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व्यक्ति और विचार को रचती एक पुस्तक

Dr. Yogesh mishr
Published on: 27 May 1998 2:59 PM IST
भारतीय राजनीति में प्रायः ऐसे शब्द, मुहावरे एवं व्यक्तित्व प्रचलित हैं जो धर्म, जाति, भूगोल और सीमित आचार से निकलकर प्रासंगिक बन जाते हैं तो कुछ में शुद्ध राजनीतिक स्वार्थों को व्यापक वैचारिक आवरण पहनाने का ही प्रयास चलता रहता है। थोड़े सरलीकरण का जोखिम उठाते हुए कहें तो बालेश्वर त्यागी, मंत्री, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा रचित ‘कल्याण सिंह: व्यक्तित्व और विचार’ की प्रस्तुति, स्थितियां व घटनाएं जीवन के  उन विविध क्षेत्रों का विस्तार करती हैं जहां एक नयी दुनिया, अनुभव और रसास्वादन की स्थिति मिलती है। इसे पढ़ना इतिहास के  एक दूसरे तरह के  पन्ने को देखने के  साथ-साथ एक जुनून से भरे आदमी का सामना भी करना है। इससे यह पता चलता है कि यदि आप कुछ अद्वितीय करना चाहते हैं तो अपने चरित्र और लगन का निर्माण भी उसी तरह करना होगा, साथ ही निजी उपलब्धियों, निजी हितों आदि को एकदम किनारे भी रखना होगा। चाहे उसकी कचोट आपके  अंदर कितनी और क्यों न बनी रहे।
‘सोच समझकर राह चुनी है, मेरे पांवों ने/चलना सीखा सुख में, दुःख में घोर अभावों में।’ इस बात को रखते और पुष्ट करते हुए कल्याण सिंह की जीवन और विचार यात्रा को रेखांकित करती हुई पुस्तक चलती है। पूरी पुस्तक मंे कुछ भी परिकथा की तरह घटित नहीं होता है। उनकी राजनीति, वैचारिकी, प्रेम, दुःख की कहानी लिखती चलती है यह पुस्तक कहीं भी विचलित नहीं होती है। पन्द्रह अध्याय वाली 230 पृष्ठों की इस पुस्तक में जहां सच की सजा झेलने का उल्लेख है, वहीं चेहरे पर मधुर मुस्कान, तीखे तेवर, प्रखर दार्शनिक भाव संजोये कल्याण सिंह को राजनीति और समाज के  लिए अनिवार्य और अनुपम, अनुपमेय स्थापित करती हुई जनभावना का प्रतिनिधि लिखा गया है। लिखा गया है कि संघर्षशील जीवन का पथ कभी सपाट और सीधा नहीं होता है। ऐसा जीवन हमेशा घुमावदार रास्तों, पेचीदे मोड़ों, ठहराव के  अनेक पड़ाव, संकरी पगडंडियों और कंकरीले पथरीले धूल कीचड़ भरे कठोर मार्ग से गुजरते हुए, एक ऐसे मुकाम पर पहुंचता है, जहां साधारण व्यक्ति असाधारण व्यक्ति की कोटि में आ जाता है।
साठ के  दशक में राजनीति में प्रवेश करने वाले उनके  समकालीन ज्योति बसु, कांशीराम, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव एवं बाल ठाकरे के  उल्लेख के  साथ ही साथ उस दशक की राजनीति के  मानदंड, विचारधारा, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय मुद्दों की राजनीति, सिद्धांत और मूल्यों को वरीयता देने का ठोस प्रभाव उन पर आज तक बरकरार है। रागात्मक एवं लयात्मक सरोकारों से सालों तक रूबरू होते रहने के  दौरान इस कठोर और क्रूर समय में भी कल्याण सिंह खुद को मोम सा मुलायम और मानवीय बनाने में निरंतर जुटे हैं। इसी संघर्ष का परिणाम है खुरदुरे चेहरे पर ठोस मोन। पारदर्शी आंखों से झांकती चंचलता। चंचलता भी ऐसी जो हर वक्त अजीब से बेचेनी बुनती रहती है, परन्तु उनके  बाद भी विनम्र प्रसन्नता उनकी स्थायी पूंजी हैं तभी तो सफलता आंकने का काम वह हमेशा दूसरों पर छोड़ देते हैं। पुस्तक में कल्याण सिंह के  संस्मरणों को खास ढंग से तो नहीं सजाया गया है परन्तु यत्र-तत्र उपस्थित होने के  बाद भी वे काफी प्रभावी बन पड़े हैं। सुन्दर हैण्डराइटिंग, अच्छे पेन का शौक, काली स्याही, टेलर, धोबी, नाई से कम्प्रोमाइज न करना, खैनी खाना, और जीजी द्वारा पत्रों को जेवर से ज्यादा अच्छे ढंग से संभालकर रखना, अपने खेतों और फसलों की खैर लेना इसके  बाद भी यह कह देना कि हम हर बात आपकी मान लेंगे पर भोजन अपने मन का करेंगे। बांसुरी से मित्रता का प्रसंग और जेल से बच्चों और परिजनों को दी गयी हिदायतें, आदेश, निर्देश, पाठक की संवेदना के  मर्म को छेड़ जाते हैं। स्पष्टता उनकी विशेषता है। चिंतन व निर्णय में बेबाक कल्याण सिंह आर्थिक कंगाली से बचने का रास्ता स्वदेशी बताते हैं। हर नौजवान के  हाथों काम, काम भी ऐसा जिससे उत्पादन बढ़े। योजनाएं रोजगारपरक एवं रोजगार उत्पादनपरक बने इस दिशा में उनका काम समाज को उन विसंगतियों से निजात दिलाना है जिसमें समाज कल/भविष्य (युवा) अपना सर्वस्व लुटा देता है।
यत्र-तत्र छिटके  संस्करणों और अद्धरणों को आधार बनाकर भाषा, संस्कृति, साहित्य, राजनीति, अर्थ, प्रशासन एवं संगठन आदि से जुड़े कई क्षेत्रों में उनके  कौशल का उद्घाटन किया गया है। कल्याण सिंह का यह कहना कि लगता है भारतीय संस्कृति को हमने तैयारी और पर्याप्त दस्तावेजों के  साथ लगातार प्रक्षेपित करने की कोशिश नहीं की, जहां उनके  संस्कृति सम्बन्धी विचार को रखने में कामयाब हैं वहीं जेल के  बारे में यह कहना, ‘जेल मनुष्य के  विचार, व्यवहार, संस्कार और उसके  जीवन के  सार-सर्वस्व को परखने का अनूठा निष्कर्ष है। जेल में अभावों को अधिक जीना पड़ता है। यहां स्वयं को मुक्त छोड़ने के  तमाम अवसर उपलब्ध रहते हैं।’ संवेदना के  उस मर्म तक उतर जाता है जहां मर्म की यह भाष मानवीय सम्बन्धों के  निरंतर छिजते क्षणों में आहत प्रतिरोध की तरह बेजान मानवीय संवेदना के  दौर में भी ठोस संकल्प भरने की कोशिश में लगी रहती है। संस्मरणों की अपनी खास उपस्थिति न होने के  बाद भी किताब में यादों के  ढेर सारे प्रसंग संग्रहित हैं और यत्र-तत्र ही सही संस्मरणों को छेड़ा और छुआ भी गया है।
भारतीय लोकतंत्र कल्याण सिंह के  नाते और अधिक चमकदार होकर निकला है। उनका कद, धमक और इकबाल अक्टूबर, 1997 में बढ़ा। फरवरी, 1998 की घटनाओं में उन्होंने जो कुछ किया उसे ‘जस्टीफाई’ करने के  लिए ‘कांटे से कांटा निकालना’, ‘आपादधर्म’, ‘शठे शाठ्यं समाचारेत्’ जैसे मुहावरे मजबूत रक्षा कवच तैयार करने में सफल रहा है। 21 अक्टूबर को खासतौर से उभारा गया है तभी तो लेखक ने यहां तक लिख डाला है, ‘जैसे कोई अपनी जान की परवाह किये बिना आग में जल रहे लोकतंत्र को बचाने के  लिए आग में कूद पड़ा हो।’ इन घटनाओं के  बाद उन्होंने राजनीतिक क्षितिज पर नयी रेखाएं खींची। लोकतंत्र की अग्नि परीक्षा उन्होंने प्रहलाद की तरह बिना खरोंच लगे पार किया यही कारण है कि वे भारतीय लोकशक्ति की तेजस्विता और जीवंतता के  प्रतीक बन उठे। जनतंत्र को हराने की तमाम कोशिशें नाकामयाब हुईं, उनका भी उल्लेख पुस्तक में बन पड़ा है।
मंत्रिपरिषद में लिये गये निर्णयों की चर्चा। जनतंत्र, भूख, गरीबी, बेरोजगारी आदि विषयों पर उनके  गहरे विमर्श। चिंतन एवं कार्य के  बिन्दु खास तौर से रेखांकित हैं। प्रशासन पर इनका दबदबा एवं ईमानदारी की धाक का उल्लेख करके  लेखक ने अपनी निकट उपस्थिति दर्ज करायी है। प्रस्तावना में इतिहास, भारत के  गौरव गान, स्थिति, परिस्थिति पर खास चर्चा है। मढ़ौली से लखनऊ तक पाठ में जनम और जन्म से जुड़ा प्रसंग रोचक बन पड़ा है। पिता तेजपाल सिंह लोधी और माता श्रीमती सीता के  साथ बचपन को रेखांकित करते हुए मर्म की भाषा, चिड़ियों से बातें करना, फसलों की खूशबू, मिट्टी की महक और नहर के  पानी में अटखेलियां करना कल्याण सिंह के  निर्माण प्रक्रिया को स्पष्ट करता है।
जेल डायरी में संवेदनात्मक पक्ष घनीभूत है। जून, 1976 तक जेल से छूटने की बात, अनिश्चितता के  चलते अनुमान के  गलत निकलने का उल्लेख, बायें पैर में मोच की सूचना घर में खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने के  मामले में हिदायत देना, परीक्षा के  लिए बच्चों को भेजे गये आदेश। पत्र भी मिलाई का काम करते हैं। यह सब लिखना परिवार से उनके  घनीभूत सम्बन्धों को बता और जता ले जाता है। वैसे तो कलयाण सिंह न तो प्रतिबद्ध कवि हैं न कविता लिखना विवशता। फिर भी वे यह स्वीकार करते हैं कि गीत मेरी भावनाओं के  मूर्त रूप हैं। मेरे विचार के  प्रतिबिम्ब हैं। मनुष्य से मनुष्य तक की एक अविराम यात्रा से सीधे तौर से राजनीति से जुड़े कल्याण सिंह गांव की मिट्टी के  गर्द, लहलहाती फसलों के  बीच की पगडंडियां, खेत खलिहानों से जुड़े लोगों का दर्द, धूल-धूसरित जीवन की मस्ती और रसमयता में सराबोर चित्र को अपने काव्य का विषय बनाते हैं। उनकी कविताओं में एक सेलिबे्रटिड मूड (उत्सवी मिजाज) भी है। तभी तो वे कहते हैं-‘सर पर बांध कफन निकले हैं, हम मतवाले वीर/अडिग हिमालय के  समान हम, सागर से गम्भीर/नहीं उठेगा हाथ हमारा, यह सौगंध हमारी/शायद तुमने यही हमारी, समझी है लाचारी।’ उनके  संघर्ष में उत्सव है अपने उत्सव में वे उन घिसी-पिटी परम्पराओं के  खिलाफ खड़े होने की ताकत भी रखते हैं जो उनके  और समाज के  सपनों में आड़े आती हैं-‘मैं जन्मा आजाद, मुझे बन्धन स्वीकार नहीं/ टूक-टूक तन हो लेकिन, झुकना स्वीकार नहीं।’ उनकी कविताओं में जीवन के  वाचक कई शब्द प्रचलित हैं। कवताओं में वे समय के  स्पन्दन को बखूबी बुनते हैं यही कारण है कि वे जब रचते हैं तो जनसमस्याओं की संवेदना का वह रंग दे देते हैं जिनसे जुड़कर आमजन में विद्रोह पसरने लगता है। उनके  गीतों में बौद्धिक बहस है।
किसानों के  प्रति उनकी सोच की चिरन्तर यात्रा ‘किसानों का अधिकार पत्र (1987) से शुरू होकर ‘सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्’ के  पड़ाव तय करती हुई ‘सर्वे भवन्तु सुखिनाः’ तक जा पहुंचती है तभी तो वे कहते हैं, ‘किसान याचक नहीं हो सकता। किसान दाता है। उसकी बुनियादी जरूरतें उसका अधिकार हैं। किसान उठेगा तो गांव उठेगा, गांव उठेगा तो देश उठेगा।’ भ्रष्टाचार मिटाने के  लिए चरित्र निर्माण में एकजुट होकर पहल करने, व्यक्तिगत और सामुदायिक स्वार्थों से ऊपर उठने जैसे विकल्प, राजनीति में नकली विवादों में उलझे रहने और मौजूदा तकजों को नजरअंदाज कर फर्जी मुद्दे गढ़ने से बचने की जरूरत बताते हुए कृषि उत्पादन के  घटने की सबसे चिंतनीय स्वीकार करते हैं। ‘राजनीति देश की अस्मिता से जुड़ी है। भूखे का सबसे बड़ा धर्म है रोटी। दस बजे आने का मतलब होता है नौ बजकर साठ मिनट पर आना। कृति के  बिना बड़े शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता।’ जेसे विचार, जिन्हें वे अपने जीवन का पाथेय बताते और जताते हैं, से पता चलता है कि कल्याण सिंह वैचारिक दृष्टि से तब भी उतने सफल थे जब उनके  पास इतनी मूर्धन्यता और ‘पावन मून’ नहीं था।
वैसे समूची पुस्तक से गुजरते हुए तमाम अभाव खटकते हैं जैसे इस पर चर्चा नहीं की गयी है कि कल्याण सिंह राजनेता नहीं होते तो क्या होते? शैली अपना कोई ठोस आकार नहीं ले पायी है। अप्रैल, 1998 प्रकाशन वर्ष होने के  बाद चतुरानन मिश्र को कृषि मंत्री और पी. चिदम्बरम को वित्तमंत्री लिखना खटकता है। ‘जिया जा रहा इतिहास हमारे आसपास चल रहा है’ जैसे वाक्य जहां अपनी प्रासंगिकता नहीं दर्शा पाते हैं वहीं इनका होना चुभता है। पुस्तक में भीमराव अम्बेडकर की मूर्ति पर माल्यार्पण करने के  चित्र का अभाव काफी लोगों को खटके गा। पुस्तक के  मूल्य को देखते हुए कल्याण सिंह के  जीवन संघर्ष एवं विचार से आम पाठक का परिचित रह जाना संभव दिखता है। इन सबके  बाद लेखक का यह कहना, ‘उनके  व्यक्तित्व पर लेखनी उठाने में मेरे हाथ कांप रहे थे।... उन जैसे व्यक्तित्व को कलम में बांधना मेरे लिए असम्भव नहीं तो मुश्किल है ही। छोटे स्कूल के  बच्चे तोतली आवाज में जिस तरह अपनी बात कहते हैं, मैंने भी लगभग उसी तरह का प्रयास पुस्तक में किया है, उन्हें आलोचनाओं से बचा ले जाता है। जो भी हो पुस्तक अपने उद्देश्य कल्याण सिंह के  जीवन संघर्ष से उभरे तत्वों की विवेचना करने तथा जिन सार्वभौमिक मूल्यों की तलाश में कल्याण सिंह जुटे हैं उन्हें बता लेने में सफल है।
Dr. Yogesh mishr

Dr. Yogesh mishr

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