TRENDING TAGS :
लड़ाई की अगली कतार में थी कलम
समीक्षक साहित्यकार और लंबे समय तक अध्ययन अध्यापन से जुड़े रमेश कुंतल मेघ कहते हैं, ‘उस दिन मैं कानपुर में था। हाईस्कूल का छात्र था। खूब खून खराबा हुआ था। कानपुर मुस्लिम लीग का जोर था। मुस्लिम लीग के नेता चैधरी खलीक जमां जो संवैधानिक सभा के सदस्य थे उन्होंने यह कहते हुए कि कम्युनल पाॅलिटिक्स ने देश को बहुत नुकसान पहुंचाया। मुस्लिम लीग डिजाल्व कर दी थी। उन दिनों आईएनए का ट्रायल चल रहा था। युवकों और समाजवादियों पर इनका बहुत प्रभाव था। ढिल्लो सहगल, शहनवाज, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगते थे। गोपाल प्रसाद व्यास ने आजाद हिंद फौज पर एक बड़ी लंबी कविता झांसी की रानी के छंद पर लिखी थी। प्रभात फेरी में हम लोग इसे गाया करते थे। छात्रों और मजदूरों को लगता था हमारा राज आ जाएगा। पुलिस वाले बहुत डरे थे। उन्हें लगता था कि जुर्म और अंग्रेजों की गुलामी का दंड उन्हें भुगतान पड़ेगा। आजाद होने का जैन्युइन एहसास था। नेहरू जी का ऐतिहासिक भाषण प्रारब्ध से अभिसार सुना था। पुलिस वाले बैकग्राउंड में थे। सभी युवा वालिन्टियर हो गये थे। मैंने पूरे जीवन में उतना अनुशासन नहीं देखा। जितना शुरू के दिनों में देखा। लेकिन चैथे दिन से ही पुलिस डंडे के साथ एक्टिव होने लगी। पहले तो हम लोगों को यह लगा कि नेहरू जी को यह पता नहीं है लेकिन बाद में हम लोग जान गए कि नेहरू जी ने आजादी के बाद सबसे बड़ी ऐतिहासिक गलती ब्यूरोक्रेसी को टच न करने की है। उसी का यह सब परिणाम है। ब्यूरोक्रेसी के एटीच्यूट पुराने जैसे रहे। इनका जो भी विरोध करता उसे गद्दार घोषित कर दिया जाता था। कम्युनिस्टों के महत्वपूर्ण नेता थे हसरत मोहानी, संत सिंह यूसुफ और सोनेलाल। मुसलमानों ने उस समय सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। कांग्रेसियों ने सुभाष बाबू का नाम खूब भुनाया। समाजवादी कांग्रेस से अपने को अलग करने की सोचने लगे। उस समय कवि सम्मेलनों, कविता पाठ और नुक्कड़ों, चैराहों पर खासा जोर था। कवि गोष्ठियां नहीं होती थीं। कविता जनता का ही हिस्सा थी। कविता सीधे संवाद की भाषा थी। कवि सम्मेलनों में मैंने तीस-तीस हजार श्रोताओं की भीड़ देखी। कानपुर शहर के सील जी और सुदर्शन चक्र दो बड़े नाम थे। प्रेमगीत लिखने वालों में नीरज और राम स्वरूप सिंदूर थे। इन सभी का जनता से सीधा रैपर्ग था। शीला का गीत देश हमारा, धरती अपनी, हम धरती के लाल, नया संसार बसायेंगे, नया इंसान बनायेंगे, खासा प्रचलित था। हम होंगे कामयाब के साथ यह गीत खूब बजता था।
सबसे लोकप्रिय अज्ञेय और जैनेन्द्र। अज्ञेय की शेखर एक जीवनी हम लोगों के लिए बाइबिल हुआ करती थी। जैनेन्द्र की सुनीता, यशपाल का दादा, कामरेड खूब पढ़े जाते थे। सबसे लोकप्रिय थे। मलखान चतुर्वेदी। वे अक्सर कानपुर आते थे। हमारे हीरो थे। उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण से देश के हालात बिगड़े हैं। कंज्यूमरिज्म फैला है। आर्थिक विषमताएं बढ़ी हैं। हम लोग बहुत बड़े भ्रष्टाचार एवं विकृतियों के जाल में आ गये हैं। यह चित्र बहुत ही खतरनाक है। विके न्द्रीकरण नहीं वरन् के न्द्रीय सत्ता का ह्ास हो रहा है। जातिवाद और सांप्रदायिकता बढ़ी है। राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना लुप्त हो गयी है। अकुशलता फैली है। कर्तव्य के साथ जवाबदेही गायब हो गयी है। इसलिए लोग कहने लगे हैं। अंग्रेजों का राज अच्छा था। नौकरशाह ताकतवर हुए हैं। नेता कमजोर। हमारी कोई सांस्कृतिक नीति नहीं है। शिक्षा नीति नहीं है। भाषा नीति नहीं है। भाषा फार्मूला है। साहित्य से आज कमिटमेंट गायब हो गया है। जनता और लोकचित्त स ेलेखक नहीं जुड़ रहा है। ज्यादातर लेखक मध्यम वर्ग से आ रहा है। लेखन की क्वालिटी और समस्याएं राष्ट्रीय नहीं हैं। लेखन नौकरी और प्रेम के इर्द-गिर्द घूम रहा है। महाश्वेता देवी को छोड़ देें तो साहित्य से ग्रामीण जीवन गायब है। नारियों की समस्याओं के नाम पर उनके बेडरूम में झांका जा रहा है। साहित्य में कोई बड़ा प्रयोजन नहीं बचा है। जो प्रयोजन है वह पुरस्कारीय है। अपनी बात को साफ करने के लिए वे कहने लगे सन् 58 में फ्रांस के छात्रों ने एक बड़ा भारी आंदोलन चलाया। द गाल उस समय राष्ट्रपति थे। सात्र्र अंधे हो चुके थे। सात्र्र ही छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। फ्रांस के प्रधानमंत्री ने द गाल से कहा ‘आई कैन नाट अरेस्ट सात्र्र, सात्र्र इज फ्रांस’। मेघजी कहने लगे हमारे बीच में आज ऐसा कोई है जिसे हम कह सकते हैं वह भारत है। आजादी के समय कई ऐसे लेखक थे। क्या यही हमारी उपलब्धि है।
साहित्यकार मुद्रा राक्षस आजादी के पहले दिन को दुविधा भरा बताते हैं। उस समय वे सातवीं जमात के छात्र थे। कहते हैं मेरा परिवार राष्ट्रीय स्वयं संघ और हिन्दू महासभा का सक्रिय केंद्र था। चारो ओर उत्सव का माहौल था फिर भी एक बड़ा वर्ग पूरी तरह तटस्थ था। उस समय मैं राजनीति की बहुत सी बातें नहीं जानता था। लेकिन बाद में गांधी जी की हत्या के बाद जब मेरे पिता जी गिरफ्तार हुए तो मेरे दो वैचारिक स्तर के विभाजन समाज में दिखायी देने लगे। इस विभाजन में हमें अगले कई बरस आजादी की धारणा के बारे में संदेह में रखा। लगभग दो दशक बाद मैं यह समझ पाया कि मेरे घर-परिवार और पड़ोस की दुनिया में जो दो पक्ष गांधीवादी और हिंदुत्ववादी थे, उनके अतिरिक्त भी दो पक्ष थे। एक वामपंथी, जिनको लग रहा था कि किसानों और मजदूरों की आजादी का अवसर यह नहीं है। दूसरे दलितों का बहुत बड़ा वर्ग जो पिछले लगभग ढाई दशक से बहुत स्पष्ट शब्दों में हिन्दू धर्म तंत्र से अपनी आजादी की मांग कर रहा था। साहित्य की दुनिया में मैंने महसूस किया कि बड़े साहित्यकारों ने आजादी के इस संघर्ष और इसकी उपलब्धियों की कोई साफ तस्वीर नहीं थी। महादेवी जी पंत जी इससे अलग-थलग लेखन कर रहे थे। नवीन जी और माखन लाल चतुर्वेदी जी जैसे जो साहित्यकार इससे जुड़े हुए थे। उनका साहित्य में बड़ा स्थान नहीं था। प्रयोग धर्मी कविता इससे पूरी तरह अलग थी। अब सोचता हूं तो चकित होना पड़ता है कि आखिर हिंदी की मुख्य धारा 1947 की घटना से पूरी तरह कटी हुई क्यों थी। आजादी के बाद का देश जनाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाया। नई कविता और नई कहानी की दुनिया इस अनुभव से भी कटी रही।
उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल का मानना है कि किसी भी समय साहित्य में कई तरह की धाराएं समानान्तर रूप से चलती रहती हैं। जहां तक हिंदी साहित्य का सवाल है। साहित्य अपना लक्ष्य निर्धारित करके नहीं चलता। परंतु अपने समय के सामाजिक परिस्थितियों को प्रतिबिम्बित जरूर करता है। जो भी साहित्यकर्मी समाज की स्थिति को समझते थे उनके साहित्य में उनका समाज, उनकी समस्याएं प्रतिबिम्बित होती हैं। देश की जो स्थिति थी उसे पूरा करने, उसे बताने, उसे प्रकट करने में साहित्य ने बराबर की भूमिका निभायी है। साहित्य में स्थितियां बराबर से रिफ्लेक्ट हुई हैं। हिंदी के रचानाकारों का एक बड़ा वर्ग रहा है, जो शोषित मजदूरों किसानों का पक्षधर रहा है और साहित्यकारों का यह बड़ा वर्ग तथा उससे जुड़े हुए साहित्यकार बहुत ही स्पष्ट रूप से शोषितों के पक्ष मंे मजबूत साहित्य लिखते रहे हैं। लिख रहे हैं। इस वर्ग के लेखक समाज की परिस्थितियों से दो चार हुए हैं, जिसे उनके साहित्य में देखा जा सकता है। कुल मिलाकर आजादी के बाद का साहित्य की प्रवृत्ति टोन का प्रतिनिधित्व करते हुए देखा और पाया जा सकता है। स्त्री मुक्ति, दलित मुक्ति आर्थिक शोषण से मुक्ति सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग आदि मुद्दों पर साहित्य की मुख्यधारा आज भी केंद्रित है और पहले भी थी।
प्रख्यात आलोचक डाॅ. परमानंद श्रीवास्तव की स्मृतियों में आजादी का पहला दिन एक रोमांचक अनुभव की तरह आज भी जिंदा है। वे आठवीं कक्षा के अभ्यर्थी थे, जब बांसगांव जैसी छोटी सी जगह पर आजादी का जश्न मनाया गया था। स्कूली बच्चों के लिए यह आजादी उनके अंग्रेज लाट साहब से मुक्ति का पर्याय था। क्योंकि साहब का दौरा हो या किसी गड़बड़ी की आशंका, उन्हें कभी भी घर भागने का आदेश दे दिया जाता था। सन 42 से 47 के बीच यह सनसनी कुछ ज्यादा ही थी। इस डर, तनाव, आतंक और दहशत के बाद आजादी अद्भुत उल्लास के पर्व की तरह सामने आयी। इस उत्सव के साथ एक दूसरी त्रासदी भी घटित हो रही थी, जिसकी अतिरंजित अफवाहें गांव तक पहुंचती थीं। हालांकि गोरखपुर महंत दिग्विजय नाथ की वजह से हिंदू महासभा का एक बड़ा गढ़ था। लेकिन विभाजन की त्रासदी का यहां कोई असर नहीं था। तबके के हिंदू महासभाइयों का चेहरा आज जैसे नहीं था।
गांधी जी की हत्या के बाद जरूरी राजनीति संदर्भ की तरह सामने आयी। दिग्विजय नाथ के यहां हिंदू मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय थे। आजादी के दौर में श्यामलाल गुप्त पार्षद, माखन लाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चैहान की रचनाओं की गूंज थी। प्रभात फेरियों में इन्हें गाया जाता था। यह अब रेखांकित करने योग्य लगता है। तुरंत सामने आया साहित्य उत्सव का ही साहित्य नहीं था वह संदेह करने वाला और प्रश्न उठाने वाला साहित्य था। आजादी के बाद फैज का दाग-दाग उजाला और यशपाल का झूठ-सच प्रतिनिधि रचनाएं थी। निराला जैसे बड़े कद की शख्सियत ने आजादी के पहले जो भी लिखा हो, बाद की उनकी रचनाएं ट्रेजिक एहसास जगाने वाली रचनाएं हैं। उत्सव का गीत नहीं। मृत्यु के ठीक पहले तो वह संत्रास और मृत्यु की रचनाएं लिख रहे थे और धीरे-धीरे विक्षिप्तता के अंधकार की ओर बढ़ गये। इस विक्षिप्तता के सूक्ष्म कारणों की पहचान होनी चाहिए। आज के दौर में सबकी आजादी का अंधकार लिखने वाली रचनाएं ज्यादा मूल्यवान जान पड़ती हैं और उत्सव की कविताएं रस्मी।
आजादी की घटनाओं पर लिखे गये अपने उपन्यास को लेकर इन दिनों खासे चर्चित साहित्यकार कामतानाथ अमीनाबाद इंटर कालेज लखनऊ में आठवीं जमात के विद्यार्थी थे। उस दिन जहां मिठाइयां मुफ्त बंट रही थीं। खुशी का माहौल था वहीं सांप्रदायिक विभाजन भी चरम पर था। आरएसएस की सक्रियता इतनी बढ़ गयी थी कि ये न जाने कहां से सच्ची और झूठी कुछ ऐसी तस्वीरें लाती थीं, जिनमें स्त्रियों के साथ अत्याचार और हिंसा के दृश्य होते थे। इससे हिंदू भावनाएं भड़काने की कोशिश की जाती थी। हालात कितने सांप्रदायिक था इसका अंदाज इसीसे लगाया जा सकता है कि स्कूलों में बच्चे जयहिंद या तकसीम हिंद कहकर अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे थे। रेडक्लिप रिपोर्ट के बाद जब धर्म की बहुलता के आधार पर शहर, भारत या पाकिस्तान में मिलाये जा रहे थे। तो हिंदू व्यवसायियों की बाहुलता के कारण लोगों को विश्वास था कि लाहौर भारत में मिलेगा, पर हुआ उल्टा। आजाद हिंद फौज के सेनानियों, सहगल, ढिल्लो, शहनवाज पर लाल किले में चल रहे मुकदमें की ओर से सारे देश की आंखें लगी थीं। जिसमें अरसे बाद नेहरू जी स्वयं वकील की हैसियत से पैरवी करने पहुंचे थे।
जहां तक हिंदी साहित्य का सवाल है वह भी अनेक विसंगतियों से भरा हुआ था। यह यही है कि आजादी के लगभग दो दशक पहले यानी 26-27 से ही प्रेमचंद से प्रतिबद्ध लेखन शुरू कर दिया गया था और उनकी रचनाओं में स्त्री जागरण, प्रदर्शन और भूख हड़तालों आदि के विवरण मिलने लगे थे। फिर कई सालों तक हिंदी साहित्य में इस प्रगतिशील चेतना को लेकर सन्नाटा रहा। हिंदी साहित्य की इन दिनों अजीब हालत थी। वह पंत महादेवी, अज्ञेय, इला चंद्र जोशी, जैनेंद्र कुमार, रामकुमार वर्मा आदि के छायावादी और प्रतिबद्ध लेखन से सराबोर था। 51 के आसपास नई कहानी धारा के आने से हालात कुछ सुधरे। मंटो जरूर कुछ पहले से कहानियां लिखकर सांप्रदायिकता से मोर्चा ले रहे थे। इसी समय मोहन राके श का मलबे का मालिक और कमलेश्वर का ‘मुसाफिर’ जैसी रचनाएं आयीं। कुछ समय बाद यशपाल का झूठा सच भी आया। हिंदी साहित्य की तुलना में उर्दू साहित्य अधिक जागरूक था। हिंदी कविता जितनी छायावाद से चिपटी हुई थी। उर्दू शायरी लगभग पूरी तरह प्रांत के रंग में रंग चुकी थी। शाहिर लुधियानवी, फैज, सरदार, जाफरी, जोश मलिहाबादी, कैफी आजमी जैसे तमाम शायर प्रतिबद्धता का परचम उठाए हुए थे।
साहित्यकार सूर्य प्रसाद दीक्षित आजादी के समय रायबरेली में चहर्रुम (कक्षा-4) के विद्यार्थी थे। वे बताते हैं अकस्मात् दोपहर 10-11 बजे के बीच एक हवाई जहाज उड़ता हुआ आया। उसने कुछ पर्चे गिराये। जिसमें लिखा था आज हथकड़ी टूट गयी। नीचे गुलामी छूट गयी। उठो देश कल्याण करो। अब/नव युग का निर्माण करो। (मैथिलीशरण गुप्त)।
मैं इनमंे से कुछ नहीं जानता था। पर भारतमाता नेहरू और गांधी की जय हो रही थी। लड्डू बंट रहे थे। हाईस्कूल में पहुंचने पर राष्ट्रभक्त कवियों से परिचय प्राप्त हुआ। आशु कवि पंडित जगमोहन लाल अवस्थी, मोहन की निकटता मिली। नाटकों में पारसी थियेटर की धूम थी। कथा साहित्य में प्रेमचंद, चतुरसेन शास्त्री सरीखे लोगों की खासी चर्चा थी। गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए थे। इसलिए उनका बोलबाला था। प्रेमचंद की कहानियां भारत, भारती और आल्हा का सामूहिक वाचन होता था। 1960 के बाद साहित्य के क्षेत्र में विघटन दिखायी देने लगा। पाठकीयता का ग्राफ नीचे आ गया। पत्रकारिता बढ़ी लेकिन समाचार के क्षेत्र में हमारे साहित्यकारों ने अपनी धरती का स्वर अलापने के बजाय अमरीका के बिंसबर्ग और यूरोप की इजराफाउंडा की आवाज अपनाना शुरू कर दिया। पाठक की संवेदना का ध्यान नहीं रखा गया और यह लिखा गया कि संप्रेषणीयता लेखन का मुद्दा नहीं है। प्रकाशकों ने जनता के लिए छापना बंद कर दिया। कविता की जगह फिल्मी गीतों ने ले ली।
सबसे लोकप्रिय अज्ञेय और जैनेन्द्र। अज्ञेय की शेखर एक जीवनी हम लोगों के लिए बाइबिल हुआ करती थी। जैनेन्द्र की सुनीता, यशपाल का दादा, कामरेड खूब पढ़े जाते थे। सबसे लोकप्रिय थे। मलखान चतुर्वेदी। वे अक्सर कानपुर आते थे। हमारे हीरो थे। उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण से देश के हालात बिगड़े हैं। कंज्यूमरिज्म फैला है। आर्थिक विषमताएं बढ़ी हैं। हम लोग बहुत बड़े भ्रष्टाचार एवं विकृतियों के जाल में आ गये हैं। यह चित्र बहुत ही खतरनाक है। विके न्द्रीकरण नहीं वरन् के न्द्रीय सत्ता का ह्ास हो रहा है। जातिवाद और सांप्रदायिकता बढ़ी है। राष्ट्रीयता और देशभक्ति की भावना लुप्त हो गयी है। अकुशलता फैली है। कर्तव्य के साथ जवाबदेही गायब हो गयी है। इसलिए लोग कहने लगे हैं। अंग्रेजों का राज अच्छा था। नौकरशाह ताकतवर हुए हैं। नेता कमजोर। हमारी कोई सांस्कृतिक नीति नहीं है। शिक्षा नीति नहीं है। भाषा नीति नहीं है। भाषा फार्मूला है। साहित्य से आज कमिटमेंट गायब हो गया है। जनता और लोकचित्त स ेलेखक नहीं जुड़ रहा है। ज्यादातर लेखक मध्यम वर्ग से आ रहा है। लेखन की क्वालिटी और समस्याएं राष्ट्रीय नहीं हैं। लेखन नौकरी और प्रेम के इर्द-गिर्द घूम रहा है। महाश्वेता देवी को छोड़ देें तो साहित्य से ग्रामीण जीवन गायब है। नारियों की समस्याओं के नाम पर उनके बेडरूम में झांका जा रहा है। साहित्य में कोई बड़ा प्रयोजन नहीं बचा है। जो प्रयोजन है वह पुरस्कारीय है। अपनी बात को साफ करने के लिए वे कहने लगे सन् 58 में फ्रांस के छात्रों ने एक बड़ा भारी आंदोलन चलाया। द गाल उस समय राष्ट्रपति थे। सात्र्र अंधे हो चुके थे। सात्र्र ही छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। फ्रांस के प्रधानमंत्री ने द गाल से कहा ‘आई कैन नाट अरेस्ट सात्र्र, सात्र्र इज फ्रांस’। मेघजी कहने लगे हमारे बीच में आज ऐसा कोई है जिसे हम कह सकते हैं वह भारत है। आजादी के समय कई ऐसे लेखक थे। क्या यही हमारी उपलब्धि है।
साहित्यकार मुद्रा राक्षस आजादी के पहले दिन को दुविधा भरा बताते हैं। उस समय वे सातवीं जमात के छात्र थे। कहते हैं मेरा परिवार राष्ट्रीय स्वयं संघ और हिन्दू महासभा का सक्रिय केंद्र था। चारो ओर उत्सव का माहौल था फिर भी एक बड़ा वर्ग पूरी तरह तटस्थ था। उस समय मैं राजनीति की बहुत सी बातें नहीं जानता था। लेकिन बाद में गांधी जी की हत्या के बाद जब मेरे पिता जी गिरफ्तार हुए तो मेरे दो वैचारिक स्तर के विभाजन समाज में दिखायी देने लगे। इस विभाजन में हमें अगले कई बरस आजादी की धारणा के बारे में संदेह में रखा। लगभग दो दशक बाद मैं यह समझ पाया कि मेरे घर-परिवार और पड़ोस की दुनिया में जो दो पक्ष गांधीवादी और हिंदुत्ववादी थे, उनके अतिरिक्त भी दो पक्ष थे। एक वामपंथी, जिनको लग रहा था कि किसानों और मजदूरों की आजादी का अवसर यह नहीं है। दूसरे दलितों का बहुत बड़ा वर्ग जो पिछले लगभग ढाई दशक से बहुत स्पष्ट शब्दों में हिन्दू धर्म तंत्र से अपनी आजादी की मांग कर रहा था। साहित्य की दुनिया में मैंने महसूस किया कि बड़े साहित्यकारों ने आजादी के इस संघर्ष और इसकी उपलब्धियों की कोई साफ तस्वीर नहीं थी। महादेवी जी पंत जी इससे अलग-थलग लेखन कर रहे थे। नवीन जी और माखन लाल चतुर्वेदी जी जैसे जो साहित्यकार इससे जुड़े हुए थे। उनका साहित्य में बड़ा स्थान नहीं था। प्रयोग धर्मी कविता इससे पूरी तरह अलग थी। अब सोचता हूं तो चकित होना पड़ता है कि आखिर हिंदी की मुख्य धारा 1947 की घटना से पूरी तरह कटी हुई क्यों थी। आजादी के बाद का देश जनाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाया। नई कविता और नई कहानी की दुनिया इस अनुभव से भी कटी रही।
उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल का मानना है कि किसी भी समय साहित्य में कई तरह की धाराएं समानान्तर रूप से चलती रहती हैं। जहां तक हिंदी साहित्य का सवाल है। साहित्य अपना लक्ष्य निर्धारित करके नहीं चलता। परंतु अपने समय के सामाजिक परिस्थितियों को प्रतिबिम्बित जरूर करता है। जो भी साहित्यकर्मी समाज की स्थिति को समझते थे उनके साहित्य में उनका समाज, उनकी समस्याएं प्रतिबिम्बित होती हैं। देश की जो स्थिति थी उसे पूरा करने, उसे बताने, उसे प्रकट करने में साहित्य ने बराबर की भूमिका निभायी है। साहित्य में स्थितियां बराबर से रिफ्लेक्ट हुई हैं। हिंदी के रचानाकारों का एक बड़ा वर्ग रहा है, जो शोषित मजदूरों किसानों का पक्षधर रहा है और साहित्यकारों का यह बड़ा वर्ग तथा उससे जुड़े हुए साहित्यकार बहुत ही स्पष्ट रूप से शोषितों के पक्ष मंे मजबूत साहित्य लिखते रहे हैं। लिख रहे हैं। इस वर्ग के लेखक समाज की परिस्थितियों से दो चार हुए हैं, जिसे उनके साहित्य में देखा जा सकता है। कुल मिलाकर आजादी के बाद का साहित्य की प्रवृत्ति टोन का प्रतिनिधित्व करते हुए देखा और पाया जा सकता है। स्त्री मुक्ति, दलित मुक्ति आर्थिक शोषण से मुक्ति सांप्रदायिकता के खिलाफ जंग आदि मुद्दों पर साहित्य की मुख्यधारा आज भी केंद्रित है और पहले भी थी।
प्रख्यात आलोचक डाॅ. परमानंद श्रीवास्तव की स्मृतियों में आजादी का पहला दिन एक रोमांचक अनुभव की तरह आज भी जिंदा है। वे आठवीं कक्षा के अभ्यर्थी थे, जब बांसगांव जैसी छोटी सी जगह पर आजादी का जश्न मनाया गया था। स्कूली बच्चों के लिए यह आजादी उनके अंग्रेज लाट साहब से मुक्ति का पर्याय था। क्योंकि साहब का दौरा हो या किसी गड़बड़ी की आशंका, उन्हें कभी भी घर भागने का आदेश दे दिया जाता था। सन 42 से 47 के बीच यह सनसनी कुछ ज्यादा ही थी। इस डर, तनाव, आतंक और दहशत के बाद आजादी अद्भुत उल्लास के पर्व की तरह सामने आयी। इस उत्सव के साथ एक दूसरी त्रासदी भी घटित हो रही थी, जिसकी अतिरंजित अफवाहें गांव तक पहुंचती थीं। हालांकि गोरखपुर महंत दिग्विजय नाथ की वजह से हिंदू महासभा का एक बड़ा गढ़ था। लेकिन विभाजन की त्रासदी का यहां कोई असर नहीं था। तबके के हिंदू महासभाइयों का चेहरा आज जैसे नहीं था।
गांधी जी की हत्या के बाद जरूरी राजनीति संदर्भ की तरह सामने आयी। दिग्विजय नाथ के यहां हिंदू मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय थे। आजादी के दौर में श्यामलाल गुप्त पार्षद, माखन लाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चैहान की रचनाओं की गूंज थी। प्रभात फेरियों में इन्हें गाया जाता था। यह अब रेखांकित करने योग्य लगता है। तुरंत सामने आया साहित्य उत्सव का ही साहित्य नहीं था वह संदेह करने वाला और प्रश्न उठाने वाला साहित्य था। आजादी के बाद फैज का दाग-दाग उजाला और यशपाल का झूठ-सच प्रतिनिधि रचनाएं थी। निराला जैसे बड़े कद की शख्सियत ने आजादी के पहले जो भी लिखा हो, बाद की उनकी रचनाएं ट्रेजिक एहसास जगाने वाली रचनाएं हैं। उत्सव का गीत नहीं। मृत्यु के ठीक पहले तो वह संत्रास और मृत्यु की रचनाएं लिख रहे थे और धीरे-धीरे विक्षिप्तता के अंधकार की ओर बढ़ गये। इस विक्षिप्तता के सूक्ष्म कारणों की पहचान होनी चाहिए। आज के दौर में सबकी आजादी का अंधकार लिखने वाली रचनाएं ज्यादा मूल्यवान जान पड़ती हैं और उत्सव की कविताएं रस्मी।
आजादी की घटनाओं पर लिखे गये अपने उपन्यास को लेकर इन दिनों खासे चर्चित साहित्यकार कामतानाथ अमीनाबाद इंटर कालेज लखनऊ में आठवीं जमात के विद्यार्थी थे। उस दिन जहां मिठाइयां मुफ्त बंट रही थीं। खुशी का माहौल था वहीं सांप्रदायिक विभाजन भी चरम पर था। आरएसएस की सक्रियता इतनी बढ़ गयी थी कि ये न जाने कहां से सच्ची और झूठी कुछ ऐसी तस्वीरें लाती थीं, जिनमें स्त्रियों के साथ अत्याचार और हिंसा के दृश्य होते थे। इससे हिंदू भावनाएं भड़काने की कोशिश की जाती थी। हालात कितने सांप्रदायिक था इसका अंदाज इसीसे लगाया जा सकता है कि स्कूलों में बच्चे जयहिंद या तकसीम हिंद कहकर अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे थे। रेडक्लिप रिपोर्ट के बाद जब धर्म की बहुलता के आधार पर शहर, भारत या पाकिस्तान में मिलाये जा रहे थे। तो हिंदू व्यवसायियों की बाहुलता के कारण लोगों को विश्वास था कि लाहौर भारत में मिलेगा, पर हुआ उल्टा। आजाद हिंद फौज के सेनानियों, सहगल, ढिल्लो, शहनवाज पर लाल किले में चल रहे मुकदमें की ओर से सारे देश की आंखें लगी थीं। जिसमें अरसे बाद नेहरू जी स्वयं वकील की हैसियत से पैरवी करने पहुंचे थे।
जहां तक हिंदी साहित्य का सवाल है वह भी अनेक विसंगतियों से भरा हुआ था। यह यही है कि आजादी के लगभग दो दशक पहले यानी 26-27 से ही प्रेमचंद से प्रतिबद्ध लेखन शुरू कर दिया गया था और उनकी रचनाओं में स्त्री जागरण, प्रदर्शन और भूख हड़तालों आदि के विवरण मिलने लगे थे। फिर कई सालों तक हिंदी साहित्य में इस प्रगतिशील चेतना को लेकर सन्नाटा रहा। हिंदी साहित्य की इन दिनों अजीब हालत थी। वह पंत महादेवी, अज्ञेय, इला चंद्र जोशी, जैनेंद्र कुमार, रामकुमार वर्मा आदि के छायावादी और प्रतिबद्ध लेखन से सराबोर था। 51 के आसपास नई कहानी धारा के आने से हालात कुछ सुधरे। मंटो जरूर कुछ पहले से कहानियां लिखकर सांप्रदायिकता से मोर्चा ले रहे थे। इसी समय मोहन राके श का मलबे का मालिक और कमलेश्वर का ‘मुसाफिर’ जैसी रचनाएं आयीं। कुछ समय बाद यशपाल का झूठा सच भी आया। हिंदी साहित्य की तुलना में उर्दू साहित्य अधिक जागरूक था। हिंदी कविता जितनी छायावाद से चिपटी हुई थी। उर्दू शायरी लगभग पूरी तरह प्रांत के रंग में रंग चुकी थी। शाहिर लुधियानवी, फैज, सरदार, जाफरी, जोश मलिहाबादी, कैफी आजमी जैसे तमाम शायर प्रतिबद्धता का परचम उठाए हुए थे।
साहित्यकार सूर्य प्रसाद दीक्षित आजादी के समय रायबरेली में चहर्रुम (कक्षा-4) के विद्यार्थी थे। वे बताते हैं अकस्मात् दोपहर 10-11 बजे के बीच एक हवाई जहाज उड़ता हुआ आया। उसने कुछ पर्चे गिराये। जिसमें लिखा था आज हथकड़ी टूट गयी। नीचे गुलामी छूट गयी। उठो देश कल्याण करो। अब/नव युग का निर्माण करो। (मैथिलीशरण गुप्त)।
मैं इनमंे से कुछ नहीं जानता था। पर भारतमाता नेहरू और गांधी की जय हो रही थी। लड्डू बंट रहे थे। हाईस्कूल में पहुंचने पर राष्ट्रभक्त कवियों से परिचय प्राप्त हुआ। आशु कवि पंडित जगमोहन लाल अवस्थी, मोहन की निकटता मिली। नाटकों में पारसी थियेटर की धूम थी। कथा साहित्य में प्रेमचंद, चतुरसेन शास्त्री सरीखे लोगों की खासी चर्चा थी। गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए थे। इसलिए उनका बोलबाला था। प्रेमचंद की कहानियां भारत, भारती और आल्हा का सामूहिक वाचन होता था। 1960 के बाद साहित्य के क्षेत्र में विघटन दिखायी देने लगा। पाठकीयता का ग्राफ नीचे आ गया। पत्रकारिता बढ़ी लेकिन समाचार के क्षेत्र में हमारे साहित्यकारों ने अपनी धरती का स्वर अलापने के बजाय अमरीका के बिंसबर्ग और यूरोप की इजराफाउंडा की आवाज अपनाना शुरू कर दिया। पाठक की संवेदना का ध्यान नहीं रखा गया और यह लिखा गया कि संप्रेषणीयता लेखन का मुद्दा नहीं है। प्रकाशकों ने जनता के लिए छापना बंद कर दिया। कविता की जगह फिल्मी गीतों ने ले ली।
Next Story