मीद है बहुत जल्द मैं इसे पूरी कर लूंगा। एक पुस्तक कहानी समीक्षा की भी है जिसे पूरा करना चाहता हूं... वैसे चाहने का कोई अन्त तो है नहीं।
हिन्दी कहानी में इन दिनों जैसा काम हो रहा है, उस पर आपकी क्या राय है?
मैं कभी भी नाउम्मीद नहीं होता... नयी कहानी के दौर में जब कुछ स्थापित लोगों को लगता था कि कहानी में चलने वाले आन्दोलन कहानी की पवित्रता को नष्ट कर रहे हंै तब भी मैंने नयी ऊर्जा की वकालत की थी। आज भी मैं अपनी पुरानी बात को दोहराता हूं कि अब हर कहानी नयेपन की प्रक्रिया से गुजरने के लिए बाध्य है।
लगभग यही बात राजेन्द्र यादव ने भी लखनऊ में सम्पन्न हुए ‘कथाक्रम’ के आयोजन एक आयोजन में कहीं थी।
राजेन्द्र यादव गुनी आदमी हैं मुझे खुशी है कि मेरी किसी बात से वे सार्वजनिक रूप से सहमत तो हैं, रही बात इनके स्थापना की... तो यह वाक्य मेरी कहानी से सम्बन्धित पुस्तक में छप भी चुका है... जीवन की नयी-नयी विसंगतियों और व्यवस्थाओं से जूझने वाले रचनाकार जो लिख रहे हैं उसका अधिकांश मुझे प्रभावित करता है। मुझे मालूम हुआ कि कथाक्रम में वक्ताओं ने कहानियों की एक सूची तय कर ली थी कि इन्हीं दस कहानियों पर बात करनी है। यदि यह सूचना सही है तो मैं इससे सहमत नहीं हूं। के वल ‘हंस’ या एकाध दूसरी पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों के अतिरिक्त भी ढेर सारी ऐसी कहानियां हैं जिनका विश्लेषण जरूरी है।
दुष्यंत कुमार के बाद आपको हिन्दी गज़ल में क्या सम्भावनाएं दिखती हैं?
दुष्यंत के बाद गज़ल की एक हिन्दी पहचान बनी। उन्होंने गज़ल के जरिये जो हस्तक्षेप किया वह आगे बढ़ा। जैसी की उर्दू में परम्परा है, दुष्यंत ने उस तरह के निजी स्पर्श वाली गज़लें बहुत कम लिखी हैं। अदम गोंडवी और शेरजंग जैसे कवि गजलों के माध्यम से पाठक से संवाद करने में ज्यादा सफल रहे हैं। शब्दों को गज़ल ने तराशा है। गज़ल विधा में काफी संभावना है।
साहित्य पर आधारित किसी अन्य धारावाहिक पर आप काम कर रहे हैं क्या?
बालकृष्ण भट्ट का उपन्यास ‘सागर, लहरें और मनुष्य’, रांगेय राघव का ‘कब तक पुकारूं’ ओर यशपाल का ‘झूठा सच’ प्रोजेक्ट विचाराधीन हंै। भारतीय कहानियों पर आधारित पहला साहित्यिक धारावाहिक ‘दर्पण’ मैंने बनाया था। मगर आज साहित्यिक धारावाहिकों पर कोई पैसा लगाने को तैयार नहीं है।
ये आंदोलन वैचारिक थे। रचनाओं के माध्यम से विचार तलाशने की कोशिश थी। उसके बाद जो परिदृश्य सामने आया उसमें वैचारिक ऊर्जा समाप्त हो गयी। परन्तु उस पाठक को संभालने के लिए सम्पादन की जो दृष्टि चाहिए थी उसका लेखन में अभाव होता गया। रचना मूलतः उसमें निहित विचार से जीवित रहती है। सिर्फ भाषा के प्रयोग से कुछ नहीं हो सकता। यह जानते हुए भी कई लेखक जबरदस्ती देशज शब्दों के प्रयोग में जुट गये इससे साहित्य का अहित तो होना ही था।
समकालीन कविता के बारे में आपकी क्या राय है? किन कवियों को आप पसंद करते हैं?
मुस्कराये-कविता में बहुत कुछ ऐसा है जो मुहावरा नहीं बन पाया। कविता से कवि की पहचान नहीं उभर पा रही है। मुक्तिबोध, के दारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, नागार्जुन आदि को पढते ही लगता जाता था कि यह किसकी कविता है। लेकिन आजकल यह स्थिति कम है। कविताएं मैं काफी पढ़ता हूं-मंगलेश डबराल और राजेश जोशी मेरे प्रिय कवि हैं। आज की कविताओं में प्रतिवाद का स्वर अच्छा लगता है। कविताएं संस्कृति संक्रमण में हस्तक्षेप कर रही हैं।
कहा जा रहा है कि समकालीन कविता के पति पाठक उदासीन हो हैं, आपको क्या लगता है?
आज के कवि के दिमाग में अनुगूंज है, उलझन है, जो शब्द खोज रही है, उसे मिलने में समय तो लगेगा ही। कविता और अकविता में भेद करना चाहिए। आज ऐसा न होने का मूल कारण सम्पादकीय दृष्टि का कमजोर होना है। सम्पादकों को इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि वे किसी कवि को मौका देकर उसका भला कर रहे हैं। क्योंकि प्रतिभा तो अपना रास्ता खुद तय ही कर लेती है।
निराला ने छंद तोड़ने के बावजूद जो लय दी थी वह कहां गयी? आज के कवि कविता में कोलाज बनाते हैं। कवि अपनी संवेदनात्मक भाषा को लेकर बेहद गरीब है। अपने समय से ऊपर उठकर बात करने वाला धूमिल जैसा कवि अब क्यों नहीं दिखता? कवियों में साहित्यिक रूप से जीने की प्रवृत्ति तो है लेकिन साहसिक रूप से नहीं। आजकल हिंसा के खिलाफ, घोटालों के विरोध में, तानाशाही की मुखालफत करती हुई कविताएं कहां दिखती हैं? बात, विचार और कविता का कथ्य सब कुछ अलग-अलग बिखरा हुआ है। कविता से कवि की पहचान नहीं हो पा रही है। लेखक के व्यक्तित्व का विघटन कविता के क्षरण में साफ-साफ दिखता है। साहित्य में बने रहने की कोशिश में जो कुछ लिखा जा रहा है वह कविता नहीं है। वह गद्य काव्य भी नहीं है। इन स्थितियों में पाठकों की उदासीनता जायज है।
आज कहानी की के न्द्रीयता का सवाल काफी जोर पकड़ता जा रहा है। कहानी के बारे में आपकी क्या राय है?
आज कह कहानियों ने स्टाइल और शैली जरूर डेवलप की मगर यह कहानी नहीं है। कहानी का एक प्राण बिन्दु होता है जो प्रेमचन्द में मानवतावाद के रूप में और प्रसाद में परिवर्तनवाद बनकर उपस्थित है। कहानी सांस्कृतिक-आर्थिक माहौल में हस्तक्षेप करके भी रचना बनी रहती है। परन्तु आज की कहानी में काव्य की कमी है। वैसे देखा जाये तो हस्तक्षेप चेतना के साथ जरूरी है। अगर चेतना के साथ हस्तक्षेप नहीं है तो वह रचना के साथ न्याय नहीं कहा जाएगा क्योंकि हस्तक्षेप तो लाठी भी करती है। अखिलेश, शशांक, स्वयंप्रकाश और असगर वजाहत की कहानियां सोचती हुई लगती हैं। उदय प्रकाश उत्तर आधुनिकता के चक्कर में पड़ गये।
पिछले कुछ वर्षों से आपका अधिकांश समय धारावाहिक लेखन में जाता है, इतना समय खर्च करने के बाद एक रचनाकार की हैसियत से आप क्या महसूस करते हैं?
यह सही है कि पिछले कुछ सालों से इन धारावाहिकों ने जैसे मेरे समय पर कब्जा सा कर लिया है। कारण यह है कि ‘चंद्रकान्ता’ की धूम मचा देने वाली सफलता के बाद दर्शकों की अपेक्षाएं बढ़ती गयीं और मेरी व्यस्तताएं, मेरे रचनाकार ने इन व्यस्तताओं को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। कई बार रचनात्मक संतोष के साथ-साथ माध्यमों की चुनौतियों से भी जूझना पड़ता है। शिकायतें तो आप भी सुनते होंगे कि सीरियल्स के लिए अच्छी, रोचक, मनोरंजक पटकथाओं का अभाव है। शिकायतें देखने वाले भी करते हैं और लिखने वाले भी... और सीरियल बनाने वाले भी। मेरा विश्वास शिकायतों का पुलिंदा बांधने में नहीं है। मैं शुरू से काम करने में यकीन करता आया हूं। मैंने चन्द्रकान्ता को एक चुनौती के रूप में लिया था।
वह चुनौती क्या थी?
चुनौती यह थी कि क्या ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जेसी विख्यात और रची-बसी कहानियों के बिना भी एक धारावाहिक ऐसा बन सकता है जो लेाकप्रियता की दृष्टि से इनका मुकाबला कर सके ।... और आपने देखा कि चन्द्रकांता के वल दूरदर्शन ही नहीं, बल्कि चैनल के इतिहास में कीर्तिमान स्थापित करने वाला धारावाहिक सिद्ध हुआ।
क्या आपको नहीं लगता कि चन्द्रकांता की चुनौती का सामना करते हुए आपने मूल उपन्यास के साथ कहीं अन्याय भी किया है?
ऐसे बहुत आरोप लगे हैं मुझ पर... कि कमलेश्वर ने चन्द्रकांता को गायब कर दिया है... आज बाबू देवकीनंदन खत्री की आत्मा बहुत दुःखी होगी.. आदि... वगैरह, वगैरह। मगर मुझे आज तक ऐसा नहीं लगता कि मैंने उपन्यास की मूल भावना के साथ कोई अन्याय किया है। आपने देखा होगा कि चन्द्रकांता उपन्यास हमारे धारावाहिक का प्रेरणास्रोत था... और मीडिया से जुड़े लोग जानते हैं कि प्रेरणा और अक्षरशः पालन में क्या अंतर है। मेरा तो यह भी मानना है कि छपे हुए को दृश्य बनाते समय जो लेखक माध्यमों का अंतर नहीं समझता वह असफल हो जाता है। आप मुझे बताइये कि क्या ऐसी कोई कृति है जिसकी फिल्म या सीरियल बनाते हुए उसमें कुछ जोड़ने-घटनाने की जरूरत न महसूस की गयी हो। मैंने खुद अपनी रचनाओं में भी ऐसा ही किया है। बहरहाल, जहां तक चन्द्रकांता का सवाल है तो इसका बहुत सा हिस्सा इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि वह अल्पसंख्यक विरोधी है। मैं ऐसा धारावाहिक चाहता था जिसे सभी सम्प्रदाय के लोग बैठकर देख सकें और यह भी सच है कि उस हिस्से को तराशने से उपन्यास की मौलिक समझ और मूल भावना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। अगर ऐसा होता तो चन्द्रकांता धारावाहिक को इतनी अपार सफलता नहीं मिलती। मैंने तो चन्द्रकांता के संके तों का रचनात्मक विस्तार किया है। उसके नरेटिव को पकड़कर उसकी रोचकता बरकरार रखना शायद यही एक रास्ता था जो मुझे आज भी सही लगता है। रही बात लिखने वालों की... आरोपों की राजनीति करने वालों की तो अगर वे चन्द्रकांता पर न लिखकर दूसरे धारावाहिक पर लिखते तो उनकी बातें सुनता भी कौन। चन्द्रकांता की बेशुमार सफलता में इन्होंने इस तरीके से अपना हिस्सा हासिल किया... मैं इसका बुरा भी नहीं मानता।
कुछ लोगों का कहना है कि ‘युग’ में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को पूरी प्रमाणिकता के साथ नहीं प्रस्तुत किया गया है?
युग में जंग-ए-आजादी की जद्दोजहद को अपने तरीके से पेश करने की कोशिश की गयी है। प्रमाणिकता से आशय यदि तथ्यों और तिथियों की सूची देने से है... तो शायद लोगों का कहना सही है। इतिहास हमें एक स्थूल रेखाचित्र प्रदान करता है क्योंकि जीवन जगत में कितना कुछ होता है जो इतिहास लिखने का दावा करने वालों से भी छूट जाता है। इस छूटी हुई किन्तु महत्वपूर्ण जिन्दगी का सच साहित्य में मुखरित होता है। देश जब आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था तब जीवन का सहज प्रवाह रूक तो नहीं गया था। क्या फूलों ने खिलना छोड़ दिया था... या दिलों ने धड़कना बंद कर दिया था। युग में इतिहास की बजाय जीवन को प्रमुखता दी गयी है, जिसे दर्शकों ने पसंद भी किया है।
और ‘बेताल’?
‘बेताल’ जेसे चरित्र की विशेषताओं से लाभ उठाते हुए उसका भारतीय करण करने की योजना भी पर्याप्त सफल रही है... आज वैश्विक सोच की बातें चल रही हैं तो ऐसी कोशिशों की सराहना की जानी चाहिए। एक ऐसा चरित्र जो अनाचार का विरोध करता है... देश-काल अलग हो सकता है किन्तु बेताल के मन का जज्बा जो है वह आज भी कायम है। खुशी की बात यह है कि बेताल ने आज की ज्वलंत समस्याओं से भी मुठभेड़ की है। पर्यावरण, अजनबीपन, भेदभाव, सांस्कृकि संकट जैसे बिन्दुओं पर भी इस धारावाहिक में विचार किया गया है। मैं तो यह भी कहूंगा कि बेताल में व्यक्तिवाद के विरूद्ध सामाजिकता को खड़ा किया गया है यही कारण है कि बेताल का सारा का सारा सोच सामाजिक है और वह किसी भी समस्या के समाधान के लिए जनमत तैयार करता है।
आजकल ‘विराट’ की बहुत चर्चा है। विराट के चरित्र पर कुछ विशेष प्रकाश डालें?
हां... मुझे भी अच्छा लग रहा है कि टेलीकास्ट शुरू होने से पहले ही विराट चर्चित हो रहा है। दरअसल विराट एक दार्शनिक कथा है जिसे पूरी भव्यता के साथ फिल्मांकित कियाग या है। एक आदिवासी वीर योद्धा की गाथा पर बना यह सीरियल गीता के कर्मयोग और बुद्ध के उपदेशों का गहरा प्रचार करता है। विराट अपने विवेक की रोशनी में प्रत्येक निर्णय लेना चाहता है। उसका विवेक परिस्थितियों से टकराता है। विराट समस्याओं को अपने दार्शनिक अंदाज में कैसे सुलझाता है-यही धारावाहिक की विशेषता है। युद्ध, शांति, अस्त्र-शस्त्र, न्याय-अन्याय, समर्थन-विरोध, प्रेम-घृणा जेसे न जाने कितने सवालों और स्थितियों से विराट जूझता है। इतना ही नहीं वह अनेक समकालीन सवालों से भी दो-चार होता है।
विराट के अतिरिक्त और किन धारावाहिकों पर काम चल रहा है?
मैं ‘महासमर’ का नाम लेना चाहूंगा जो आल्हा-ऊदल की प्रसिद्ध कहानी पर आधारित है। लिखा है, मर्जी के मुताबिक बन गया तो एक नायाब चीज साबित होगी। इसके बाद ‘उपनिषद’ है। भारतीय संस्कृति की पुराकथाओं के मर्मस्थानों को छूने की एक ईमानदार कोशिश की गयी है।
इन तमाम योजनाओं के चलते आपके साहित्यिक लेखन पर असर पड़ा है? क्या आपको अपनी रचनाओं के लिए यथेष्ट समय मिल जाता है?
देखिए... समय उन्हीं के पास होता है जिनके पास बिल्कुल समय नहीं होता। आप मुझे बताएंगे कि जो बिल्कुल खाली हैं वे किन महान रचनाओं से समाज को उपकृत कर रहे हैं... सच्चाई ये है कि अगर आपने समय से दोस्ती कायम कर ली तो किसी भी काम को करने का मौका मिल ही जाता है। आप जाते हैं कि मैंने हमेशा कठिनतम व्यवस्तताओं के बीच काम किया है... और आज भी मुझे कोई दिक्कत नहीं होती, पिछले दिनों मेरी पुस्तकें आयी हैं... कुछ कहानियां छपी हैं। ये जरूर है कि थोड़ी देर-सबेर हो जाती है, मगर ये सब तो जिन्दगी का हिस्सा है रचना प्रक्रिया में जब रचना पक जाती है तो अभिव्यक्ति का समय खुद तय हो जाता है।
एक उपन्यास पर आप काम कर रहे थे?
जी, हां... उम्मीद है बहुत जल्द मैं इसे पूरी कर लूंगा। एक पुस्तक कहानी समीक्षा की भी है जिसे पूरा करना चाहता हूं... वैसे चाहने का कोई अन्त तो है नहीं।
हिन्दी कहानी में इन दिनों जैसा काम हो रहा है, उस पर आपकी क्या राय है?
मैं कभी भी नाउम्मीद नहीं होता... नयी कहानी के दौर में जब कुछ स्थापित लोगों को लगता था कि कहानी में चलने वाले आन्दोलन कहानी की पवित्रता को नष्ट कर रहे हंै तब भी मैंने नयी ऊर्जा की वकालत की थी। आज भी मैं अपनी पुरानी बात को दोहराता हूं कि अब हर कहानी नयेपन की प्रक्रिया से गुजरने के लिए बाध्य है।
लगभग यही बात राजेन्द्र यादव ने भी लखनऊ में सम्पन्न हुए ‘कथाक्रम’ के आयोजन एक आयोजन में कहीं थी।
राजेन्द्र यादव गुनी आदमी हैं मुझे खुशी है कि मेरी किसी बात से वे सार्वजनिक रूप से सहमत तो हैं, रही बात इनके स्थापना की... तो यह वाक्य मेरी कहानी से सम्बन्धित पुस्तक में छप भी चुका है... जीवन की नयी-नयी विसंगतियों और व्यवस्थाओं से जूझने वाले रचनाकार जो लिख रहे हैं उसका अधिकांश मुझे प्रभावित करता है। मुझे मालूम हुआ कि कथाक्रम में वक्ताओं ने कहानियों की एक सूची तय कर ली थी कि इन्हीं दस कहानियों पर बात करनी है। यदि यह सूचना सही है तो मैं इससे सहमत नहीं हूं। के वल ‘हंस’ या एकाध दूसरी पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों के अतिरिक्त भी ढेर सारी ऐसी कहानियां हैं जिनका विश्लेषण जरूरी है।
दुष्यंत कुमार के बाद आपको हिन्दी गज़ल में क्या सम्भावनाएं दिखती हैं?
दुष्यंत के बाद गज़ल की एक हिन्दी पहचान बनी। उन्होंने गज़ल के जरिये जो हस्तक्षेप किया वह आगे बढ़ा। जैसी की उर्दू में परम्परा है, दुष्यंत ने उस तरह के निजी स्पर्श वाली गज़लें बहुत कम लिखी हैं। अदम गोंडवी और शेरजंग जैसे कवि गजलों के माध्यम से पाठक से संवाद करने में ज्यादा सफल रहे हैं। शब्दों को गज़ल ने तराशा है। गज़ल विधा में काफी संभावना है।
साहित्य पर आधारित किसी अन्य धारावाहिक पर आप काम कर रहे हैं क्या?
बालकृष्ण भट्ट का उपन्यास ‘सागर, लहरें और मनुष्य’, रांगेय राघव का ‘कब तक पुकारूं’ ओर यशपाल का ‘झूठा सच’ प्रोजेक्ट विचाराधीन हंै। भारतीय कहानियों पर आधारित पहला साहित्यिक धारावाहिक ‘दर्पण’ मैंने बनाया था। मगर आज साहित्यिक धारावाहिकों पर कोई पैसा लगाने को तैयार नहीं है।
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