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खबरें क्या सही क्या गलत
खबरों की निष्पक्षता बरकरार रखने के लिए समाचार कई प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। फिर भी कभी-कभार प्रक्रियागत दोषों एवं अपने-अपने सत्य, अर्द्धसत्य होने के कारण खबरों की निष्पक्षता जाने-अनजाने प्रभावित हो जाती है। समाचार देने वाली एजेंसी/व्यक्ति/संस्था के भी अपने निजी हित होते हैं। इससे अप्रभावित रह जाना संवाददाता के लिए सहज नहीं होता है। प्रभावित होने की इंटेंसिटी ही खबरों की स्थिति को तय करती है। गत सात जून को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की खबर को सभी अखबारों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है। इसी खबर में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा विश्व हिंदू परिषद के परस्पर विरोधी बयान एक साथ उपलब्ध हैं। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जहां मंदिर निर्माण की किसी गतिविधि से साफ तौर पर इंकार किया, वहीं विहिप के आचार्य गिरिराज किशोर के हवाले से यह बात भी प्रकाशित की गयी थी कि मंदिर निर्माण की तैयारियां जोरों पर हैं। यद्यपि श्री किशोर का यह वक्तव्य एक अंग्रेजी पत्रिका को दिये गये एक साक्षात्कार पर आधारित था। लेकिन आश्चर्यजनक स्थिति यह रही िकइस तरह के दो परस्पर विरोधी बयान को प्रकाशित करने के बाद किसी भी समाचार पत्र ने अपने अयोध्या या फैजाबाद संवाददाता के हवाले से मंदिर निर्माण की सुस्थिति से पाठकों को अवगत कराने की जिम्मेदारी नहीं स्वीकार की। यह बात दूसरी है िकइस खबर के बाद राजधानी से प्रकाशित होने वाले सभी महत्वपूर्ण समाचार पत्रों ने अपने विशेष रिपोर्ट मंे मंदिर निर्माण की तैयारी की बात पुष्ट की।
देश में वामपंथी राजनीति के पुरोधा ज्योति बसु के बारे में एक स्थानीय दैनिक ने एक्सक्लूसिव स्टोरी में उनके राजनीति से संन्यास लेने की बात को प्रमुखता से रेखांकित किया। खबर के इंट्रो में यह बात साफ तौर पर लिखा गया कि 21 सालों तक किसी राज्य का मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड कायम करने वाले पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन से ऊबकर संन्यास लेने का मन बना लिया है। विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त जानकारी को खबर का आधार बताते हुए लिखा गया कि ज्योति बसु ने स्वयं अपना यह इरादा जाहिर करते हुए कहा है कि वे इस वर्ष के अंत तक मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी से छुटकारा पाना चाहते हैं। इतना ही नहीं, खबर में यह भी कहा गया है कि ज्योति बसु पोलित ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी के सदस्य की हैसियत से भी पार्टी में बने रहना चाहते हैं। इतनी महत्वपूर्ण खबर को लिखते समय संवाददाता द्वारा विश्वस्त सूत्रों जैसे कमजोर तर्क को आधार बनाना पाठकों के गले के नीचे आसानी से नहीं उतरेगा। वैसे इस खबर की सत्यता और प्रमाणिकता के सामने खबर का शीर्षक भी सवाल खड़ा करता है। खबर के शीर्षक में लिखा गया है कि ज्योति बसु राजनीति से संन्यास लेंगे।
पता नहीं क्यों दुर्घटनाओं की खबरें लिखते समय संवाददाताओं के नजरिये रिपोर्टों में साम्य नहीं होता। पिछले कई बार से दुर्घटनाओं की रिपोर्टों के बारे में मरने वालों की संख्या तथा अन्य तमाम बिन्दुओं के बारे में सभी समाचार पत्रों में अलग-अलग सूचनाएं प्रस्तुत की जाती हैं। गत शुक्रवार को राठ से झांसी जा रही एक प्राइवेट बस के पलट जाने की खबर में मरने वालों की संख्या कुछ अखबारों में सात तो कुछ में आठ उल्लिखित है। इतना ही नहीं, एक दैनिक अखबार घायलों की संख्या 33 बताता है तो दूसरा 34 व्यक्तियों के घायल होने की पुष्टि करता है। हैदराबाद में हुए दंगों में मरने तथा घायल होने वालों की संख्या का सवाल हो या गुजरात में आए भीषण तूफान की तबाही के शिकार लोगो की तादाद गिनाने की बात हो। इन सभी एजेंसियों/ माध्यम भले ही एक होता है। लेकिन संख्या का पता नहीं क्यों। प्रायः भिन्न-भिन्न होती हैं। वैसे यह सच है कि इसकी पुष्टि के भी कोई ठोस आधार बिना घटनास्थल पर जाये नहीं जुटाए जा सकते हैं। लेकिन एक बात तो पूरी तरह तय होनी चाहिए कि यदि खबरों के प्रकाशन का माध्यम एक है। फिर उनकी ठोस सच्चाई को प्रस्तुत करने में इतना अंतर क्यों?
क्राइम की खबरों में खासतौर पर देखा जाय तो संवाददाताओं के लिए खासी जगह होती है और यह खबरें जहां एक ओर पुलिस की मदद करती हुई दिखती हैं, वही कई बार जांच प्रक्रिया को भी बाधित करती हैं। लखनऊ के दवा व्यवसायी के के रस्तोगी की हत्या कर उनके पुत्र कुणाल के अपहरण करने की खबर को ही देखंे तो काफी कुछ साफ हो जाता है। इस अपहरण की फालोअप स्टोरी लिखते समय गत 08 जून को एक अखबार ने लिखा-पुलिस तफ्तीश जहां की तहां, बैठक करते रहे पुलिस अधिकारी। खबर में आगे लिखा गया है कि पुलिस बैठकें कर रही हैं। अपहरण कांड में जो संदिग्ध व्यक्ति तफ्तीश के दौरान प्रकाश में आए उनसे पुलिस ने एक बार भी पूछताछ की जहमत नहीं उठायी। इसमें एक मंत्री के नाम का खुले तौर पर उल्लेख किया गया। एक संदिग्ध बिल्डर को भी इस अपहरण कांड में दोषी ठहराते हुए नामजद करने के बाद भी पुलिस इन लोगों से पूछताछ न कर तफ्तीश की दिशा बदल रही है। इन सारी बातों को इस समाचार पत्र ने ठीक से रेखांकित किया है। वहीं दूसरे समाचार पत्र ने इसी खबर के प्रसंग में लिखा है कि कुणाल रस्तोगी अपहरण कांड में श्रीप्रकाश, पांचू, बंशी व सत्तू पांडेय का हाथ है। अलग-अलग खबरों में छपी इन दोनों खबरों को पढ़ने के बाद ये तो साफ हो जाएगा कि कोई एक खबर तफ्तीश की दिशा बदल रही है तो दूसरी खबर पुलिस को मदद कर रही है। इतना ही नहीं, इस कांड को लेकर समाचार पत्रों ने जितने भी कयास संभव थे, लगाए। फिरौती की राशि घटायी-बढ़ायी। 24 घंटे में रिहाई की आशा जतायी। लेकिन सच कुछ और ही निकला।
राजनीतिक खबरें लिखते समय पता नहीं क्यों संभावनाओं को खासतौर से आधार बनाया जाता है। चुनाव के समय तो संभावनाओं के इस आधार को विस्तृत फलक मिल जाता है। पिछले दिनों सम्पन्न हुए विधानसभा, विधान परिषद के दृष्टिकोण से प्रादेशिक खबरों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि जातीय, क्षेत्रीय और तमाम अन्य समीकरणों के तहत जिनकी विजय घोषित की गयी थी, उनके परिणाम बहुतायत में विपरीत रहे। इन चुनावों में पार्टियों के आपसी गठजोड़, उम्मीदवार की जातीय लोकतांत्रिक स्थिति आदि के आधार पर विश्लेषण के मोहरे भले ही लंबे समय से पिटते चले आ रहे हैं। परंतु राजनीतिक खबरें लिखने वालों पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ता दिख रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाचार पत्रों में जाति के आंकड़े लंबे समय से प्रस्तुत किये जा रहे हैं। परंतु भारत की जनगणना में जातीय पक्ष सर्वथा गौण रखा जाता है। जनसंख्या वृद्धि की दर को आधार बनाकर लिखी जा रही राजनीतिक खबरें भी खबरों के अपने-अपने सच होने को पुष्ट करती हैं।
देश में वामपंथी राजनीति के पुरोधा ज्योति बसु के बारे में एक स्थानीय दैनिक ने एक्सक्लूसिव स्टोरी में उनके राजनीति से संन्यास लेने की बात को प्रमुखता से रेखांकित किया। खबर के इंट्रो में यह बात साफ तौर पर लिखा गया कि 21 सालों तक किसी राज्य का मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड कायम करने वाले पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन से ऊबकर संन्यास लेने का मन बना लिया है। विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त जानकारी को खबर का आधार बताते हुए लिखा गया कि ज्योति बसु ने स्वयं अपना यह इरादा जाहिर करते हुए कहा है कि वे इस वर्ष के अंत तक मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी से छुटकारा पाना चाहते हैं। इतना ही नहीं, खबर में यह भी कहा गया है कि ज्योति बसु पोलित ब्यूरो और केंद्रीय कमेटी के सदस्य की हैसियत से भी पार्टी में बने रहना चाहते हैं। इतनी महत्वपूर्ण खबर को लिखते समय संवाददाता द्वारा विश्वस्त सूत्रों जैसे कमजोर तर्क को आधार बनाना पाठकों के गले के नीचे आसानी से नहीं उतरेगा। वैसे इस खबर की सत्यता और प्रमाणिकता के सामने खबर का शीर्षक भी सवाल खड़ा करता है। खबर के शीर्षक में लिखा गया है कि ज्योति बसु राजनीति से संन्यास लेंगे।
पता नहीं क्यों दुर्घटनाओं की खबरें लिखते समय संवाददाताओं के नजरिये रिपोर्टों में साम्य नहीं होता। पिछले कई बार से दुर्घटनाओं की रिपोर्टों के बारे में मरने वालों की संख्या तथा अन्य तमाम बिन्दुओं के बारे में सभी समाचार पत्रों में अलग-अलग सूचनाएं प्रस्तुत की जाती हैं। गत शुक्रवार को राठ से झांसी जा रही एक प्राइवेट बस के पलट जाने की खबर में मरने वालों की संख्या कुछ अखबारों में सात तो कुछ में आठ उल्लिखित है। इतना ही नहीं, एक दैनिक अखबार घायलों की संख्या 33 बताता है तो दूसरा 34 व्यक्तियों के घायल होने की पुष्टि करता है। हैदराबाद में हुए दंगों में मरने तथा घायल होने वालों की संख्या का सवाल हो या गुजरात में आए भीषण तूफान की तबाही के शिकार लोगो की तादाद गिनाने की बात हो। इन सभी एजेंसियों/ माध्यम भले ही एक होता है। लेकिन संख्या का पता नहीं क्यों। प्रायः भिन्न-भिन्न होती हैं। वैसे यह सच है कि इसकी पुष्टि के भी कोई ठोस आधार बिना घटनास्थल पर जाये नहीं जुटाए जा सकते हैं। लेकिन एक बात तो पूरी तरह तय होनी चाहिए कि यदि खबरों के प्रकाशन का माध्यम एक है। फिर उनकी ठोस सच्चाई को प्रस्तुत करने में इतना अंतर क्यों?
क्राइम की खबरों में खासतौर पर देखा जाय तो संवाददाताओं के लिए खासी जगह होती है और यह खबरें जहां एक ओर पुलिस की मदद करती हुई दिखती हैं, वही कई बार जांच प्रक्रिया को भी बाधित करती हैं। लखनऊ के दवा व्यवसायी के के रस्तोगी की हत्या कर उनके पुत्र कुणाल के अपहरण करने की खबर को ही देखंे तो काफी कुछ साफ हो जाता है। इस अपहरण की फालोअप स्टोरी लिखते समय गत 08 जून को एक अखबार ने लिखा-पुलिस तफ्तीश जहां की तहां, बैठक करते रहे पुलिस अधिकारी। खबर में आगे लिखा गया है कि पुलिस बैठकें कर रही हैं। अपहरण कांड में जो संदिग्ध व्यक्ति तफ्तीश के दौरान प्रकाश में आए उनसे पुलिस ने एक बार भी पूछताछ की जहमत नहीं उठायी। इसमें एक मंत्री के नाम का खुले तौर पर उल्लेख किया गया। एक संदिग्ध बिल्डर को भी इस अपहरण कांड में दोषी ठहराते हुए नामजद करने के बाद भी पुलिस इन लोगों से पूछताछ न कर तफ्तीश की दिशा बदल रही है। इन सारी बातों को इस समाचार पत्र ने ठीक से रेखांकित किया है। वहीं दूसरे समाचार पत्र ने इसी खबर के प्रसंग में लिखा है कि कुणाल रस्तोगी अपहरण कांड में श्रीप्रकाश, पांचू, बंशी व सत्तू पांडेय का हाथ है। अलग-अलग खबरों में छपी इन दोनों खबरों को पढ़ने के बाद ये तो साफ हो जाएगा कि कोई एक खबर तफ्तीश की दिशा बदल रही है तो दूसरी खबर पुलिस को मदद कर रही है। इतना ही नहीं, इस कांड को लेकर समाचार पत्रों ने जितने भी कयास संभव थे, लगाए। फिरौती की राशि घटायी-बढ़ायी। 24 घंटे में रिहाई की आशा जतायी। लेकिन सच कुछ और ही निकला।
राजनीतिक खबरें लिखते समय पता नहीं क्यों संभावनाओं को खासतौर से आधार बनाया जाता है। चुनाव के समय तो संभावनाओं के इस आधार को विस्तृत फलक मिल जाता है। पिछले दिनों सम्पन्न हुए विधानसभा, विधान परिषद के दृष्टिकोण से प्रादेशिक खबरों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि जातीय, क्षेत्रीय और तमाम अन्य समीकरणों के तहत जिनकी विजय घोषित की गयी थी, उनके परिणाम बहुतायत में विपरीत रहे। इन चुनावों में पार्टियों के आपसी गठजोड़, उम्मीदवार की जातीय लोकतांत्रिक स्थिति आदि के आधार पर विश्लेषण के मोहरे भले ही लंबे समय से पिटते चले आ रहे हैं। परंतु राजनीतिक खबरें लिखने वालों पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ता दिख रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि समाचार पत्रों में जाति के आंकड़े लंबे समय से प्रस्तुत किये जा रहे हैं। परंतु भारत की जनगणना में जातीय पक्ष सर्वथा गौण रखा जाता है। जनसंख्या वृद्धि की दर को आधार बनाकर लिखी जा रही राजनीतिक खबरें भी खबरों के अपने-अपने सच होने को पुष्ट करती हैं।
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