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शिक्षा प्रणाली की विसंगति है नकल
मैकाले की शिक्षा पद्धति पर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सवालिया निशान लगाया और शिक्षा प्रणाली पर विमर्श का अवसर भ्ज्ञी दिया था लेकिन राज्य और के न्द्र दोनों सूचियों में शिक्षा का होना कोई कारगर और ठोस निष्कर्ष पर पहुंच पाने की दिशा में बाधक बना। आजादी के पचास सालों में एक बार हमारी शिक्षा विवाद और विमर्श के के न्द्र में आयी परन्तु प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जब-जब सरकार आयी है तब-तब शिक्षा संज्ञेय/असंज्ञेय अपराधों, नकल अध्यादेश और पाठ्यक्रम के सवाल को लेकर विवाद और वितण्डा का विषय बन उठी है। प्रदेश सरकार ने 1992 में जारी अध्यादेश/अधिनियम को संशोधित तरीके से फिर जारी किया है। 1992 में जब प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की कल्याण सिंह के नेतृत्व मंे सरकार थी तब भी नकल अध्यादेश को लेकर सरकार को घेरने की मुहिम चली। कुछ राजनीतिक समीक्षक तो यहां तक कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार जाने के पीछे जो ढेर सारे कारण थे उसमें नकल विरोधी अध्यादेश की कड़ाई और समाजवादी पार्टी द्वारा नकल अध्यादेश की ज्यादतियों के खिलाफ लोगों को लामबन्द कर लेना एक महत्वपूर्ण कारण था।
शिक्षा के विषय को लेकर भारतीय जनता पार्टी की हमेशा से एक अलग दृष्टि रही है। उसकी दृष्टि क्या और कैसी है यह अलग विषय है। पाठ्य पुस्तकों की विषय समग्री में कौन-कौन से विषय लिए जाने चाहिए, कौन-कौन से राष्ट्र नायकों को पढ़ाया जाना चाहिए इस विषय पर आजादी के पचास साल बाद भी गम्भीरता से काम नहीं हुआ। एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा आज तक एक भी ऐसी पुस्तक का निर्माण नहीं हुआ जिसे अखिल भारतीय स्तर पर प्राइमरी और जूनियर स्कूलों में पढ़ाया जा सके । उत्तर प्रदेश के विद्यार्थी को उड़ीसा और तमिलनाडु़ की सामाजिक सांस्कृतिक परम्परा की जानकारी कराये बिना उसकी आत्मा को इस विशाल देश की आत्मा के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है? इन विषयों पर पता नहीं क्यों देश की एकता और अखण्डता की बात करने वाले लोगों का ध्यान नहीं गया? इसी दृष्टि का परिणाम है कि जब राजीव गांधी द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू कर राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा बनाने की बात कही गयी और इन निर्देशों को राज्य सरकार के हवाले छोड़ दिया गया तो भाजपा ने उसका खासा फायदा उठाया।
शिक्षा के सवाल को लेकर आज भारतीय जनता पार्टी सदन के पहले दिन समाजवादी पार्टी के घेरे में है। बोर्ड की परीक्षाएं आरंभ हो चुकी हैं। समाजवादी पार्टी इस बार फिर भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त देने के लिए नकल अध्यादेश को हथियार बनाना चाहती है। लेकिन 1992 में जारी नकल अध्यादेश से सबक लेते हुए भारतीय जनता पार्टी ने इस बार जो नकल अध्यादेश का प्रारूप जारी किया है उसमें तमाम संशोधन करके पिछली बार हुए नुकसान से सबक लेने का प्रमाण उपस्थित है। 1992 में सरकार ने नकल को गैरजमानती अपराध बनाया था परन्तु अबकी इसे जमानती बनाते हुए एक वर्ष तक के कारावास एवं/या दो हजार रूपये तक के दण्ड में शिथिलता बरतते हुए सजा की अवधि घटाकर तीन माह कर दी है। इतना ही नहीं, जुर्माने की राशि को सजा के साथ या स्वतंत्र रूप से दो हजार रूपये ही रखा है। इस बार नकल अध्यादेश के निशाने पर नकल करने वालों की जगह नकल कराने वाले हैं। अध्यादेश में नकल कराने वालों को गंभीरता से लिया गया है। पहले अध्यादेश में नकल कराने वालों के लिए छह माह तक का कारावास और दो हजार रूपए के जुर्माने की व्यवस्था थी परन्तु प्रस्तावित अध्यादेश में नल कराने वालों के लिए एक वर्ष तक के कारावास या पांच हजार रूपये तक अथवा दोनों की व्यवस्था है। पहली बार नकल करना एक संज्ञेय अपराध था। अबकी नकल कराना संज्ञेय और गैर जमानती बना दिया गया है। हिंसात्मक तरीके से नकल करने और कराने की दिशा में दोनों अध्यादेशांे में कोई अन्तर नहीं है। इस अध्यादेश को देखने के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार को सदन और बाहर घेरने वालों की यह तो समझ में आ ही गया होगा कि नकल करने वालों की तुलना में कराने वालों की संख्या काफी कम है और नकल कराने को उद्योग के रूप में चलाने वाले अभिभावक नहीं शिक्षा माफिया हैं। जिनकी संख्या इतनी कम है कि उनके बूते पर सरकार के खिलाफ कोई अलख नहीं जगाया जा सकता है।
नकल अध्यादेश जारी करने के बाद मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने 21 मार्च को प्रधानाचार्यों एवं जनता के नाम भेजे अपने पत्र में साफतौर पर लिखा है, हमने एक और निर्णय नयी पीढ़ी का भविष्य उज्जवल बताने के लिए लिया है। यह निर्णय है नकल मुक्त परीक्षा। उन्होंने यह स्वीकार किया है कि नकल गिने-चुने लोग कराते हैं लेकिन पूरा समुदाय पूरी शिक्षा प्रणाली और परीक्षा व्यवस्था बदनाम होती है। इससे सरस्वती के पवित्र मन्दिर में नकल कराने वाले समाजविरोधी माफियाओं का वर्चस्व बढ़ता है तथा ज्ञान के के न्द्र, हमारे विद्यालय अनुचित कमाई के अड्डे बन जाते हैं। नकल का सहारा लेने वाले प्रतिभाहीन छात्र धनबल या बाहुबल के जरिये अधिक अंक पा जाते हैं दूसरी और साधनहीनता के जरिये रात-दिन अध्ययन करने वाले प्रतिभाशील छात्र कम अंक पाते हैं जिससे उनका मनोबल गिरता है, उनमें कुण्ठा पैदा होती है। नकल से परीक्षा में तो पास हुआ जा सकता है लेकिन प्रतिभा का विकास नहीं होता। डिग्रियांे के बावजूद वे उच्च पदों की प्रतियोगी परीक्षा में सफल नहीं हो पाते और असफलता उन्हें हीनभावना का शिकार बना देती है। जरा सोचिये, जो जमीन बंजर है उसके होने से क्या लाभ? जिस पौधे में बालें न आ सकें, उस पौधे से क्या लाभ है? जिस नलकूप से पानी न मिल सके उस नलकूप से क्या लाभ है? ठीक इसी प्रकार यदि विद्यार्थी को वास्तविक ज्ञान नहीं मिल पाया तो उसके पढ़ने से क्या लाभ है? मैं साफतौर पर बताता हूं कि हमने नकल मुक्त परीक्षा इसलिए लागू की है कि विद्यार्थी पढ़ें-लिखें और ज्ञानवान बनें। नकल के सहारे उसी तरह कोई विद्यार्थी जीवन में आगे नहीं बढ़ता जैसे कोई व्यक्ति बैसाखी लगातार तेज गति से नहीं चल पाता।
कल्याण सिंह के पत्र पर गौर करें तो कुछ सवाल तो साफ होते ही हैं कि भारतीय समाज का अवमूल्यन कैसे हुआ उसकी गहराई में जाने पर एक जो बड़ा कारण हमें मिलता है। वह हमारी बुनियादी शिक्षा नीति का गलत और अवैज्ञानिक होना है। आज के तमाम ज्वलन्त राष्ट्रीय मुद्दों की जड़ में दरअसल असली मुद्दा राष्ट्रीय शिक्षा का है। मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य या दुर्भाग्य एक ही बात में है और वह कि मनुष्य को जन्म के साथ कोई सुनिश्चित स्वभाव नहीं मिला। मनुष्य को खुद अपने को ढालना और निर्माण करना होता है, जीवन निर्मित करना होता है। इसलिए मनुष्य को शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम जीवन की कला सीख लें अगर कोई भी शिक्षा प्रणाली, परीक्षा प्रणाली मनुष्य में, समाज में और देश में इसका विकास कर सकती है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह बात भी सच है कि नकल हमारी शिक्षा प्रणाली की ऐसी कोढ़ है जिससे लेट-लतीफ निपटने के लिए किसी न किसी को बिल्ली के गले में घंटी बांधना ही पड़ेगा। अब सवाल यह उठता है कि लोकतंत्र में जहां मत की महत्ता का दृश्य के न्द्र और राज्य सरकारों में खुलेतौर से देखा और खेला जा रहा हो वहां किसी राजनीतिक पार्टी को ऐसी कौन से जरूरत आन पड़ी है कि वह इतने महत्वपूर्ण कार्य के लिए संकल्प करे। वह भी एक ऐसी स्थिति में जब शिक्षा सम्बन्धी भ्रान्ति खड़ी करने में राजनीतिज्ञों ने काफी योगदान किया हो और वे सदा अपने न्यस्त स्वार्थों के कारण परिवर्तन के विरोधी रहे हों।
इन स्थितियांे में भारतीय जनता पार्टी के नकल अध्यादेश पर सवाल और संशय उठना लाजिमी है क्योंकि पूर्व में भी भाजपा के तमाम निर्णयों ने समाज के सामने चैकाने वाले परिणाम रखे हैं। अगर पूर्व के निर्णयों से कटकर नकल अध्यादेश, शिक्षा प्रणाली और आज के समाज की जरूरतों पर गम्भीरता से विचार करें तो नकल की कला को कला मानने की खुली स्वीकृति राजनीतिक पार्टियों के अलावा देने की किसी में ताकत नहीं है। सत्य के साथ प्रयोग और अपनी आत्मकथा में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने स्कूली दिनों की चर्चा करते हुए एक दिलचस्प वाकया लिखा है। आत्मकथा के भाग एक बचपन शीर्षक मं उन्होंने लिखा है कि पोरबन्दर से पिताजी राजस्थानी कोर्ट के सदस्य होकर राजकोट गये। मैं राजकोट की ग्राम पाठशाला में पढ़ने भेजा गया।... हाईस्कूल के पहले ही साल की परीक्षाकाल की, एक घटना उल्लेखनीय है। शिक्षा विभाग के इन्सपेक्टर जाइल्स स्कूल के मुआइने के लिए आए थे। उन्होंने पहले दर्जे के लड़कों को पांच शब्द लिखवाये। उनमें एक शब्द के टल (ज्ञमजजसम) था। उसके हिज्जे मैंने गलत लिखे। मास्टर ने मुझे अपने बूट की नोक से चेताया पर मैं क्यों चेतने लगा! मैं यह सोच न सका कि मास्टर मुझे सामने के लड़के की स्लेट देखकर हिज्जे दुरूस्त कर लेने का इशारा कर रहे हैं। मैंने तो यह मान रखा था कि मास्टर वहां इसके लिए तैनात हैं कि हम एक-दूसरे की नकल न कर सकें। सब लड़कों के पांचों शब्द सही निकले, अके ला मैं बेवकूफ बना। मेरी मूर्खता मास्टर ने मुझे बाद को बतलायी, पर मेरे मन पर उसका कोई असर न हुआ। मुझे दूसरे लड़कों का नकल करना कभी न भाया।
सत्य के साथ प्रयोग वस्तुतः कठिन तो होता ही है। क ऐसे समय जब आदमी में सत्य के साथ प्रयोग का आत्मबल स्वतः मर रहा हो हम कौन होते हंै जो कक्ष निरीक्षक की तरह उसे संके त करें। शिक्षक वही है जो प्रसुप्त और अनसुलझी का हल दें। जिज्ञासा को जागृत कर दें और बच्चों को उनके स्वयं के अनुसंधान के लिए साहस और उत्साह से भर दें। लेकिन कोई भी व्यक्ति इस अर्थ में शिक्षक तभी हो सकता है, जबकि वह स्वयं आग्रहों और पक्षपातों से मुक्त हो। शिक्षक होना एक साधना है। शिक्षक होने के लिए अत्यन्त विद्रोही सजग और सचेत होना पड़ता है। जिन शिक्षकों में विद्रोही अग्नि नहीं है वे जाने या अनजाने किसी स्वार्थ, नीति, धर्म या राजनीति के पोषक है क्योंकि तब यह उन पक्षपातों और उन धारणाओं को बच्चों पर आरोपित करने लगता है जिनमें िकवह स्वयं पैदा हुआ होता है।
अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने बच्चे को विद्यालय भेजते समय अध्यापक के नाम, ‘ऐसे ढालो मेरे बच्चे को’ शीर्षक से एक पत्र भेजा था। जिसमें उन्होंने लिखा था, मैं जानता हूं कि उसे यह सीखना होगा कि सभी आदमी ईमानदार नहीं होते, सभी सच्चे नहीं होते। लेकिन उसे यह भी सिखाइये कि जितने दुष्ट हैं उतने ही नायक भी हैं, जितने स्वार्थी राजनीतिज्ञ है उतने समर्पित नेता भी हैं।... स्कूल में उसे यह सिखाइये कि असफल होना ब्रइमानी करने से कहीं ज्यादा सम्मानजनक हैं। उसे अपने खुद के विचारों में आस्था रखना सिखाइये, भले ही हर कोई कह रहा हो ि कवे गलत है। मुझे मालूम है, इसमें समय लगेगा, पर अगर आप कर सकें तो उसे यह सिखइये कि खुद अर्जित किये एक डालर की कीमत कहीं से मिल गये पांच डालरों से ज्यादा होती है। उसे बताइये कि वह हार को स्वीकार करना सीखे।... और जीत का आनंद करना भी। उसे ईष्र्या से दूर ले जाइये। उसे कम उम्र में यह सीखने दीजिये कि बदमाशों को पीटना सबसे आसान होता है।... उसे पुस्तकों की अद्भुत दुनिया के बारे में बताइये।... लेकिन उसे आकाश में उड़ते पक्षियों, धूप में फिरती मधुमक्खियों और हरी पहाड़ियों पर खिले फूलों के शाश्वत रहस्य पर दिमाग दौड़ाने के लिए भी तो समय दीजिये।’
महात्मा गांधी और लिंकन इन दोनों की बातों पर गौर करें तो हमें यह देखना और समझना पड़ेगा कि शिक्षा प्रणाली के माध्यम से हम अपने छात्रों/बच्चों को क्या और कैसा दे रहे हैं? नकल जैसी समस्या के माध्यम से छात्रों को हथियार बना रहे हैं? हमें यह सोचना चाहिए कि अनुशासन आता कैसे है? यह बात तो साफतौर पर तय है कि नकल हमारी शिक्षा प्रणाली की यह विसंगति है जिसके नाते हमारा छात्र बड़ी-बड़ी परीक्षाएं उत्तीर्ण करके भी बेरोजगारी की कतार को लम्बी करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाता। और शिक्षा जिन मायनों और संदर्भो में जरूरी समझी जाती है उसे भी नकल पूरी करने नहीं देती है। एक तरफ जहां सरकार की नयी नीतियों की वजह से सारा माहौल ही प्रतियोगी हो उठा है वहां नकल की बैसाखी के सहारे डिग्रियां हासिल करने को औचित्य पूर्ण कैसे ठहराया जा सकता है? नकल विरोधी अध्यादेश के खिलाफ खड़े होने के बौद्धिक-राजनीतिक प्रयासांे से जरूरी तो यह लगता है कि नकल को हटाने के लिए हम कोई नया चिन्तन दें। वैसे यह बात भी सही है कि हमारी शिक्षा प्रणाली हमारे समाज और जरूरतों का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। एक ऐसे समय जब शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन पर सवाल उठाया जाना चाहिए नकल विरोधी अध्यादेश के खिलाफ खडे़ होने की जनतांत्रिक नीति का राजनीतिक एजेण्डा बन पाना सम्भव नहीं दिखता है। जरूरत नकल रोकने के बौद्धिक हल और बच्चों में महात्मा गांधी के सत्य के साथ प्रयोग जैसा आत्म विश्वास पैदा करने की प्रेरणा जागृत करने की है। आइये, हम सभी अपने बच्चों के लिए भी एक पत्र लिखें-ऐसे ढालो मेरे बच्चों को।’
शिक्षा के विषय को लेकर भारतीय जनता पार्टी की हमेशा से एक अलग दृष्टि रही है। उसकी दृष्टि क्या और कैसी है यह अलग विषय है। पाठ्य पुस्तकों की विषय समग्री में कौन-कौन से विषय लिए जाने चाहिए, कौन-कौन से राष्ट्र नायकों को पढ़ाया जाना चाहिए इस विषय पर आजादी के पचास साल बाद भी गम्भीरता से काम नहीं हुआ। एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा आज तक एक भी ऐसी पुस्तक का निर्माण नहीं हुआ जिसे अखिल भारतीय स्तर पर प्राइमरी और जूनियर स्कूलों में पढ़ाया जा सके । उत्तर प्रदेश के विद्यार्थी को उड़ीसा और तमिलनाडु़ की सामाजिक सांस्कृतिक परम्परा की जानकारी कराये बिना उसकी आत्मा को इस विशाल देश की आत्मा के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है? इन विषयों पर पता नहीं क्यों देश की एकता और अखण्डता की बात करने वाले लोगों का ध्यान नहीं गया? इसी दृष्टि का परिणाम है कि जब राजीव गांधी द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू कर राष्ट्रीय पाठ्यक्रम ढांचा बनाने की बात कही गयी और इन निर्देशों को राज्य सरकार के हवाले छोड़ दिया गया तो भाजपा ने उसका खासा फायदा उठाया।
शिक्षा के सवाल को लेकर आज भारतीय जनता पार्टी सदन के पहले दिन समाजवादी पार्टी के घेरे में है। बोर्ड की परीक्षाएं आरंभ हो चुकी हैं। समाजवादी पार्टी इस बार फिर भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त देने के लिए नकल अध्यादेश को हथियार बनाना चाहती है। लेकिन 1992 में जारी नकल अध्यादेश से सबक लेते हुए भारतीय जनता पार्टी ने इस बार जो नकल अध्यादेश का प्रारूप जारी किया है उसमें तमाम संशोधन करके पिछली बार हुए नुकसान से सबक लेने का प्रमाण उपस्थित है। 1992 में सरकार ने नकल को गैरजमानती अपराध बनाया था परन्तु अबकी इसे जमानती बनाते हुए एक वर्ष तक के कारावास एवं/या दो हजार रूपये तक के दण्ड में शिथिलता बरतते हुए सजा की अवधि घटाकर तीन माह कर दी है। इतना ही नहीं, जुर्माने की राशि को सजा के साथ या स्वतंत्र रूप से दो हजार रूपये ही रखा है। इस बार नकल अध्यादेश के निशाने पर नकल करने वालों की जगह नकल कराने वाले हैं। अध्यादेश में नकल कराने वालों को गंभीरता से लिया गया है। पहले अध्यादेश में नकल कराने वालों के लिए छह माह तक का कारावास और दो हजार रूपए के जुर्माने की व्यवस्था थी परन्तु प्रस्तावित अध्यादेश में नल कराने वालों के लिए एक वर्ष तक के कारावास या पांच हजार रूपये तक अथवा दोनों की व्यवस्था है। पहली बार नकल करना एक संज्ञेय अपराध था। अबकी नकल कराना संज्ञेय और गैर जमानती बना दिया गया है। हिंसात्मक तरीके से नकल करने और कराने की दिशा में दोनों अध्यादेशांे में कोई अन्तर नहीं है। इस अध्यादेश को देखने के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार को सदन और बाहर घेरने वालों की यह तो समझ में आ ही गया होगा कि नकल करने वालों की तुलना में कराने वालों की संख्या काफी कम है और नकल कराने को उद्योग के रूप में चलाने वाले अभिभावक नहीं शिक्षा माफिया हैं। जिनकी संख्या इतनी कम है कि उनके बूते पर सरकार के खिलाफ कोई अलख नहीं जगाया जा सकता है।
नकल अध्यादेश जारी करने के बाद मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने 21 मार्च को प्रधानाचार्यों एवं जनता के नाम भेजे अपने पत्र में साफतौर पर लिखा है, हमने एक और निर्णय नयी पीढ़ी का भविष्य उज्जवल बताने के लिए लिया है। यह निर्णय है नकल मुक्त परीक्षा। उन्होंने यह स्वीकार किया है कि नकल गिने-चुने लोग कराते हैं लेकिन पूरा समुदाय पूरी शिक्षा प्रणाली और परीक्षा व्यवस्था बदनाम होती है। इससे सरस्वती के पवित्र मन्दिर में नकल कराने वाले समाजविरोधी माफियाओं का वर्चस्व बढ़ता है तथा ज्ञान के के न्द्र, हमारे विद्यालय अनुचित कमाई के अड्डे बन जाते हैं। नकल का सहारा लेने वाले प्रतिभाहीन छात्र धनबल या बाहुबल के जरिये अधिक अंक पा जाते हैं दूसरी और साधनहीनता के जरिये रात-दिन अध्ययन करने वाले प्रतिभाशील छात्र कम अंक पाते हैं जिससे उनका मनोबल गिरता है, उनमें कुण्ठा पैदा होती है। नकल से परीक्षा में तो पास हुआ जा सकता है लेकिन प्रतिभा का विकास नहीं होता। डिग्रियांे के बावजूद वे उच्च पदों की प्रतियोगी परीक्षा में सफल नहीं हो पाते और असफलता उन्हें हीनभावना का शिकार बना देती है। जरा सोचिये, जो जमीन बंजर है उसके होने से क्या लाभ? जिस पौधे में बालें न आ सकें, उस पौधे से क्या लाभ है? जिस नलकूप से पानी न मिल सके उस नलकूप से क्या लाभ है? ठीक इसी प्रकार यदि विद्यार्थी को वास्तविक ज्ञान नहीं मिल पाया तो उसके पढ़ने से क्या लाभ है? मैं साफतौर पर बताता हूं कि हमने नकल मुक्त परीक्षा इसलिए लागू की है कि विद्यार्थी पढ़ें-लिखें और ज्ञानवान बनें। नकल के सहारे उसी तरह कोई विद्यार्थी जीवन में आगे नहीं बढ़ता जैसे कोई व्यक्ति बैसाखी लगातार तेज गति से नहीं चल पाता।
कल्याण सिंह के पत्र पर गौर करें तो कुछ सवाल तो साफ होते ही हैं कि भारतीय समाज का अवमूल्यन कैसे हुआ उसकी गहराई में जाने पर एक जो बड़ा कारण हमें मिलता है। वह हमारी बुनियादी शिक्षा नीति का गलत और अवैज्ञानिक होना है। आज के तमाम ज्वलन्त राष्ट्रीय मुद्दों की जड़ में दरअसल असली मुद्दा राष्ट्रीय शिक्षा का है। मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य या दुर्भाग्य एक ही बात में है और वह कि मनुष्य को जन्म के साथ कोई सुनिश्चित स्वभाव नहीं मिला। मनुष्य को खुद अपने को ढालना और निर्माण करना होता है, जीवन निर्मित करना होता है। इसलिए मनुष्य को शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम जीवन की कला सीख लें अगर कोई भी शिक्षा प्रणाली, परीक्षा प्रणाली मनुष्य में, समाज में और देश में इसका विकास कर सकती है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह बात भी सच है कि नकल हमारी शिक्षा प्रणाली की ऐसी कोढ़ है जिससे लेट-लतीफ निपटने के लिए किसी न किसी को बिल्ली के गले में घंटी बांधना ही पड़ेगा। अब सवाल यह उठता है कि लोकतंत्र में जहां मत की महत्ता का दृश्य के न्द्र और राज्य सरकारों में खुलेतौर से देखा और खेला जा रहा हो वहां किसी राजनीतिक पार्टी को ऐसी कौन से जरूरत आन पड़ी है कि वह इतने महत्वपूर्ण कार्य के लिए संकल्प करे। वह भी एक ऐसी स्थिति में जब शिक्षा सम्बन्धी भ्रान्ति खड़ी करने में राजनीतिज्ञों ने काफी योगदान किया हो और वे सदा अपने न्यस्त स्वार्थों के कारण परिवर्तन के विरोधी रहे हों।
इन स्थितियांे में भारतीय जनता पार्टी के नकल अध्यादेश पर सवाल और संशय उठना लाजिमी है क्योंकि पूर्व में भी भाजपा के तमाम निर्णयों ने समाज के सामने चैकाने वाले परिणाम रखे हैं। अगर पूर्व के निर्णयों से कटकर नकल अध्यादेश, शिक्षा प्रणाली और आज के समाज की जरूरतों पर गम्भीरता से विचार करें तो नकल की कला को कला मानने की खुली स्वीकृति राजनीतिक पार्टियों के अलावा देने की किसी में ताकत नहीं है। सत्य के साथ प्रयोग और अपनी आत्मकथा में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने स्कूली दिनों की चर्चा करते हुए एक दिलचस्प वाकया लिखा है। आत्मकथा के भाग एक बचपन शीर्षक मं उन्होंने लिखा है कि पोरबन्दर से पिताजी राजस्थानी कोर्ट के सदस्य होकर राजकोट गये। मैं राजकोट की ग्राम पाठशाला में पढ़ने भेजा गया।... हाईस्कूल के पहले ही साल की परीक्षाकाल की, एक घटना उल्लेखनीय है। शिक्षा विभाग के इन्सपेक्टर जाइल्स स्कूल के मुआइने के लिए आए थे। उन्होंने पहले दर्जे के लड़कों को पांच शब्द लिखवाये। उनमें एक शब्द के टल (ज्ञमजजसम) था। उसके हिज्जे मैंने गलत लिखे। मास्टर ने मुझे अपने बूट की नोक से चेताया पर मैं क्यों चेतने लगा! मैं यह सोच न सका कि मास्टर मुझे सामने के लड़के की स्लेट देखकर हिज्जे दुरूस्त कर लेने का इशारा कर रहे हैं। मैंने तो यह मान रखा था कि मास्टर वहां इसके लिए तैनात हैं कि हम एक-दूसरे की नकल न कर सकें। सब लड़कों के पांचों शब्द सही निकले, अके ला मैं बेवकूफ बना। मेरी मूर्खता मास्टर ने मुझे बाद को बतलायी, पर मेरे मन पर उसका कोई असर न हुआ। मुझे दूसरे लड़कों का नकल करना कभी न भाया।
सत्य के साथ प्रयोग वस्तुतः कठिन तो होता ही है। क ऐसे समय जब आदमी में सत्य के साथ प्रयोग का आत्मबल स्वतः मर रहा हो हम कौन होते हंै जो कक्ष निरीक्षक की तरह उसे संके त करें। शिक्षक वही है जो प्रसुप्त और अनसुलझी का हल दें। जिज्ञासा को जागृत कर दें और बच्चों को उनके स्वयं के अनुसंधान के लिए साहस और उत्साह से भर दें। लेकिन कोई भी व्यक्ति इस अर्थ में शिक्षक तभी हो सकता है, जबकि वह स्वयं आग्रहों और पक्षपातों से मुक्त हो। शिक्षक होना एक साधना है। शिक्षक होने के लिए अत्यन्त विद्रोही सजग और सचेत होना पड़ता है। जिन शिक्षकों में विद्रोही अग्नि नहीं है वे जाने या अनजाने किसी स्वार्थ, नीति, धर्म या राजनीति के पोषक है क्योंकि तब यह उन पक्षपातों और उन धारणाओं को बच्चों पर आरोपित करने लगता है जिनमें िकवह स्वयं पैदा हुआ होता है।
अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने बच्चे को विद्यालय भेजते समय अध्यापक के नाम, ‘ऐसे ढालो मेरे बच्चे को’ शीर्षक से एक पत्र भेजा था। जिसमें उन्होंने लिखा था, मैं जानता हूं कि उसे यह सीखना होगा कि सभी आदमी ईमानदार नहीं होते, सभी सच्चे नहीं होते। लेकिन उसे यह भी सिखाइये कि जितने दुष्ट हैं उतने ही नायक भी हैं, जितने स्वार्थी राजनीतिज्ञ है उतने समर्पित नेता भी हैं।... स्कूल में उसे यह सिखाइये कि असफल होना ब्रइमानी करने से कहीं ज्यादा सम्मानजनक हैं। उसे अपने खुद के विचारों में आस्था रखना सिखाइये, भले ही हर कोई कह रहा हो ि कवे गलत है। मुझे मालूम है, इसमें समय लगेगा, पर अगर आप कर सकें तो उसे यह सिखइये कि खुद अर्जित किये एक डालर की कीमत कहीं से मिल गये पांच डालरों से ज्यादा होती है। उसे बताइये कि वह हार को स्वीकार करना सीखे।... और जीत का आनंद करना भी। उसे ईष्र्या से दूर ले जाइये। उसे कम उम्र में यह सीखने दीजिये कि बदमाशों को पीटना सबसे आसान होता है।... उसे पुस्तकों की अद्भुत दुनिया के बारे में बताइये।... लेकिन उसे आकाश में उड़ते पक्षियों, धूप में फिरती मधुमक्खियों और हरी पहाड़ियों पर खिले फूलों के शाश्वत रहस्य पर दिमाग दौड़ाने के लिए भी तो समय दीजिये।’
महात्मा गांधी और लिंकन इन दोनों की बातों पर गौर करें तो हमें यह देखना और समझना पड़ेगा कि शिक्षा प्रणाली के माध्यम से हम अपने छात्रों/बच्चों को क्या और कैसा दे रहे हैं? नकल जैसी समस्या के माध्यम से छात्रों को हथियार बना रहे हैं? हमें यह सोचना चाहिए कि अनुशासन आता कैसे है? यह बात तो साफतौर पर तय है कि नकल हमारी शिक्षा प्रणाली की यह विसंगति है जिसके नाते हमारा छात्र बड़ी-बड़ी परीक्षाएं उत्तीर्ण करके भी बेरोजगारी की कतार को लम्बी करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाता। और शिक्षा जिन मायनों और संदर्भो में जरूरी समझी जाती है उसे भी नकल पूरी करने नहीं देती है। एक तरफ जहां सरकार की नयी नीतियों की वजह से सारा माहौल ही प्रतियोगी हो उठा है वहां नकल की बैसाखी के सहारे डिग्रियां हासिल करने को औचित्य पूर्ण कैसे ठहराया जा सकता है? नकल विरोधी अध्यादेश के खिलाफ खड़े होने के बौद्धिक-राजनीतिक प्रयासांे से जरूरी तो यह लगता है कि नकल को हटाने के लिए हम कोई नया चिन्तन दें। वैसे यह बात भी सही है कि हमारी शिक्षा प्रणाली हमारे समाज और जरूरतों का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। एक ऐसे समय जब शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन पर सवाल उठाया जाना चाहिए नकल विरोधी अध्यादेश के खिलाफ खडे़ होने की जनतांत्रिक नीति का राजनीतिक एजेण्डा बन पाना सम्भव नहीं दिखता है। जरूरत नकल रोकने के बौद्धिक हल और बच्चों में महात्मा गांधी के सत्य के साथ प्रयोग जैसा आत्म विश्वास पैदा करने की प्रेरणा जागृत करने की है। आइये, हम सभी अपने बच्चों के लिए भी एक पत्र लिखें-ऐसे ढालो मेरे बच्चों को।’
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