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मेरी आवाज जवान होती जा रही है: आशा भोंसले

Dr. Yogesh mishr
Published on: 23 March 1998 10:35 PM IST
रचनात्मक मनुष्य कभी खाली नहीं बैठा रह सकता। क्योंकि रचनात्मकता उसे कुरेदती रहती है जिससे वह जीवन के  उन पड़ाव की ओर चल निकलता है, जहां आदमी इतिहास बनकर जीता है। अपनी तरह की अके ली गायिका आशा भोसले पिछले पचास सालों से गायिकी की दुनिया में ऐसे पड़ाव पार करती जा रही हैं, जिस ओर बड़े से बड़ा फनकार सोच भी नहीं सकता। लिगेसी कैसेट में बेहतरीन गायिकी के  लिए ग्रेमी अवार्ड की चर्चा अभी थम ही रही थी कि एक और सुर्खी पैदा हो गयी कि साज फिल्म की कहानी इन्हीं बहनों की की जिंदगी पर आधारित है और प्यार हो गया, दौड़ फिल्म के  लोकप्रिय गीतों के  साथ-साथ जानम समझा करो एलबम ने आजकल खासी धूम मचा रखी है। मोमेन्ट्स इन टाइम शो के  माध्यम से अमरीका में भारतीय संगीत की धमक दर्ज कराने वाली आशा भोंसले ने यहां से कल अपने भारत दर्शन कार्यक्रम की शुरूआत की। तहजीब के  शहर लखनऊ को इस कार्यक्रम के  लिए चुनने के  पीछे उन्होंने लखनऊ के  प्रति अपनी निजता बतायी। संगीत के  साथ-साथ अपनी आत्मकथा लिख रही पत्रकारों से दूर रहने वाली आशा भोंसले दो दिन की मेहनत के  बाद साक्षात्कार के  लिए राजी हो सकीं और यह कहते हुए लखनऊ तहजीब का शहर है कल मुझे जितना प्यार मिला, उसे देखते हुए आपको इंकार कर पाना कठिन लगता है। समस्त भारतीय भाषाओं में गीत गा चुकी आशा भोंसले अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उपलब्धियों की मोहताज नहीं हैं। उनका मानना है हिन्दुस्तान की तीन सौ राग और रागिनियों की जिसे जानकारी है वह विश्व के  किसी भी संगीत से तालमेल बिठा सकता है। मुझे खुशी है कि युवाओं का एक वर्ग जमीन से जुड़े रागों की तरफ आकृष्ट हो रहा है। कंठ कोकिला की गायिकी की मिठास और आवाज की हरकत स्टेज के  अलावा बातचीत मंे भी प्रभावी रही। अपनी बात को कहने के  लिए उन्होंने अपने गानों के  विभिन्न मूड्स का सहारा लिया। आज अखबारों में छपी अपने कार्यक्रम के  रिपोर्ट पर अपनी आपत्तियां भी दर्ज करायीं। प्रस्तुत है दस हजार आठ सौ आशाओं के  पल कार्यक्रम के  दूसरे दिन उनसे हुई बातचीत के  मुख्य अंशः-
             कल के  प्रोग्राम के  बारे में आपकी क्या राय है? यहां से आप भारत दर्शन टूर की शुरूआत कर रही हैं। इस दृष्टि से भी आप अपने कार्यक्रम को कहां रखती हैं?
-मेरी समझ में लखनऊ हिन्दुस्तान से अलग है। यहां खाने, कपड़े और आदाब तक की अलग तहजीब है। हम लोगों को बचपन से यह लगता था कि लखनऊ देखना चाहिए। वाजिद अली शाह के  गाने, बाबुल मेरो नैहर छूटा जाय पर अक्सर हम और भाई बात करते थे। मुझे खाना बनाने का बेहद शौक है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मैं लखनऊ के  खाना बनाने का तरीका और खाने की डिश सीखती हूं। मैंने मुजफ्फर अली जी के  खानसामे से कई डिश बनानी सीखी है। सच कहें तो यहां हर चीज में वो है। कल यहां की पब्लिक को देखा। बच्चों से लेकर मेरे ऐजग्रुप तक के  लोग इंज्वाय कर रहे थे। हम तो कल के  कार्यक्रम को बेहद सफल मानते हैं। वैसे तो मूल्यांकन का अधिकार श्रोताओं और लखनऊवासियों का है। अगर इसे टूर के  शुरूआत की निगाह से देखा जाय तो बिस्मिल्लाह अच्छा कहा जाएगा।
             आपने विदशों में तमाम शो किए हैं। बाहर की आॅडियंस और यहां की आॅडियंस में क्या फर्क है?
-देखिए बाहर का आॅडियंस ट्रेंड हो चुका है। इंग्लिश शो देखते-देखते उन्हें बिहैव करना आ गया है। वे जानने लगे हैं कि कलाकार को रिस्पेक्ट देना पड़ता है। आॅडियंस से गलत किस्म की आवाजें नहीं आती हैं। लेकिन वहां भी सब कुछ बदल रहा है। नई जनरेशन अपने जैसी ही है।
             आखिर इन टिप्पणियांे पर आपको आपत्ति क्यों है? सूट पहनना और नकल करना क्या और कितना गलत है?
-देखिए मैं सूट पहनने को गलत नहीं मानती। मैं हरदम साड़ी पहनती हूं। इसलिए साड़ी की बात लिखना अच्छा लगता है। मैंने आज तक कभी पंजाबी सूट नहीं पहना। हां स्टेज शो के  समय साड़ी का पल्लू न खिसके  इसलिए गाउन पहन लेती हूं। अपनी बात को साफ करते हुए वे कहती जा रही थीं कि मैं पाइरेसी और रीमिक्सिंग की मुखालफत करती हूं। इसलिए मुझे किसी की नकल करने का अधिकार नहीं रह जाता है। बेसिकली मंैने कल यह बताया कि मैंने जब फिल्म लाइन में गाना शुरू किया था, तब मैं 13-14 साल की थी। तब गाने वालियां उम्र व गाने में मुझसे बहुत बड़ी थीं। वे कितना अच्छा गाती थीं। मेरी और दीदी की आवाज मिलती थी मगर मैं उसी तरह गाती तो मुझे कोई क्यों चांस देता। आज असल नहीं है। इसलिए नकल चल पड़ा है। मुझे पहचान बनाने के  लिए अलग से गाना पड़ा। कैरेबियन, मिराण्डा नामक इटैलियन गायिका से प्रभावित होकर मैंने पाॅप गाने की अपनी स्टाइल विकसित की। मेरी अलग पहचान बन गयी और मुझे काम मिलने लगा। यह एक शो बिजनेस है। इस पर लिखते समय अखबार वालों को संयम बरतना चाहिए।
             क्या आपको नहीं लगता कि आज के  गानों में मेलोडी गायब हो रही है?
-चेंज तो हो गया है। एक टाइम था जब हिंसा की फिल्में आई थीं, तब ऐसा हुआ था। परंतु इधर पुराने गानों से मुखड़ा, अंतरा लेकर गाने बन रहे हैं। मैं यह नहीं कहती कि सब गाने अच्छे नहीं होते। देखिए न मैं आज ही एमटीवी पर एक गाना देख रही थी। मुझे गाने के  बोल तो नहीं याद हैं लेकिन गाने में न कोई सेन्स था और डीप मीनिंग खुमार बाराबंकवी, नक्श लायलपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी के  गानों को देखिए, उसमें कितनी डेफ्थ थी। जो नजाकत सत्तर साल के  इन लोगों में है, वो आज कहां देखने को मिलती है। देखिए ये लो तुम तो दिल्लगी में गुस्सा गए, यह नजाकत तो लखनऊ में अवध में ही आ सकती है।
             क्या आपको पुराने गीतकारों के  न रहने का असर आज के  गीतों में खटकता है?
-देखिए आपकी बात काफी हद तक सही है लेकिन आज भी अच्छे गाने मेलोडियस गाने चुके  नहीं हैं। कम जरूर हुए हैं।
             अपनी जादुई आवाज के  बारे में आपकी क्या राय है?
-यह तो श्रोताओं का प्यार जो मुझे अच्छा गाने के  लिए प्रेरित करता है। श्रोताओं की पीढ़ियां बदलने के  बावजूद अगर हर पीढ़ी के  लोग मुझे सुनना पसंद करते हैं तो यह मेरी खुश किस्मती है।
             क्या आप मानती हैं कि बढ़ती उम्र के  साथ-साथ आवाज भी प्रभावित होती है?
-इसका ठीक जवाब तो सुनने वाले ही दे सकते हैं। मेरी आवाज में फर्क आया है या नहीं। वैसे मुझे जो फीडबैक मिलता है उसके  अनुसार मैं कह सकती हूं कि सुनने वाले तो यही कहते हैं जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही है आवाज और जवान होती जा रही है।
             पाॅप सांग का आपको क्या भविष्य लगता है?
-चक्कर है हमेशा बदलता रहता है। बीच में कव्वाली और कैबरे का जमाना था। बदल गया। आज दिल तो पागल है, हम आपके  हैं कौन चलने के  पीछे सच यह है कि इसमें मारामारी नहीं है। विलेन नहीं है। चालीस आदमी के  साथ हीरो लड़ता नहीं है।
             लता जी अब कम गाती हैं?
-उनको तीन घंटे खड़ा होना मुश्किल है। दीदी शुरू से ही नाजुक किस्म की हैं। हम बिल्कुल उल्टे हैं। जिसको मन बना लेता हैं, टक्कर भी देते हैं। उनकी बातचीत में भी स्वर की मादकता और आवाज की सोखी बरकरार थी। यह कहने पर कि कल से ट्राई कर रहे हैं, बोल उठीं-रचनात्मक मनुष्य कभी खाली नहीं बैठ सकता। क्योंकि रचनात्मकता उसे कुरेदती रहती है। इसीलिए खाली नहीं थी। देखिए न, जबसे आप लोगों से सुना है खुमार साहब हैं और बीमार हैं तो मन करता है बाराबंकी हो आऊं और उनकी रचनात्मकता उन्हें बाराबंकी की ओर लेकर चल देती है।


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Dr. Yogesh mishr

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