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इसके आगे क्या कहें जानम समझा करो...

Dr. Yogesh mishr
Published on: 21 March 1998 10:08 PM IST
अवध की सांस्कृतिक विरासत और तहजीब की तस्वीर को अपने स्वरों में पिरोने में सफल आशा भोंसले की गायिका का उछाह आज आज देखने लायक था। आज की शाम आशा भोंसले के  गानों के  विभिन्न मूड्स के  कोलाज रचने की शाम थी। दस ‘दस हजार आठ सौ आशाओं के  पल’ तक अपनी आवाज का जादू लोगों को मदहोश किये रहा। आज की शाम आशा भोंसले की शाम थी। उन्होंने आज अपनी गायिकी की मिठास और आवाज की हरकत से लखनऊ को सराबोर कर दिया। वे गाती हुई चहकीं और लोगों को कई बार बहकाया भी। तीन घण्टे के  अपने इस यादगार कार्यक्रम में उन्होंने अपने गुजरे पचास सालों के  स्याह-सफेद पन्नों से भरे गीतों को चुन-चुन कर परोसा। मेलोडी क्वीन आशा भोंसले के  शोक गीत में जहां रुला देने की संवेदना थी वहीं उनकी जादुई आवाज में श्रोताओं को गीतों के  तिलिस्म में लाकर खड़ा कर देने की ताकत भी थी।
पूरे कार्यक्रम में आशा भोंसले और लखनऊ में एक दूसरे को नवाजने की होड़ सी रही। मुजफ्फर अली की उपस्थिति को यादगार बनाने के  लिए उन्होंने अपने कार्यक्रम में महज गाया ही नहीं, गुदगुदाया भी। अपने पचास वर्षों के  गायिकी के  इतिहास को दिखाया भी। वे चाह रही थीं कि लखनऊ की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘उमराव जान’ से उनके  जीवन में पुरस्कार का जो सिलसिला शुरू हुआ उसकी कर्ज अदायगी आज के  यादगार कार्यक्रम से कर दी जाये। इसके  लिए उन्होंने जहां श्रोताओं का अपने गीतों के  माध्यम से महज मनोरंजन ही नहीं, खैरमकदम भी किया वहीं श्रोताओं ने उनका खासा इस्तकबाल करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। संगीत के  सात सुरों में बंधने के  बाद भी वे आज बेहद खुली-खुली रहीं। कार्यक्रम की शुरूआत उन्होंने तहजीब के  शहर लखनऊ की फिल्म ‘उमराव जान’  के  गीत ‘दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए’ से की। तीसरी मंजिल के  गाने ‘ओ मेरे सोना रे सोना रे सोना’ के  पायदान तय करते हुए मुखड़ा और गीतों के  तादाद में तीस का अंक उन्होंने जोड़ा।
हरे रामा हरे कृष्ण फिल्म के  गीत ‘दम मारो दम, मिट जाये गम’ गाते ही उन्होंने दर्शकों को उनके  निजी गम से बाहर खींच कर खड़ा कर दिया। वे खुद गाने के  बीच-बीच में धुएं के  बीच में खोती रहीं पर इस हिप्पी गीत से उन्होंने जो रोमांच पैदा किया उसका परिणाम था कि एम.बी. क्लब की पूरी की पूरी धरती नाच रही थी।
1943 में अपने जीवन का पहला गाना गाने वाली आशा भोंसले ने 1948 में प्रदर्शित सुनरिया फिल्म में जोहराबाई अम्बाला वाली और गीतादत्त के  साथ पहला हिन्दी गाना गाया था। अपनी गीत यात्रा को रेखांकित करते हुए उन्होंने जहां शमशाद बेगम, नूरजहां, गीतादत्त और लता मंगेशकर के  बीच से रास्ता बनाने की कथा सुनायी वहीं इनके  गाने की स्टाइल की क्षमा याचना सहित खासी मिकरी भी की। उन्होंने अपनी गायन शैली के  लिए कैवन मिरांडा, प्रेसली से हुनर सिखने की बात स्वीकार की। उन्होंने दर्शकों को गुदगुदाने के  लिए खासे ढंग की विसंगतियां भी चुनीं। कुकुरमुत्ते की तरह पसर रही फैशन शो संस्कृति पर व्यंग्य करते हुए आशा भोंसले का कैटवाक स्टाइल के  नाम पर जीने वाली पीढ़ी के  सामने खास ढंग से उभरा।
झुमका गिरा रे, बरेली के  बाजार में, और जरा सा झूम लूं मैं, जरा सा चूम लूं मैं, ‘मोनिका माई डार्लिंग’ गाकर जहां उन्होंने आॅडिएन्स की चाह पूरी की वहीं श्रोताओं को बांधने में कामयाबी पायी। गायिकी और श्रोता दोनों एक दूसरे से प्रभावित दिखे। श्रोताओं के  पसन्द के  कई गाने सुनाने के  साथ ही साथ वे अपनी पसन्द का एक गाना सुनाने से भी नहीं चूंकी। उन्होंने इस गाने की रचना कथा बताते हुए कहा, ‘पहले मैं इस गाने का मजाक उड़ाती थी और बाद में यह मेरे जीवन का हिस्सा बन गया।’ इस गाने के  लिए अट्ठारह साल की दिखने और दिखाने वाली आशा भोंसले शताब्दी पार करके  गम्भीरता के  गह्वर में उतर गयीं और गाने लगीं, ‘मेरा सामान तुम्हारे पास पड़ा है, मेरा वो सामान लौटा दो।’ अगर आशा भोंसले ने श्रोताओं को उनके  पसंदीदा गीत सुनाकर बांधा तो श्रोता भी आशा जी के  पसंदीदा गीत से खुद-ब-खुद बंध गये। दर्शकों को बांधे रहने में दक्ष आशा भोंसले पूरे कार्यक्रम में पूरी शिद्दत के  साथ दर्शकों को इन्वाल्व किये रहीं और बीच-बीच में श्रोताओं को कमिटमेण्ट भी चेक करती रहीं।
नजर की सिफ़त बताते हुए उन्होंने उमराव जान के  ‘इन आंखों की मस्ती के  मस्ताने हजारों हैं’ गाने से खुद को नहीं रोक पायीं। देखा जाये तो यह पूरा कार्यक्रम लखनऊ, उमराव जान और मुजफ्फर अली के  अर्द-गिर्द घूमता रहा। हंसते हुए गाने की स्टाइल वाली आशा भोंसले ने आज कई मिथ तोड़े। उन्होंने जो भी गीत उच्चारा उससे पूरे पचास साल की गायन यात्रा के  बाद भी थकी हुई नहीं दिखीं। कार्यक्रम में प्रकाश आकार लेता रहा, अठखेलियां करता रहा। कई श्रोता प्रकाश को पकड़ कर मंच तक पहुंच जाने की कोशिश करते हुए भी देखे गये। धुएं उठते रहे। स्टेज पर गाती हुई आशा भोंसले और उनकी पार्टी का आदम कद कई बार धुएं में समाया और निकला। लाइट व्यवस्था स्टेज शो करने वालों के  कपड़ों का रंग बदलती रही। तीन पीढ़ियों की नायिकाओं के  लिए गाने वाली बहुआयामी गायिका आशा भोंसले ने आज के  कार्यक्रम का नाम ‘दस हजार आठ सौ आशाओं के  पल’ इत्तेफाक से नहीं बल्कि सोच के  तय किया था। अपनी पचास साल की गायन यात्रा में उन्होंने इतने ही गीत गाये हैं और आज जब वे दुनिया के  कई देशांे को देखने-सुनने के  बाद हिन्दुस्तान को देखने व जानने की शुरूआत लखनऊ से कर रहीं थी तब भी उन्होंने यहां के  दर्शकों को अपनी गायिकी के  इतने ही पल नवाजे थे।
पूरे तीन घण्टे में आशा भोंसले थकी तो नहीं थी फिर भी उन्होंने अपने साथ के  युवा कलाकार बाबुल सुप्रियो को भी काफी वक्त दिया। इन्होंने अपने कैरियर का पहला गाना ‘आती है तो चल...‘ सुनाकर उपस्थिति दर्ज करायी। बाबुल सुप्रियो ने अपनी उपस्थिति को रंगीन बनाते हुए ‘जब कोई बात बिगड़ जाये...’ ‘किसी रोज तुमसे मुलाकात होगी, मेरी जान उस दिन मेरे साथ होगी’ सुनाया। लगता था कि दर्शकों के  साथ सीधे तौर से जुड़ने में बाबुल सुप्रियो ने आशा भोंसले की कला की अनुकृति कर ली थी।
मुसाफिर की तरह निरन्तर गुजरते जा रहे पल को समेट लेने की होड़ आशा भोंसले और श्रोताओं दोनांे की धीरे-धीरे बढ़ती चली गयी। अपने कोरियोग्राफर सन्तोष के  साथ ‘रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना’ गाकर उन्होंने जो ड्यूेट की शुरूआत की थी उसके  लिए दर्शकों को भी आमंत्रण दिया। उनके  आमंत्रण को दर्शकों ने शिद्दत से स्वीकारा। अपने गानों की लम्बी फेहरिस्त से चुनिंदा गानों को गाने के  लिए भी समय की कमी की बात उठाते हुए कुछ मुख्य गानों के  मुखड़े गाये। अपनी गायिकी में वे दर्शकों को थिरने नहीं दे रही थीं। दर्शक गीतों में तिरते रहे। तीन घण्टे के  कार्यक्रम के  बाद भी आशा भोंसले की गायिकी की मिठास अन्त तक नहीं तीरी। गीतों को उन्होंने इतनी ताजगी और खुले पन से गाया कि प्रासंगिकता जीवन्त हो गयी। आशा भोंसले ने लोगों को पुलकाया जरूर लेकिन कुछ नया नहीं पेश किया। उनके  साथ संगत कर रहे साथियांे की थाप, वेग और तमक से संगीत की जो अजश्र धारा बही वह शास्त्रीय धुनों में बहकर इतनी तीरी कि आशा भोंसले ने अपनी टटकी गायिकी से महफिल लूट ली। शायद लोगों पर आशा भोंसले का ग्लैमर और उनकी आवाज का जादू सर चढ़कर बोल रहा था। आशा ने शिफ़त और सिद्दत से इस सफलता से परोसी कि दिखते ही बनता था।
पूरे माहौल में अपने गीतों की गंध बोयी। उनकी गायिकी के  भागीदार हुए श्रोता जैसे अठखेलियां कर रहे प्रकाश को पकड़ लेना चाहते थे वैसे ही वे समय को बांधने की जुर्रत में भी जुटे थे पर दस हजार आठ सौ आशाओं के  पल तो आखिर चुकने ही थे जो चुक गये और आशा को क्या कहना पड़ा, ‘इससे आगे हम और क्या कहें, जानम समझा करो... जानम समझा करो।’
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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