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जावेद अंसारी का जाना

Dr. Yogesh mishr
Published on: 8 March 1998 10:21 PM IST
जावेद जी कल रात प्रेस क्लब मंे चंदर को हराना चाहते थे। इसलिए उन्होंने कैरम की कई बाजी खेली। उनके  खेल से चंदर ही नहीं हारा, उनके  बाद शेष सब कुछ पराजित हो गया। न जाने क्यों उन्होंने कल रात प्रेस क्लब में हारने-जीतने का खेल शुरू किया था। वैसे प्रेस क्लब जाना अखबार के  दफ्तर की तरह उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। पर पिछले बीस सालों में वे कभी भी हार जीत का खेल नहीं खेलते थे। उनके  आसपास बैठे दीपक हरीश और चंदर को क्या पता था कि चंदर को हराने की बात कहकर जावेद जी सबसे जीत जाना चाहते हैं। वे पत्रकार अनायास नहीं थे। नौकरी छोड़कर पत्रकारिता करने आए थे। परिवार मंे नौकरी का माहौल था। पिता पीसीएस अधिकारी रहे और अन्य तीन भाई भी नौकरियों में हैं। लेकिन बमकसद पत्रकारिता करने की उनकी सक्रियता ने उनमें कलम की गजब की मजबूती दी थी। दोस्तों को कलम बनाए रखने का संदेश भी देते थे। उनमें धारा के  खिलाफ चलने का साहस था। उपलब्धियों का खरा निर्मम विश्लेषण वे करते थे। एक बार बातचीत में उन्होंने पत्रकारिता को अख्तियार करने के  सवाल पर कहा था जीवनानुभव के  दायरे में अनेक ऐसी बातें आती हैं जो संवेदनशील व्यक्ति को आंदोलित करती हैं और यही आंदोलन मेरी पत्रकारिता की प्रेरण है इसी आंदोलन के  चलते वे तमाम विसंगतियों से लड़ते और जूझते रहे। फिर भी यह उनकी एक कूबत थी कि वे मुद्दों, व्यक्तियों से असहमत/सहमत के  बीच भी एक अलग पहचान बना लेते थे।
लग ही नहीं रहा था कि कल जावेद जी ड्यूटी करने आए थे। बेहद खुश थे। उनका व्यवहार अप्रत्याशित था। उन्होंने लोकल से लेकर ब्यूरो तक दफ्तर के  अन्य विभाग के  लोगों से भी मुलाकात की और उनके  साथ हंसते-खेलते रहे। आफिस समाचार पत्र वितरक मुन्ना से गप्पबाजी की। पुरानी यादें ताजा करते हुए अपना अतीत दोहराया। कार्यालय से निकलते समय रणविजय सिंह से भी उन्होंने मजाक करते हुए विदा ली। जावेद भाई इधर पता नहीं क्यों दो दिनों से अपने गुजरे दिनों से रूबरू होना चाहते थे। एनेक्सी में भी उन्होंने पत्रकारों से समाचार भारती से लेकर दैनिक जागरण तक की पूरी यात्रा बतियाई थी। दफ्तर में वे भी गुजरे दिनों से दो-चार होते रहे। कार्यालय में उन्होंने डेस्क से लेकर सभी साथियों से यह कहा था कि मैं एक्सक्लूसिव स्टोरी सब्मिट करूंगा। किसे पता था जावेद जी के  इस अप्रत्याशित व्यवहार से अलविदा का दर्द होगा। खबरों के  प्रति प्रतिबद्धता खास रचनात्मक ऊर्जा और कभी लक्षित न हो पाने वाली हताशा के  दौर में भी अपनी सक्रियता के  नाते अति विशिष्ट बने रहे। दबाव के  बीच भी पत्रकारिता की छटपटाहट को शिद्दत से उठाते और महसूस करते हुए उन्हांेने बीस साल गुजार दिए। बीस साल की लंबी यात्रा के  बाद भी प्रेस क्लब और घर के  बीच का थोड़ा सा फासला तय करने के  लिए इतना लंबा अवकाश ले लिया। जावेद जी ने अभी दो दिन की छुट्टियां ली थी। चुनाव की खुमार मिटाकर कल ही वह कार्यालय आए थे। किसे पता था कि अब वे हमेशा के  लिए छुट्टी चाहते हैं। उन्होंने कांग्रेस की एक बड़ी खबर फाइल करने को कहा था। कहा जाता है कि अनंत यात्रा पर जाने वाला कुछ लेकर नहीं जाता। पर जावेद जी एक्टिविस्ट होने का यही प्रमाण है कि वे अपने साथ वह खबर ले गए जिसे आज फाइल करनी थी। काश! उसे फाइल करने से पहले इतनी लंबी छुट्टी उन्होंने न ली होती। उनके  पास अनुभव का वैविध्य था फिर भी उनका निजीत्व कभी भी आत्ममुग्धता की सीमा को छू तक नहीं गया। वे मानते थे धर्म को राजनीतिक ताकत नहीं दी जानी चाहिए। वरना अंधे देश को चलायेंगे और तबाह कर देंगे। वे कहा करते थे वर्तमान लोकतंत्र के  माध्यम से हमारे सार्वजनिक जीवन में अपराधीकरण और भ्रष्टाचार की जो उपस्थिति दर्ज हुई है वह गर्व करने वाली नहीं लज्जा का विषय है।
उन्हांेने 1978 में अखिल भारतीय प्रतियोगिता के  माध्यम से समाचार से अपना पत्रकारिता का कैरियर शुरू किया था। समाचार विभाजन के  बाद उन्होंने समाचार भारती में काम किया। जम्मू कश्मीर की बेहतरीन रिपोर्टों से खुश होकर समाचार भारती के  निदेशक सुमित्रा कुलकर्णी ने 79 में उनका स्थानान्तरण लखनऊ कर दिया। 1986 में उन्होंने प्रेस ट्रस्ट आॅफ इण्डिया की हिंदी सर्विस भाषा में काम शुरू किया। भाषा में काम करना उन्हें रास नहीं आया। वे अक्सर कहा करते थे कि यहां पत्रकारिता नहीं है, क्लर्की है। न कोई नाम, न ही कोई एक्सक्लूसिव स्टोरी। एडवेंचर तो यहां से नदारद है। परिणामतः 89 मंे उन्होंने संडे आब्जर्वर (हिंदी) में प्रमुख संवाददाता का पदभार ग्रहण कर लिया लेकिन साप्ताहिक पत्र होने के  नाते वहां भी वे लंबे समय तक नहीं रह सके  और उन्होने इसी पद पर लखनऊ से प्रकाशित होने वाले दैनिक जागरण में ज्वाइन कर लिया। 95 में वे राष्ट्रीय सहारा से जुडे़। उन्होंने 1966 में बिशप मण्डप इण्टरमीडिएट कालेज बरेली से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। राजकीय इण्टरमीडिएट कालेज, बांदा से आईएससी करने के  बाद गोरखपुर विश्वविद्यालय से समाज शास्त्र, इतिहास और राजनीति शास्त्र विषयों सहित उन्होंने स्नातक किया। काशी विद्यापीठ से समाज कार्य में प्रथम श्रेणी में परास्नातक करने के  बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन जर्नलिज्म का पाठ्यक्रम प्रथम श्रेणी में पूरा किया। 13 सितम्बर, 1951 को जन्मे मोहम्मद जावेद अंसारी वायस आॅफ जर्मनी के  लिए भी काम करते थे। राजीव गांधी की हत्या के  बाद जब सोनिया गांधी पहली बार अमेठी गई थीं, तो वायस आॅफ जर्मनी के  लिए उन्होने रिपोर्ट की थी। वर्ष 1986 में उन्होंने भारत अमरीका संयुक्त आदान-प्रदान कार्यक्रम के  तहत अमरीका की यात्रा भी की थी। हंसमुख जीवंत जावेद जी के  जाने में एक तहजीब के  बिसरते जाने की व्यथा छिपी है। दोस्तों के  लिए समय से पहले पहुंच जाने वाले जावेद जी कल रात बारह बजे प्रेस क्लब से आधा घंटे के  अंदर घर पहुंचने की बात कही थी और घर जा ही रहे थे कि 12 बजकर बीस मिनट पंद्रह सेके ण्ड पर उनकी घड़ी ने टिकटिक करना बंद कर दिया लेकिन जज्बातों को तहे दिल से जीने वाले जावेद भाई का दिल तब भी धड़क रहा था और उन्होंने अखबारों की तर्ज पर मौत से भी लगभग डेढ़ घंटे तक जद्दोजहद किया। करनैलगंज के  दंगों की रिपोर्ट की बात हो या रामकोला के  किसान आंदोलन की काॅपी सब्मिट करने का काम। सबको जावेद जी ने सबसे पहले किया। बेहमई हत्याकांड के  समय भी दिलीप अवस्थी के  साथ बेहमई पहुंचने वाले वे पहले पत्रकार थे। दिलीप अवस्थी बताते हैं तब मैं पायनियर में था। जावेद की बहन का विवाह कानपुर से होना था। बारात आने में देर थी। हम लोग पुलिस कंट्रोल रूम से बात करने लगे। बेहमई हत्याकांड की बात पता चली और जावेद सब कुछ छोड़ बेहमई चले गये। अपनी बात को जोड़ते हुए वे कहते जाते हैं जावेद के  पिता ने उन्हें स्कूटर खरीद कर देने की बात कही। जावेद स्कूटर चलाना नहीं जानते थे। हम दोनों कानपुर गए और स्कूटर लेकर आए। आज वही स्कूटर......।
उत्सवधर्मी जावेद जी ईद और होली दोनों तबियत से मनाते थे। अभी गुजरी ईद पर उन्होंने फोन करके  सिंवई खाने के  लिए बुलाया था। देर रात नहीं पहुंच पाने पर खुद फोन कर शिकायत की। मैंने बताया आज अचानक पत्नी को लेकर अस्पताल गया। वहां डाॅक्टर के  कहने पर आपरेशन कराना पड़ा। सिजेरियन बच्ची हुई है। जावेद भाई फोन पर ही तपाक से बोल पड़े। अबे गुरू बताया तक नहीं। उसका नाम ईदी रख दो। मैंने कहा क्या चाहते हैं जाति से बाहर कराना। जावेद जी बताने लगे। डाॅक्टर जाति-पाति की चिंता कमजोर लोग करते हैं। वे मजे से होली मनाना चाहते थे। उन्होंने फोन पर हिदायत भी दी थी कि अबकी होली ठीक नहीं रही तो ठीक नहीं होगा। वाकई होली ठीक न और कुछ ठीक। हमें क्या पता था कि जावेद भाई इतनी गम्भीर हिदायत दे रहे हैं।
एक बार हेमन्त शुक्ल और हम जावेद भाई के  साथ प्रेस क्लब में बैठे थे। वे मेरे पहली बार प्रेस क्लब जाने को भी उत्सव बना लेना चाहते थे। माता प्रसाद से रोटियां बांटकर उन्हांेने खाईं और खिलाईं। कहते रहे गुरू घर जाकर का खइबा, वे अपने बायोडाटा में बनारसी अवधी, बुन्देलखण्डी और भोजपुरी बोली जानने का उल्लेख नाहक ही नहीं करते थे, जिस क्षेत्र का आदमी मिलता था, वहां की बोली से उसमें जुड़ते थे। उदयन शर्मा जावेद को उत्तर प्रदेश में अके ला पत्रकार मानते थे। इस बात पर गौर करें तो यह सच है कि जावेद जी अके ले ऐसे पत्रकार थे, जिनकी विशिष्ट राजनीतिक सोच तो जरूर थी लेकिन खबरों में कभी भी वे पार्टी लाइन को नहीं लेते थे। अभी हाल में उन्होने अटल बिहारी को वाकओवर लिखी, जहां राजनीतिक समझ दर्शायी थी। वहीं कार्यालय में बारहवीं लोकसभा के  लिए सम्पन्न हुए चुनावों में उत्तर प्रदेश के  परिणाम की सटीक शर्त कई लोगों से लगायी थी। जावेद जीत गए थे। पर चाहते थे शर्त सिर्फ बातचीत में रहे। वे शर्त जीतने के  क्लेम को टोकने-टाकने का बहाना मानते थे। वैसे जावेद जी बहुत धीरे-धीरे स्कूटर चलाते थे, पर जब प्रेस क्लब से घर को कूच करते थे, तो मित्रों को एकदम छोड़ जाते थे। इसकी शिकायत दोस्तों ने कई बार की थी कि रात को उठते हुए दुआ सलाम तो होने दिया करो। कल उन्हांेने सबको पूरा मौका दिया था। हरीश को घर छोड़ा था। बहुत दिनों बाद एनेक्सी भी गए थे और खूब बैठे। हरीश से इलाहाबाद साथ जाने को कहा था। आज डाॅ. रमेश दीक्षित से उन्हें खबर डिस्कस करनी थी। पर जावेद जी न घर पहुंचे न ही किसी को मौका दिया। जीतने की जिद लिये बार-बार चंदर के  साथ कैरम पर बैठे जावेद जी उठे और चल दिये। घर से थोड़े ही फासले पर अपनी यात्रा को उन्होंने विराम दे दिया। आज वे इतिहास बन गये और इस इतिहास के  सामने खड़ा वर्तमान बार-बार यह सवाल पूछता रहेगा, बस गुरू तुम बहुत बड़े पत्रकार हो गये। कहां ज्वाइन कर लिया....। और बताया तक नहीं।।


Dr. Yogesh mishr

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