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जीवन-दर्शन के बिना रचनाकार दूर तक नहीं जा सकता

Dr. Yogesh mishr
Published on: 18 March 1998 10:22 PM IST
पत्रकारिता अध्यापन के  सोपान तय करते हुए माक्र्सवादी लेनिन राजनीति को पाथेय मानकर 1960-64 में नेहरू के  टेकआॅफ सिद्धांत का विरोध करने वाले जगदम्बा प्रसाद दीक्षित वैचारिक दृष्टि से माक्र्सवाद, लेनिनवाद और माओत्से तुंग चिंतन के  अनुयायी हैं। बोगस थ्योरी आॅफ फ्यूडलिज्म, नेशनल एण्ड कम्प्रोडर, बुर्जुआआजी इन इण्डिया पुस्तिकाओं के  लेखक श्री दीक्षित ने जय दीक्षित के  नाम से दीक्षा फिल्म में अभिनय तथा स्क्रिप्ट लेखन के  साथ फिल्मी लेखन के  क्षेत्र में अपनी धमाके दार उपस्थिति दर्ज कराते हुए महेश भट्ट के  लिए सर, फिर तेरी कहानी याद आयी, नाराज, नाजायज आदि फिल्मों में लेखन करने के  साथ-साथ मुर्दाघर, कटा हुआ आसमान, इतिव्रत तथा अकाल जैसे चर्चित उपन्यास के  माध्यम से साहित्यिक पैठ और उपलब्धियों को रेखांकित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। साहित्य व समकाल (समालोचना) एवं मतांतर (निबंध संग्रह) से श्री दीक्षित ने अपनी धमक दर्ज कराने के  साथ-साथ दक्षिण गुजरात के  आदिवासियों व खेतिहर मजदूरों के  लिए भी काम किया है। पीपुल्स पाॅवर नामक अंग्रेजी पत्रिका का सम्पादन करते हुए एनालिस्ट फोरम के  माध्यम से सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं से दो-चार हो रहे श्री दीक्षित से योगेश मिश्र ने लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत है साहित्यिक, राजनीतिक और फिल्मी लेखन में व्यस्त श्री दीक्षित से बातचीत के  मुख्य अंश:-
             आपके  उपन्यास मुर्दाघर को हिंदी के  चुनिंदा उपन्यासों में शामिल किया जाता है। कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से मुर्दाघर एक अद्भुत रचना है। आपके  मन में इस रचना ने कैसे आकार ग्रहण किया?
-              मुर्दाघर के  पन्नों पर मेरे मुम्बई के  अनुभव फैले हुए हैं। यदि मैं इस माया नगर में न आता तो इस उपन्यास की रचना संभव ही नहीं थी। यहां आने के  बाद मैंने पाया कि मुम्बई की यह शक्ल तो मेरी कल्पना से बाहर है। यहां आकर मैंने कुछ शब्दों को अपनी जिंदगी से उगते हुए देखा। अके लापन, असुरक्षा, अजनबीपन, नरक, जिजीविषा ऐसे कई दर्जन शब्दों के  व्यवहारिक प्रभाव से मेरी पहली मुलाकात इस शहर में हुई। मकान का न मिलना एक भीषण समस्या थी। आज भी है। इस तरह मैं लगातार नए-नए विचलित कर देने वाले अनुभवों से गुजर रहा था। घंटों अके ले टहल रहा था। उन दिनों कल्यान में रहा करता था। बाहर घूमता तो कमरे पर लौटने की धुन सताती। कमरे पर आता तो परिवार की याद आती और यादों की मार से बचने के  लिए बाहर भागता। पहली बार ऐसी बहुत सारी स्थितियों का सामना कर रहा था। उन्हीं दिनों मैंने पाया यहां हजारों लोग अके ेले हैं। इस तीखे अके लेपन से मुक्ति पाने के  लिए लोग व्यसन पाल लेते हैं। टूटने लगते हैं। यहां आने वाले लोग या तो कहीं से कटकर या अपनी जमीन से उखड़ कर आते हैं। इसलिए सिर छिपाने की जगह यहां का पहला-पहला बड़ा सपना है। मकान शायद यहां की सबसे बड़ी लग्जरी है।
             लेकिन आपने अपने लिए यह अके लापन ही क्यों चुना था?
-चुना था इसलिए तो ऐसे भयानक अनुभवों से भी रचनात्मक नतीजे निकाल सका और वैसे भी मैं बहुत देर तक अके ला नहीं रहता था। मैं आसपास तक फैली जिंदगी में शामिल हो जाता था। मुम्बई की झोपड़ पट्टियों में एक रहस्यलोक नजर आता था। मैं मलाड से जुहू तक अक्सर घूमता रहता था। झोपड़ पट्टियों, लोकलों और वेश्याओं में मुम्बई का एक जुदा यथार्थ पसरा रहता है। तब भी था। फिर मैं धारावी गया। चुनाव प्रचार के  सिलसिले में कृष्ण मेमन के  भाषणों का मैं हिंदी अनुवाद करता था। मैंने धारावी की दहला देने वाली जिंदगी देखी। किसी न किसी तरह मैं इस भयावह यथार्थ में शामिल भी रहा। एक बात मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि मेरा लेखन किसी ग्राहक या खरीददार का लेखन नहीं है। मेरे भीतर बैठा संवेदना पुरूष सदा यह महसूस करता है कि एक आदमी ग्राहक के  अलावा भी कुछ हो सकता है। कई बार बेहोश वेश्याओं को उनके  घर तक पहुंचाया।
कई बार बीमार वेश्याओं को तीमारदारी की। इनकी दयनीयता मेरी मनुष्यता के  सामने एक चुनौती बनकर खड़ी हो जाती थी। बांद्रा, जुहू, घाटकोपर, सायन, खार.... और भी तमाम जगहों पर मंै घूमता रहता था। मैंने पाया कि न जाने कहां-कहां जिंदगी और इसकी दुखद त्रासद सच्चाइयां सांस लेती रहती हैं....। बड़े-बड़े मकानों के  लिए नींव खुदी पड़ी रहती थी....। रात में इसी के  भीतर वेश्याएं अपना पेशा करती थीं। मैंने खुद अपनी आंखों से सब कुछ देखा है...। उन्हीं दिनों एक सिलसिले में गिरफ्तार किया गया। पुलिस ने मर्डर वगैरह के  चार्जेस लगाए। मेरे साथ दो लड़कियां भी थीं। हमें सांताक्रुज के  लाॅकप मंे ठूसा गया। जोरदार बारिश हो रही थी। गंदगी और भी गंदी हो गई थी। लाॅकप का बुरा हाल था। जूठन तमाम बीमारियां पीने के  लिए एक बेहद गंदा घड़ा, उल्टी, टट्टी पेशाब से अटा टायलेट.... जिसे भीतर से न बंद करने की गुंजाइश न हिम्मत। इसी में रहना पड़ा।
इस माहौल का एक मानवीय पक्ष यह भी है कि मुझसे पूछा तुमको काहे में पकड़ा। यह तफ्तीश पुराने और तजुर्बेकार कैदी करते थे। मैंने कहा आरोप तो मर्डर का है। एक बोला जरूर पुलिस ने फंसाया है। वर्ना तेरा चेहरा तो उसकी गवाही नहीं देता। वहां जितना बड़ा गुनाह उतना बड़ा आदमी। मगर गुनाहों में भी आदमियत एक कैदी का पैर सड़ गया था। दूसरा उसे साफ कर रहा था और मजाक भी करता जा रहा था। पूछा ये सब कैसे हुआ? क्या किसी छोकरी के  साथ लोचा हुआ। वो बोला नहीं। मैंने चोरी की है। दूसरा बड़ी निर्मलता से बोला कि वान्दा नही.... फिर नयी करने का... चोरी किया। कोई गुनाह तो नहीं किया ना!
इस तरह झोपड़ पट्टी से लेकर लाॅकप तक मेरे सारे अनुभव फस्र्ट हैण्ड अनुभव हैं... और इन्हीं अनुभवों ने मुझसे मुर्दाघर लिखवाया।
             मुर्दाघर लिखने के  बाद से अब तक मुम्बई का यह दारूण यथार्थ बहुत बदला है। क्या फिर इस यथार्थ से कोई प्रेरणा मिल रही है?
-मुर्दाघर और कटा हुआ आसमान के  बाद मेरे अनुभवों में कोई नया और बड़ा यथार्थ इस संदर्भ में नहीं जुड़ा है। यथार्थ अगर बदला है तो शायद मैं उसे देख नहीं सका। हुआ यह है शायद वह यथार्थ और वीभत्स हुआ है। उखड़ापन और फूहड़ हुआ है। मगर मूल बिन्दु वही हैं। अब अगर मुझे इस पर आगे लिखना है तो एक प्रस्थान बिन्दु तो चाहिए। हो सकता है मेरे मन इसी समस्या से जूझ रहा हो।
             फिल्मों की दुनिया पर कभी कुछ लिखने का मन नहीं बना?
-यहां भी सवाल उसी प्रस्थान बिन्दु का है। दूसरे लोगों ने सेक्स, भ्रष्टाचार, कामर्शियल, क्रूरता पर लिखा है। सेठों के  पेट और औरतों की कमर के  हिसाब, किताब में उलझी इस दुनिया पर क्या लिखूं। जिन्होंने लिखा उनमें बेदी ने काफी प्रमाणिक लिखा है। आपके  सवाल का जवाब तो यही है कि अभी तक मन नहीं बना। मुझे सिनेमा को लेकर सिनेमा बनाने का कोई तुक समझ में नहीं आता। फिल्म मेकिंग कोई अट्रैक्टिव चीज नहीं है। मैं आज भी मानता हूं कि फिल्म से जुड़े लोगों में शायद कोई मानवीय संवेदना शेष रहती हो।
             वैसे फिल्में तो आपके  लिए काफी दिलचस्प रही हैं?
-सच पूछो तो मैं मुम्बई में लेक्चरर बनकर इसलिए आया था कि फिल्मों में काम करने के  मौके  तलाश सकूं। फिल्मों में मेरे लिए तब भी आकर्षण था और आज भी है। फिल्मों में मैंने अभिनय, लेखन, निर्देशन सभी कुछ किया है। सबसे पहले मेरा परिचय देवेन्द्र गोयल और ध्रुव चटर्जी जैसे लोगों से हुआ था। चिराग कहां, रोशनी कहां फिल्म के  दौरान मीना कुमारी से काफी नजदीकी रिश्ता कायम हो गया था। मीना एक महान महिला था। वह मुझसे बहुत प्रभावित भी हुई थी।
देवेन्द्र गोयल मुझे लेकर एक फिल्म बनाना चाहते थे। एक विषय पर वो काम कर रहे थे। प्यार का सागर। मेरा नया नाम भी तय हो गया था। नरेन। मगर हुआ यह कि राइटस वगैरह बिक जाने के  बाद राजेन्द्र कुमार को लगा कि यह तो हीरोइन बेस्ड फिल्म बनेगी। उन दिनों राजेन्द्र धूल का फूल में अपनी भूमिका को लेकर अपसेट भी थे। लिहाजा कहानी बदली गयी। एक पुरानी फिल्म आंखों का रीमेक करना तय हुआ। मगर इस सारी तब्दीली मंे मंै आउट हो गया। वैसे मैं इस फिल्म के  एक सीन में डाॅक्टर बना नजर आया हूं। मैं दूर की आवाज फिल्म की जाॅय मुखर्जी और शायरा बानो की यह फिल्म अच्छी चली थी... लेकिन मिड सिक्सटीज में मैं क्रान्तिकारी राजनीति में उलझ गया। हालांकि मुझे ऋषिके श मुखर्जी ने एक फिल्म के  लिए साइन कर लिया था। मैं जम जाता। लेकिन मैंने अचानक फिल्म लाइन छोड़ दी। इस तरह पहला चैप्टर बंद हुआ।
दूसरा चैप्टर 1980 के  आसपास फिर शुरू हुआ। विनोद पाण्डेय ने एक बार फिर और फिर ये नजदीकियां मंे लेखन अभिनय और गीत लेखन में मेरा सहयोग लिया। वीरेन्द्र संथालिया ने एक फिल्म कसमकस लिखवाई। एक नया रास्ता में सह पटकथा लेखक रहा। गोविन्द सरया के  लिए वक्त से पहले लिखी, जो रिलीज नहीं हुई। अरूण कौल को दीक्षा लिखकर दी। इस फिल्म ने कई अवार्ड जीते।
फिर लगा कि लोकप्रिय सिनेमा से रिश्ता कायम करना चाहिए। तो महेश भट्ट से सम्पर्क ताजा किया। महेश एक जमाने मंे मेरे छात्र रह चुके  थे। महेश ने मुझे अर्थ और सारांश की कहानियां डिस्कस की थी। जब महेश ने आशिकी की शूटिंग पूरी की तो मेरी उनके  साथ लंबी सिटिंग्स हुई। मैंने महेश के  लिए सर, फिर तेरी कहानी याद आई, नाराज, नाजायज लिखी। विक्रम भट्ट के  साथ जनम जैसी सुपरफ्लाप लिखी। विक्रम को फरेब ने बचा लिया, वर्ना वो मिट जाता।
             छोटे पर्दे से आपका रिश्ता कैसे कायम हुआ?
-मैंने सबसे पहले विनोद पाण्डेय के  कहने पर एयर होस्टेस लिखा। फिर फर्ज में शामिल हुआ। कुछ दूसरे प्रपोजल्स पर भी काम चल रहा है।
             आपने एक भरी पूरी जिंदगी जी है। क्या कुछ ऐसा है जिसे करने की बहुत इच्छा होती है?
-अपने प्रिय रचनाकारों को फिर से पढ़ना चाहता हूं।
             आपके  प्रिय रचनाकार?
-निरंकार देव सेवक, सरयूपट्टा गौड़, कमला चैधरी, द्विजेन्द्र नाथ मिश्र निर्गुण आदि। मैं बालसखा पत्रिका खूब पढ़ता था। बड़ा हुआ तो भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित पत्रिकाओं को खरीद-खरीदकर पढ़ा। अब स्थिति यह है कि मैं जिनको पढ़ना चाहता हूं, वो उपलब्ध ही नहीं हैं। इन लोगों के  साहित्य को फिर से प्रकाशित करने की आवश्यकता है। मंैने दिल्ली में अशोक माहेश्वरी से कहा था कि निर्गुण का पूरा कथा साहित्य एक साथ प्रकाशित करो।
मैं शरत चंद्र और प्रेमचंद का फैन हूं। मैं देवकीनंदन खत्री और गहमरी का जबर्दस्त भक्त रहा हूं। मैंने रवीन्द्र नाथ ठाकुर को कभी इस तरह पसंद नहीं किया। मैंने लगभग सभी विदेशी क्लासिक्स पढ़े। वे चेखब टाॅलस्टाय, तुर्गनेव, जोलाफ्लावेयर का सारा वर्क पढ़ा है। दोस्तोवस्की का मैं भक्त हूं।
             समकालीन रचनाकारों में आप किसको पसंद करते हैं?
-साफ कहूं तो समग्रता में कोई भी मुझे प्रभावित नहीं करता। मेरा सारा ध्यान जीवन दर्शन पर रहता है और आप बताइये कि मैं जीवन दर्शन विहीन रचनाकारों को क्यों पढ़ूं।
             मुक्तिबोध के  साथ आपकी घनिष्ठता रही है। उनके  कृतित्व के  बारे मंे आपकी क्या राय है?
-सन् 52-53 के  आसपास मेरी मुक्तिबोध के  साथ खूब बैठकबाजी होती थी। मेरा अनुमान है कि मुक्तिबोध के  बैठकबाज दोस्तों मंे अब के वल मैं ही बचा हूं। श्रीकांत वर्मा ने उन्हीं दिनों नई दिशा में मेरी कहानी छापी थी। मैं इस कहानी के  बाद मुक्तिबोध के  और निकट आया था।
मुक्तिबोध अपने साथ वालों पर बुरी तरह हावी थे। मैं न तो उनसे बहुत प्रभावित था और न अप्रभावित। ईमानदारी से कहंू तो मैंने उनकी कविताएं व्यवस्थित तौर पर बाद में पढ़ीं। पहले नई कविता और कामायनी से सम्बन्धित उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें पढ़ीं।
मुक्तिबोध से सम्बन्धित एक बहुत दिलचस्प बात यह आ गयी। मुक्तिबोध ने नागपुर विश्वविद्यालय से एमए की परीक्षा दी.. और बहुत मेहनत करने के  बाद दी। वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। इसी के  बल पर उन्हें राजनंदगांव के  एक डिग्रीकालेज में नौकरी भी मिली। अगले साल मंैने प्राइवेट विद्यार्थी की हैसियत से एम.ए. की परीक्षा दी। गाइड्स पढी और दो-चार कविताएं रट डाली। मुक्तिबोध हमें सलाह देते रहे कि तुम ध्यान देकर पढ़ो। मैं कब मानता। बहरहाल मुझे फस्र्ट क्लास और गोल्ड मेडल मिला। क्या इससे हमारी शिक्षा प्रणाली पर कोई रोशनी पड़ती है।
इसके  बाद मुझे मुंबई के  जेवियर्स कालेज में नौकरी मिली। तब तक साहित्य चर्चा तो होती थी। मगर न तो मैंने कायदे से मुक्तिबोध को पढ़ा था न मेरी कोई राय बनी थी। हां 1953 में नई दिशा में छपी मेरी कहानी पुल ने नीचे उन्हें काफी पंसद थी। मुक्तिबोध इसमें दोस्तोवस्की की झलक देखते थे।
मैंने मुम्बई आकर पढ़ना शुरू किया। आज मैं मानता हूं कि एक साहित्यिक की डायरी अनूठी कृति है। यह हिंदी की सर्वोत्तम पुस्तकों में एक है। मगर मुक्तिबोध का माक्र्सवाद मेरी समझ से बाहर है। मुक्तिबोध मंे कहीं तो अज्ञेय की अनुगूंजें हैं और कहीं वो प्रगतिवादी हैं। मुक्तिबोध का कोई निश्चित जीवन दर्शन नहीं है। वह एक सफरर थे। सेन्टीमेंट्स भी थे। उनमें मगर दर्शन को उन्होंने आत्मसात नहीं किया... मैं मुक्तिबोध को एक सफल गद्यकार और एक असफल कवि मानता हूं।
             मुक्तिाबेध के  समकालीन अनेक कवियों में कोई तो आपको अच्छा लगता होगा?
-मैं आज तक जान न सका कि तार शप्तक के  माध्यम से जो कई कवि स्थापित हैं, वो क्यांे कवि हैं। इसी तरह दूसरे कुछ और भी... अब शमशेर, त्रिलोचन, अज्ञेय इनको तो मैंने कभी पसंद नहीं किया। इनके  मुकाबले मुझे भवानी प्रसाद मिश्र की भाव प्रवणता काफी अच्छी लगती है। अज्ञेय तो के वल प्रयोग को मुख्य मानते थे। निराला ने अपनी कविताओं से नई कविताओं का जो रास्ता खोला था उस पर अज्ञेय ने प्रयोगवादी झंडियां लगा दी थीं और मौलिक क्या किया।
ऐसे कई कवियों में न कथ्य है न जीवन दर्शन न सौन्दर्यानुभूति है। फार्म का भी बुरा हाल है। अज्ञेय का षड्यंत्र था। हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद को तोड़ना। वो उन्होंने अपने अनुयायियों की राहत सहायता से किया। नई कविता आज तक अपना दार्शनिक आधार नहीं तलाश पायी है। नए कवियों को न छंद की समझ है न भाषा की ताकत की परख। लय और ध्वनि की जानकारियां तो नदारद हैं। आप बताइये कि मैं रघुवीर सहाय और प्रयाग शुक्ल को क्यूं पढ़ंू। इन सबसे बढ़ियां पंक्तियां तो कटा हुआ आसमान में मिल जाएंगी।
             आज कहानी में जो लिखा जा रहा है, उसके  बारे में आप क्या सोच रहे हैं?
-आज अधिकतर लेखकों की रचनाएं तो पढी ही नहीं जाती। मुझे उदय प्रकाश ने प्रभावित किया है। छप्पन तोले का करधन बहुत अच्छी कहानी है। संजीव की कुछ कहानियां बहुत अपील करती हंै। अखिलेश की चिट्ठी और शापग्रस्त कहानियांे ने मेरे मन को छुआ। उदय प्रकाश मंे, मुझे क्षमता होने के  बावजूद जीवन दर्शन की कमी अखरती है। अखिलेश में भी फिलहाल मैं जीवन दृष्टि का स्पष्ट रूप नहीं पाता हूं, जो मेरी समझ में बहुत जरूरी है। इसके  बावजूद उदय प्रकाश और अखिलेश की कहानियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं... जीवन दर्शन की बात बारबार इसलिए उठाता हूं। क्योंकि इसके  बिना कोई भी रचनाकार बहुत दूर तक नहीं जा सकता।
Dr. Yogesh mishr

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