×

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

Dr. Yogesh mishr
Published on: 20 April 1998 4:14 PM IST
भारतीय मूल के  बहुचर्चित अंग्रेजी लेखक सलमान रुश्दी की पुस्तक ‘सैटनिक वर्सेज’ पिछले तीन वर्षों से निरंतर विवाद का विषय बनी रही। इस उपन्यास के  प्रकाशन के  तुरंत बाद से ही राष्ट्रीय एंव अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में इस कृति के  समर्थन और विरोध में गर्म एंव तीखे वाद-प्रतिवाद होते रहेे हैं। 1988 में सलमान रुश्दी के  खिलाफ ईरान के  धार्मिक नेता अयातुल्लाह खुमैनी द्वारा फतवा जारी किया गया। जिसकी चर्चा अनेक स्तरों पर होती रही। विश्व भर के  तमाम पाठकों एवं रचनाकारों ने इस बात को अत्यंत गंभीरतापूर्वक लिया। परंतु अधिकतर लोेगों का यह विचार था कि समय बीतने के  साथ-साथ यह उपन्यास भी क¢वल कुछ लोगों द्वारा ही याद किया जाएगा। और रुश्दी महोदय अपने अज्ञातवास से निकलकर सामान्य जीवन व्यतीत करना प्रारंभ कर देंगे। साहित्य के  विवाद के  समय बीतने के  साथ-साथ कम लोगों में सीमित हो जाया करते हैं। परंतु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ और ऐसा कुछ होता लगता भी नहीं। बल्कि इसके  विपरीत कुट दिनों बाद ही कोई नई घटना हो जाती है। जो उक्त विवाद को और अधिक हवा दे देती है। पिछले दिनों जामिया मिलिया इस्लामिया के  कुलपति के  साथ हुई घटना ने एक बार फिर समूूचे विवाद को प्रकाश में ला दिया। यह टना हमारे सामने एक ज्वलंत प्रश्न रखती है और प्रश्न यह है कि वर्तमान में हमारे देश के  अंदर अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता का अर्थ।
हमारे देश के  संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लेख नागरिकों के  मूल अधिकारों के  संदर्भ में किया गया है। जिसके  अनुसार भारत में व्यक्ति अपने विचारों को व्यक्त करने के  लिए स्वतंत्र है। परंतु वस्तुस्थिति ठीक विपरीत लगती है। किसी भी व्यक्ति को अभिव्यक्ति के  अधिकार से वंचित करना सरल कार्य हो गया है। उतना ही आसान है किसी लेखक या विचारक को सीमाबद्ध करना। उस प्रजातंत्र को स्वस्थ कैसे कहा जा सकता है। जहां स्वतंत्र वैचारिक और कलात्मक अभिव्यक्ति संभव न हो। विडंबना यह है कि जब भी ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं जिससे सत्ता को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी होती है, यह पलायनवादी दृष्टिकोण अपनाती दिखाई देती है। क्या यह विचित्र बात नहीं है कि सलमान रुश्दी के  उपन्यास पर सर्वप्रथम भारत सरकार ही रोक लगाती है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि निकट के  एक कोटे में यही पुस्तक सुलभ है ?
पुस्तकों पर रोक लगाने के  अनेक कारण हो सकते हैं। परंतु कारण कोई भी हो इस प्रकार की रोकों का किसी भी स्थिति में समर्थन नहीं किया जा सकता। रुश्दी की पुस्तक पर रोक लगाने का कारण था, सांप्रदायिक दंगों के  भकाने की संभावना। उन्हीं की पिछली पुस्तक ‘रेाम’ पर पाकिस्तान सरकार ने स्पष्ट राजनैतिक कारणों से रोक लगाई थी। तत्कालीन राष्ट्रपति जिया-उल-हक को उक्त पुस्तक के  बाजार में आने से अपनी सत्ता खतरे में लगी थी। बोरिस पास्तरनाक का उपन्यास ‘डा जिवागो’ और अलेक्जांर सोल्जिनोसिन द्वारा लिखित ‘कैंसर वार्ड’ और ‘फस्र्ट सर्किल’ लंबे समय तक रूस में नहीं पा गया। इन सभी उपन्यासों ने सत्ता की प्रासंगिकता को अल्पकालिक सिद्ध कर दिया है। स्वतंत्र भारत में राजनीतिक कारणों से पुस्तकों पर बहुत कम रोक लगी है। हां, लेखकों को मारने-पीटने, उठाने-धमकाने की बातें आम होती हैं। प्रसिद्ध लेखक सफदर हाशमी की मृत्यु ने इस प्रवृत्ति को बहुत स्पष्ट रेखांकित किया। परंतु घोषित तौर पर राजनीतिक कारणों से किसी पुस्तक को प्रतिबंधित करने की प्रवृत्ति भारत में आम नहीं है।
आपातकाल के  दौरान ‘किस्सा कुर्सी का’ के  विवाद को एक अपवाद स्वरूप देखा जा सकता है। भारत में रुश्दी की ही चर्चित पुस्तक ‘मिनाइट चिल्ड्रेन’ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के  विद्धरु कुछ तथ्य होने पर भी उस पर रोक नहीं लगाई गई थी। बजाय इसके  इंदिरा गांधी ने विधि मान्य रास्ता अपनाते हुए इंग्लैंड में इस पुस्तक पर मुकदमा दायर किया था। परिणामस्वरूप प्रकाशक को उपन्यास से उन अंशों को निकालना पड़ गया था। उस सिलसिले में रुश्दी को क्षमा-याचना करनी पड़ी थी।
पंरतु किसी उपन्यास या कृति पर रोक लगाने के  राजनीतिक उद्देश्यों और धामिक उद्देश्यें में काफी अंतर होता है। धार्मिक कट्टरता के  दबाव में लेखक के  चुनावों को अत्यंत सीमित करते हैं। उसकी स्वतंत्र सत्ता के  लिए अधिक चिंताजनक होते हैं। ‘सैटनिक वर्सेज’ पर निस्संदेह किसी भी राजनीतिक उद्देश्य के  तहत रोक नहीं लगाई गई है। यह रोक सरकार की इस मंशा को व्यक्त करती है कि वह कोई धार्मिक विवाद नहीं चाहती जिससे कोई बवाल हो। परंतु इस प्रकार की कार्रवाईयों से एक विशेष प्रकार की प्रवृत्ति को प्रश्रय मिलता है जो इस बात पर विश्वास करती है कि कट्टरता के  जोर पर किसी भी बात को मनवाया जा सकता है। फिर तो धार्मिक कट्टरता के  सारे द्वार खुले लगते हैं। उसके  लिए किसी भी सृजनात्मक कृति को घेर डालना संभव लगने लगता है। तब तमस जैसी साहित्यिक कृति को हिंदू विरोधी और टीपू सुल्तान जैसे दूरदर्शन धारावाहिक को इतिहास विरोधी कहने की पूरी छूट मिल जाती है। एक बार जब धार्मिक कट्टरता के  दानव को बिना किसी गतिरोध के  स्वच्छंद छोड़ दिया जाता है को फिर उस पर दुबारा नियंत्रण रख पाना दुष्कर होता है। धर्म के  नाम पर पुस्तकों पर कितने विचित्र ढंग से प्रतिबंध लगाया जता है। यह जब्तशुदा पुस्तकों के  लेखकों के  नामों से ही स्पष्ट हो जाएगा। विक्टर ह्यूगो, डेनियल फिडो, जार्ज सैंड, बाजलाक और फ्लोबेपर जैसे विश्व विश्रुत साहित्यिक लेखकों को भी धर्म के  अंधमंत्रों ने नहीं छोड़ा है। हाब्स, लाक, बेकर, रूसो, मिल और सात्र्र जैसे दार्शनिक भी अपनी पुस्तकों को प्रतिबंधित होने से न बचा सक¢। ये सभी रचनाकार, दार्शनिक विश्व के  महान व्यक्तियों में से रहे हैं, जिनको यदि इतिहास से निकाल दिया जाए तो सांस्कृतिक विकास की कहानी अधूरी रह जाएगी। सोचिए यदि धर्ममंत्रों ने सभी को अपने विचार व्यक्त न करने दिए होते तो आज विश्व कितना पीछे होता। हो सकता है कि ‘रामा रिटोल्ट’ जैसी पुस्तकों पर रोक लगाने से साहित्य के  विकास पर बहुत प्रभाव न पड़ा हो परंतु लेखककयी स्वतंत्रता पर तो असर पड़ता ही है।
‘सैटनिक वर्सेज’ उपन्यास के  समर्थन में जहां यूरोप और अमरीका में स्पष्ट स्वर सुनाई पड़े और धार्मिक कट्टरतावाद का विरोध हुआ। वहां भारत में लेखक बिरादरी की ही प्रतिक्रिया अस्पष्ट रही। विडंबना तो यह है कि ‘सैटनिक वर्सेज’ पर रोक ही खुशवंत सिंह के  कहने पर लगाई गई जो स्वयं एक लेखक हैं। अंग्रेजी भाषा लिखने वाले अन्य लेखकों की भी प्रतिक्रिया या तो अस्पष्ट रही या धीमी। मानो किसी भयवश वे स्पष्टवादिता से कन्नी काट रहे थे। मुस्लिम कट्टरपंथियों ने तो उस कृति का विरोध किया ही। बयानों के  अर्धसत्यों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहीं खो सी गई। शायद यह उसी अस्पष्टवादिता का ही परिणाम है कि आज जब एक प्रगतिशील किए जाने की बात करता है तो उसका ही नहीं अपितु उसके  समर्थकों का भी अस्तित्व खतरे में लगने लगता है। ऐसे में अयातुल्ला खुमैनी के  ही देश के  कुछ लेखकों द्वारा रुश्दी पर लगे फतवे का विरोध एक सुखद आश्चर्य है। ‘लेखक को ईश्वर निंदा की सीमा तक ही स्वतंत्र रहना चाहिए’ विक्टर ह्यूगो के  इस कथन को उद्धत करते हुए वे रुश्दी के  उपन्यास को सिर्फ कला की दृष्टि से मूल्यांकित किए जाने की मांग करते हैं। भारत पर शासन करने वाले नेता यदि विक्टर ह्यूगो तक न जा सके  तो अपने प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू का तो स्मरण ही कर सकते हैं, जिन्होंने लिखा है कि स्वतंत्रता के  खतरे हो सकते हैं। परंतु लोकतंत्र में इन खतरों को उठाना ही रहेगा।


Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

Next Story